५.१ कर्म-भूमि के प्रारंभ में आर्य पुरुषों को कुल या कुटुम्ब की भांति इकट्ठे रहकर जीने का उपदेश देने वाले महापुरुष कुलकर कहलाते हैं। प्रजा के जीवन-यापन के उपाय जानने के कारण ये मनु भी कहलाते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी काल के तीसरे काल के अंत होने में जब १/८ पल्य शेष रह जाता है तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ हो जाती है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के दूसरे काल के अंत में ये उत्पन्न होते हैं। इनमें से किसी को जाति स्मरण या किसी को अवधिज्ञान होता है।
कुलकरों की उत्पत्ति (Origin of Patriarchs)-इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का तृतीय काल चल रहा था। इनमें आयु, अवगाहना, ऋद्धि, बल और तेज घटते-घटते जब इस तृतीय काल में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाता है तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ होती है।
प्रथम कुलकर का नाम ‘प्रतिश्रुति’ और उनकी देवी का नाम स्वयंप्रभा था। उनके शरीर की ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष और आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण थी। उस समय आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सायंकाल में भोगभूमियों को पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलाई पड़ा। ‘यह कोई आकस्मिक उत्पात है’ ऐसा समझकर वे लोग भय से व्याकुल हो गये। उस समय वहाँ पर ‘प्रतिश्रुति’ कुलकर सबमें अधिक तेजस्वी और प्रजाजनों के हितकारी तथा जन्मांतर के संस्कार से अवधिज्ञान को धारण किये हुए सभी में उत्कृष्ट बुद्धिमान गिने जाते थे। उन्होंने कहा-हे भद्र पुरुषों! तुम्हें जो ये दिख रहे हैं वे सूर्य-चन्द्र नाम के ग्रह हैं, कालवश अब ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों की किरण समूह मंद पड़ गई हैं अतः इस समय ये दिखने लगे हैं, ये हमेशा ही आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं, अभी तक ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से इनकी प्रभा तिरोहित होने से ये नहीं दिखते थे अतः तुम इनसे भयभीत मत होवो। प्रतिश्रुति के वचनों से उन लोगों को आश्वासन प्राप्त हुआ और उन लोगों ने उनके चरण कमलों की पूजा तथा स्तुति की।
प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्ग जाने के पश्चात् पल्य के अस्सीवें भाग अंतराल के व्यतीत हो जाने पर सुवर्ण सदृश कान्ति वाले ‘सन्मति’ नामक द्वितीय कुलकर उत्पन्न हुए। इनके शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष एवं आयु ‘अमम’ के बराबर संख्यात वर्षों की थी। उस समय ज्योतिरंग कल्पवृक्ष नष्टप्रायः हो गये और सूर्य के अस्त होने पर अंधकार तथा तारागणों को देखकर ‘ये अत्यन्त भयानक/अदृष्टपूर्व उत्पात प्रकट हुए हैं’ इस प्रकार सभी मनुष्य व्याकुल होकर कुलकर के निकट आये। तब सन्मति कुलकर ने कहा कि कालवश ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की किरणें सर्वथा प्रणष्ट हो जाने से इस समय आकाश में अंधकार और ताराओं का समूह दिख रहा है। तुम लोगों को इनकी ओर से भय का कोई कारण नहीं है। ये तो सदा ही रहते थे किन्तु कल्पवृक्षों की किरणों से प्रकट नहीं दिखते थे। ये ग्रह, तारा और नक्षत्र तथा सूर्य-चन्द्रमा जम्बूद्वीप में नित्य ही सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। तब कुलकर के वचनों से वे सब निर्भय हो गये और उनकी पूजा करके स्तुति करने लगे।
