समयसार ग्रंथ में कहीं-कहीं गाथा में पाठ भेद-अन्तर होने से टीकाकार आचार्यों ने दोनों पाठ रखकर दोनों के अर्थ कर दिए हैं। किसी एक पाठ को प्रमाण और दूसरे को अप्रमाण नहीं माना है। उदाहरण में देखिए—
गाथा—१ श्री जयसेनाचार्य की टीका के अंश। वंदित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवामचलामनौपम्यां गतिं प्राप्तान्। वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो श्रुतकेवलि भणितम्।।१।।
अन्वयार्थ –मैं (ध्रुवां अचलां अनुपमां गतिं प्राप्तान्) ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त हुए (सर्वसिद्धान् वंदित्वा) सर्वसिद्धों की वंदना करके (अहो) हे भव्यों! (श्रुतकेवलिभणितं) श्रुतकेवलियों के द्वारा कथित (इदं समयप्राभृतं वक्ष्यामि) इस समयसार नामक प्राभृत ग्रंथ को कहूँगा।।१।।
तात्पर्यवृत्ति – अब ‘वंदित्तु’ इत्यादि पदच्छेदरूप से व्याख्यान किया जाता है। निश्चयनय से अपने में ही आराध्य-आराधक भावरूप जो निर्विकल्प समाधि है, उस लक्षणरूप भाव नमस्कार के द्वारा और व्यवहारनय से वचनरूप द्रव्य नमस्कार के द्वारा वंदना करके। किनकी वंदना करके? स्वात्मा की उपलब्धिरूप जो सिद्धि है उस लक्षण वाले सर्व सिद्धों की वंदना करके। वे सिद्ध कैसे हैं ? जो सिद्धगति को-सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। वह सिद्ध गति कैसी है ? टांकी से उकेरे हुए के समान ज्ञायक एकस्वभावरूप से वह ध्रुव अर्थात् अविनश्वर है। (भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्मरूप मल से रहित होने से तथा शुद्ध स्वभाव से सहित होने से वह अमल-निर्मल है। अथवा ‘अचलं’ ऐसा भिन्न पाठ मानने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पाँच प्रकार के संसार के भ्रमण से रहित होने से और स्वस्वरूप में निश्चल होने से वह गति चलन रहित अचल है। संपूर्ण उपमाओं से रहित होने से निरुपम है और स्वभाव से सहित होने से अनुपम है। ऐसी सिद्ध अवस्था को जो प्राप्त हुए हैं।) इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध से नमस्कार करके गाथा के उत्तरार्ध से संबंध, अभिधेय और प्रयोजन की सूचना के लिए प्रतिज्ञा करते हैं-मैं कहूँगा। क्या ? समयप्राभृत ग्रंथ को, सम्यक्-समीचीन, अय-बोधज्ञान है जिसके वह समय अर्थात् आत्मा। अथवा सम-एकीभाव से, अयन-गमन करना-प्राप्त करना सो समय है। यह ‘समय’ शब्द का अर्थ हुआ। प्राभृत-सार। सार-शुद्धावस्था। इस प्रकार समय अर्थात् आत्मा की प्राभृत अर्थात् शुद्ध अवस्था को समयप्राभृत कहते हैं। अथवा समय ही प्राभृत अर्थात् आत्मा ही शुद्ध अवस्थारूप है। हे भव्यों! इस प्रत्यक्षीभूत अर्थात् प्रत्यक्ष में विद्यमान इस समय प्राभृत आत्मा की शुद्धावस्था या शुद्धात्मा को मैं कहूँगा। यह समयप्राभृत कैसा है ? श्रुत अर्थात् परमागम में केवली अर्थात् सर्वज्ञ देवों के द्वारा कहा गया है। अथवा श्रुतकेवलियों के द्वारा अर्थात् गणधर देवों के द्वारा कथित है।