इस प्रकार शुभ संकल्प करके दैनिक शौचादिक क्रियाओं से निपटकर, छने हुये जल से स्नान करना। नहाते समय शैम्पू या चर्बीयुक्त साबून प्रयोग नहीं करना चाहिये । पुन: धुले हुए साधारण वस्त्र पहनकर मन्दिर जी आना चाहिये । क्योंकि यदि हम चमकीले—भड़कीले वस्त्र पहनकर मन्दिर जी आते हैं तो अन्य लोगों का मन, भगवान के दर्शन—पूजन—स्वाध्याय से हट जायेगा, जिससे हमे पापबन्ध होगा । वैसे प्राचीन समय की मन्दिर आदि आने की वेषभूषा, स्त्री पुरुषों के लिये पीले या लिये पीले या सपेद रंग की साड़ी—धोती — दुपट्टा था, जिससे व्यक्ति अपने आप में संयमित रहता था और धर्म—ध्यान में खूब मन लगता था। याद रहे कि हमें चमड़े के बने बेल्ट , जूते चप्पल , पर्स आदि का प्रयोग में नहीं लेनी चाहिये । क्योंकि जिस जानवर का चमड़ा होगा , उसी जाति के समूर्च्छन जीव (वैक्टीरिया) हमारे शरीर के स्पर्श से उत्पन्न होकर मरते रहते हैं । माता बहिनों को अपने ओठों में लिपिस्टिक या नाखूनों में नेलपालिस नहीं लगाना चाहिये । क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ जीवों के खून से निर्मित होती हैं सेन्ट आदि भी हिंसक तरीके से निर्मित होते है । अत: मन्दिर जी आते समय इनका भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। ध्यान रहे कि हमारा मुख भी जूठा नहीं होना चाहिये, अर्थात् मुख में लौंग, इलायची, सौफ, सुपारी, तम्बाकू , गुटका, पान मसाला आदि नहीं होना चाहिये । मुख शुद्धि से हमारे पाठ या मन्त्रोच्चारण एवं शरीर की शुद्धि बनी रहती है एवं हमारे अन्दर पूज्यों का बहुमान एवं विनम्र गुण प्रगट होता है । हमें अपने घर से ही शक्तयानुसार शुद्ध मर्यादित जल—चन्दन, अक्षत—पुष्प—नैवेद्य—दीप—धूप और फलादि यथायोग्य अष्टद्रव्य थाली या डिबिया आदि में रखकर , ईर्यापथ यानि नीचे चार हाथ जमीन देखकर चलना चाहिये । मन्दिर जी में भगवान को निश्चित यही द्रव्य चढ़ाना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है । यह तो श्रद्धा—भक्ति—शक्ति के अनुसार ही द्रव्य चढ़ाया जा सकता है । इस विषय में पण्डित श्री सुदासुखदास जी ने ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ ग्रन्थ की टीका में निम्न रूप में लिखा है — समस्त ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य, शूद्र अपना—अपना सामर्थ्य, देशकाल के योग्य अनेक स्त्री, पुरुष, नपुंसक, धनाढ्य—नर्धन, सरोग—नरोग जिनेन्द्र की आराधना करैं हैं । कोई ग्राम निवासी हैं, कोई नगर निवासी हैं, कोई वन निवासी हैं, कोई अति छोटे ग्राम में बसने वाले हैं । जिनमें कोई तो अति उज्जवल अष्ट प्रकार की सामग्री बनाय पूजन के पाठ पढ़िकरि पूजन करैं हैं । कोई कोरा सूखा जव, गैहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उड़द, मूंग, मोठ इत्यादि धान्य की मूठी ल्याय चढ़ावैं हैं । कोई रोटी चढ़ावैं हैं, कोई राबड़ी चढ़ावैं हैं, कोई अपनी बाड़ी तैं पुण्य ल्याय चढ़ावैं हैं, कोई दाल, भात अनेक व्यंञ्जन चढ़ावैं हैं, कोई दाल, भात अनेक व्यंञ्जन चढ़ावैं हैं, कोई नाना प्रकार के घेवर, लड्डू, पेड़ा बरफी, पूड़ी, पूवा इत्यादि चढ़ावैं हैं । कोई वन्दना मात्र की करैं हैं, कोई स्तवन, कोई गीत—नृत्य वादित्र ही करैं हैं । ऐसे जैसा ज्ञान, जैसी संगति, जैसी सामर्थ्य, जैसी धन—सम्पदा, जैसी शक्ति, तिस प्रमाण देशकाल के योग्य जिनेन्द्र का आराधक मनुष्य है । तैं वीतराग का दर्शन, स्तवन, पूजन, वन्दना करि भावना के अनुकूल उत्तम,मध्यम, जघन्य पुण्य का उपार्जन करैं हैं ।