इन कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर इस भरत क्षेत्र में तीसरे कुलकर उत्पन्न हुए। इनका नाम ‘क्षेमंकर’ था, शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष और आयु ‘अटट’ प्रमाण वर्षों बराबर थी, वर्ण सुवर्ण सदृश और सुनंदा नामक महादेवी थी। उस समय व्याघ्र आदि तिर्यंच जीव क्रूरता को प्राप्त हो गये थे, तब भोगभूमिज मनुष्य उनसे भयभीत होकर क्षेमंकर मनु के पास पहुँचे और बोले-हे देव! ये सिंह, व्याघ्रादि पशु बहुत शान्त थे, जिन्हें हम लोग अपनी गोद में बिठाकर अपने हाथ से खिलाते थे, वे पशु आज हम लोगों को बिना किसी कारण ही सींगों से मारना चाहते हैं, मुख फाड़कर डरा रहे हैं हम क्या करें? तब कुलकर बोले-हे भद्र पुरुषों! अब तुम्हें इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए, इनकी संगति छोड़ देना चाहिए, ये कालदोष से विकार को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार से क्षेमंकर कुलकर के वचनों से उन लोगों ने सींग और दाढ़ वाले पशुओं का संसर्ग छोड़ दिया, केवल निरुपद्रवी गाय, भैंस आदि से संसर्ग रखने लगे।
इनकी आयु पूर्ण होने के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर सज्जनों में अग्रसर ऐसे ‘क्षेमंधर’ नामक चौथे कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘तुटिक’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनका वर्ण स्वर्ण के सदृश और इनकी देवी का नाम विमला था। उस समय क्रूरता को प्राप्त हुए सिंहादि मनुष्यों के मांस को खाने लगे, तब सिंहादि के भय से भयभीत हुए भोगभूमिजों को क्षेमंधर मनु ने उनसे सुरक्षित करने के लिए दण्डादि रखने का उपदेश दिया।
इनके अनंतर असंख्यात करोड़ वर्षों के बीत जाने पर प्रजा के पुण्योदय से ‘सीमंकर’ नाम के पांचवें कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कमल’ प्रमाण वर्षों की एवं शरीर की ऊँचाई सात सौ पचास धनुष की थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश एवं ‘मनोहरी’ नाम की प्रसिद्ध देवी थी। इनके समय कल्पवृक्ष अल्प हो गये और फल भी अल्प देने लगे थे, इस कारण मनुष्यों में अत्यन्त क्षोभ होने लगा था। परस्पर में इन भोगभूमिजों के विसंवाद को देखकर सीमंकर मनु ने कल्पवृक्षों की सीमा नियत करके परस्पर संघर्ष को रोक दिया।
उपर्युक्त प्रतिश्रुति आदि पाँच कुलकरों ने उन भोगभूमिजों के अपराध में ‘हा’/हाय! बुरा कार्य किया, ऐसी दण्ड की व्यवस्था की थी, बस! इतना कहने मात्र से ही प्रजा आगे अपराध नहीं करती थी।
पाँचवें कुलकर के स्वर्ग गमन के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल व्यतीत हो जाने पर ‘सीमंधर’ नामक छठे कुलकर उत्पन्न हुए। ये ‘नलिन’ प्रमाण वर्षों की आयु के धारक और सात सौ पच्चीस धनुष ऊँचे थे, इनकी देवी का नाम ‘यशोधरा’ था। इनके समय में कल्पवृक्ष अत्यन्त थोड़े रह गये और फल भी बहुत कम देने लगे इसीलिए मनुष्यों के बीच नित्य ही कलह होने लगा, तब इन कुलकर ने कल्पवृक्षों की सीमाओं को अन्य अनेक वृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर दिया।
इनके बाद फिर असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘विमलवाहन’ नामक सातवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्म’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ धनुष प्रमाण थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश और ‘सुमति’ नाम की महादेवी थी। इस समय गमनागमन से पीड़ा को प्राप्त हुए भोगभूमिज मनुष्य इन कुलकर के उपदेश से हाथी, घोड़े आदि पर सवारी करने लगे और अंकुश, पलान आदि से उन पर नियंत्रण करने लगे।
सातवें कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘चक्षुष्मान्’ नामक आठवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्मांग’ प्रमाण और ऊँचाई छह सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनकी देवी का नाम ‘धारिणी’ था। इनके समय से पहले के मनुष्य अपनी संतान का मुख नहीं देख पाते थे, उत्पन्न होते ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी परन्तु अब वे क्षणभर पुत्र का मुुख देखकर मरने लगे, उनके लिए यह नई बात थी अतएव भयभीत हुए ‘चक्षुष्मान्’ कुलकर के पास आये, तब इन्होंने उपदेश दिया कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं, इनके पूर्ण चन्द्र के समान सुन्दर मुख को देखो। इस प्रकार मनु के उपदेश से स्पष्टरूप से अपने बालकों के मुख को देखकर वे भोगभूमिज तत्काल ही आयु से रहित होकर विलीन हो जाते थे।
आठवें कुलकर के स्वर्गगमन के पश्चात् करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत होने पर ‘यशस्वान्’ नाम के नौवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘कुमुद’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पचास धनुष की थी, इनके ‘कांतिमाला’ नाम की देवी थी। उस समय ये कुलकर प्रजा को अपनी संतान के नामकरण के उत्सव का उपदेश देते थे। तब भोगभूमिज नामकरण करके आशीर्वाद देकर थोड़े समय रहकर आयु के क्षीण होने पर विलीन हो जाते थे।
नवम कुलकर के स्वर्गस्थ होने पर करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत कर दशवें ‘अभिचन्द्र’ नाम के कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कुमुदांग’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पच्चीस धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘श्रीमती’ था। ये बालकों के रुदन को रोकने के निमित्त उपदेश देते थे कि तुम लोग इन्हें रात्रि में चन्द्रमा को दिखाकर क्रीड़ा करावो और बोलना सिखाओ, यत्नपूर्वक इनकी रक्षा करो। इनके उपदेश से भोगभूमिज अपनी सन्तानों के साथ वैसा ही व्यवहार करके आयु के अन्त में विलीन होते थे।
सीमंकर आदि पाँच कुलकर क्षोभ से आक्रांत उन युगलों के शिक्षण के निमित्त दण्ड के लिए ‘हा’/हाय! बुरा किया। ‘मा’/अब ऐसा मत करना, ऐसे खेद प्रकाशक और निषेधसूचक दो शब्दों का उपयोग करते हैं और इतने मात्र से ही प्रजा अपराध छोड़ देती है।
अभिचन्द्र कुलकर के स्वर्गारोहण के पश्चात् उतना ही अन्तराल व्यतीत होने के बाद ‘चन्द्राभ’ नाम के ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुत’ प्रमाण वर्षों की और शरीर की अवगाहना छह सौ धनुष प्रमाण थी। इनकी देवी का नाम ‘प्रभावती’ था। इनके समय में अतिशीत, तुषार और अतिवायु चलने लगी थी, शीत वायु से अत्यन्त दुःख पाकर वे भोगभूमिज मनुष्य तुषार से ढके हुए चन्द्र आदि ज्योति समूह को नहीं देख पाते थे। इस कारण इनके भय को दूर करते हुए चन्द्राभ कुलकर ने उपदेश दिया कि भोगभूमि की हानि होने पर अब कर्मभूमि निकट आ गई है। काल के विकार से यह स्वभाव प्रवृत्त हुआ है, अब यह तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होगा, यह सुनकर प्रजाजन सूर्य की किरणों से शैत्य-ठण्डी को नष्ट करते हुए कुछ दिनों तक अपनी सन्तान के साथ जीवित रहने लगे।
चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद अपने योग्य अन्तर को व्यतीत कर ‘मरुदेव’ नामक बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुतांग’ वर्ष प्रमाण और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘सत्या’ था। इनके समय में बिजली युक्त मेघ गरजते हुए बरसने लगे। उस समय पूर्व में कभी नहीं देखी गई कीचड़ युक्त जलप्रवाह वाली नदियों को देखकर अत्यन्त भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को मरुदेव कुलकर काल के विभाग को बतलाते हैं अर्थात् काल के विकार से अब कर्मभूमि तुम्हारे निकट है। अब तुम लोग नदियों में नौका डालकर इन्हें पार करो, पहाड़ों पर सीढ़ियों को बनाकर च़ढो और वर्षा काल में छत्रादि को धारण करो। उन कुलकर के उपदेश से सभी जन नदियों को पारकर, पहाड़ों पर चढ़कर और वर्षा का निवारण करते हुए पुत्र-कलत्र (स्त्री) के साथ जीवित रहने लगे।
(‘‘पहले यहाँ युगल संतान उत्पन्न होती थी परन्तु इसके आगे युगल सन्तान की उत्पत्ति को दूर करने की इच्छा से ही मानों मरुदेव ने ‘प्रसेनजित्’ नाम के पुत्र को उत्पन्न किया था। इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था परन्तु प्रसेनजित् का शरीर पसीने के कणों से सुशोभित हो उठता था। वीर मरुदेव कुलकर ने अपने पुत्र प्रसेनजित् का विवाह-विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या से विवाह कराया था। अन्त में मरुदेव पल्य के करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग चले गये। तदनन्तर ये ‘प्रसेनजित्’ तेरहवें कुलकर कहलाये और इन्होंने ‘एक करोड़ पूर्व’ की आयु वाले, जन्म काल में बालकों के नाल काटने की व्यवस्था करने वाले ‘नाभिराज’ नामक चौदहवें कुलकर को उत्पन्न किया था और स्वयं पल्य के दस लाख करोड़वें भाग जीवित रहकर स्वर्गस्थ हो गये थे।’’)
इन बारहवें कुलकर के स्वर्गस्थ होने के बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी, तब प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु एक ‘पर्व’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचास धनुष की थी। इनके ‘अभिमती’ नाम की देवी थी। इनके समय में बालकों का जन्म जरायु पटल में वेष्टित होने लगा था। ‘यह क्या है’ इस प्रकार के भय से संयुक्त मनुष्यों को इन कुलकर ने जरायु पटल को दूर करने का उपदेश दिया था। उनके उपदेश से सभी भोगभूमिज प्रयत्नपूर्वक उन शिशुओं की रक्षा करने लगे थे।
इनके बाद ही ‘नाभिराज’ नाम के चौदहवें कुलकर उत्पन्न हुए थे। इनकी आयु ‘एक करोड़ पूर्व’ वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष की थी, इनकी ‘मरुदेवी’ नाम की पत्नी थी। इनके समय बालकों का नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा था, इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं और वे भोगभूमिज मनुष्य वैसा ही करते हैं। उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, बादल गरजने लगे, मेघ बरसने लगे, पृथ्वी पर स्वभाव से ही उत्पन्न हुए अनेकों वनस्पतियाँ-वनस्पतिकायिक, धान्य आदि दिखलाई देने लगे। धीरे-धीरे बिना बोये ही धान्य सब ओर पैदा हो गये। उनके उपयोग को न समझती हुई प्रजा कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से अत्यन्त क्षुधा वेदना से व्याकुल हुई नाभिराज कुलकर की शरण में आकर बोली-हे देव! मन-वांछित फल को देने वाले कल्पवृक्षों के बिना हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार से जीवित रहें? जो ये वृक्ष, शाखा, अंकुर, फल आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें कौन तो खाने योग्य हैं और कौन नहीं है? इनका क्या उपयोग है, यह सब हमें बतलाइये। इस प्रकार के दीन वचनों को सुनकर नाभिराज बोले-हे भद्र पुरुषों! ये वृक्ष तुम्हारे योग्य हैं और ये विषवृक्ष छोड़ने योग्य हैं। तुम लोग इन धान्यों को खाओ, गाय का दूध निकालकर पीयो। ये इक्षु के पेड़ हैं, इन्हें दाँतों से या यंत्रों से पेल कर इनका रस पियो। इस प्रकार से महाराजा नाभिराज ने मनुष्यों की आजीविका के अनेकों उपायों को बताकर उन्हें सुखी किया और हाथी के गंडस्थल पर मिट्टी की थाली आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाकर उन पुरुषों को दिये और बनाने का उपदेश भी दिया। उस समय वहाँ कल्पवृक्षों की समाप्ति हो चुकी थी, प्रजा का हित करने वाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे।
