श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता | दिगम्बर परम्परा की मान्यता |
(१) महावीर पहले देवानंदा नामक ब्राह्मणी के गर्भ में आये पुनः इन्द्र ने उनका गर्भपरिवर्तन करके रानी त्रिशला के गर्भ में स्थापित किया। | (१) भगवान महावीर ने त्रिशला के गर्भ में ही अवतार लिया। |
(२) बिहार प्रान्त के ‘लिछवाड़’ ग्राम में महावीर का जन्म हुआ था। | (२) महावीर का जन्म विदेह देश (वर्तमान बिहार प्रान्त) की कुण्डलपुर नगरी (वर्तमान नालंदा जिला) में हुआ था। |
(३) वे माता-पिता एवं गुरु को नमस्कार करते थे। | (३) महावीर अपने माता-पिता, मुनि आदि किसी को भी नमस्कार नहीं करते थे। तीर्थंकर प्रकृति के नियमानुसार सभी तीर्थंकर केवल सिद्धों को नमन करते हैं और किसी को नहीं। |
(४) यशोदा नामक राजकुमारी के साथ उनका विवाह हुआ और उनकी प्रियदर्शना नामक पुत्री थी। उसके पश्चात् राज्य संचालन कर वे दीक्षाधारण कर देवदूष्य वस्त्रों को पहनते थे और दीक्षा के दूसरे वर्ष में उन्होंने उसका भी त्याग कर दिया था और वे अचेलक हो गये थे। | (४) महावीर ने ३० वर्ष की युवावस्था में दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की, वे बालब्रह्मचारी थे। महावीर अपनी माता के इकलौते पुत्र थे क्योंकि तीर्थंकर माता मात्र एक पुत्र को ही जन्म देती है। |
(५) महावीर यत्र-तत्र ग्रामों में विहार करते रहे और सबसे वार्तालाप करते रहे। चंडकौशिक सर्प के काटने पर उनके पैरों से दूध की धारा निकल पड़ी, उनके शरीर पर कीलें ठोकी गईं। | (५) दीक्षा के बाद महावीर ने मौनपूर्वक विहार किया और १२ वर्ष की तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त किया। |
(६) महावीर के ऊपर जगह-जगह तमाम नगरों में उपसर्ग हुआ। लोगों ने उन्हें बांधा, मारा, जेल में डाल दिया, उछालकर फेंक दिया, आग लगा दी..इत्यादि। | (६) महावीर पर उज्जयिनी के अतिमुक्तक वन में ध्यानावस्था में रुद्र ने मात्र एक बार उपसर्ग किया और ध्यान के बल पर उपसर्ग को जीतकर महावीर तीर्थंकर बने। दिगम्बर परम्परानुसार कोई भी उपसर्गकर्ता तीर्थंकर के शरीर को स्पर्श नहीं कर सकता है, उपसर्ग उनके चारों ओर होता है, तीर्थंकर को कोई कष्ट नहीं हो सकता है। महावीर अपने जीवन में कभी बीमार नहीं हुए, क्योंकि तीर्थंकर के शरीर में प्रारंभ से अंत तक कोई रोग नहीं होता है। |
(७) गोशालक ने भगवान महावीर पर तेजोलेश्या का प्रहार किया। | (७) गोशालक नामक कोई व्यक्ति भगवान महावीर के जीवनकाल में नहीं हुआ। |
(८) भगवान महावीर ने दीक्षा के पश्चात् चातुर्मास किये। | (८) तीर्थंकर दीक्षा के पश्चात् वर्षायोग नहीं करते। |
(९) श्वेताम्बर में दिगम्बर चित्र बनाते हुए उसके आगे पेड़ आड़ा कर देते हैं, सामने सर्प या आशीर्वाद का हाथ आड़ा करके नग्नता को ढक देते हैं। | (९) भगवान महावीर को दीक्षा लेने के पश्चात् नग्न दिगम्बर अवस्था में दिखाया जाता है। |
(१०) भगवान महावीर ने गौतम गणधर को निर्वाण जाने के समय अन्यत्र भेज दिया ताकि उनको वियोग का दुःख न हो। | (१०) भगवान महावीर ने अपने निर्वाण काल की बेला में गौतम गणधर को अन्यत्र जाने का आदेश नहीं दिया क्योंकि वे तो पूर्ण वीतरागी थे। |
