जैन दर्शनकार श्रद्धा ज्ञान और आचरण की समष्टि को ही मोक्ष-मार्ग बताते हैं।
‘‘सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:।’’
यह जैन दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है, अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की संयुति ही मोक्ष का मार्ग है। सम्यक् शब्द समीचीनता का द्योतक है। यह तीनों में अनुगत है। यहाँ दर्शन का अर्थ श्रद्धा है, तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की श्रद्धा को सम्यक् दर्शन कहते हैं। वास्तविक बोध सम्यक् ज्ञान है तथा आत्म-कल्याण के लिए किया जाने वाला सदाचरण सम्यक् चारित्र है।
सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और आचरण तीनों के योग से ही मोक्ष मार्ग बनता है। लोक में रत्नों की तरह दुर्लभ होने के कारण इन्हें रत्नत्रय भी कहते हैं, ये तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग कहलाते हैं।
मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार ही जिनशासन में कहे गए हैं। मोक्ष के उपाय का नाम मार्ग है और निर्वाण उसका फल है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इनकी एकता ही मोक्ष का उपाय है। अपने-अपने स्वरूप के अनुसार पदार्थों का जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है। जिस-जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ व्यवस्थित हैं उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं। इन तीनों की पूर्णता से होने वाला जो फल है उसी का नाम निर्वाण है जो कि अक्षय, अनंत, अतीन्द्रिय, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यस्वरूप है। इस निर्वाण के विषय में प्राय: किसी को विसंवाद नहीं है क्योंकि सभी लोग सामान्य से सर्व दु:खों से छूट जाने को ही निर्वाण या मोक्ष कहते हैं।
चारित्र जीवन की सबसे बड़ी निधि है। आचार को धर्म कहा गया है। धर्म का क्रियात्मक रूप आचार है। पर आचार को एक निश्चित विचार से अभिप्रेरित होना चाहिए। विचार रहित आचार और आचार रहित विचार हमें वांछित परिणाम नहीं दे सकता। आचार और विचार की इसी अन्योन्याश्रितता के कारण ही जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक््âचारित्र की एकरूपता को धर्म कहा गया है।
विभिन्न दृष्टियों से सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षण बताये गए हैं। यथा-
१. परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु पर तीन मूढ़ता और आठ मदों से रहित तथा आठ अंगों से युक्त होकर श्रद्धा करना।
२. तत्त्वों पर श्रद्धा करना।
३. स्व-पर का श्रद्धान करना।
४. आत्मा का श्रद्धान करना।
इन लक्षणों में तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप लक्षण सभी में दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि जीव की शुद्ध अवस्था ही देव है। सच्चे गुरु तो साक्षात् संवर—निर्जरा की प्रतिमूर्ति हैं। शास्त्र रत्नत्रय रूप सच्चे धर्म का अधिष्ठान है। सच्चा धर्म अजीव, आस्रव और बन्ध इन तत्त्वों से हटकर संवर और निर्जरा तत्त्वों की ओर झुकने का नाम है। इसका फल मोक्ष है। अत: सच्चे देव, शास्त्र व गुरु की श्रद्धा व सात तत्त्वों की श्रद्धा एक ही बात है।
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं, इनमें जीव स्वतत्त्व है। अजीव, आस्रव और बन्ध ‘पर’ हैं। संवर और निर्जरा स्व के साधन हैं। मोक्ष जीव का स्वाभाविक रूप है। अत: स्व—पर का श्रद्धान रूप लक्षण भी इस सात तत्त्व वाले लक्षण में समाहित हो जाता है। आत्मश्रद्धान रूप लक्षण का अर्थ है–आत्मा के समस्त अजीव, आस्रव, बन्ध आदि वैभाविक भावों से रहित अवस्था का श्रद्धान करना। उसमें भी सात तत्त्वों वाला लक्षण गर्भित हो जाता है।
जिसके होने पर कार्य हो जावे अथवा नहीं भी होवे किन्तु जिसके बिना नहीं होवे वह कारण है। जैसे-मुनिमुद्रा के होने पर मोक्ष होवे अथवा नहीं भी होवे किन्तु उसके बिना नहीं हो सकता है।
तथा जिसके होने पर नियम से कार्य हो जावे वह कारण, कारण न कहलाकर ‘करण’ कहलाता है और वह साधकतम माना जाता है जैसे कि अध:करण आदि तीन करणरूप करणलब्धि के होने पर नियम से सम्यक्त्वरूप कार्य प्रकट हो जाता है।
कुछ लोग कारणों को अत्यंत हेय अथवा उपेक्षा बुद्धि से देखते हैं। वे इन्हें कार्य की उत्पत्ति में नगण्य अथवा अकिंचित्कर मानते हैं किन्तु ऐसी बात नहीं है। आगम में तो कारणों के बिना ‘करणलब्धि’ का होना ही असंभव बतलाया है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। विरले जीवों को ही इसकी उपलब्धि होती है। उसके लिये कतिपय योग्यताओं की आवश्यकता होती है। भव्य, संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, विशुद्धतर लेश्यावाला जागृत जीव ही सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है।
१. क्षयोपशमलब्धि, २. विशुद्धिलब्धि, ३. देशनालब्धि, ४. प्रायोग्यलब्धि, ५. करणलब्धि।
१. क्षयोपशमलब्धि—तत्त्व—विचार की शक्ति की उपलब्धि क्षयोपशमलब्धि है। कर्मों के क्षयोपशम से जीवों को यह कदाचित् प्राप्त होती है। जीव का भव्य होने के साथ संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक होना इसी लब्धि का कार्य है। इस अवस्था में अशुभ कर्मों की अनुभाग शक्ति (फलदान शक्ति) को प्रति समय अनन्तगुणा हीन करते हुए उदीरणा के योग्य (भोगने योग्य) बना लिया जाता है।
२. विशुद्धिलब्धि—परिणामों में प्रति समय विशुद्धि की वृद्धि को विशुद्धिलब्धि कहते हैं। यह लब्धि पुण्य कर्मों के बंधन में कारणभूत परिणामों की प्राप्ति—स्वरूप है। यह कषायों की मन्दताजन्य पुरुषार्थ का प्रतिफलन है।
३. देशनालब्धि—सम्यक् उपदेश का श्रवण और मनन देशनालब्धि है। तत्त्वोपदेष्टा निर्ग्रन्थ आचार्य—मुनियों का समागम और शास्त्र का अभ्यास इसी के अन्तर्गत आता है।
४. प्रायोग्यलब्धि—परिणामों की विशुद्धि—वश सत्तागत (संचित) कर्मों की स्थिति घटकर अन्त:कोड़ा—कोड़ी सागर मात्र रह जाना और अशुभ कर्मों का अनुभाग—बंध द्विस्थानीय होना प्रायोग्यलब्धि है। तात्पर्य यह है कि इस लब्धि को प्राप्त जीव प्रतिसमय बँधने वाली अशुभकर्म प्रकृतियों की शक्ति को क्षीण करता जाता है। साथ ही पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति अर्थात् फलदान काल की अवधि को भी घटा लेता है।
ये चारों ही लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को समान रूप से प्राप्त हो सकती हैं। करणलब्धि भव्य जीवों को ही होती है। इस लब्धि में प्रविष्ट साधक निश्चयत: सम्यक्त्व उपलब्ध कर लेता है। इन पाँच लब्धियों से प्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है।
५. करणलब्धि—परिणामों की उत्तरोत्तर विशुद्धि को करणलब्धि कहते हैं। पूर्वोक्त चार लब्धियों के द्वारा विशुद्धि को प्राप्त जीव एक अवस्था में आकर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिवाला हो जाता है। उत्तरोत्तर बढ़ने वाली यह विशुद्धि ही करणलब्धि है। करणलब्धि तीन प्रकार की होती है—अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण।
(क) अध:करण—अध: करण में परिणामों की विशुद्धि प्रतिसमय अनन्तगुणी होती जाती है। बढ़ती हुई इस विशुद्धि के परिणामस्वरूप उस समय बँधने वाली अशुभकर्म—प्रकृतियों का अनुभाग अनन्त गुणाहीन और शुभकर्म प्रकृतियों का अनुभाग अनन्त गुणा अधिक बँधता है। कर्मों की स्थिति भी प्रतिसमय पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन—हीन बँधती है।
(ख) अपूर्वकरण—इस करण में प्रतिसमय पूर्व में अनुभूत अपूर्व—अपूर्व परिणाम उत्पन्न होते हैं। इस करण में आत्मा का अपूर्व वीर्योल्लास जागता है। बढ़ती हुई विशुद्धि के बल पर साधक मोहग्रंथि का भेदन प्रारंभ कर देता है। अपूर्वकरण में प्रवेश करते ही साधक प्रथम समय में ही स्थिति घात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण ऐसी चार क्रियाओं को प्रारंभ कर देता है। ये क्रियाएँ मोहग्रंथि के भेद होने तक अन्तर्मुहूर्त तक निरंतर चलती रहती हैं।
स्थिति घात—स्थिति का अर्थ है—बद्ध कर्मों का आत्म प्रदेशों के साथ जुड़े रहने की कालावधि। स्थिति समूह का घात स्थितिघात कहलाता है। यह एक अन्तर्मुहूर्त में निष्पन्न होता है। अपूर्वकरण में ऐसे अनेक स्थितिघात होते हैं।
अनुभागघात—अशुभ कर्मों की फलदान शक्ति को अनन्तगुणी हीन—हीन करते जाना अनुभागघात कहलाता है। इसमें सत्तागत अशुभकर्मों के अनुभाग स्पर्धकों (फलदान शक्तियुक्त परमाणु समूह) को अनन्त भाग कर उसमें से एक अनन्तवें भाग को छोड़कर शेष सर्व परमाणुओं का अन्तर्मुहूर्त में घात कर दिया जाता है। प्रत्येक अनुभागघात में एक अन्तर्मुहूर्त लगता है। अपूर्व करण में ऐसे अनेक अनुभाग घात होते हैं।