क्र.सं. | नाम | देवी | उत्सेध (शरीर की अवगाहना) | शिक्षा विषय |
१ . | प्रतिश्रुति | स्वयंप्रभा | १८०० ध. | चन्द्र सूर्योदय से भय मिटाना |
२ . | सन्मति | यशस्वती | १३०० ध. | अंधकार व तारागण से भय हटाना |
३ . | क्षेमंकर | सुनन्दा | ८०० ध. | व्याघ्रादि हिंस्र जन्तु की संगति त्याग |
४ . | क्षेमंधर | विमला | ७७५ ध. | सिंहादि से रक्षण के उपाय |
५ . | सीमंकर | मनोहरी | ७५० ध. | कल्पवृक्ष-सीमा |
६ . | सीमंधर | यशोधरा | ७२५ ध. | तरु गुच्छादि चिन्हित सीमा |
७ . | विमलवाहन | सुमती | ७०० ध. | हाथी आदि की सवारी आदि का उपदेश |
८ . | चक्षुष्मान् | धारिणी | ६७५ ध. | बालक-मुखदर्शन |
९ . | यशस्वी | कान्तमाला | ६५० ध. | बालक-नामकरण |
१० . | अभिचन्द्र | श्रीमती | ६२५ ध. | शिशुरोदन निवारण चन्द्र आदि दिखाना |
११ . | चन्द्राभ | प्रभावती | ६०० ध. | शैत्यादि रक्षणोपाय |
१२ . | मरुदेव | सत्या | ५७५ ध. | नावादि द्वारा गमन |
१३ . | प्रसेनजित् | अमितमती | ५५० ध. | जरायु पटलापहरण |
१४ . | नाभिराज | मरुदेवी | ५२५ ध. | नाभिनालकर्तन |
प्रतिश्रुति आदि को लेकर नाभिराजपर्यंत ये सब चौदह कुलकर अपने पूर्व भव में विदेह क्षेत्र में महाकुल में राजकुमार थे, उन्होंने उस भव में पुण्य बढ़ाने वाले पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरणरूपी अनुष्ठानों के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले ही भोगभूमि की मनुष्य आयु बाँध ली थी, बाद में श्री जिनेन्द्र देव के समीप रहने से क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसके फलस्वरूप आयु के अंत में मरकर वे इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। इन चौदह कुलकरों में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मरण था और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे इसलिए उन्होंने विचार कर प्रजा के लिए ऊपर कहे हुए कार्यों का उपदेश दिया था। ये प्रजा के जीवन को जानने से ‘मनु’ तथा आर्य पुरुषों को कुल की तरह इकट्ठे रहने का उपदेश देने से ‘कुलकर’, अनेकों वंशों को स्थापित करने से ‘कुलंधर’ तथा युग की आदि में होने से ‘युगादि पुरुष’ भी कहे गये थे।
अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराज की महारानी मरुदेवी से भगवान् वृषभदेव का जन्म हुआ था। ये ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर भी थे और पन्द्रहवें कुलकर भी माने गये थे। इसी प्रकार ऋषभदेव की रानी यशस्वती ने भरत को जन्म दिया था। ये भरत महाराज चक्रवर्ती भी थे और सोलहवें कुलकर भी कहलाते थे। इस तरह ये सोलह कुलकर भी माने जाते थे।
इन कुलकरों की दण्ड व्यवस्था (Penology of these Patriarchs)- ग्यारहवें से लेकर शेष कुलकरों ने ‘हा’ ‘मा’ और ‘धिक्’ इन तीन दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् ‘खेद है’, अब ‘ऐसा नहीं करना’, तुम्हें ‘धिक्कार’ है जो रोकने पर भी अपराध करते हो।
भरतचक्री का दण्ड (Penology of Bharat Chakravartee)- भरत चक्रवर्ती के समय लोग अधिक दोष या अपराध करने लगे थे इसलिए उन्होंने वध, बन्धन आदि शारीरिक दण्ड देने की रीति भी चलाई थी।