(११) महावीर की माता ने १४ स्वप्न देखे। | (११) महावीर की माता ने १६ स्वप्न देखे जैसा कि प्रत्येक तीर्थंकर की माता अपने गर्भ में तीर्थंकर के आने के पहले १६ स्वप्न ही देखती हैं। |
(१२) रानी त्रिशला के महावीर से पहले एक पुत्र नंदीवर्धन तथा पुत्री सुदर्शना थे अर्थात् महावीर से पूर्व उनके एक भाई और एक बहन थी। | (१२) रानी त्रिशला के केवल एक ही पुत्र भगवान महावीर थे। |
(१३) महावीर का एक नाम वैशालिक भी माना है। | (१३) किन्हीं भी ग्रंथों में भगवान महावीर का नाम वैशालिक नहीं आया। |
(१४) महावीर से पूर्व महाश्रमण केशी कुमार हुए ऐसा माना है। | (१४) भगवान महावीर से पूर्व केशी कुमार नाम के कोई महामुनि नहीं हुए। |
(१५) माता त्रिशला ने महाराजा के शयनकक्ष में जाकर उनको जगाकर अपने स्वप्न बताये। उनका फल राजदरबार में विद्वान पंडितों को बुलाकर पूछा। | (१५) माता त्रिशला पिछली रात्रि मेंं स्वप्न देखकर अगले दिन प्रातः राजदरबार में जाकर महाराज सिद्धार्थ से स्वप्नों का फल पूछती हैं। |
(१६) गर्भ में यह जानकर कि माता को कष्ट हो रहा है महावीर ने हलन-चलन बंद कर दिया था। उनका यह नियम था कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक दीक्षा नहीं लूंगा। | ((१६) गर्भधारण करने से माता को कोई कष्ट नहीं था, न ही गर्भ में महावीर ने ऐसा कोई नियम लिया कि माता-पिता के जीवित रहने तक दीक्षा नहीं लूंगा। |
(१७) पांडुकशिला पर इन्द्र भगवान को गोद में लेकर बैठता है। | (१७) जन्माभिषेक के समय इन्द्र भगवान को गोद में लेकर पांडुकशिला पर नहीं बैठता है। |
(१८) बाल्यावस्था में महावीर स्कूल में पढ़ने गये। | (१८) तीर्थंकर स्कूल में पढ़ने नही जाते हैं वे तो जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी होते हैं। |
(१९) माता-पिता आदि को प्रणाम करते हैं। | (१९) दीक्षा के पूर्व या पश्चात् तीर्थंकर माता-पिता अथवा मुनियों को भी नमस्कार नहीं करते। |
(२०) भगवान ने अशोक वृक्ष के नीचे दीक्षा धारण की। | (२०) भगवान ने साल वृक्ष के नीचे दीक्षा धारण की। |
(२१) ध्यानस्थ अवस्था में गोशालक उनके पास बैल बांध गया पुनः आने पर बैल नहीं मिले तो उस गोशालक ने महावीर स्वामी को कोड़े मारे। | (२१) महावीर स्वामी के दीक्षा लेने के पश्चात् किसी भी गोशालक ने कोई उपसर्ग नहीं किया। |
(२२) इन्द्र ने भगवान महावीर के दीक्षा काल में आने वाले उपसर्गों से रक्षा के लिए साथ में रहने का निवेदन किया किन्तु भगवान ने मना कर दिया। | (२२) इन्द्र ने कभी भी भगवान महावीर को दीक्षा काल में यातनाओं से बचाने के लिए साथ में रहने का निवेदन नहीं किया। |
(२३) मोराक ग्राम के तापस आश्रम में चातुर्मास किया तथा कुटिया की घास गायों द्वारा खा जाने पर कुलपति ने महावीर को उपालंभ दिया। इस पर महावीर आश्रम छोड़कर अन्यत्र चले गये। | (२३) मुनि अवस्था में मोराक नगर के तापस आश्रम में नहीं ठहरे। |
