गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो। खिदिससिसायरसरसो कमेण तं कमेण तं सो दु संपत्तो।।५९।।
वह आचार्य किन गुणों से युक्त होना चाहिए ? सो ही कहते हैं—
गाथार्थ — वह आचार्य संग्रह और अनुग्रह में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीत्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त क्रिया और चरित्र में तत्पर और ग्रहण करने योग्य तथा उपादेय वचन बोलने वाला होता है।।१५८।।
आचारवृत्ति — संग्रह और अनुग्रह में क्या अन्तर है ? दीक्षा आदि देकर अपना बनाना संग्रह है और जिन्हें दीक्षा आदि दे चुके हैं ऐसे शिष्यों का शास्त्रादि के द्वारा संस्कार करना अनुग्रह है अर्थात् दीक्षा आदि देकर शिष्यों को संघ में एकत्रित करना संग्रह है और पुनः उन्हें पढ़ा लिखाकर योग्य बनाना अनुग्रह है। इन संग्रह और अनुग्रह के कार्य में जो कुशल हैं, निपुण हैं वे ‘संग्रहानुग्रहकुशल’ कहलाते हैं। जो सूत्र और अर्थ में विशारद हैं, उनको समझाने वाले हैं अथवा उन सूत्र और अर्थ का विस्तार से प्रतिपादन करने वाले हैं व ‘सूत्रार्थविशारद’ कहलाते हैं। जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैल रही है, जो पाँच नमस्कार, छह आवश्यक, आसिका और निषेधिका—इन तेरह प्रकार की क्रियाओं में तथा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र में सम्यव् प्रकार से लगे हुए हैं, आसक्त हैं तथा जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं, अर्थात् उक्त—कथित मात्र को ग्रहण करना ग्राह्य है जैसे कि गुरु ने कुछ कहा तो ‘यह ऐसा ही है’ इस प्रकार के भाव से उन वचनों को ग्रहण करना ग्राह्य है और आदेय प्रमाणीभूत वचन को आदेय कहते हैं। जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं ऐसे उपर्युक्त सभी गुणों से समन्वित ही आचार्य होते हैं। पुनरपि उनमें क्या क्या गुण होते हैं ?—
गाथार्थ —जो गंभीर हैं, दुर्धर्ष है, शूर हैं और धर्म की प्रभावना करने वाले हैं, भूमि, चन्द्र और समुद्र के गुणों के सदृश हैं इन गुण विशिष्ट आचार्य को वह मुनि क्रम से प्राप्त करता है।।१५९।। भगवती आराधना में चार प्रकार से ३६ गुण माने हैं—
गाथार्थ —छत्तीस गुणों के धारण और व्यवहार में कुशल आचार्य को भी अवश्य अन्य मुनि की साक्षी से अपने रत्नत्रय की विशुद्धि—अतिचारों को शोधन करना होता है। आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह प्रकार का तप, पाँच समिति, तीन गुप्ति ये छत्तीस गुण है।।५२७।।
गाथार्थ — आचारवत्त्व आदि आठ गुण, दस प्रकार का स्थितिकल्प, बारह तप, छह आवश्यक ये छत्तीस गुण जानना चाहिए।।५२८ पं. आशाधर जी ने अपनी टीका में छत्तीस गुण और आचारवत्व आदि आठ इस तरह छत्तीस बतलाए हैं। ‘यदि वा’ लिखकर दस आलोचना गुण, दस प्रायश्चित्त गुण, दस स्थितिकल्प, छह जीतगुण इस तरह छत्तीस गुण बतलाकर लिखा है। कवि बुधजन कृत—
अनगारधर्मामृत मूल पृ. ६७०, हिन्दी टीका-पृ. १०३-१०४।
भवन्ति । के ? गुणाः। कति ? षट्त्रिंशत्। कस्य ? गणेः। ‘‘अनूचानः प्रवचने साङ्गेधीती गणिश्च स’’ इति वचनाद्गणिरिव गणिराचार्यः, साङ्गप्रवचनाधीतित्वात्। गुरोरिति वा पाठः। के के भवन्ति तावद्गुणाः ? किंविशिष्ट ? आचारवत्त्वाद्याः। कति ? अष्टौ। आचारा अस्य सन्तीत्याचारवान्। तस्य भाव आचारवत्त्वम्। तदाद्यं येषामाधारवत्त्वादीनां त एवम्। तथा भवन्ति गुणाः। कानि ? तपांसि । कति ? द्वादश। तथा भवन्ति गुणाः। के ? कल्पा विशेषाः। कस्याः ? स्थिते-र्निष्टासौष्ठवस्य। कति ? दश। तथा भवन्ति। के ? गुणाः। कानि ? आवश्यकानि। कति ? षट्। एवं समुदिताः षटत्रिंशद्भवन्ति।
