अनादि काल से इस चतुर्गत्यात्मक भव समुद्र में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव जन्म मरण और जरारूप संतापत्रय से संतापित होता हुआ अनंत असह्य दु:खों का अनुभव करके मृगमरीचिका जलवत् प्रतिभासमान पंचेन्द्रिय के विषयों में अनुरक्त होता हुआ तृष्णातुर मृग के समान इतस्तत: दौड़ता हुआ (परिभ्रमण करता हुआ) मरण को प्राप्त हो जाता है। संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए इस जीव को समुद्र में खोये हुये रत्न के समान मानव जन्म की प्राप्ति दुर्लभ है, यदि मानव जन्म प्राप्त हो भी जावे तो उसमें भी रत्नत्रयाराधना करने योग्य उच्च कुल की प्राप्ति होना और भी अधिक दुर्लभ है। उच्च कुल की प्राप्ति यदि पूर्व जन्म में उपार्जित पुण्य कर्म के उदय से हो भी जाय तो रत्नत्रयरूप चारित्र को ओर झुकाव होना अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में मोहान्ध कूप में पतित कतिपय जीवों के ही हिताहित का विवेक प्रादुर्भूत होता है और उस विवेक से ही इस दु:खमय संसार में शाश्वत शांति—सुख के मार्ग को खोजते हुये सत्समागम प्राप्त होने पर सद्गुरु के उपदेश से सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत रत्नत्रयाराधनारूप सद्धर्म में श्रद्धावान होते हैं। निश्चय से विषय भोगों के त्याग से ही भव्यात्मा निरुपाधिक निरवधिक अनन्त सुख को प्राप्त होता है। भोगासक्ति के नाश के बिना आत्मा के गुणों का विकास नहीं होता अत: आत्मिक गुणों के विकास के लिए भोगों से विपरीतता रखने वाले संयम धर्म का पालन करना अत्यावश्यक है। क्योंकि संयम पालन करने से ही मन की शुद्धि और एकाग्रता होती है और मन की एकाग्रता से ही इच्छित फल (कर्म निर्जरा पूर्वक मोक्ष सुख) की प्राप्ति होती है। इसलिये सकलचारित्र अथवा देशचारित्र धारण करके उसका निरतिचार परिपालन करना चाहिये। दीर्घकाल से अनुचरित व्रतों की पूर्णता—सफलता समाधि मरण से ही होती है। आचार्यों ने तप का फल सल्लेखना—समाधि मरण ही कहा है अत: अंत में सल्लेखना धारण करना ही श्रेयस्कर है। व्याकरण—शास्त्रों में लेखना शब्द का अर्थ कृश करना है। ‘‘सम्यक् प्रकारेण लेखना—कृशीकरण सल्लेखना’’ सम्यक् प्रकार से शरीर और कषायों को कृश करना सल्लेखना कहलाती है। सल्लेखना बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। बाह्य सल्लेखना में शरीर कृश किया जाता है तथा आभ्यन्तर सल्लेखना में कषायों को कृश किया जाता है। कहा भी है—
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु: सल्लेखनामार्या:।।
उपसर्ग आ जाने पर, दुर्भिक्ष पड़ने पर, बुढ़ापा आ जाने पर और जिसका प्रतिकार न हो सके ऐसे रोग के हो जाने पर धर्म के लिए शरीर का त्याग करना सल्लेखना है। अर्थात् इन कारणों के उपस्थित हो जाने पर सल्लेखना धारण की जाती है। अन्यत्र भी कहा है—
‘‘जिसका बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, भोजन उत्तरोत्तर घट रहा हो, और रोगादिक के प्रतिकार करने की शक्ति नष्ट हो गई हो, वह शरीर विवेकवान व्यक्तियों को समाधिमरण धारण करने की ओर संकेत करता है।’’
भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन के भेद से सल्लेखना तीन प्रकार की है। भक्त प्रत्याख्यान के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद हैं। जघन्य भक्तप्रत्याख्यान का काल अंतर्महूर्त, उत्कृष्ट भक्तप्रत्याख्यान का काल १२ का एवं मध्यम भक्त प्रत्याख्यान का काल उत्कृष्ट और जघन्य काल के मध्य का समय है। भक्त प्रत्याख्यान संन्यास विधि में स्व और पर दोनों से वैयावृत्य की अपेक्षा रहती है। इंगिनीमरण में मात्र स्वयं के द्वारा ही वैयावृत्य (टहल) की जाती है पर की अपेक्षा नहीं रहती तथा प्रायोपगमनसन्यासविधि में अत्यन्त असह्य पीड़ा होने पर भी वैयावृत्यादिक में स्वपर दोनों की अपेक्षा नहीं होती है। इस कलिकाल में संहनन हीन होने से केवल भप्रत्याख्यान संन्यास विधि ही होती है। अवशिष्ट दो विधि नहीं होती है। भक्तप्रत्याख्यान सन्यास विधि के उत्कृष्ट काल (१२ वर्ष) में सल्लेखना के अभ्यास की विधि—
अनेक प्रकार के कायक्लेशों द्वारा संन्यास विधि करने वाला क्षपक मुनि प्रथम चार वर्ष व्यतीत करता है। अर्थात् प्रथम चार वर्षों में विविध प्रकार से कायक्लेशादि करता है। अनन्तर अगले चार वर्षों में षट्रस का त्याग करके पुन: शरीर को कृश करता है। आगे के दो वर्षों को आचाम्ल (कांजी का) भोजन एवं भोजन में स्वाद देने वाले साग चटनी आदि विकृत पदार्थों से रहित भोजन करके व्यतीत करता है। तदनन्तर मात्र आचाम्ल भोजन करके एक वर्ष व्यतीत करता है। अंतिम १ वर्ष में ६ माह तक मध्यम तप के द्वारा शरीर को क्षीण करता है और अंत के ६ माह में उत्कृष्ट तप के द्वारा शरीर को कृश करता हुआ वह क्षपक मुनि अपनी आयु के अंतिम १२ वर्षों में सल्लेखना करता है। इस प्रकार उपर्युक्त विधि से तो मात्र बाह्य (शरीर की) सल्लेखना होती है। बाह्य सल्लेखना के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाली आभ्यन्तर (कषायों की) सल्लेखना की विधि भी कही जाती है क्योंकि शरीर के साथ कषायों को कृश करने से सल्लेखना होती है मात्र शरीर कृश करने से नहीं। कहा भी है—
भावशुद्धया विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वंते तप:। बहिर्लेश्या न सा तेषां शुद्धिर्भवति केवला।।
‘‘जिनके परिणामों की निर्मलता नहीं है, वे साधु यद्यपि उत्कृष्ट तप को करते हैं किन्तु ख्याति, लाभ, पूजा की इच्छा से ही वे तप करते हैं ऐसा समझना चाहिये इसीलिये उनके परिणामों की शुद्धि नहीं होती है। जब ख्याति लाभ पूजा की इच्छा से रहित होकर मुनि उत्कृष्ट तप करते हैं तभी उनके परिणामों में निर्मलता वृद्धिगत होती हैं।
कषायाकुलचित्तस्य भावशुद्धि: कुतस्तनी। यतस्ततो विधातव्या कषायाणां तनूकृति:।। जेतव्य: क्षमया क्रोधो मानो मार्दवसंपदा। आर्जवेन सदा माया लोभ: संतोषयोगत:।।
कषायों से जिस क्षपक का (समाधिमरण करने वाले साधु का) चित्त कलुषित हुआ है वह परिणामों की विशुद्धि से दूर है और जिसके परिणामों में शुद्धता है वह कषाय सल्लेखना कर सकता है। इसलिये परिणाम विशुद्धि को आचार्यों ने सल्लेखना कहा है इन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है। जहाँ परिणामों की विशुद्धि है वहां कषाय सल्लेखना है और जहां कषाय सल्लेखना है वहां परिणामों की विशुद्धि है। क्षपक मुनि को क्षमा रूपी परिणामों से क्रोध को, मार्दव गुण से मान कषाय को, आर्जव गुण से माया को और संतोष गुण के द्वारा लोभ कषाय को जीतना चाहिये। इस प्रकार सल्लेखना की पूर्ण सिद्धि के लिए उपर्युक्त क्रम से उपवासादि के द्वारा शरीर को कृश करने के साथ—साथ कषायों को भी कृश करना चाहिये तभी पूर्ण रूप से समाधिमरण की सार्थकता है।
‘‘समाधिमरण आत्मघात नहीं है’’
