गुरु—दर्शन, यह बहुत कम लोगों को ही मिल पाते हैं । किसी—किसी का अपना—अपना भाग्य होता है। सत्संगति , गुरु दर्शन यह सब एक ही नाम है। संसार में दो बातें बड़ी दुर्लभ हैं। तुलसी दास जी कहते हैं—
‘‘सन्त समागम , प्रभु भजन तुलसी दुर्लभ दोय।
सुत दारा अरु लक्ष्मी, पापी के भी होय ।।’’
धन , सम्पदा, स्त्री इत्यादि इससे कोई मतलब नहीं है । यह तो पापी के भी होते हैं। लेकिन सन्तों का समागम और प्रभु का भजन । ये संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं।
‘‘शैले—शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधुवो नहीं सर्वत्र , चन्दनं न वने वने।।’’
हर पर्वत पर माणिक नहीं होते हैं । हर हाथी के मस्तिष्क पर मुक्ता नहीं होती है। सज्जन, साधु पुरुष हर जगह नहीं मिलते हैं और आपके आस—पास चन्दन का वृक्ष नहीं मिलेगा। इसीलिये सन्त संगति को महत्व दिया। कैसे मिलना चाहिये सन्त से ? कैसे दर्शन करना चाहिये ? कैसे साक्षात्कार करना चाहिये ? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं —
‘‘सन्त मिलन को चालिये, तज माया अभिमान।
ज्यों—ज्यों पग आगे धरैं, कोटि यज्ञ फल जान।।’’
सन्तों के पास जाओ तो माया और अभिमान को बाहर खूटी पर टाँग आओ, छोड़ आओ, क्योंकि गुरु जो बाँट रहे हैं, संत जो बाँट रहे हैं, यदि आप पहले से ही लेकर आओगे तो जो गुरु दे रहे हैं , वह किसमें लेकर जाओगे ? उसके लिये आपके पास जगह नहीं होगी। इसलिये माया और अभिमान का अन्दर से जो भराव है उसको बाहर तिलांजली देकर आ जाओ। एक भक्त जब चलने लगा, गुरु दर्शन के लिये तो गुरु महाराज का कमण्डल बाहर रखा हुआ था। उसने कहा—कहाँ जा रहे हो ? इधर आओ। उसने कहा मैं गुरु महाराज के दर्शन करने के लिये जा रहा हूँ । तो कमण्डल ने बुलाया और उससे कहा—
‘‘गुरु दर्शन से प्रथम कमण्डल, कहता मुझको देखो।
मुझ जैसा अपने को, गुरु चरणों में मत पेंको।।
क्योंकि त्यागियों की सेवा में, यह मेरा जीवन बीता।
बहुत सुने उपदेश, मगर फिर भी रीते का रीता।।’’
खाली पड़ा रहता है बेचारा । भर नहीं पाया आज तक। ऐसे कमण्डल बन कर नहीं आना। जब श्रावक, श्रद्धालु, गुरु महाराज के पास पहुँचा तो हाथ में लाई हुई सामग्री को किस प्रकार से अर्पण किया उसने—
‘‘उदक—चन्दन—तन्दुल पुष्पवै:चरु सुदीप सुधूप: फलार्घवै:।
धवल—मंगलगान—रवाकुले, जनगृहे गुरुणां—अहं यजे।।’’
ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रय प्राप्तये गुरुभ्यों अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप गुरु के लिए हमारा नमस्कार हो। इस प्रकार मंदिर जी में विराजित आचार्य — उपाध्याय— साधु— आर्यिका जी— ऐलक— क्षुल्लक—क्षुल्लिका जी को द्रव्य—अघ्र्य तीन ढेरी में (तीन जगह) चढ़ाना चाहिये। आचार्य—उपाध्याय—साधु को नमस्कार करते समय नमोऽस्तु बोलना चाहिये। आर्यिका माता जी के लिये वन्दामि — ऐलक — क्षुल्लक—क्षुल्लिका जी के लिये इच्छामि या इच्छाकार, ब्रह्मचारी—ब्रह्मचारिणी जी को सादर हाथ जोड़कर वन्दना करना चाहिये। गुरु को नमस्कार करते हैं। पिच्छी हाथ का एक उपकरण है। यह एक अहिंसा का उपकरण है लोग कहते हैं कि महाराज इसको लगा दो । अरे ! पिच्छी तो कीड़े मकोड़ों को हटाने के लिये लगायी जाती है, आप कोई कीड़े मकोड़े हो तो नहीं । इसकी मृदुता, प्राकृतिक कोमलता इतनी है कि इसे व्यक्ति अपनी नंगी (खुली) आँखों पर लगाये, फिर भी आँखों पर किसी प्रकार की जलन नहीं होगी, किरकिरी नहीं मचती है, दर्द नहीं होता है। यह प्राकृतिक उपकरण है। इसलिये इससे सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव बच जाता है,बचा लेते हैं, तब जमीन पर बैठते हैं। पिच्छी भी कहने लगी कि आपने कमण्डल की बात सुनी, अब कुछ मेरी बात सुनों—
‘‘जो पिच्छी का पीछा करते , वे श्रावक कहलाते।
जब तक पिच्छी का पीछा है, मोक्ष नहीं जा पाते।।
जिनने पिच्छी पकड़ी , उनको मोक्ष लक्ष्मी वरती।।
ऐसे त्यागी सन्तो का , पिच्छी खुद पीछा करती।।’’
गुरु, विश्व के अन्दर गुरु का सबसे बड़ा महत्व है। हर मजहब , हर धर्म, हर संस्कृति, हर सम्प्रदाय में उस धर्म को जिन्दा रखने वाला है तो वह गुरु है। यदि ये गुरु नहीं होते तो जरा आप कल्पना करके देख लो कि धर्म की क्या दशा होती ? इस धर्म की सुरक्षित रखने के लिये हमारे गुरुओं ने कितना बलिदान दिया है ? कितना तप, त्याग संयम, तपस्या की है ? गुरु एक ऐसा माध्यम है जो परमात्मा से साक्षात्कार कराता है। कबीरदास जी अपने एक दोहे में लिखते हैं—
‘‘कबीरा वे नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।’’
अभी किसी साहित्यिक को बुलाया जाए और इसका अर्थ कराया जाए कि इस दोहे का अर्थ करो। ‘‘कबीरा वे नर अन्ध हैं ’’ वे मनुष्य अन्धे हैं जो गुरु को और बताते हैं, उपेक्षित बताते हैं , गुरु की उपेक्षा करते है, गुरु का अपने जीवन में कोई महत्तव नहीं समझते हैं। अंतिम पंक्ति में कहे हैं कि ‘‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर’’ । क्या अर्थ इसका हुआ ? भगवान रूठ जाए तो गुरु ठौर है और यदि गुरु रूठ गया तो कोई ठौर नहीं है। ये संसारी जीव तो अपने मतलब का अर्थ निकालेंगे। लेकिन ध्यान रखना जो हरि रूठता है, वह हरि नहीं और जो गुरु रूठता है, वह गुरु नहीं। रूठने वाला कौन होता है ? जिसका काम नहीं बनता है वह ही भगवान को गाली देता है। भगवान ने आज तक किसी को गाली दी। आप मन्दिर जाते हैं और आप ८—१० दिन मन्दिर नहीं जाओं तो क्या भगवान आपका हाथ पकड़कर पूछते हैं कि आप मन्दिर क्यों नहीं आये ? लेकिन आप आठ—दस दिन मन्दिर आये, आपने प्रार्थना की और आपका काम नहीं हुआ तो आप कहते हैं तुम भगवान नहीं, ‘‘तुम तो पत्थर के भगवान हो।’’ गाली देकर चलते बनोगे, क्योंकि आपकी सुनी नहीं।
‘‘नाराज सो महाराज नहीं, महाराज तो नाराज नहीं ।’’
आप रूठेंगे गुरु से क्योंकि गुरु कड़क होता है। गुरु का अर्थ भारी होता है। गुरु का वजन हर व्यक्ति सहन नहीं कर पाता है और जो गुरु का वजन सहन नहीं कर पाये, वह संसार में कुछ नहीं कर पाता।
‘‘गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, धड़—धड़ खाड़े खोट।
अन्तर हाथ पसार के, बाहर मारे चोट।।’’
कैसा उदाहरण दिया ? यदि मिट्टी कुम्हार की थप्पों की चोटों से डर जाए, तो वह कभी भी व्यक्ति के सिर पर नहीं बैठ सकती, घड़ा नहीं बन सकती है। यदि पत्थर शिल्पकार की छैनी, हथौड़ी की चोटों से डर जाए तो वह कभी प्रभु की मूरत नहीं बन पाता है। जब एक पत्थर को इतना सहन करना पड़ता है, जब एक मिट्टी को इतना सहन करना पड़ता है , हम तो एक इन्सान हैं । हमें भी कुछ सहन करना होगा । वैसे भी कहते हैं। शिष्य और शीशी को डांट लगाकर रखना चाहिये। गुरु हमारे स्वरूप को उद्घाटित करते हैं। निमित्त कारण है गुरु हमारे जीवन के शिल्पकार हैं। हमारा जीवन अनगढ़ पाषाण की तरह है। मिट्टी की तरह है, उनके चरणों में जब हमारा जीवन समर्पित हो पाता है, हमारी श्रद्धा समर्पित हो जाती है, तब गुरु उसमें तरासते हैं । उसकी जैसी सम्भावना होती है, उस तरीके का रूप देते हैं । कोई हीरा होता है, कोई पन्ना होता है, कोई मोती होता है, कोई लाल होता है और कोई माणिक होता है। जिस तरह का होता है, जिस शक्ल का, जिस रूप का होता है, उसमें ढाला जाता है। वह तो गुरु ही जानता है कि इसमें किस प्रकार की संभावना है ? वैसे ही वह उसको तरासेगा। गुरु कुशल शिल्पी है जो भक्त की भावनाओं को तरासता है। गुरु साक्षात् जीता—जागता शास्त्र है। जिस शास्त्र को आपने महीनों और सालों में पढ़ा। उस शास्त्र का सम्पूर्ण निष्कर्ष गुरु के सान्निध्य में बैठकर एक श्लोक में, एक शब्द में आपको मिल सकता है। गुरु का अर्थ है: ‘गु’ का अर्थ अन्धकार और ‘रु’ का अर्थ दूर करना अर्थात् अन्धकार को दूर करना। जो हमारे अन्तरंग में बैठे हुये अज्ञान अन्धकार को दूर करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं। जो हमारे भ्रम को मिटा दें, वह गुरु हैं । गुरु वैद्य हैं, गुरु इन्जीनियर हैं, गुरु वकील हैं, गुरु डॉक्टर हैं । जितने भी हमारे जीवन के पहलू जुड़े हुए हैं। जिन—जिन माध्यमों से होते हैं, वह सब गुरु के अन्दर उपलब्ध होते हैं। नेक सलाह देते हैं, इसलिये वकील हैं। हमारी जीवन शैली का नक्शा खींच देते हैं इस लिये इन्जीनियर हैं। हमारे अन्दर बैठे हुये भ्रम रोगों को निकाल देते हैं, उनका ऑपरेशन करते हैं इसलिये डॉक्टर हैं। मनोवैज्ञानिक कहते है जितने अच्छे तरीके से आप अपने मन की बात अपने गुरु को बता सकते हो, उतने खुलकर और किसी को नहीं। इसलिये प्रायश्चित का विधान है। गुरु के समक्ष गलती को स्वीकार करना। जैसे आपके शारीरिक चिकित्सा करने वाले पैâमली डॉक्टर होते हैं, उसी प्रकार आपके एक फैमली गुरु भी होना चाहिये। जिसके जीवन में गुरु नहीं उसका जीवन शुरू नहीं। एक सम्प्रदाय में गुरुमुखी होने की पूरी दीक्षा विधि है। गुरुमंत्र कान में पूँâका जाता है ? गुरु क्या नहीं हैं ? जो गुरु साक्षात् ब्रह्म से मिला देते हैं। वह परम मित्र हैं।