आचार्यपदकी योग्यता सिद्ध करने वाले छत्तीस गुण कौन से हैं सो बताते हैं—जो अङ्गसहित प्रवचन का मौनपूर्वक अध्ययन करता है उसको गणी कहते हैं। आचार्य भी अङ्गसहित प्रवचन के अध्येता हुआ करते हैं, अतएव उनको भी गणी कहते हैं। यहां पर ‘‘गणेः’’ इसकी जगह ‘‘गुरोः’’ ऐसा भी पाठ माना है। अर्थात् आचार्य-गणी-गुरु के छत्तीस विशेष गुण हैं। यथा—आचारवत्त्व, आधारवत्त्व आदि आठ गुण, और छह अन्तरङ्ग तथा छह बहिरङ्ग मिलाकर बारह प्रकार का तप तथा संयम के अन्दर निष्ठा के सौष्ठव—उत्तमता की विशिष्टता को प्रकट करने वाले आचेलक्य आदि दश प्रकार के गुण-जिनको कि स्थितिकल्प कहते है, और सामायिकादि पूर्वोक्त छह प्रकार के आवश्यक।
भावार्थ —आचारवत्वादि आठ, बारह तप, स्थितिकल्प दश और छह आवश्यक; इस प्रकार कुल मिलकर आचार्य के छत्तीस गुण माने हैं। ‘दिगम्बर मुनि’ पुस्तक में—आचार्य के ३६ गुण— आचारवत्व आदि ८, १२ तप, १० स्थितिकल्प और ६ आवश्यक ये छत्तीस गुण होते हैं।दिगम्बर मुनि पृ. ९२।
बालविकास भाग ४ में आचार्य के ३६ मूलगुणों का वर्णन— आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप जो पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे मुनियों से कराते हैं, मुनि संघ के अधिपति हैं और शिष्यों को दीक्षा व प्रायश्चित्त आदि देते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी हैं। इनके ३६ मूलगुण होते हैं।
१२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ये आचार्य के ३६ मूलगुण हैं। उत्तर गुण अनेक हैं। तप के नाम-
अनशन ऊनोदर करें, व्रत संख्या रस छोर। विविक्त शयन आसन धरें, काय कलेश सुठोर।। प्रायश्चित्त धर विनयजुत, वैयावृत स्वाध्याय। पुनि उत्सर्ग विचारि के, धरैं ध्यान मन लाय।।
अनशन (उपवास), ऊनोदर (भूख से कम खाना), व्रतपरिसंख्यान (आहार के समय अटपटा नियम), रसपरित्याग (नमक आदि रस त्याग), विविक्त शय्यासन (एकांत स्थान में सोना, बैठना), कायक्लेश (शरीर से गर्मी, सर्दी आदि सहन करना) ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त (दोष लगने पर दण्ड लेना), विनय (विनय करना), वैयावृत्य (रोगी आदि साधु की सेवा करना), स्वाध्याय (शास्त्र पढ़ना) व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व छोड़ना) और ध्यान (एकाग्र होकर आत्मचिन्तन करना) ये छह अंतरंग तप हैं।
दस धर्म-छिमा मारदव आरजव, सत्य वचन चित पाग। संजम तप त्यागी सरब, आकिंचन तिय त्याग।
।उत्तम क्षमा – क्रोध नहीं करना, मार्दव-मान नहीं करना, आर्जव-कपट नहीं करना, सत्य-झूठ नहीं बोलना, शौच-लोभ नहीं करना, संयम-छह काय के जीवों की दया पालना, पाँच इन्द्रिय और मन को वश करना, तप-बारह प्रकार के तप करना, त्याग-चार प्रकार का दान देना, आकिंचन्य-परिग्रह का त्याग करना और ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र का त्याग करना। आचार तथा गुप्ति-
दर्शन ज्ञान चरित्र तप, वीरज पंचाचार। गोपें मन वच काय को, गिन छत्तिस गुणसार।।
दर्शनाचार –दोषरहित सम्यग्दर्शन, ज्ञानाचार-दोषरहित सम्यग्ज्ञान, चारित्राचार-निर्दोषचारित्र, तपाचार-निर्दोष तपश्चरण और वीर्याचार-अपने आत्मबल को प्रगट करना ये पाँच आचार हैं।
मनोगुप्ति –मन को वश में करना, वचनगुप्ति-वचन को वश में करना और कायगुप्ति-काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं।
समता –समस्त जीवों पर समता भाव और त्रिकाल सामायिक, वंदना-किसी एक तीर्थंकर को नमस्कार, स्तुति-चौबीस तीर्थंकर की स्तुति, प्रतिक्रमण-लगे हुए दोषों को दूर करना, स्वाध्याय-शास्त्रों को पढ़ना और कायोत्सर्ग-शरीर से ममत्व छोड़ना और ध्यान करना ये छह आवश्यक हैं। (मूलाचार आदि में स्वाध्याय की जगह ‘प्रत्याख्यान’ नामक क्रिया है, जिसका अर्थ है कि आगे होने वाले दोषों का, आहार-पानी आदि का त्याग करना) यहाँ तक आचार्य के ३६ मूलगुण हुए।