(२४) भिक्षा, गवेषणा मार्ग, ज्ञान तथा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर के अतिरिक्त मौनपूर्वक रहने का नियम लिया। | (२४) दीक्षा लेने के पचात् तीर्थंकर किसी से किसी भी प्रकार का वार्तालाप, चर्चा, शंका-समाधान आदि नहीं करते। (दीक्षा लेने से केवलज्ञान होने तक) |
(२५) भ्रमण काल में अस्तिक ग्राम में एक सुनसान वैदिक मंदिर में ठहरे वहाँ के यक्ष ने घोर उपसर्ग किया। अंत में हारकर भक्त बन गया। | (२५) विहारकाल में अस्तिक ग्राम में किसी भी वैदिक मंदिर में नही ठहरे। |
(२६) कनखल आश्रम से श्वेताम्बी जाने के रास्ते में ध्यान में खड़े महावीर पर चण्डकौशिक सर्प ने दंशा घात किया जिसमें महावीर के पैर से दूध की धारा बह निकली। सर्प शांत हो गया उसे घी शक्कर अर्पित करने लगे जिससे उस पर असंख्य चीटियाँ चढ़ गई जिससे मरकर देव बन गया। | (२६) भगवान के विहार में कनखल आश्रम में जाने का कोई विवरण नहीं आता। |
(२७) संगम देव ने दीक्षित अवस्था में कभी पत्नी बनकर, कभी रूप लावण्य स्त्री का रूप धरकर, कभी पक्षी बनकर, कभी भगवान को चोरीकला का गुरु घोषित कर, कभी हाथी आदि जंगली जानवर बनकर ६ माह तक घोर उपसर्ग किया। | (२७) संगम देव ने सर्प बनकर भगवान महावीर की बाल्यकाल में मात्र एक दिन वीरता की परीक्षा ली थी। |
(२८) संगमदेव की पापवर्धित क्रियाओं को देखकर उसके प्रति करुणा भाव से भगवान महावीर के नेत्र सजल हो गये। | (२८) भगवान महावीर दीक्षित अवस्था में कष्टों से अथवा स्नेहवश कभी भी रोये नहीं (अश्रुपात नहीं हुए)। |
(२९) गोकुल ग्राम में गोपी वत्सपालिका के यहाँ छह मास के उपवास के बाद पारणा हुआ। | (२९) ऐसा कोई पारणा नहीं हुआ क्योंकि महावीर इस तरह यत्र-तत्र भोजन-पारणा/आहार नहीं करते थे। |
(३०) दीक्षा के १३वें वर्ष में घम्माणी ग्राम में एक ग्वाले ने घोर उपसर्ग किया। अपने बैल ध्यानस्थ भगवान के पास छोड़ गया। लौट कर आने पर बैल नहीं मिलने पर क्रोधित होकर उस ग्वाले ने भगवान के दोनों कानों में लकड़ी की कीलें ठोंकी, इस असहनीय कष्ट को भगवान ने मौनभावपूर्वक सहन किया। कीलें ठुकी अवस्था में मध्यमा नगरी में एक श्रावक के यहाँ भिक्षार्थ आये, यहाँ एक वैद्य ने उनकी दारुण पीड़ा को देखकर तेल आदि का लेपकर कीलें खींची जिसके कारण खून की तेजधार निकल पड़ी। जिससे भगवान को अपार वेदना हुई। फिर भी वे विचलित नहीं हुए। उपसर्गों का प्रारंभ बैलों के निमित्त से हुआ तथा उपसर्गों का समापन भी बैलों के निमित्त से हुआ। | (३०) ऐसा कोई उपसर्ग नहीं हुआ। |
(३१) चंदनबाला से आहार वाले दिन भगवान ने १३ नियमों की विधि ली थी। | (३१) चंदनबाला को भक्तिवश सहज में महावीर को आहारदान देने का योग प्राप्त हुआ था। |
(३२) चंदनबाला को उड़द के बाकले सूप में खाने के लिए दिये जाते थे। | (३२) चंदनबाला को मिट्टी के सकोरे में कोदों का भात दिया जाता था। |
(३३) चंदना को कौशाम्बी में नीलाम कर दिया गया सेठ ने दासी के रूप में रखा। | (३३) इस प्रकार का कथानक नहीं है। सेठ ने पुत्री के रूप में अपने यहाँ रखा था किन्तु सेठानी ने शंकित होकर उसे कष्ट दिया। |