१ वैवली वैं वा प्रतिमा के आगै अनुराग करि उत्तम वस्तु धरने का दोष नाहिं । उनके विक्षिप्तता होती नाहिं । धर्मानुराग तैं जीव का भला होय हैं ।२ अत: हमें इस विषय में किसी से विवाद नहीं करना चाहिये कि मन्दिर जी में हम क्या चढ़ायें, क्या नहीं ? बल्कि विवाद की जगह विवेक से काम लेना चाहिये । तभी हमें इस क्रिया का सही फल प्राप्त होगा। हमारी मुनि दीक्षा अजमेर (राज०) में हुई। वहाँ पर लगातार पाँच नसियाँ बनी हैं । पहली नसिया, जो सोनी जी की नसिया के नाम से प्रसिद्ध है । क्योंकि इसमें सोने (स्वर्ण) की सुन्दर—सुन्दर रचनायें हैं । उन्हें देखने के लिये देशी—वदेशी, जैनी—अजैनी सभी लोग आते हैं । इसी नसिया जी में अनन्त चतुर्दशी एवं निर्वाण लाडू के दिन सोनी जी के परिवार से शुद्ध घर का बना नैवेद्य (व्यञ्जन—फकवान) आज भी चढ़ाया जाता है । बुलन्देलखण्ड (म.प्र.) में कई स्थानों पर हमने विहार किया । महावीर जयन्ती पर अनन्त चतुर्दशी, निर्वाण लाडू पर पंचामृत अभिषेक एवं शुद्ध घर का या मन्दिर में ही बना नैवेद्य (व्यञ्जन—फकवान) आज भी जैन मन्दिरों में चढ़ाया जाता है । इटावा (उ.प्र.) में चातुर्मास हुआ, वहाँ भी श्रावकों ने पंचामृत की धारा एवं कई प्रकार की शुद्ध मिठाईयाँ बनाकर अनन्त चतुर्दशी को चढ़ायीं। और इस विषय में हम विशेष अधिक क्या कहें ? बारह वर्षों में होने वाले जैन कुम्भ मेला, विश्व के नवमें आश्चर्य गोमटेश्वर बाहुबली का पंचामृत अभिषेक हम सबकी श्रद्धा का केन्द्र होता है जहाँ उत्तर—दक्षिण का भेद मिट जाता है । इससे अधिक सजीव—सटीक प्रमाण और क्या हो सकता है हम सबके लिये। अत: इससे सिद्ध होता है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा मन्दिर जी में चढ़ाने वाली सामग्री में भेद हो सकते हैं । इस प्रकार भगवान के दर्शन के लिये जाते समय कुछ न कुछ अपने साथ सामग्री ले जाते हैं । परन्तु एक प्रश्न उठता है कि भगवान तो वीतरागी हैं, उन्हें इस सामग्री को चढ़ाने से क्या प्रयोजन ? सुनो नीतिकारों ने कहा है कि—
अर्थात् राजा, देवता, गुरु, नैमित्तिक यानि वैद्य, ज्योतिषी के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, अर्थात् कुछ न कुछ भेंट लेकर ही जाना चाहिये । क्योंकि फल की प्राप्ति फल से ही होती है । जिस भावना के साथ हम मन्दिर जी जा रहे हैं , उस भावना की सफलता हमारे द्रव्य के साथ निहित है, तभी तो कहा है कि — १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृष्ठ २०९—२१० पं० सदासुखदास जी टीका—प्रकाशक श्री मध्य क्षेत्रीय मुमुक्षु मंडल संघ, सागर (मध्यप्रदेश) से उद्धृत । २. पं० टोडरमल जी, मोक्षमार्ग प्रकाशक , अध्याय ५, पृ. २४१।
शास्त्रों में पढ़ा होगा, सुना होगा कि प्राचीन समय में लोग जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करते समय हीरा, मोती, पन्ना—माणिक आदि बहुमूल्य जवाहरात चढ़ाया करते थे। दर्शन कथा में मनोरमा ने गजमुक्ता प्रतिदिन चढ़ाकर भगवान के दर्शन करूँगी, तब भोजन करूँगी, ऐसा नियम लिया था और उसका पालन भी परीक्षा देकर किया । धन्य है ऐसी भवयात्मा को। अत: भगवान के मन्दिर में सोना—चाँदी आदि द्रव्य चढ़ाना भी हमारी श्रद्धा—भक्ति का द्योतक है । द्रव्य चढ़ाना हमारे परिणामों को विशुद्ध बनाने में निमित्त है तथा जितने द्रव्य को हम प्रभो चरणों में अर्पण करते हैं, उतना हमारा ‘लोभ्र’ का त्याग होता है । द्रव्य, सामग्री हाथ में होने से हमें रास्ते में भी मन्दिर जी जाने का, देव दर्शन करने का संकल्प बना रहता है । अहो! देखो!! राजगृही में भगवान महावीर स्वामी के समवशरण की ओर तिर्यञ्च गति का जीव ‘‘मेंढक’’ अपने मुख में कमल पुष्प की पांखुड़ी लेकर जा रहा था, किन्तु अकस्मात् राजा श्रेणिक के हाथी के पैरों के नीचे दबकर मरा, सो समवशरण के दर्शन के शुभ संकल्प से देव पदवी को प्राप्त हुआ। सुना है, गरीब सुदामा जब नारायण श्री कृष्ण से मिलने द्वारिका गये थे, तब वे भी अपने घर से एक पोटली में चावल भेंट देने हेतु साथ ले गये थे। जब तिर्यञ्च जैसे साधनहीन प्राणी एवं गरीब सामान्य मनुष्य भी लोक व्यवहार में अपने पूज्यों के पास खाली हाथ नहीं जाते हैं । तब हम लोग साधन—समपन्न होते हुए भी तीन लोक के स्वामी के दर्शन करने खाली हाथ आते हैं । तो उस दर्शन का कोई फल हमें मिलने वाला नहीं है । ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम अच्छी किस्म के १०० ग्राम चावल, दो—चार बादाम, सुपारी, लौंग, इलाइची, छुहारे, चिटवें आदि मिलाकर प्रतिदिन चढ़ाना चाहिये । जब आप लोग प्रतिदिन व्यसनों—चाय, पान, जर्दा, सिगरेट आदि में पचासों रुपया खर्च कर देते हो, तब क्या श्री जिनेन्द्र देव को पाँच रुपये की सामग्री भी श्रद्धा भाव से नहीं चढ़ा सकते हैं ? माता—बहिनें भी व्यर्थ के फैशन में प्रतिदिन पचासों रुपये खर्च कर देती हैं, लेकिन भगवान को सामग्री चढ़ाने में कंजूसी करती हैं । घर से पूरी डिब्बी भरकर मन्दिर जी आती है, लेकिन थोड़ी—थोड़ी सामग्री चढ़ाकर बची हुई घर वापस ले जाती हैं इस तरह एक दिन की भरी हुई डिब्बी चार—छह दिन तक चल जाती है । हम आपसे पूछना चाहते हैं कि यदि आपके घर कोई मेहमान मिठाई का भरा डिब्बा लाये और आपके सामने ही डिब्बे को खोलकर मिठाई को चार टुकड़े आपके बर्तन में रख दे और बाकी अपने साथ ही वापस घर ले जाये तो आपको कैसा लगेगा ? या आप किसी के घर मेहमान बनकर जाये और इस प्रकार करें तो दूसरों को कैसा लगेगा ? थोड़ी सोचने—विचारने की बात है कि आप लोग तीन लोक के स्वामी के सामने क्या करते हैं, ऐसा करने से हमें क्या फल मिलेगा ? अत: हम अपने घर से सामग्री उतनी ही ले जायें जितनी हमें उस दिन मन्दिर जी में चढ़ानी है । बहुधा लोग एक प्रश्न यह भी करते हैं कि मन्दिर जी में अधिकांशत: चावल ही क्यों चढ़ाये जाते हैं ? सुनों ! चावल व्यक्ति के जीवन की खाद्य सामग्री का प्रमुख भोजन है । हर प्रान्त के गरीब—अमीर लोग इसका उपयोग खाने में करते हैं हमारे तीर्थंकरों के दीक्षा के उपरान्त अधिकांशत: क्षीरान्न (चावल की खीर) से ही पारणा हुए। हमारे भोजन के एक ग्रास का प्रमाण भी एक हजार चावलों से माना जाता है ।’’ चावल से छिलका अलग होने पर उसमें पुन: अंकुरित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है यानि जमीन में बोने से चावल उगता नहीं है । चावल सद होने से शुक्ल लेश्या का प्रतीक है । चावल के दाने में कोई जीव—जन्तु अपना घर नहीं बना सकता। अखण्ड (जो टूटे न हों) चावलों को अक्षत भी कहते हैं । उन्हें चढ़ाकर अक्षय पद की कामना करते हैं इत्यादि, कई कारणों से मन्दिर जी में चावल चढ़ाने का अधिक महत्तव है । पुन: एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब हमारे प्रभो! वीतरागी हैं , ना तो वे हमें कुछ देतें हैं और न हमसे कुछ माँगते हैं, तब हम उनके लिये इतनी बहुमूल्य सामग्री क्यों चढ़ाते हैं ? कुछ सामग्री जैसे फूल—दीप—धूप—फल चढ़ाने में तो कुछ हिंसा या सावद्यता भी होती है, फिर हम उन्हें क्यों चढ़ाते हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर स्वामी समन्तभद्राचार्य जी ने स्वयंभू स्तोत्र में तीर्थंकर वासुपूज्य जी की स्तुति करते हुए दिया है —
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ! विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्य—गुण स्मृतिर्न: पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्य: ।।५७।। पूज्यं जिनं त्वा—चर्यतो जनस्य, सावद्य लेशो बहुपुण्य राशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीत शिवाम्बु राशौ।।५८।।’
हे वीतराग प्रभो ! आपकी पूजा करने पर आप प्रसन्न नहीं होते एवं आपकी निन्दा करने पर आप वैर धारण नहीं करते हैं । फिर भी संसारी प्राणी आपके निर्मल गुणों का स्मर्ण करके अपने मलिन चित्त को पवित्र कर लेते हैं ।।५७।। ‘‘ यद्यपि पूज्यों की अर्चना में कुछ आरम्भ (हिंसा) होता है और आरम्भ सावद्य यानि पाप है, किन्तु आपकी पूजा से असीम पुण्य राशि अर्जित होती है । इस अपेक्षा से यह सावद्यता अत्यन्त्य अल्प है ।’’ जैसे— समुद्र की अमृत समान जल राशि में यदि विष की एक बूँद गिर जाये तो समुद्र का पानी जहरीला नहीं हो जाता है । ठीक उसी प्रकार से आपकी पूजा आदि से प्राप्त विशाल पुण्य राशि के सामने पाप की एक छोटी—सी बूँद का क्या महत्व है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। पूजा—शील—दान—उपवास आदि बिना सावद्यता (आरंभी हिंसा) के नहीं हो सकते हैं ऐसा ‘जयधवला’ पु० प्रथम, पृष्ठ ९१ में लिखा है । आज वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध हो चुका है कि मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठानों से होने वाले अहिंसक यज्ञों में शुद्ध घी आदि की आहूति से पर्यावरण परिशुद्ध होता है । वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय के घी से यज्ञ करने से वायुमंडल में एटमिक रेडिएशन का प्रभाव क्षीण होता है । एक तोला (दस ग्राम) ग्राम घी से यज्ञ करने से एक टन आक्सीजन बनता है । अत: मन्दिरों में घी के दीपक जलाये जाते हैं । लेकिन दीपक को काँच या लोहे की जाली से ढक कर रखें। जिससे त्रस जीवों की हिंसा भी नहीं हो इतना विवेक रखें। अत: आचार्यों के वाक्य प्रामाणिक मानकर दूसरों की कुछ मनमानी बातों को महत्व नहीं देना चाहिये । ‘धवला’ पुस्तक में आचार्य श्री वीरसेन स्वामी से एक शिष्य ने बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है कि हे भगवन्! जब अरिहंत के चार घातिया कर्म नष्ट हो गये, उनमें जो अन्तराय कर्म नष्ट होने से, उनके अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग एवं अनन्त वीर्य प्रगट हुआ। अत: भगवान अनन्त दान के दाता हुए तो फिर वे हमें अनन्त दान क्यों नहीं देते हैं । यदि देते हैं तो हमें क्यों नहीं दिखता, मिलता है ? आचार्य वीरसेन स्वामी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे भक्त! भगवान तो अनन्त दान निरन्तर देते ही रहते हैं । यदि वे अनन्त दान नहीं दें तो उनका महत्व ही घट जायेगा। लेकिन लेने वाले का लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है तो उसे उस अनन्त दान का लाभ नहीं मिल सकता है । आप सबने अकृत पुण्य (धन्य कुमार) का चरित्र पढ़ा/सुना होगा। उसने पूर्व भव में मन्दिर के धन को खाया, फिर भी उसका जन्म एक नगर सेठ के यहाँ हुआ। किन्तु उसके गर्भ में आते ही सेठ का धन नष्ट हो गया एवं उसके पैदा होते ही वह सेठ मर गया। अत: उसका नाम अकृत पुण्य रखा गया। किसी तरह उसकी माँ ने मेहनत—मजदूरी करके उसे पाला—पोसा। जब वह चौदह—पन्द्रह वर्ष का हुआ तो एक दिन किसी सेठ के खेत में मजदूरों के साथ उसने भी मजदूरी की। शाम को मजदूरी बाँटते समय मजदूरों ने उस बालक को मजदूरी देने की अनुमोदना सेठ से की, तब उस बालक का परिचय सेठ ने पूछा। तब लोगों ने बतलाया कि यह हमारे पुराने नगर के सेठ के लडका है । उनकी मृत्यु के बाद इसकी माँ और यह मजदूरी आदि करके ही पेट पालते हैं । सेठ को उस बालक पर बड़ी दया आयी। सेठ ने सभी मजदूरों को तो निश्चित मजदूरी देकर विदा किया। लेकिन उस अकृत पुण्य को सेठ ली ने करुणा भाव से सोना—चाँदी आदि कीमती द्रव्य दिया। लेकिन जैसे ही अकृत पुण्य के हाथों में वह कीमती द्रव्य आया, वैसे ही अंगारों के समान गर्मी से उसके हाथ जलने लगे, जिससे अकृत पुण्य को बहुत वेदना हुई और उसने वह कीमती द्रव्य वहीं छोड़ दिया। पुन: सेठ जी ने विचार किया कि इसे कुछ अधिक चने देना चाहिये । सोना—चाँदी इसके भाग्य में नहीं है । अत: उसे एक बड़ी पोटली में चने बाँधकर दिये लेकिन पोटली में छिद्र होने से घर आते—आते थोड़े से ही चने उस पोटली में बचे। अत: कहने का तात्पर्य यह है कि मन्दिर जी में जो भी धन—द्रव्य—सामग्री चढ़ाते हैं, वह हमारे लाभान्तराय कर्म के क्षय—क्षयोपशम में कारण अवश्य बनता है, जिससे हमें चाही—अनचाही अनुवूâल वस्तुओं की प्राप्ति अनायास ही होती है इसलिये ऐसा कभी मत सोचो कि मन्दिर जी में द्रव्य चढ़ाने से कुछ नहीं होता। जब मन्दिर जी का निर्माल्य द्रव्य खाने से दरिद्रता मिल सकती है, तब मन्दिर जी में द्रव्य चढ़ाने से धन—वैभव मिल जाये तो क्या आश्चर्य है ? घर में स्नानादि के समय या जब से जिनेन्द्र देव के दर्शन की भावना प्रारम्भ होती है, तभी से उस देव दर्शन का फल एवं महत्त्व प्रारम्भ हो जाता है, ऐसा हमारे पूर्व आचार्य कहतें हैं कि —
जब चिन्तो तब सहस्र फल, लक्खा फल गमणेय। कोड़ा कोड़ी अनन्त फल जब जिनवर दिट्ठेय।।’
अर्थात् जब हमें भगवान के दर्शन करने का विचार — संकल्प मन में आता है कि अरे ! अभी हमें मन्दिर जी जाना है, भगवान के दर्शन करना है । ऐसा चिन्तन आते ही हजार गुणा फल प्रारम्भ हो जाता है । जब आप सामग्री आदि लेकर भक्ति—स्तुति आदि पढ़ते हुये मन्दिर की ओर ईर्यापथपूर्वक चल देते हैं, तब आपको लाख गुणा फल होता है । लेकिन जब आप मन्दिर जी में पहुँचकर साक्षात् जिनमूर्ति के दर्शन करते है, तब अवश्य ही अनन्त कोड़ा कोड़ी फल होता है । आपने पढ़ा होगा, सुना होगा कि श्री सम्मेद शिखर जी की प्रत्येक टोंक की वन्दना करने से इतने इतने करोड़ों उपवासों का फल मिलता है । इतना ही नहीं, तत्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वामी आचार्य जी ने भी अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है कि —
अर्थात् तत्त्वार्थ सूत्र के दस अध्यायों का पाठ करने से एक उपवास का फल मिलता है, ऐसा मुनि श्रेष्ठों ने कहा है । आज के आधुनिक भौतिक युग में इस प्रकार के फल की चर्चा जब की जाती है, तो कुछ इसे प्रलोभन मानते हैं कि इस फल के लोभ से व्यक्ति मन्दिर आना, तीर्थयात्रा करना, सूत्रादि का पाठ करना आदि सीखें। परन्तु ऐसा है नहीं कि मात्र प्रलोभन हो, दिखावा हो और फल कुछ नहीं मिले। हमारे पूर्वाचार्यों की दृष्टि बड़ी ही वैज्ञानिक — मनोवैज्ञानिक थी। उन्होंने एक विशुद्ध गणित निकाला। जैसे—पाँच किलो जल को एक किलो शक्कर से यथार्थ मीठा किया जा सकता है, तथा उतने ही जल को दो चम्मच सेकरीन डालकर मीठा किया जा सकता है । मिठास दोनों में बराबर है । लेकिन कहाँ एक किलो शक्कर और कहाँ दो चम्मच सेकरीन। ठीक उसी प्रकार से इतने करोड़ दिन के उपवास करके, व्यक्ति अपने जितने कर्मों की निर्जरा करके परिणामों की विशुद्धि प्राप्त करता है, उतने कर्मों की निर्जरा, परिणामों की विशुद्धि उसे एक दिन के मन्दिर जाने, शिखर जी की एक टोंक की वन्दना करने एवं एक दिन के तत्वार्थ सूत्र के पाठ करने से हो सकती है/होती है । यदि भावात्मक तरीके से इन सब कार्यों को किया जाये तो इसके फल के बारे में कभी हमें शंका नहीं होनी चाहिये । मंदिर जी आते समय रास्ते में कोई भी स्तुति, स्तोत्र , पाठ, प्रार्थना आदि पढ़ते आना चाहिए। जैसे— दर्शन स्तुति, भक्तामर स्तोत्र, विनय पाठ, मेरी भावना, आलोचना पाठ, महावीराष्टक, मंगलाष्टक, गोमटेश स्तुति आदि, चाहे हिन्दी—संस्कृत—प्राकृत किसी भी भाषा में हो, उन्हें वंâठस्थ करके ही पढ़ना चाहिये जिससे देव—दर्शन का माहात्म्य प्रगट होता है, उपयोग में स्थिरता आती है । इसी से परिणाम विशुद्ध होते हैं जो हमारे अशुभ कर्मों को नष्ट करने में समर्थ होते हैं यहाँ संस्कृत का सरल देव दर्शन स्तोत्र बताया जा रहा है । इसे अवश्य ही कण्ठस्थ याद कर लेना चाहिये ।
