आदिपुराण में पूजा ४ प्रकार की बताई है—
कुलधर्मोऽयमित्येषामर्हत्पूजादिवर्णनम्। तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात्आदिपुराण भाग-२ पर्व-३८ पृ. २४२, श्लोक २५ से ३५ तक।।।२५।। प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्राष्टाह्निकोऽपि च।।२६।। तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानाऽर्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका।।२७।। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्।।२८।। या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथा शक्त्युपकल्पितः।।२९।। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि।।३०।। दत्वा किमिच्छवं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवत्र्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः।।३१।। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुराजैः कृतो महः।।३२।। बलिस्नपनमित्यन्यस्रिसंन्ध्यासेवया समम्। उत्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यञ्च तादृशम्।।३३।। एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम्। विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम्।।३४।।वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः। चतुर्धा वर्णिता दत्तिर्दयापात्रसमान्वयैः।।३५।।
यह इनका कुलधर्म है ऐसा विचार कर राजर्षि भरत ने उस समय अनुक्रम से अर्हत्पूजा आदि का वर्णन किया।।२५।। वे कहने लगे कि अर्हन्त भगवान् की पूजा नित्य करनी चाहिए, वह पूजा चार प्रकार की है—सदार्चन, चतुर्मुख, कल्पद्रुम और आष्टाह्निक।।२६।। इन चारों पूजाओं में से प्रतिदिन अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत इत्यादि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है।।२७।। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्तदेव की प्रतिमा और मन्दिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान देना भी सदार्चन (नित्यमह) कहलाता है।।२८।। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्य दान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है उसे भी नित्यमह समझना चाहिए।।२९।। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है।।३०।। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक (मुँहमाँगा) दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के समस्त जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है।
भावार्थ — जस यज्ञ में कल्पवृक्ष के समान सबकी इच्छाएँ पूर्ण की जावें उसे कल्पद्रुम यज्ञ कहते हैं, यह यज्ञ चक्रवर्ती ही कर सकते हैं।।३१।। चौथा आष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इन्द्र किया करता है।।३२।। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीनों सन्ध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे सब उन्हीं भेदों में अन्तर्भूत हैं।।३३।। इस प्रकार की विधि से जो जिनेन्द्रदेव की महापूजा की जाती है उसे विधि के जानने वाले आचार्य इज्या नामकी प्रथम वृत्ति कहते हैं।।३४।। विशुद्ध आचारणपूर्वक खेती आदि का करना वार्ता कहलाती है तथा दयादत्ति, पात्रदति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ये चार प्रकार की दत्ति कही गयी है।।३५।। ‘जैनभारती’ ग्रन्थ में श्रावकों के पूजा के ५ भेदों का वर्णन—जैनभारती पृ. १०६।
गृहस्थों के छह आर्यकर्म होते हैं – इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप।
इज्या – अरहंत भगवान् की पूजा को इज्या कहते हैं।
इज्या के पाँच भेद हैं – नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, आष्टान्हिक और ऐन्द्रध्वज।
नित्यमह – प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर अर्हंत की पूजा करना, जिनभवन, जिनप्रतिमा का निर्माण कराना, मुनियों की पूजा करना आदि।
चतुर्मुख – मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो पूजा की जाती है, उसे चतुर्मुख कहते हैं। इसी को ही महाभद्र और सर्वतोभद्र भी कहते हैं।
कल्पवृक्ष – समस्त याचकों को किमिच्छिक-इच्छानुसार दान देकर चक्रवर्ती द्वारा जो पूजा की जाती है, उसे कल्पवृक्ष कहते हैं।
आष्टान्हिक – नन्दीश्वर पर्व के दिनों की पूजा को आष्टान्हिक पूजा कहते हैं।
ऐन्द्रध्वज – इन्द्र, प्रतीन्द्र आदि के द्वारा की गई पूजा ऐन्द्रध्वज कहलाती है। शास्त्रसारसमुच्चय में पूजा के दश भेद बताए हैंशास्त्रसार समुच्चय पृ. २१५-२१६। यथा- देव-इन्द्रों द्वारा की जाने वाली अर्हंत की पूजा ‘महाभद्र’ है। इन्द्रों द्वारा की जाने वाली पूजा ‘इन्द्रध्वज’ है। चारों प्रकार के देवों द्वारा की जाने वाली पूजा ‘सर्वतोभद्र’ है। चक्रवर्ती द्वारा की जाने वाली पूजा ‘चतुर्मुख’ है। विद्याधरों द्वारा की जाने वाली पूजा ‘रथावर्तन’ है। महामण्डलीक राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा ‘इन्द्रकेतु’ है। मण्डलेश्वर राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा ‘महापूजा’ है। अर्धमण्डलेश्वर राजाओं द्वारा होने वाली पूजा ‘महामहिम’ है। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर कार्तिक, फाल्गुन, आषाढ़ में इन्द्रों द्वारा होने वाली पूजा ‘आष्टान्हिक’ है। # स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर अष्टद्रव्य से प्रतिदिन मंदिर में जिनपूजा करना ‘दैनिक पूजा’ है। मंदिर निर्माण, प्रतिष्ठा कराना, जीर्णोद्धार, मंदिर के लिए जमीन आदि का दान, पूजा के उपकरण आदि देना, सब दैनिक पूजा में सम्मिलित हैं और भी पूजन के बहुत से विशेष भेद होते हैं। उमास्वामी श्रावकाचार में श्री उमास्वामी आचार्य ने लिखा है कि पूजा २१ प्रकार से भी की जाती है—
स्नानैर्विलेपनविभूषणपुष्पवास, धूपंप्रदीपफलतंदुलपत्रपूगैः। नैवेद्यवारिवसतैश्चमरातपत्र, वादित्रगीतनटस्वास्तिककोशवृध्याउमास्वामीश्रावकाचार पृ. ५४, श्लोक १३६, १३७।।।१३६।। इत्येकिंवशतिविधाजिनराजपूजा, यद्यत्प्रियं तदिह भाववशेन योज्यम्। द्रव्याणि वर्षाणि तथा हि कालाः, भावा सदा नैव समा भवन्ति।।१३७।।
अर्थ — भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा इक्कीस प्रकार से की जाती है। आगे उन्हीं को बतलाते हैं। पञ्चामृताभिषेक करना। चरणों पर चन्दन लगाना। जिनालय को सुशोभित करना। भगवान् के चरणों पर पुष्प चढ़ाना। वास पूजा करना। धूप से पूजा करना। दीपक से पूजा करना। अक्षतों से पूजा करना। तांबूल पत्र से पूजा करना। सुपारियों से पूजा करना। नैवेद्य से पूजा करना। जल से पूजा करना। फलों से पूजा करना। शास्त्र पूजा में वस्त्र से पूजा करना। चमर ढुलाना। छत्र फिराना। बाजे बजाना। भगवान् की स्तुति को गाकर करना। भगवान् के सामने नृत्य करना। सांथिया करना। और भण्डार में द्रव्य देना। इस प्रकार इक्कीस प्रकार की विधि से भगवान् की पूजा की जाती है। अथवा जिसको जो पसन्द हो उसी से भावपूर्वक भगवान् की पूजा करनी चाहिये। जैसे किसी को सितार बजाना पसन्द है तो उसको भगवान् के सामने ही सितार बजाना चाहिये। इसका भी कारण यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल अैर भाव ये सबके सदा समान नहीं रहते इसीलिये अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार भगवान् की पूजा सदा करते रहना चाहिये। बिना पूजा के अपना कोई समय व्यतीत नहीं करना चाहिये।