आगम ज्ञान से अनभिज्ञ कुछ भोले प्राणी समाधिमरण को आत्मघात कहते हैं किन्तु समाधिमरण आत्मघात नहीं अपितु वीरमरण है। जिस प्रकार शत्रु सेना के सामने सेना में गये हुए वीर सैनिक के दो ही विकल्प होते हैं एक तो शत्रु के सामने सीना तानकर खड़े हो जाना और दूसरा पीठ दिखाकर प्राण बचाने के लिये युद्ध क्षेत्र छोड़कर भाग जाना। किन्तु जो सच्चे देश भक्त वीर सैनिक होते हैं वे मात्र प्रथम विकल्प सीना तानकर खड़े हो जाने रूप विकल्प को ही स्वीकार करते हैं और युद्ध में लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त होते हैं। उनके भी यश:प्राप्ति के उद्देश्य से होने वाली कषाय का उदय रहता है। ठीक उसी प्रकार व्रती गृहस्थ अथवा संयमी मुनिराज को उपसर्ग, जरा, जंघाबल आदि का अभाव, आँखों की दृष्टि क्षीण होना आदि संयम के बाधक कारण अथवा संयम धर्म के शत्रुकारण उपस्थित होने पर उन मुनिराज अथवा गृहस्थ के सामने भी व्रत संयमादि की रक्षा करने रूप अथवा इस नश्वर शरीर की रक्षा करने रूप ये दो ही विकल्प होते हैंं। किन्तु आगमभक्त महापुरुषों को शरीर नष्ट करते हुए भी व्रतसंयमादि की रक्षा करना ही इष्ट रहता है और वे समाधिमरण—वीरमरण पूर्वक विशुद्ध परिणामों से इस नश्वर शरीर को तपश्चरण रूपी अग्नि में जलाकर वीरगति को प्राप्त होते हैं किन्तु यहां ख्याति लाभ पूजा आदर आदि की प्राप्ति का उद्देश्य नहीं रहता है अत: परिणामों की विशुद्धिपूर्वक कषायों की हीनता पूर्वक होने वाले इस वीरमरण—समाधिमरण को आत्मघात कदापि नहीं कहा जा सकता है। कहा भी है—
न चात्मघातोऽस्ति वृष—क्षतौ वपुरुपेक्षित: काषायावेशत: प्राणान् विषाद्यै हिंसत: स हि।।
इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा है कि कषायावेश से शस्त्रघात, कूपपात, विषभक्षण, अग्नि प्रवेशादि के द्वारा जो प्राणों का घात किया जाता है वही आत्मघात है किन्तु समाधिमरण में ऐसा नहीं होता इसलिये समाधिमरण को आत्मघात नहीं कहा जा सकता है। अन्यत्र पुरुषार्थ सिद्ध्यपाय में भी कहा है—
यो हि कषायविष्ट: कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रै:। व्यपरोपयति प्राणन् तस्य स्यात्सत्यमात्मवध:।। मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति।।
इस प्रकार कषाय एवं शरीरसल्लेखना पूर्वक विविधवत् समाधिमरण करने वाला आत्मघात का दोषी नहीं होता और वह शीघ्र अभ्युदयपूर्वक मोक्ष सुख को प्राप्त होता है। आचार्यो ने तो यहां तक कहा है कि एक बार सम्यक्प्रकारेण समाधिमरण करने वाला जीव नियम से ७ भव के भीतर मोक्ष को प्राप्त करता है। आचार्यों के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है। कि समाधिमरण करने वाले जीव के लिए मोक्ष की रजिस्ट्री हो जाती है। कहा भी है—
अर्थात् सल्लेखना व्रतधारी धर्मरूपी अमृत का पान करके सब दु:खों से रहित होकर अनंत सुख सागर स्वरूप मोक्ष को भी प्राप्त करता है। अत: प्रत्येक मुमुक्षु जीव को समाधिमरण अवश्य ही धारण करना चाहिये क्योंकि—
अंत क्रियाधिकरणं तप:फलं सकलर्दिशन: स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्।।
अंत में समाधिमरण ही तप का फल है, इस प्रकार सर्दज्ञ भगवान ने कहा है। यद्यपि तप का फल स्वर्गादिक है फिर भी समाधिमरण के बिना तपश्चरण व्यर्थ है। जिस प्रकार स्वर्ण कलश के बिना मंदिर की शोभा नहीं होती उसी प्रकार दीर्घकाल से अनुचरित व्रतों की पूर्णता समाधिमरण से ही होती है अत: समाधिमरण की साधना के लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिए।