२.१ श्री महाराज नाभिराज की मरुदेवी नाम की रानी थी जो कि अपने रूप, सौंदर्य, कांति, शोभा, द्युति और विभूति आदि गुणों से इन्द्राणी के समान थी। उस मरुदेवी के विवाह के समय इन्द्र के द्वारा प्रेरित हुए उत्तम देवों ने बड़ी विभूति के साथ उनका विवाहोत्सव मनाया था। उस समय संसार में महाराज नाभिराज ही सबसे अधिक पुण्यवान् थे और मरुदेवी ही सबसे अधिक पुण्यवती थी क्योंकि जिनके स्वयंभू भगवान ऋषभदेव पुत्र होंगे उनके समान पुण्यशाली और कौन हो सकता है? उस समय उत्तम भोगों का अनुभव करते हुए वे दोनों दम्पत्ति ऐसे जान पड़ते थे मानों भोगभूमि की नष्ट हुई लक्ष्मी को ही साक्षात् दिखला रहे हों।
अयोध्या की रचना (Creation of Ayodhya)- जब सर्वत्र कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब नाभिराज और मरुदेवी से अलंकृत स्थान में उनके पुण्य के द्वारा बुलाये हुए इन्द्र ने अयोध्या नगरी की रचना की। उस समय जो मनुष्य जहाँ-तहाँ बिखरे हुए रहते थे, देवों ने उन सबको लाकर उस नगरी में बसाया और सबकी सुविधा के लिए अनेक प्रकार के उपयोगी स्थानों की रचना की। उस नगरी के मध्य में देवों ने सर्वतोभद्र नामक ८१ मंजिल का राजमहल बनाया था। वह राजमहल इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला था और बहुमूल्य अनेक विभूतियों से सहित था।
अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभयोग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया। जिन्हें अनेक संपदाओं की परम्परा प्राप्त हुई थी, ऐसे महाराज नाभिराज ने मरुदेवी के साथ आनन्दित होकर पुण्याहवाचन के समय ही उस अतिशय ऋद्धियुक्त अयोध्या नगरी में निवास करना प्रारंभ किया था। ‘‘इन दोनों के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे’’ यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी।
छह महीने बाद ही भगवान ऋषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे, ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नों की वर्षा की थी। इन्द्र की आज्ञा से नियुक्त हुए कुबेर ने हरिन्मणि, इन्द्रनील मणि, पद्मराग मणि आदि उत्तम-उत्तम रत्नों की धारा को नाभिराज के आंगन में वर्षाया था। इस प्रकार स्वामी ऋषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर पीछे भी नौ महीने तक अर्थात् पन्द्रह महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी।
माता के सोलह स्वप्न (Sixteen Dream of Mother)-किसी दिन महारानी मरुदेवी ने राजमहल में सोते समय रात्रि के पिछले प्रहर में जिनेन्द्रदेव के जन्मसूचक सोलह स्वप्न देखे।
(१) ऐरावत हाथी
(२) शुभ्रबैल
(३) सिंह
(४) हाथी के द्वारा स्वर्णमय कलशों से अभिषिक्त होती हुई कमलासन पर बैठी लक्ष्मी
(५) दो पुष्पमालाएँ
(६) पूर्ण चन्द्र मंडल
(७) उदित होता हुआ सूर्य
(८) कमल पत्र से आवृत स्वर्ण के दो कलश
(९) सरोवर में क्रीड़ा करती हुई दो मछलियाँ
(१०) कमलयुक्त सुन्दर तालाब
(११) लहरों से युक्त गंभीर समुद्र
(१२) रत्न निर्मित उत्कृष्ट सिंहासन
(१३) रत्नों से दैदीप्यमान स्वर्ग का विमान
(१४) नागेन्द्र भवन
(१५) किरणों से शोभित रत्नों की राशि
(१६) निर्धूम अग्नि।
इस प्रकार सोलह स्वप्नों को देखने के बाद मरुदेवी ने देखा कि स्वर्ण के समान पीली कांति का धारक, उन्नत कंधों वाला बैल हमारे मुख कमल में प्रवेश कर रहा है।
अनंतर मंगलवाद्यों की ध्वनि और सुप्रभात आदि मंगल स्तोत्रों से प्रबोध को प्राप्त हुई वह रानी उठकर बैठ गई। अनंतर हर्षित हुई वह मरुदेवी मंगल स्नान कर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो अपने पति के पास पहुँची और विनय से महाराज नाभिराज के दर्शन कर अर्धासन पर सुखपूर्वक बैठकर महाराज नाभिराज से इस प्रकार निवेदन किया-हे देव! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं और उन स्वप्नों को क्रमशः सुनाकर कहा कि हे देव! आप इन स्वप्नों का फल कहिये। महाराज नाभिराज भी अवधिज्ञान से इन स्वप्नों का फल जानकर कहने लगे-हे देवि! सुनो, ऐरावत हाथी के देखने से तुम्हारे उत्तम पुत्र होगा, उत्तम बैल देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा, सिंह के देखने से अनन्त बल से युक्त होगा, मालाओं के देखने से समीचीन धर्म के तीर्थ का चलाने वाला होगा, लक्ष्मी के देखने से सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा, पूर्ण चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा, सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा, दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा, मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा, सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा, समुद्र को देखने से केवली होगा, सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा, देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा, नागेन्द्र का भवन देखने से वह अवधिज्ञानरूपी लोचनों से सहित होगा, चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाला होगा तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अपना शरीर धारण करेंंगे। इस प्रकार महाराजा नाभिराज के वचनों को सुनकर रानी मरुदेवी परमानन्द से रोमांच को प्राप्त हो गई थी।
जब अवसर्पिणी के तीसरे सुषमादुःषमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ मास और एक पक्ष बाकी रह गया था, तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वङ्कानाभि नाम के अहमिंद्र देव-देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए और वहाँ सीप के संपुट में मोती की तरह सब बाधाओं से रहित होकर स्थित हो गये। उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान के गर्भावतार का समय जानकर वहाँ आये और सभी ने नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के माता-पिता को नमस्कार किया। महाराज नाभिराज का आंगन देवों से खचाखच भर गया। सौधर्म इन्द्र देवोंं के साथ संगीत, नृत्य आदि अनेकों उत्सवों से गर्भकल्याणक उत्सव मनाकर माता-पिता की पूजा कर अपने-अपने स्थानों पर चले गये। उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान माता मरुदेवी की सेवा करने लगीं।
नव महीने व्यतीत होने पर श्री, ह्री आदि देवियों से सेवित माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान, बालक होने पर भी गुणों से वृद्ध तथा तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी दैदीप्यमान पुत्र श्री ऋषभदेव को उत्पन्न किया। उस समय समस्त दिशाएँ निर्मल हो गईं, प्रजा का हर्ष बढ़ गया, कल्पवृक्षों से स्वयं ही पुष्प बरसने लगे, देवों के स्थानों में बिना बजाये स्वयं ही दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे एवं शीतल तथा सुगन्धित वायु मन्द-मन्द बहने लगी, अकस्मात् सभी देवों के आसन कम्पित होने लगे एवं देवों के मस्तक में लगे हुए मुकुट स्वयमेव नम्रीभूत हो गये। कल्पवासी देवों के घरों में घंटा, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद, व्यन्तर देवों के यहाँ भेरी शब्द एवं भवनवासी देवों के यहाँ शंखध्वनि होने लगी। आसन के कम्पित होने से इन्द्र ने भी अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर सूर्य के उदय को जानकर आसन से उतर कर भक्तिभाव से परोक्ष में ही भगवान को नमस्कार किया।
इन्द्र का आगमन (Arrival of Indra)-तदनन्तर सौधर्म स्वर्ग के सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित एक लाख योजन विस्तृत ऐरावत हाथी पर चढ़कर अनेक देवों से परिवृत हो प्रस्थान किया। इन्द्र की आज्ञा पाकर स्वर्गों से हाथी, घोड़े आदि की सात प्रकार की सेनाएँ, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद आदि सभी प्रकार के देव, इन्द्र को चारों ओर से घेर कर चलने लगे। सभी देव-देवेन्द्र अपने-अपने विमानों और पृथक्-पृथक् वाहनों पर चढ़कर जय-जय शब्दोच्चारण करते हुए समस्त आकाशरूपी आंगन को व्याप्त कर आ रहे थे। देवों से घिरे हुए सौधर्म इन्द्र अयोध्या नगरी की प्रदक्षिणा देकर अयोध्यापुरी में पहुँच गये।
प्रसूतिगृह से जिनबालक का लाना ( Bringing out of the Jin-Child from the Delivery Room)- इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव से प्रसूतिगृह में प्रवेश किया और वहीं जिन बालक के साथ-साथ माता मरुदेवी के दर्शन किये। पहले कई बार प्रदक्षिणा देकर जगद्गुरु जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया और अपने को गुप्त रखते हुए ही अनेक प्रकार से जिनमाता की स्तुति की और उसे मायामयी नींद से युक्त कर दिया। उसके आगे मायामयी दूसरा बालक रखकर तेजपुंज जगद्गुरु भगवान को दोनों हाथों से उठाकर वह परम आनन्द को प्राप्त हुई और भगवान के शरीर का बार-बार स्पर्श करते हुए महान् पुण्यबंध करके अपनी स्त्रीपर्याय का छेद कर दिया। जिनबालकरूपी सूर्य को लेकर जाती हुई उस इन्द्राणी के आगे-आगे अष्ट मंगल द्रव्य धारण करने वाली दिक्कुमारी देवियाँ चल रही थीं और वे ऐसी मालूम पड़ती थीं कि मानों भगवान की ऋद्धियाँ ही हों। अपने को कृतकृत्य मानती हुई इन्द्राणी ने आदर सहित जिन सूर्य को इन्द्र के हाथों में विराजमान कर दिया।
इन्द्र का भगवान को गोद में लेकर मेरु पर्वत पर गमन (Movement of Indra to Meru Mountain with Bhagwan in his lap)- भगवान को गोद में लेकर सौधर्म इन्द्र हर्ष से नेत्रों को प्रफुल्लित करते हुए भगवान के सुन्दर रूप को देखते हुए और अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए भी तृप्त नहीं हुआ, तब उसने अपने एक हजार नेत्र और बना लिये पुनः शीघ्रता से मेरु पर्वत पर चलने का इशारा करने के लिए इन्द्र ने अपना हाथ ऊँचा उठाया। उस समय हे ईश! आपकी जय हो! आप समृद्धिमान हो! इत्यादि मंगल शब्दों को जोर-जोर से कहते हुए देवों ने इतना अधिक कोलाहल किया था कि समस्त दिशाएँ बहरी हो गई थीं। आकाश मार्ग से जाते हुए देवगण स्तुति, नृत्य, संगीत आदि से मार्ग में करोड़ों उत्सव मना रहे थे। भगवान सौधर्म इन्द्र की गोद में बैठे हुए थे। ऐशान इन्द्र सफेद छत्र लगाकर उनकी सेवा कर रहा था और सानत्कुमार तथा माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र प्रभु के दोनों ओर क्षीरसागर की लहरों के समान सफेद चमर ढोर रहे थे। उस समय की विभूति देखकर अन्य मिथ्यादृष्टि देव इन्द्र को प्रमाण मानकर समीचीन जैनमार्ग में श्रद्धा करने लगे थे। मेरुपर्वतपर्यन्त नीलमणियों से बनाई गई सीढ़ियाँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो आकाश ही भक्ति से सीढ़ीरूप पर्याय को प्राप्त हो गया हो। क्रम-क्रम से वे इन्द्रगण ज्योतिष पटल को उल्लंघन कर निन्यानवे हजार योजन ऊँचे उस सुमेरु पर्वत पर जा पहुँचे।
सौधर्म इन्द्र ने बड़े प्रेम से देवों के साथ-साथ उस गिरिराज सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दी और पांडुक वन में ऐशान दिशा में स्थित पांडुक नामक शिला पर जिनेन्द्र भगवानरूपी सूर्य को विराजमान किया। पुन: विक्रिया से एक हजार भुजाएँ बना लीं और सभी कलशों से एक साथ अभिषेक कर दिया।
नामकरण (Naming Ceremony)- ये भगवान जगत भर में ज्येष्ठ हैं और जगत् का हित करने वाले धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेंगे, इसलिए ही इन्द्र ने उनका ‘ऋषभदेव’ यह सार्थक नाम रखा था तथा उनके ‘पुरुदेव’, ‘आदिनाथ’, ‘वृषभदेव’ आदि नाम भी प्रसिद्ध हुए।
अनन्तर भगवान की सेवा के लिए समान अवस्था, समान रूप और समान वेष वाले देवकुमारों को भगवान के साथ क्रीड़ा करने के लिए छोड़ दिया तथा स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, शरीर संस्कार करने और क्रीड़ा कराने के लिए अनेक देवियों को धाय बनाकर नियुक्त करके वे इन्द्रादि अपने-अपने स्थान को चले गये।
भगवान ऋषभदेव की बाल्यावस्था(Childhood of Bhagwan Rishabhdev)- भगवान ऋषभदेव अपनी पहली शैशव अवस्था में कभी मन्द-मन्द हँसते थे, कभी मणिमयी पृथ्वी पर धीरे-धीरे गिरते पड़ते पैरों से चलते हुए देव बालकों के साथ-साथ रत्नों की धूलि में क्रीड़ा करते हुए माता-पिता का हर्ष बढ़ा रहे थे। जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के धारी होने से वे संसार की स्थिति को समझने वाले और समस्त वाङ्मय को प्रत्यक्ष करने वाले, सरस्वती के एकमात्र स्वामी थे, इसलिए समस्त लोक के गुरु हो गये थे। उनका शरीर असाधारण, मल, मूत्र, पसीना से रहित, तपाये हुए सुवर्ण के सदृश था, उनके शरीर में दूध के समान रुधिर, समचतुरस्र नामक उत्तम संस्थान, वङ्कावृषभनाराच नामक उत्तम संहनन था, सुन्दरता और सुगंधि की परम सीमा को पहुँच चुका था, एक हजार आठ लक्षणों से अलंकृत, अप्रमेय महाशक्तिशाली था, वे भगवान प्रिय तथा हितकारी वचन बोलने वाले थे, वे माता का दूध नहीं पीते थे किन्तु इन्द्र के द्वारा हाथ के अँगूठे में स्थापित अमृत को पीते थे अर्थात् अँगूठे को चूसते हुए वृद्धि को प्राप्त होते थे।
भगवान के लिए देवोपनीत भोजन-वस्त्र आदि (Divinely-Supplied Foods-Clothes etc. for Bhagwan)-भगवान का कोमल बिस्तर, कोमल आसन, वस्त्र, आभूषण, अनुलेपन, भोजन, वाहन तथा यान आदि सभी वस्तुएँ देवनिर्मित थीं। ‘‘सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र के रहने के भवन की ईशान दिशा में ‘सुधर्मा’ नामक सभामंडप है, इसके मध्य इन्द्र का सिंहासन है, इस आस्थान मण्डप के आगे मानस्तंभ हैं, ये मानस्तंभ एक योजन चौड़े, छत्तीस योजन ऊँचे पीठकर सहित वङ्कामयी एक-एक कोश विस्तार वाले हैं और बारह धारा-पहलू सहित गोल हैं। इन मानस्तंभों में रत्नों की सांकल से लटकते ‘करंडक’ हैं। इनमें तीर्थंकरों के पहनने आदि के वस्त्र, आभरण आदि हैं। भगवान के लिए भोग-उपभोग योग्य वस्तुओं को इन्द्रादि देवगण, इन्हीं पिटारे से लाते हैं।
भगवान की यौवन अवस्था का प्रारंभ देखकर महाराज नाभिराज मन में विचार करने लगे कि चूँकि इनका धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने में भारी उद्योग है, ये नियम से सब परिग्रह छोड़कर वन में जाकर दीक्षा ग्रहण करेंगे तथापि तपस्या करने के लिए जब तक इनकी काललब्धि आती है, तब तक इनके लिए लोक-व्यवहार के अनुरोध से योग्य पत्नी का विचार करना चाहिए। यह निश्चित कर महाराज नाभिराज बड़े ही आदर के साथ भगवान के पास जाकर भगवान से कहने लगे कि हे देव! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ सो आप सावधान होकर सुनिये। आप जगत् के अधिपति हैं, इसलिए आपको जगत् का उपकार करना चाहिए। आप जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा हैं तथा स्वयंभू हैं-अपने आप उत्पन्न हुए हैं। आपकी उत्पत्ति में हम माता-पिता केवल निमित्तमात्र हैं। यह प्रजा महापुरुषों का ही अनुगमन करती है इसलिए हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ! किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह करने के लिए मन कीजिए क्योंकि ऐसा करने से प्रजा की सन्तति का उच्छेद नहीं होगा और उसी से धर्म की सन्तति बढ़ेगी, इस प्रकार धीर-वीर महाराज नाभिराज के वचन सुनकर भगवान ने हँसते हुए ‘ओम्’ कहकर उनके वचन स्वीकार कर लिये।
भगवान की अनुमति जानकर राजा नाभिराज ने इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती यशस्वती और सुनन्दा नाम की दो कन्याओं के साथ भगवान का पाणिग्रहण किया था। ये दोनों कन्यायें राजा कच्छ और महाकच्छ की बहनें थीं। भगवान के विवाह के समय इन्द्र ने देवोें सहित अनेकों उत्सव मनाये थे।
किसी समय यशस्वती महादेवी राजमहल में सो रही थीं, उस समय रात्रि के पिछले भाग में उन्होंने स्वप्न में ग्रसी हुई पृथ्वी, सुमेरु पर्वत, चन्द्रमा सहित सूर्य, हंस सहित सरोवर तथा चंंचल लहरों वाला समुद्र देखा। अनन्तर मंगल वाद्य गीतों के साथ प्रबोध को प्राप्त हुई रानी ने अपने पतिदेव भगवान ऋषभदेव के मुख से ‘देवि! तुम्हें चक्रवर्ती पुत्र होगा’ इस फल को सुनकर अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हो गईं। क्रमशः नौ महीने व्यतीत होने पर उन यशस्वती महादेवी ने महापुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया। उस समय उत्तम शुभ नक्षत्र आदि थे और चैत्र कृष्णा नवमी का दिन था। ये ही पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज हुए थे।
अनन्तर यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले ऋषभसेन, अनन्तवीर्य आदि निन्यानवे पुत्र हुए। वे सभी चरम शरीरी, महाप्रतापी थे तथा ‘ब्राह्मी’ नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई थी। भगवान ऋषभदेव की दूसरी पत्नी ‘सुनन्दा’ से भगवान ‘बाहुबली’ पुत्र हुए और ‘सुन्दरी’ नाम की पुत्री हुई थी। ये बाहुबली स्वामी चौबीस कामदेवों में से पहले कामदेव हुए थे। इन एक सौ एक पुत्र और दो पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव अतिशय शोभायमान हो रहे थे और महाराज नाभिराज तथा महारानी मरुदेवी अत्यन्त प्रसन्न थे। जब ये पुत्र-पुत्रियाँ योग्य अवस्था को प्राप्त हो गये, तब भगवान ऋषभदेव ने इन्हें सम्पूर्ण गुणों से और संस्कारों से संस्कारित कर दिया। कर्मयुग के प्रारंभ में भगवान ने अपने पुत्रों के कंठ, वक्षःस्थल आदि को विभूषित करने वाले ऐसे हार, कंकण, मुद्रिका आदि अनेकों आभूषण बनवाकर पुत्रों को विभूषित किया था।
किसी समय भगवान ऋषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश में लगाया। उसी समय उनकी ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियाँ मांगलिक वेषभूषा धारण कर पिता के पास पहुँची और विनय से भगवान को प्रणाम किया। भगवान ने भी उन दोनों कन्याओं को आशीर्वाद देकर बड़े प्रेम से उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया, उनके मस्तक पर हाथ फेरा और पुत्रियों के साथ कुछ विनोद करने लगे, अनन्तर बोले-हे पुत्रियों! तुम दोनों विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि विद्या ग्रहण करने का यही काल है। ऐसा कहकर बराबर उन्हें आशीर्वाद देकर भगवान ने अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया, फिर भगवान ने ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरणपूर्वक अपने दाहिने हाथ से ‘ अ आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी को शुद्ध अक्षरावली लिखने का उपदेश दिया, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर-व्यंजन के भेद से दो भेदरूप है और समस्त विद्याओं में पाई जाती है तथा भगवान ने अपने बायें हाथ से ‘इकाई दहाई’ आदि संख्या को लिखते हुए सुन्दरी को अंकगणित लिखने का उपदेश दिया। वाङ्मय के बिना न कोई शास्त्र है और न कोई कला है, इसलिए भगवान ने सबसे पहले उन पुत्रियों को वाङ्मय का उपदेश दिया था। व्याकरणशास्त्र, छंदशास्त्र और अलंकारशास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं। भगवान के द्वारा बनाया गया व्याकरणशास्त्र बहुत विस्तृत था, जिसमें सौ से अधिक अध्याय थे। भगवान ने सबसे प्रथम ब्राह्मी कन्या को वर्णमालाएं पढ़ाई थीं, यही कारण है कि आज भी इसे ब्राह्मी लिपि कहते हैं। पिता के अनुग्रह से ये दोनों कन्यायें समस्त विद्याओं को पढ़कर सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हो गई थीं।
जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये। बड़े-बड़े अध्यायों सहित अर्थशास्त्र, नृत्यशास्त्र, चित्रकला संंबंधी शास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, आयुर्वेद, तंत्र परीक्षा, रत्न परीक्षा आदि अनेकों विषयों को पढ़ाया और अधिक कहने से क्या? लोक का उपकार करने वाले जो शास्त्र थे, भगवान ने उन सभी को अपने पुत्रों को पढ़ाया था। इस प्रकार अपने इष्ट-स्त्री पुत्र और पुत्रियों से घिरे हुए सुखों का अनुभव करते हुए भगवान का गृहस्थाश्रम में बहुत कुछ काल व्यतीत हो चुका था अर्थात् बीस लाख पूर्व वर्षों का कुमार काल पूर्ण हो गया था।
इसी बीच में काल प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गयी थीं। मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोए उत्पन्न होने वाले धान्य थे, वे भी काल के प्रभाव से प्रायः विरलता को प्राप्त हो गये थे। कल्पवृक्षों के रस, वीर्य आदि के नष्ट होने से व्याकुल हुुई प्रजा जीवित रहने की इच्छा से महाराज नाभिराज के समीप गयी पुनः नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभदेव के समीप गयी और उन्हें नमस्कार करके निवेदन करने लगी कि हे तीन लोक के स्वामी! हम लोग जीविका प्राप्त करने की इच्छा से आपकी शरण में आये हैं अतः उपाय को बतलाकर हम लोगों की रक्षा कीजिए।
इस प्रकार प्रजाजनों के दीन वचन सुनकर हृदय दया से प्रेरित हो रहा है, ऐसे भगवान आदिनाथ अपने मन में विचार करने लगे-
‘‘पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है, वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है, उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जिस प्रकार असि, मषि आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर आदि की पृथक्-पृथक् रचना है, उसी प्रकार यहाँ पर भी होना चाहिए, इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है, इसलिए यहाँ प्रजा को असि, मषि आदि छह कर्मों के द्वारा ही आजीविका करना उचित है।’’
शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न के समय तथा सूर्य आदि ग्रहों के अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान के हर प्रकार की अनुकूलता होने पर इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक काम किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की, इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमंदिरों की रचना की। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित ग्राम तथा खेड़ों आदि की रचना की थी। देशों के मध्य भाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी सुशोभित हो रही थी। उस समय इन्द्र बड़े अच्छे ढंग से नगर, गाँवों आदि का विभाग कर ‘पुरन्दर’ इस सार्थक नाम को प्राप्त हुआ था, अनन्तर भगवान की आज्ञा से नगर, गाँव आदि में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ वह इन्द्र प्रभु की आज्ञा लेकर स्वर्ग को चला गया।
असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं। भगवान ऋषभदेव ने अपनी बुद्धिकुशलता से प्रजा के लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा आजीविका करने का उपदेश दिया था, सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान सरागी ही थे, वीतरागी नहीं थे अर्थात् सांसारिक कार्यों का उपदेश सराग अवस्था में दिया जा सकता है। उन छह कर्मों में तलवार आदि शस्त्र धारण कर सेवा करना असिकर्म कहलाता है, लिखकर आजीविका करना मसिकर्म है, जमीन को जोतना, बोना कृषि कर्म है, शास्त्र पढ़ाकर या नृत्य, गान आदि द्वारा आजीविका करना विद्या कर्म है, व्यापार करना वाणिज्य है और हस्त की कुशलता से चित्र खींचना आदि करना शिल्पकर्म है।
उसी समय आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी जो कि विपत्ति से रक्षा करना आदि गुणों के द्वारा क्रम से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाते हैं। त्रैवर्णिकों के विवाह, जातिसंंबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान की आज्ञानुसार ही होते थे। उस समय संसार में जितने भी पाप रहित आजीविका के उपाय थे, वे सब भगवान की सम्मति से प्रवृत्त हुए थे। इस प्रकार से भगवान ऋषभदेव कर्मयुग का प्रारंभ करने से ‘कृतयुग’ कहलाये और आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा के दिन कृतयुग को प्रारंभ करने से ‘प्रजापति’ कहलाये थे। भगवान ने मनुष्यों को इक्षुरस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिए जगत् के लोग उन्हें ‘इक्ष्वाकु’ कहने लगे। काश्य-तेज के रक्षक होने से ‘काश्यप’ कहलाये। प्रजा की आजीविका के उपायों का भी मनन करने से ‘मनु’ और कुलों की व्यवस्था करने से ‘कुलकर’ और ‘कुलधर’ भी कहलाये। उस समय प्रजा तीनों जगत् के स्वामी भगवान ऋषभदेव को ‘विधाता’, ‘विश्वकर्मा’ और ‘स्रष्टा’ आदि अनेक नामों से पुकारती थी।
सुखपूर्वक प्रजा का अनुपालन करते हुए कितना ही समय व्यतीत हो जाने पर देवों ने आकर भगवान का सम्राट पद पर अभिषेक करके महान् उत्सव मनाया। अभिषेक के लिए शुद्ध पवित्र गंगा-सिंधु आदि नदियों का, नन्दा-नन्दोत्तरा आदि वापियों का एवं क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्र आदि का भी जल लाया गया था और सुवर्ण घटों से गीत, नृत्य, वाद्य आदि महोत्सवपूर्वक अभिषेक प्रारंभ किया गया था। नाभिराज को आदि लेकर जो बड़े-बड़े राजा थे, उन सभी ने ‘सब राजाओं में श्रेष्ठ ये ऋषभदेव वास्तव में राजा के योग्य हैं’ ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक प्रारंभ किया। नगर-निवासीजनों ने भी, किसी ने कमलपत्र के दोने से, किसी ने मिट्टी के घड़े से सरयू नदी का जल लेकर भगवान के चरणों का अभिषेक किया।
तदनन्तर भगवान की आरती उतारकर स्वर्ग से लाये गये वस्त्र-आभूषण आदि से भगवान को अलंकृत किया। ‘महामुकुटबद्ध राजाओं के अधिपति भगवान ऋषभदेव ही हैं’ ऐसा कहते हुए महाराज नाभिराज ने अपने मस्तक का मुकुट अपने हाथ से उतारकर भगवान के मस्तक पर धारण कराया था तदनन्तर इन्द्रगण पूर्ववत् ‘आनन्द’ नामक नाटक को करके देवों के साथ अपने स्थान को चले गये। भगवान का यह राज्यकाल तिरेसठ लाख पूर्व वर्षों का था जो कि पुत्र-पौत्रों के साथ सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था।
किसी समय भगवान ऋषभदेव सभा-मंडप के मध्य भाग में स्थित सिंहासन पर विराजमान थे, उस समय भगवान की सेवा करने के लिए सौधर्म इन्द्र देवों और अप्सराओं के साथ पूजा की सामग्री लेकर भगवान के यहाँ आया और भगवान की आराधना करने की इच्छा से अप्सराओं और गन्धर्वों का नृत्य कराना प्रारंभ कर दिया। भगवान राज्य और भोगों से किस प्रकार विरक्त होंगे? यह विचार कर इन्द्र ने उस समय नृत्य करने के लिए एक ऐसे पात्र को नियुक्त किया, जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो गई थी। वह अत्यन्त सुन्दरी ‘नीलांजना’ नाम की देवनर्तकी रस, भाव और लय सहित फिरकी लगाती हुई नृत्य कर रही थी कि इतने में ही आयुरूपी दीपक के क्षय होने से वह बिजली के समान क्षणभर में अदृश्य हो गई।
उसके नष्ट होते ही इन्द्र ने रसभंग के भय से उस स्थान पर उसी के समान शरीर वाली दूसरी देवी खड़ी कर दी जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा। यद्यपि दूसरी देवी खड़ी कर देने के बाद भी वही नृत्य का परिक्रम था तथापि भगवान ने उसी समय उसके स्वरूप का अन्तर जान लिया था। तत्क्षण ही भोगों से विरक्त और अत्यन्त संवेग तथा वैराग्य भावना को प्राप्त हुए भगवान मन में चिन्तवन करने लगे कि बड़े आश्चर्य की बात है कि यह जगत् विनश्वर है, लक्ष्मी बिजलीरूपी लता के समान चंचल है, यौवन, शरीर, आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी चलाचल हैं।
उस समय विशुद्धियों ने भगवान के हृदय में अपना स्थान जमा लिया था और वे ऐसी मालूम होती थीं कि मानों मुक्तिलक्ष्मी के द्वारा प्रेरित हुई उसकी सखियाँ ही द्वादश अनुप्रेक्षारूप से सामने आकर उपस्थित हुई हों। जगद्गुरु भगवान के अन्त:करण की समस्त चेष्टाएं इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से जान ली थीं। उसी समय भगवान के वैराग्य की प्रशंसा करने के लिए और उनके तप कल्याणक की पूजा करने के लिए ‘लौकांतिक देव’ ब्रह्मलोक से उतरे। ये लौकांतिक देव सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट इस तरह आठ प्रकार के हैं। ये सभी देवों में उत्तम देवर्षि कहलाते हैं। पूर्व भव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के अभ्यास से ग्यारह अंग, चौदह पूर्व के पारंगत, विरक्त और बालब्रह्मचारी होते हैं, पाँचवे स्वर्ग के अन्तभाग में निवास करने वाले हैं और नियम से एक भवावतारी होते हैं। उन देवों ने प्रथम ही कल्पवृक्ष के पुष्पों से भगवान् के चरणों की पूजा की और फिर अनेकों अर्थों से भरे हुए स्तोत्रों से भगवान की स्तुति करने लगे। वे देव अपने इतने ही नियोग से कृतार्थ होकर अपने स्वर्ग को चले गये।
इतने में ही आसनों के कम्पायमान होने से समस्त इन्द्र अपने वाहनोें और अपने-अपने निकाय के देवों के साथ आये और अयोध्यापुरी को चारों ओर से घेरकर आकाश में ही अपने-अपने निकाय के अनुसार ठहर गये। अनन्तर इन्द्रों ने क्षीरसागर के जल से उनका महाभिषेक किया और दिव्य आभूषण-वस्त्र आदि से उन्हें अलंकृत किया। भगवान ऋषभदेव ने साम्राज्यपद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को उनसे सनाथ किया और युवराज पद पर बाहुबली को स्थापित किया। उस समय भगवान ऋषभदेव का तप कल्याणक महोत्सव और भरत का राज्याभिषेक हो रहा था, इन दोनों प्रकार के उत्सवों के समय स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक दोनों ही हर्ष से विभोर हो रहे थे। भगवान ने दोनों ही पुत्रों को राज्य समर्पित करके अपने शेष पुत्रों के लिए यह पृथ्वी विभक्त कर बाँट दी थी।
भगवान ऋषभदेव, इन्द्र के द्वारा बनाई गई ‘सुदर्शन’ नामक पालकी पर आरूढ़ हुए। उस समय भगवान की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पैंड तक ले चले और फिर विद्याधर लोग आकाश में सात पैंड तक ले चले अनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवों ने अत्यन्त हर्षित होकर वह पालकी अपनी कंधों पर रखी और शीघ्र ही उसे आकाश में ले गये। भगवान ऋषभदेव के माहात्म्य की प्रशंसा करना इतना ही पर्याप्त है कि उस समय देवों के अधिपति इन्द्र भी स्वयं उनकी पालकी ढो रहे थे। यक्ष जाति के देव सुगंधित पुष्पों की वर्षा कर रहे थे, शीतल पवन चल रही थी और करोड़ों मंगल वाद्य बज रहे थे। भगवान के प्रस्थान करने पर यशस्वती सुनन्दा रानियाँ मंत्रियों सहित भगवान के पीछे-पीछे चलने लगीं, उस समय शोक से उनके नेत्रों में आँसू भर रहे थे। यशस्वती और सुनन्दा महादेवियाँ अन्त:पुर की मुख्य-मुख्य स्त्रियों से परिवृत्त होकर पूजा की सामग्री लेकर भगवान के पीछे-पीछे जा रही थीं। उस समय महाराज नाभिराज भी मरुदेवी तथा सैकड़ों राजाओं से परिवृत्त होकर भगवान के तप कल्याणक का उत्सव देखने के लिए उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। सम्राट् भरत भी नगरनिवासी, मंत्री, उच्चवंश में उत्पन्न हुए राजा और अपने छोटे-छोटे भाइयों के साथ-साथ बड़ी भारी विभूति लेकर भगवान के पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव अत्यन्त विस्तृत ‘सिद्धार्थक’ नामक वन में जा पहुँचे। वह वन अयोध्यापुरी से न तो बहुत दूर था और न बहुत निकट था। इन्द्रों की सेना भी आकाश और पृथ्वी को व्याप्त करती हुई उस सिद्धार्थक वन में जा पहुँची। यह वन अशोक, चंपक, सप्तपर्ण, आम्र और वटवृक्षों से व्याप्त अनेक पक्षियों के कलकल रवों से मनोहर था। उस वन में देवों ने पहले से ही चन्द्रकान्तमणि से निर्मित, घिसे हुए चन्दन द्वारा दिये गये मांगलिक छींटों से चर्चित विस्तृत एक शिला स्थापित कर रखी थी। उस पर इन्द्राणियों ने अपने हाथों से रत्नों के चूर्ण के चौक बनाये थे। उस शिला पर बड़े-बड़े वस्त्रों से आश्चर्यकारी मण्डप बनाया गया जो कि धूपघट, मंगल द्रव्य और ध्वजाओं से मनोहर था। पालकी से उतरकर उस शिला पर विराजमान होकर भगवान ने देवेन्द्रों, मनुष्यों से भरी हुई उस सभा को उपदेश दिया और शोकातुर प्रजा को समझाया कि हे प्रजाजनों! तुम लोग शोक छोड़ो क्योंकि जब प्राणियों का शरीर से वियोग निश्चित है, तब अन्य वस्तुओं के वियोग की बात ही क्या? अतिशय चतुर भरत को मैंने आप लोगों की रक्षा करने में नियुक्त किया है, आप लोग निरन्तर धर्म में स्थिर रहते हुए उनकी सेवा करें। भगवान के ऐसा कहने के बाद प्रजा ने उनकी पूजा की। प्रजा ने जिस स्थान पर भगवान की पूजा की, वह स्थान आगे चलकर पूजा के कारण ‘प्रयाग’ नाम को प्राप्त हुआ।
प्रभु ने कुटुम्ब के लोगों तथा नम्रीभूत राजाओं का मोह त्यागकर अन्तरङ्ग-बहिरंग परिग्रह का त्याग कर दिया। भगवान पूर्व दिशा की ओर मुँह कर पद्मासन से विराजमान हुए और ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ इस मंत्र के द्वारा सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्ठियों से केशलोंच किया। चैत्र कृष्णा नवमी के दिन शुभमुहूर्त, शुभलग्न और उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सायंकाल के समय भगवान ने दीक्षा धारण की थी। भगवान के मस्तक पर निवास करने से पवित्र हुए केशों को इन्द्र ने रत्न के पिटारे में रखकर आदरपूर्वक उन्हें क्षीर समुद्र में क्षेपण किया।
जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव को योग धारण किये हुए जब छह माह पूर्ण हो गये, तब यतियों की चर्या-आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के अर्थ निर्दोष आहार ढूंढने के लिए निकले।
भगवान जिस ओर जाते थे, वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर बड़े संभ्रम से आकर उन्हें प्रणाम करते थे। उस समय सभी लोग आहारदान की विधि से अनभिज्ञ थे। भगवान क्यों विहार कर रहे हैं? ये भी नहीं समझते थे। कितने ही लोग भगवान के पीछे-पीछे चलने लगते थे, तो कितने ही लोग महान् अनर्घ्य रत्नों को भेंट में लाकर प्रार्थना करते कि हे देव! प्रसन्न होइये और हमारी तुच्छ पूजा स्वीकार कीजिए, कितने ही लोग करोड़ों पदार्थ, करोड़ों वाहन समीप में ले आते किन्तु भगवान को उनसे कुछ प्रयोजन न होने से वे चुपचाप आगे चले जाते। कितने ही गन्ध, वस्त्र, आभरण आदि ले आते और कितने ही अज्ञानी नवयौवन कन्याओं को ले आते और उनसे विवाह करने की प्रार्थना करने लगते कितने ही भोजन सामग्री ले आते थे।
इस प्रकार जगत् को आश्चर्य करने वाली गूढ़चर्र्या से उत्कृष्ट चर्या धारण करने वाले भगवान के छह महीने और भी व्यतीत हो गये। इस तरह एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान ऋषभदेव कुरुजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे। वहाँ वâे स्वामी राजा सोमप्रभ कुरुवंश के शिखामणि थे और उनके छोटे भाई राजा ‘श्रेयांस कुमार’ थे। उन श्रेयांस कुमार को रात्रि के पिछले प्रहर में कुछ उत्तम-उत्तम स्वप्न हुए जिसका फल पुरोहित के वचनों से सुनकर दोनों भाई भगवान की कथा करते हुए बैठी ही थे कि इतने में भगवान ऋषभदेव अकेले ही विहार करते हुए हस्तिनापुर में आ गये। सिद्धार्थ नामक द्वारपाल से प्रभु के आगमन का समाचार सुनकर दोनों भाई राजमहल के आँगन तक बाहर और दूर से ही नम्रीभूत होकर भगवान के चरणों को भक्ति से नमस्कार किया, प्रदक्षिणाएँ दीं और जल से चरणों का प्रक्षालन कर पूजा करके अर्घ्य समर्पण करने लगे।
भगवान् के रूप को देखकर राजा ‘श्रेयांस कुमार’ को जातिस्मरण हो गया, जिससे उन्हें अपने पूर्व भव संबंधी श्रीमती और वङ्काजंघ का समस्त वृत्तांत याद हो आया अर्थात् इससे पूर्व आठवें भव में भगवान आदिनाथ का जीव राजा वङ्काजंघ था और राजा श्रेयांस कुमार का जीव रानी श्रीमती था। इन युगल दम्पत्तियों ने बड़ी भक्ति से चारण ऋद्धिधारी युगल मुनियों को आहार दान दिया था। उसका राजा श्रेयांस को इस समय स्मरण हो गया। इससे मुनियों के आहारदान की सारी विधि को समझकर राजा श्रेयांस शीघ्र ही भगवान को आहारदान देने में तत्पर हो गये थे। मुनिराज का पड़गाहन करना, उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार की शुद्धि का निवेदन करना, ये दान देने वाले की नवधा भक्ति कहलाती है। ‘‘इस प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक राजा सोमप्रभ, उनकी रानी लक्ष्मीमती और श्रेयांस कुमार आदरपूर्वक भगवान के हाथ की अंजलि में इक्षुरस का आहार दे रहे थे।’’ उस समय इस महादान के प्रभाव से आकाश से देवों के द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की गई थी। वह दिन वैशाख शुक्ला तृतीया का था। यही कारण है कि आज भी उस दिन को ‘अक्षय तृतीया’ कहते हैं।
तदनन्तर देवों से समीचीन दान और उसके फल की घोषणा सुनकर महाराज भरत भी वहाँ आकर श्रेयांस को दानतीर्थ प्रवर्तक मानकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। चार ज्ञान के धारक भगवान इस प्रकार से एक हजार वर्ष तक तपश्चरण करते रहे।
किसी समय विचार करते हुए भगवान ‘पुरिमतालपुर’ नामक नगर के ‘शकटास्य’ नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर पर्यंकासन से विराजमान हो गये। इस नगर के राजा वृषभसेन भगवान के पुत्र और भरत के छोटे भाई थे। उस समय भगवान ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी ईंधन को जला दिया और फाल्गुन कृ. एकादशी के दिन उन्हें लोक-परलोक प्रकाशी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने तत्क्षण ही देव कारीगरों के साथ सुन्दर समवसरण बना दिया। इन्द्रनीलमणि से निर्मित गोल यह समवसरण बारह योजन विस्तृत कमल के आकार का होता है। इसके मध्य में गंधकुटी कर्णिका के आकार की ऊँची उठी हुई होती है। केवलज्ञान होने के बाद भगवान इस पृथ्वी तल से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चले जाते हैं। एक धनुष चार हाथ का होता है। समवसरण में बीस हजार सीढ़ियाँ होती हैं जो कि एक हाथ प्रमाण ऊँची रहती हैं। समवसरण में चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वथा प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं। समवसरण की चार महावीथियों में चार मानस्तंभ होते हैं, जिनके दर्शन से ही मिथ्यादृष्टि भव्यों के मानगलित हो जाते हैं।
इस प्रकार सज्जनों को मोक्षरूपी उत्तम फल की प्राप्ति कराने के लिए भगवान ने अपने गणधरों के साथ-साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्षों तक विहार किया और जब आयु के चौदह दिन बाकी रह गये, तब योगों का निरोध कर पौषमास की पूर्णमासी के दिन श्रीशिखर और सिद्धशिखर के बीच में कैलाशपर्वत पर जाकर विराजमान हो गये। उसी रात्रि में भरत महाराज ने स्वप्न में देखा कि महामेरुपर्वत अपनी लम्बाई से सिद्धक्षेत्र तक पहुँच गया है। अर्ककीर्ति, गृहपति, प्रधानमंत्री आदि ने भी कुछ-कुछ स्वप्न देखे। सभी ने प्रात: निर्णय किया कि भगवान ऋषभदेव का मोक्ष होने वाला है। भरत महाराज उसी दिन वहाँ कैलाशपर्वत पर आ गये और चौदह दिन बराबर अखंड पूजा करते रहे।
माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्र में भगवान ऋषभदेव पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अनेक मुनियों के साथ पर्यंकासन से विराजमान थे, उन्होंने तीसरे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नाम के शुक्लध्यान से तीनों योगों का निरोध किया और फिर अंतिम गुणस्थान में ठहरकर पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण प्रमाण काल में चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के शुक्लध्यान से अघातिया कर्मों का नाश किया। औदारिक, तैजस और कार्माण इन तीनों शरीरों के नाश से सिद्धत्व पर्याय प्राप्तकर वे सम्यक्त्व आदि निज के आठ गुणों से युक्त हो क्षणभर में ही तनुवातवलय में जा पहुँचे तथा वहाँ पर नित्य, निरंजन अपने अंतिम शरीर से कुछ न्यून, अमूर्त, आत्मसुख में तल्लीन और निरन्तर संसार को देखते हुए विराजमान हो गये।
उसी समय मोक्षकल्याणक की पूजा करने की इच्छा से सब देवगणों ने ‘‘यह भगवान का शरीर पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्ष का साधन, स्वच्छ और निर्मल है’’ यह विचार कर उसे बहुमूल्य पालकी में विराजमान किया। तदनन्तर जो अग्निकुमार देवों के इन्द्र के रत्नों की कान्ति से दैदीप्यमान उन्नत मुकुट से उत्पन्न हुई है तथा चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर आदि सुगंधित पदार्थों और घी, दूध आदि से बढ़ाई गई है, ऐसी अग्नि से जगत् की अभूतपूर्व सुगंधि प्रगट कर उनके नख-केश आदि बचे हुए अवयवों का अग्नि संस्कार किया। तदनन्तर उन्हीं इन्द्रों ने पंचकल्याणक को प्राप्त होने वाली श्री ऋषभदेव के अग्नि संस्कार की भस्म उठाई और हम लोग भी ऐसे ही हों, यही सोचकर बड़ी भक्ति से अपने ललाट पर, दोनों भुजाओं में, गले में और वक्षस्थल में लगाई।
उधर भरत महाराज पिता के वियोग से विह्वल हुए शोकरूपी अग्नि से पीड़ित हो गये, तब श्री वृषभसेन गणधर ने उन्हें बहुत समझाया और उनके संतप्त चित्त को धर्मामृत वचनों से शान्त किया।
जब चतुर्थकाल के प्रारंभ होने में तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष थे, तब भगवान ऋषभदेव ने मोक्षपद प्राप्त किया था। अनन्तर चतुर्थकाल में अजितनाथ से लेकर भगवान महावीर पर्यंत २३ तीर्थंकर और हुए हैं।