देव—दर्शन—स्तोत्र
दर्शनं—देव—देवस्य, दर्शनं पाप नाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सोपानं, दर्शनं मोक्ष साधनम् ।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधुनां वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्र हस्ते यथोदकम् ।। वीतराग मुखं दृष्टवा, पद्मराग सम प्रभं। जन्म—जन्म कृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति। दर्शनं जिन सूर्यस्य, संसार ध्वान्त—नाशनम्।। बोधनं चित्त पद्मस्य,समस्तार्थ प्रकाशनम् । दर्शनं जिन चन्द्रस्य, सद्भर्मामृत—वर्षणं। जन्म—दाह— ाqवनाशाय, वद्र्धनं सुख—वारिधे। जीवादि तत्त्व प्रतिपादकाय, सम्यक्तव मुख्याष्ट गुणार्णवाय । प्रशान्त रूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।। चिदानन्दैक रूपाय, जिनाय परमात्मने । परमात्म—प्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नम:।। अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्य भावेन, रक्ष—रक्ष जिनेश्वर:।। न हि त्राता , न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ।। जिने भक्ति—र्जिने भक्ति—र्जने भक्ति—र्दिने—दने। सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे—भवे।। जिन धर्म विनिर्मुक्तो, मा भवेच्चक्रवत्र्यपि । स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिन धर्मानुवासित: ।। जन्म—जन्म कृतं पापं, जन्म कोटि समार्जितम् । जन्म—मृत्यु जरा रोगं, हन्यते जिन दर्शनात् ।। अद्या भवत्सफलता नयन द्वयस्य, देव त्वदीय चरणांबुज वीक्षणेन। अद्य त्रिलोक— ाqतलक प्रतिभासते मे, संसार वारिधि— रयं चुलुक प्रमाणम् ।।
स्तुति
प्रभो! पतित पावन मै अपावन, चरन आयो शरण जी । यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन—मरन जी ।। तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकार जी । या बुद्धि सेती निज न जाण्यो, भ्रम गिण्यो हितकार जी ।। भव विकट वन में करम वैरी, ज्ञान धन मेरो हर्यो । सब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिर्यो।। धन घड़ी धन दिवस यों ही, धन जनम मेरो भयो। अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभो! को लख लयो।। छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं । वसु प्रातिहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रवि छवि को हरैं ।। मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि आतम भयो। मो उर हरष ऐसो भयो, मनु रंक चिन्तामणि लयो।। मैं हाथि जोड़ नवाय मस्तक, वीनउँ तुव चरण जी । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहुँ तारण तरण जी ।। जाचूँ नहीं सुरवास पुनि नर—राज परिजन साथ जी । ‘बुध’ जाचहूँ तुव भक्ति भव—भव दीजिये शिवनाथ जी ।।
यह ‘प्रभो! पतित पावन’ हिन्दी की स्तुति है। इसे भी याद कर लेना और नयी—नयी विनती स्तुतियाँ भी याद करते रहना चाहिये। कम से कम सात दिन के लिये सात पाठ याद होनी चाहिये जिससे प्रतिदिन एक पाठ भक्ति—भााव पूर्वक अर्थ—बोध करते हुए पढ़ सको।