‘‘गुरु: ब्रह्मा गुरु: विष्णु, गुरु: देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात् परम ब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नम:।।’’
तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो, तुम्हीं हो बन्धु, सखा तुम्हीं हो। सब कुछ वही हैं। लेकिन तुम गुरु से कुछ छिपाने की चेष्टा करोगे तो कुछ नहीं मिलेगा। कुछ शिष्य ऐसे होते हैं जो झपटने की चेष्टा करते हैं कि गुरु से यह ले लें, वह भी ले लें आदि। घर में माता पिता की जायदाद होती है—कंकड—पत्थर । हम तो इसको कंकड़— पत्थर मानते हैं। हीरा—मोती, सोना—चाँदी यह सब कंकड़—पत्थर ही तो है। यह सब मिट्टी से ही तो निकले हैं। कोई आसमान से तो टपके नहीं हैं जो उनको झपटने के लिये उनकी खुशामद करेंगे। यह नहीं चलता है। गुरु की दृष्टि बड़ी विचित्र होती है। वह समझ जाते हैं— कौन व्यक्ति किस भाव से सेवा कर रहा है ? इतिहास के अन्दर उसी ने सब कुछ पाया है जिसने गुरु की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की है और जो गुरु के सिंहासन को छुड़ाने में लगे, गुरु की जायदाद, गुरु का आश्रम अपने नाम कर लो आदि। उनको सब पौद्गलिक पदार्थ तो मिला, लेकिन जो आन्तरिक ज्योति गुरु की जल रही थी उसे जला नहीं रख पाया। वह ज्योति तो केवल उसी ने जला पायी जिसने गुरु के बाहरी हर पदार्थ को नकार दिया केवल आन्तरिकता से जुड़ा रहा। पिछला इतिहास उठाकर देख लो। ऋषि—मुनियों के आश्रम में जितने भी बालक पढ़ते थे, जो गुरु की गाय चराता था, जो गुरु को र्इंधन लाकर देता था। उस बालक ने सबसे ज्यादा ज्ञान उपार्जन किया । और वह बैठे रह गये जो पौथी—पतरा पढ़ते रहे। उनको प्रभु के, परमरत्मा के, गुरु के किसी के दर्शन नहीं हुए, वह पढ़—पढ़ाकर अपने घर चले गये। विश्व के अन्दर गुरु एक सबसे बड़ी सामर्थ है। एक बार देवताओं के अन्दर विचार विमर्श चल रहा था कि संसार में सबसे बड़ा कौन है ? तो उन्होंने कहा— सबसे बड़ी पृथ्वी है तो विचार भी किया। हाँ, पृथ्वी सबसे बड़ी है लेकिन एक देव उससे सहमत नहीं हुआ। वह कहने लगा — यदि पृथ्वी बड़ी है तो बताओ कि वह शेषनाग के सिर पर क्यों टिकी है ? जो इतनी बड़ी पृथ्वी का वजन सहन कर रहा है तो वह उससे बड़ा है। सबकी अक्ल में आयी और कहा— हाँ , शेषनाग जी सबसे बड़े हैं। सब कहने लगे — हाँ भाई ! शेषनाग जी सबसे बड़े हैं। लेकिन एक देव कहने लगा कि जब शेषनाग जी बड़े हैं तो वह शंकर जी के गले में क्यों पड़े हैं? तो सबकी अक्ल में आयी की शंकर जी सबसे बड़े होने चाहिए । तो सब कहने लगे कि शंकर जी सबसे बड़े हैं । एक देव कहने लगा — यदि शंकरजी सबसे बड़े हैं तो वह वैलाश पर्वत पर क्यों पड़े हैं ? तो सभी कहने लगे कि हाँ भाई वैलाश पर्वत सबसे बड़ा है । तो एक देव कहने लगा — कि वैलाश पर्वत सबसे बड़ा है तो यह हनुमान जी के हाथों में क्यों उठा है ? तब सबने कहने लगे कि हनुमानजी सबसे बड़े हैं ? फिर एक देव कहने लगा — कि हनुमान जी सबसे बड़े हैं तो रामचन्द्र जी के चरणो में क्यों पड़े हैं? तो फिर सब कहने लगे — कि सबसे बड़े रामचन्द्र जी है, रामचन्द्र जी बड़े हैं तो एक देव कहने लगा कि रामचन्द्र जी बड़े है तो वह गुरु वशिष्ठ के चरणों में क्यों पड़े हैं? तो सबको मालूम हुआ कि गुरु का स्थान सबसे बड़ा है।