(३४) गोशालक ने भगवान महावीर पर तेजोलेश्या फेकी। | (३४) गोशालक नाम का कोई व्यक्ति भगवान के संपर्क में नहीं आया। न ही ऐसी कोई घटना हुई। |
(३५) भगवान महावीर को गोदुह्य आसन से केवलज्ञान प्राप्त हुआ। | (३५) भगवान को पद्मासन मुद्रा में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। |
(३६) केवलज्ञान होने के पश्चात् भी उपसर्ग हुए। | (३६) केवलज्ञान होने के पश्चात् किसी भी प्रकार का कोई उपसर्ग तीर्थंकर पर नहीं होता है। |
(३७) केवलज्ञान होने के पश्चात् भी तीर्थंकर भगवान महावीर भक्तों से वार्तालाप करते थे, हाथ से आशीर्वाद देते थे। ३० नगरों में चातुर्मास किये। | (३७) केवलज्ञान के पश्चात् तीर्थंकर किसी से न तो वार्तालाप करते हैं और न ही हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं और न ही कहीं चातुर्मास करते हैं क्योंकि वे पूर्ण वीतरागी भगवान हो जाते हैं। |
(३८) भगवान महावीर सामान्य देहधारी मनुष्य थे। | (३८) वे सामान्य देहधारी मनुष्य नहीं थे, उनको जन्म से ही असाधारण तीर्थंकर प्रकृति का माहात्म्य था। वे दिव्य परमौदारिक देह के धारी थे। |
(३९) एक मदमस्त हाथी को वश में किया (दीक्षापूर्व-घर में रहते हुए) | (३९) हाथी को वश में करने वाली घटना का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। |
(४०) चातुर्याम (पांच महाव्रतों में से ब्रह्मचर्य को छोड़कर शेष चार महाव्रत चातुर्याम धर्म के रूप में भगवान पार्श्वनाथ तक माने गये हैं तथा अतिरिक्त ब्रह्मचर्य महाव्रत की मान्यता भगवान महावीर के समय से चली है, ऐसी मान्यता श्वेताम्बर परम्परा में है)। | (४०) अनादिकाल से पांचों महाव्रत सभी तीर्थंकरों ने पालन किये एवं बताये हैं। |
(४१) आम्रपाली नाम की वेश्या को वैशाली की नगरवधू के रूप में सम्मान प्रदान किया गया है। | (४१) आम्रपाली वेश्या का कोई उल्लेख नहीं है, न ही वेश्याओं के इस प्रकार सम्मान की कोई बात ही आती है। |
(४२) भगवान महावीर का निर्वाण पावापुरी में भिन्न स्थान पर हुआ। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनके शरीर का जहाँ अग्नि संस्कार किया गया, वहाँ की भस्म नगरजनों ने मस्तक पर लगाई। जब भस्म नहीं रही तो लोग थोड़ी-थोड़ी मिट्टी ले गये जिससे वहाँ बड़ा सा खड्डा बन जाने से तालाब बन गया। अनंतर उसमें कमल खिलने लगे जिससे उसका नाम जलमंदिर पड़ गया। | (४२) पावापुरी में कमल सरोवर के मध्य..अधर आकाश से निर्वाण हुआ। वहीं पर इन्द्रों तथा देवों ने मिलकर अग्नि संस्कार किया था। |
(४३) कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में दिव्यध्वनि होते-होते अचानक बंद हो गई। तभी निर्वाण हो गया। | (४३) कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी से दो दिन पूर्व योग निरोध किया। समवसरण विघटित हो गया। दो दिन सभी मनुष्य तथा देव जान गये कि अब भगवान का निर्वाण होने वाला है। सभी हाथ जोड़े हुए भगवान को निहार रहे थे। कार्तिक कृष्णा अमावस्या के ऊषा काल की बेला (सूर्योदय से २ घड़ी पूर्व) भगवान मोक्ष पधार गये। |