गुणश्रेणी—उदयक्षण से लेकर प्रति समय असंख्यातगुणे कर्म निषेकों की रचना को गुणश्रेणी कहते हैं। अपूर्वकरण में साधक अपनी आत्मशुद्धि वश प्रतिसमय गुणश्रेणीरूप असंख्यातगुणी निर्जरा करता है।
गुणसंक्रमण—गुणसंक्रमण संक्रमण का एक भेद है। इसमें प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रम से अबद्धमान अशुभकर्म प्रकृतियों के कर्म निषेकों का उस समय बँधने वाली सजातीय प्रकृतियों में संक्रमण/परिवर्तन होता है।
(ग) अनिवृत्तिकरण—जिस करण में प्रति समय एक समान परिणाम हो उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इस करण में समयवर्ती जीवों के परिणाम समान ही होते हैं। यहाँ एक समय में जीव के एक ही परिणाम होता है। इसलिये उस समय में जितने जीव होंगे, सभी के परिणाम समान ही होंगे। अनिवृत्तिकरण का काल भी अंतर्मुहूर्त ही है, पर अपूर्वकरण के काल से संख्यात गुणा हीन है।
अनिवृत्तिकरण में अपूर्वकरण की समस्त क्रियाएँ होती हैं। इसका बहुभाग बीतने पर अन्तरकरण होता है।
अन्तरकरण—परिणामों में विशुद्धि के कारण सत्ता स्थित कुछ कर्म प्रदेशों में से कुछ निषेकों का अपना स्थान छोड़कर उत्कर्षण—अपकर्षण द्वारा ऊपर नीचे के निषेकों में मिल जाना अन्तरकरण है। इस अन्तरकरण द्वारा निषेकों की एक अटूट पंक्ति टूटकर दो भागों में विभाजित हो जाती है। एक पूर्व—स्थिति दूसरी अपरितन—स्थिति। बीच में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकों का अन्तर पड़ जाता है। यही अन्तरकरण है।
अन्तरकरण की समाप्ति के बाद अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में मिथ्यात्व कर्म के मिथ्यात्व, सम्यक्—मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति रूप तीन टुकड़े हो जाते हैं। तभी उस साधक के प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है।
सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है—निसर्गज और अधिगमज।
निसर्गज सम्यग्दर्शन—परोपदेश के बिना उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन निसर्गज सम्यग्दर्शन है।
अधिगमज सम्यग्दर्शन—परोपदेश पूर्वक उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन अधिगमज सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन के उक्त दो भेद सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाह्य निमित्तों की अपेक्षा से किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आगम में जो सम्यग्दर्शन के निम्न छह बाह्य हेतु बताए गये हैं, वे भी इन दोनों में अंतर्भूत हो जाते हैं।
१. जातिस्मरण—अतीत के जन्मों की स्मृति।
२. धर्मश्रवण—धर्मोपदेश का श्रवण और मनन।
३. जिनबिम्ब दर्शन—जिनेन्द्र प्रतिमा एवं वीतरागी मुनियों का दर्शन।
४. वेदनानुभव—तीव्र वेदनाजन्य पीड़ा का अनुभव। यह मात्र नारकी जीवों को होता है।
५. देवर्द्धिदर्शन—अपने से अधिक ऋद्धि और वैभवशाली देवों का दर्शन।
६. जिनमहिमादर्शन—तीर्थंकरों के पंचकल्याणक आदि महामहोत्सवों का दर्शन।
इनमें मनुष्यों और तिर्यञ्चों के लिए जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन ये तीन सम्यक्त्वोत्पत्ति के हेतु हैं। देवों को जातिस्मरण, धर्मश्रवण, देवर्द्धिदर्शन और जिनमहिमा दर्शन रूप चार कारणों से सम्यग्दर्शन होता है। उनमें भी देवर्द्धिदर्शन बारहवें स्वर्ग तक के देवों में और जिनमहिमा दर्शन सोलहवें स्वर्ग तक के देवों में ही सम्यग्दर्शन का हेतु है, क्योंकि शुक्ल लेश्या वाले होने के कारण बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देवों में एक—दूसरे की ऋद्धि के दर्शन से कोई फर्क नहीं पड़ता तथा सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के देवों का मर्त्यलोक में आगमन नहीं होता इस कारण से वहाँ जिनमहिमा दर्शन सम्यग्दर्शन का हेतु नहीं है। नवमें ग्रैवेयक से ऊपर के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। नरक गति में तीसरे नरक तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनानुभव ये तीन हेतु हैं। तीसरे नरक से नीचे देवों का गमन नहीं होने से वहाँ धर्मश्रवण नहीं होता।
उपरोक्त छहों हेतुओं में धर्मश्रवण के अतिरिक्त शेष सभी निसर्गज सम्यग्दर्शन में अन्तर्भूत हैं तथा धर्मश्रवण अधिगमज सम्यग्दर्शन में समाहित हो जाता है।