‘‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।’’
एक बार आप भगवान को मानने से इन्कार कर दोगे, भगवान को गाली दे आओगे तो कोई बात नहीं है। गुरु रूठे नहीं ठौर । यदि गुरु से रूठ गये तो संसार में कोई ठौर नहीं है। गुरु एक ऐसा सलाहकार है जो आपको रूठे हुये से मैत्री करा देगा, किसी न किसी प्रकार से आपको रूठे परमात्मा से मिला ही देगा। इसलिए —
‘‘गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय।
बलिहारी उन गुरुन की, गोविन्द दियो बताए।।’’
गुरु वह है जो आप परमात्मा से रूठ जाओगे। फिर भी किसी न किसी प्रकार से आपका परमात्मा से परिचय करा देगा। लेकिन यदि गुरु रूठ गये तो संसार में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो आपको परमात्मा से साक्षात्कार करा दे ? गुरु उपासना से क्या मिलता है ? यह बात बहुत सोचने और समझने की है। हम शास्त्र कितनी भी बार पढ़ लें ? फिर भी शास्त्र हमको समझा नहीं सकता है। लेकिन गुरु के पास आकर हम बहुत कुछ समझ सकते हैं। लेकिन यह गुरुओं का समागम भी, सन्तों का समागम भी बिना पुण्य के नहीं मिल पाता है।
‘‘पुण्य पुञ्ज बिन मिलहिं न संता, सत्संगति संसृति कर अन्ता। ’’
उसके लिये प्रकृष्ट पुण्य का संचयन चाहिये। जो सत्य से साक्षात्कार करा देते हैं, उसका नाम है सत्संगति । जो आन्तरिक सत्य है, संत उससे हमारा साक्षात्कार करा देते हैं। उस अंतरंग सत्य में प्रभु , परमात्मा की अनुभूति करा देते हैं वह सन्त होते हैं। जो अन्त से सहित होते हैं वह संत होते हैं जिनकी सत्संगति संसार को अन्त कराने वाली होती है। सत्संगति संसृति कर अन्त:। सत्संगति का अर्थ— जनकी संगति हमारे संसार के परिभ्रमण की यात्रा को मिटा देती है, जो अन्तरंग में विषय—कषायों के बवण्डर उठ रहे हैं, विषय— कषायों के तूफान आ रहे हैं । विषय—कषायों के जंगल में भटक गये हैं । कषायों के काँटे चुभ रहे हैं । इन सबसे परिमुक्त करके गुरु, हमारे अन्दर नयी स्फुर्ति, नया उजाला, नया प्रकाश उद्घाटित कर देते हैं । आपके पास सब कुछ हो। एक भक्त कहता है —
‘‘शरीरं सुरूपं सदा रोग मुत्तंक़, यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यं।
गुरोरघ्रिं पद्मे मनश्चेत् न लग्नं , तत: किं तत: किं तत: किं ?।।’’
आपका शरीर सुन्दर है, रोगमुक्त है, यश है एवं सुन्दर चरित्र भी है और सुमेरु पर्वत के समान आपके पास धन है। फिर भी यदि गुरु चरणों की भक्ति नहीं है तो तुम्हारे पास कुछ नहीं है, कुछ नहीं है, कुछ नहीं है, गुरु परमात्मा का साक्षात्कार कराते हैं और जो व्यक्ति गुरु को अपने अन्त:स्थल में विराजमान कर लेता है तो गुरु के सहारे भगवान, परमात्मा अपने अन्दर भी आ जाते हैं। इतना सस्ता सौदा और कहाँ मिलेगा ? आप अकेले भगवान को पकड़ने जाओ तो परेशान होंगे। कि नहीं होंगे , लेकिन गुरु चरण की सेवा , वह अपने आप आपके अन्दर परमात्मा की अनुभूति करा देगी। एक बार हम गुरुभक्ति पर प्रवचन दे रहे थे कि गुरु भक्ति करनी चाहिए आदि। एक महिला ने प्रवचन के बाद हमसे पूछा—महाराज जी आज हमारे साधु—गुरु शिथिलाचारी हो गये हैं, हम कैसे जाने कि ये सच्चे साधु गुरु हैं? हमने कहा कि हमारे पास एक फार्मूला है सच्चे साधु पहचानने की। महिला बड़ी प्रसन्न हुई और आप लोग चाहते भी क्या हैं ? यही न कि हमें साधु की परीक्षा करनी आ जाये। हमने कहा— तुम्हें साधु—गुरु जरूर मिलेंगे। जिस दिन आपकी आत्मा, सच्ची श्रावक बन जायेगी, उस दिन आपको सच्चे साधु, गुरु मिल जायेंगें। आजकल व्यक्ति या तो गुरुओं , साधुओं की अन्धभक्ति करता है जिससे उनके अवगुण भी गुण प्रतीत होते हैं या जहाँ हमारे चारित्र के प्रति साधु ध्यान नहीं दे — हमारी कमजोरी को प्रोत्साहन दे, वे हमारे गुरु हैं, ऐसे समय में यह कहावत चरितार्थ होती है कि लोभी गुरु लालची चेला, होय नरक में ठेलं ठेला। अत: इस बात का ध्यान भी हमें होना चाहिये। अथवा हम लोग साधु, गुरुओं की इतनी उपेक्षा करते हैं कि उनमें गुण ही दिखाई नहीं देते हैं । अत: अपने को गुरु दर्शन में क्या करना है ? यदि पुण्योदय से साधु संघ के सहित आ जायें तो विशेष भक्ति करना चाहिये। प्रवचन सुनना चाहिए। जरूरी नहीं, सब साधु प्रवचन दें। लेकिन उनके दर्शन एवं आहारदान आदि का लाभ भी जरूर लेना चाहिए, यथासमय वैयावृत्ति भी करनी चाहिए। साधु के लिये ज्ञानोपकरण संयमोकरण के अलावा ऐसी कोई वस्तु नहीं देनी चाहिये जिससे साधु एवं धर्म का अपलाप हो। लेकिन यदि किसी साधु की चर्या पर तुम्हारी आस्था न झुके तो उनकी निन्दा भी नहीं करनी चाहिये। जिन्हे आपने अपना धर्म गुरु माना है, वर्ष भर में एक बार सपरिवार या यथावसर उनके दर्शन—वन्दन करने के लिये अवश्य जाना चाहिए। उनसे कोई न कोई नियम, व्रत, संयम अवश्य लेना चाहिए, तभी वे हमारे धर्म गुरु बनेंगे और हर वर्ष कोई न कोई व्रत—नियम बढ़ाते रहना चाहिये। नियम—व्रतों में लगे दोषों की आलोचनापूर्वक प्रायश्चित लेना चाहिये, तभी हम सभी का कल्याण होगा। इस प्रकार देव— शास्त्र— गुरु के दर्शन करके मंदिर जी से बाहर निकलते समय तीन बार आस्सही,आस्सही,आस्सही बोलना चाहिए। आस्सही बोलने का तात्पर्य है कि जिन देवों, क्षेत्रपालादि से हमने दर्शन—पूजन आदि के लिये स्थान लिया था, उन्हें सौंप दिया। दर्शन करके बाहर निकलते समय देव—शास्त्र—गुरु को पीठ नहीं दिखानी चाहिये। ऐसा शास्त्रकारों का मत है—
‘‘अग्रतो जिन देवस्य, स्तोत्र—मन्त्रार्चनादिकम्।
कुर्यान्न दर्शयेत् पृष्ठं, सम्मुखं द्वार लंघनम् ।।’’
अर्थात् जिन देव के आगे स्तोत्र—मंत्र और पूजन आदि करें परन्तु बाहर निकलते समय अपनी पीठ नहीं दिखायें। सम्मुख ही पिछले पैरों से चलकर द्वार का उलंघन करें।