तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष—इन पच्चीस दोषों के द्वारा क्षयोपशम सम्यग्दर्शन के गुण निर्मल न रहकर मलिन हो जाते हैं।
मूढ़ता का अर्थ है धार्मिक अन्धविश्वास। आत्महित का विचार किये बिना ही अन्धश्रद्धालु बनकर अज्ञानपूर्ण प्रवृत्ति करना मूढ़ता है। मूढ़ता तीन प्रकार की है—१. लोकमूढ़ता, २. देवमूढ़ता, ३. गुरुमूढ़ता।
लोकमूढ़ता-नदी और समुद्र में ‘इससे कल्याण होगा’ इस बुद्धि से स्नान करना, बालू और पत्थर के ढेर लगाना, पहाड़ के ऊपर से पड़ना, अग्नि में पड़ना लोकमूढ़ता है।
देवमूढ़ता-ऐहिक सुख की इच्छा से और वर की आशा से राग-द्वेष से मलिन देवों की उपासना करना देवमूढ़ता है।
पाखंडिमूढ़ता-परिग्रह, आरंभ और हिंसा से सहित ऐसे पाखंडी साधुओं का सत्कार करना गुरुमूढ़ता है।
क्षणिक संयोगों / भौतिक उपलब्धियों में मदहोश होकर घमण्ड में चूर रहना मद कहलाता है। निमित्तों की अपेक्षा मद आठ प्रकार का होता है।
१. ज्ञानमद—थोड़ा ज्ञान पाकर अपने आपको सबसे बड़ा ज्ञानी समझना और यह मानना कि मुझसे बड़ा ज्ञानी कोई और है ही नहीं, ज्ञान मद है।
२. पूजा/प्रतिष्ठा मद—अपनी पूजा प्रतिष्ठा या लौकिक सम्मान के गर्व में चूर रहना पूजा या प्रतिष्ठा मद है।
३. कुलमद—अपने पितृपक्ष की उच्चता का गर्व करना कुलमद है।
४. जातिमद—अपनी माता के वंश का अभिमान करना जाति मद है।
५. बलमद—अपने शारीरिक बल के आगे सभी को निर्बल समझना और अपने शरीर के गर्व में डूबे रहना बलमद है।
६. ऋद्धि / ऐश्वर्य मद—तपोजनित ऋद्धि अथवा धन, वैभव और ऐश्वर्य पाकर गर्व करना ऐश्वर्यमद है।
७. तपमद—अपने आपको सबसे बड़ा तपस्वी मानकर अपने आगे अन्य साधकों को तुच्छ समझना तप मद है।
८. रूपमद—थोड़ा रूपवान् और सुन्दर शरीर पाकर अपने रूप के घमण्ड में डूबे रहना रूपमद है।
वस्तुत: सम्यग्दृष्टि इन समस्त उपलब्धियों को कर्माधीन क्षणिक संयोग मानता है। वह यह विचार करता है कि कर्मों के निमित्त से प्राप्त संसार के समस्त संयोग क्षणिक हैं। अतएव शरीर, ज्ञान, ऐश्वर्य आदि का मद करना अर्थहीन है। रत्नत्रय रूप धर्म ही स्वाधीन है, शाश्वत है, पवित्र, निर्मल और कल्याणस्वरूप है। संसार के अन्य समस्त पदार्थ पर हैं और आत्मोत्थान में बाधक हैं। अत: सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य साधार्मिकों के साथ ज्ञान, पूजा, कुल, जाति आदि में से किसी एक का भी आश्रय लेकर तिरस्कार का भाव रखता है, तो वह स्वयं उसका ‘स्मय’—मद नामक दोष कहलाता है। इससे उसकी विशुद्धि नष्ट होती है और कदाचित् वह अपने स्वरूप से भी च्युत हो सकता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ज्ञानादिक हेय नहीं हैं, अपितु ज्ञानादिक का मद हेय है।
आयतन शब्द का अर्थ घर, आवास, आश्रय अथवा आधार है। यहाँ सम्यग्दर्शन का प्रकरण होने से आयतन का अर्थ धर्म का आधार अथवा घर है। इसके विपरीत अधर्म या मिथ्यात्व के स्थान को अनायतन कहते हैं।
अनायतन छह हैं—कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इन तीनों के आराधक, ये छहों मिथ्यात्व के पोषक होने से हमारे चित्त की मलिनता और संसार के अभिवर्धक हैं। भय, आशा, स्नेह अथवा प्रलोभन वश इनकी पूजा आराधना करना और भक्ति—प्रशंसा करना सम्यग्दर्शन के छह अनायतन दोष हैं।
सम्यग्दर्शन के आठ दोष हैं-१. शंका, २० कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. मूढ़दृष्टि, ५. अनुपगूहन, ६. अस्थितीकरण, ७. अवात्सल्य, ८. अप्रभावना।
१. शंका—वीतराग जिनोपदिष्ट तत्त्वों में विश्वास न कर उनके प्रति सशंकित रहना।
२. कांक्षा—भौतिक भोगोपभोगों एवं ऐहिक सुखों की अपेक्षा रखना।
३. विचिकित्सा—रत्नत्रय के प्रति अनादर रखते हुए धर्मात्मा जनों के मलिन शरीर को देखकर उनसे घृणा करना।
४. मूढ़दृष्टि—सत्य और असत्य मार्ग के विचार एवं विवेक से रहित होकर उन्मार्ग एवं उन्मार्गियों के प्रति झुकाव रखना।
५. अनुपगूहन—धर्मात्माओं के दोषों को उजागर कर धर्ममार्ग की िंनदा करना।
६. अस्थितीकरण—किसी कारणवश धर्म से स्खलित होते हुये व्यक्ति को धर्म मार्ग में स्थिर करने का प्रयास न करना।
७. अवात्सल्य—साधर्मी जनों से प्रेम नहीं करना, उनसे मात्सर्य और विद्वेष रखना।
८. अप्रभावना—अपने खोटे आचरण और प्रवृत्तियों से धर्ममार्ग को कलंकित करना, धर्ममार्ग के प्रचार—प्रसार में सहभागी न बनना।
जिस प्रकार मानव शरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पीठ, वक्षस्थल और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से परिपूर्ण रहने पर ही मनुष्य काम करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टित्व, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं। इन आठ अंगों से युक्त सम्यग्दर्शन का पालन करने से ही संसार—संतति का उन्मूलन होता है। इन आठ अंगों में वैयक्तिक उन्नति के लिये प्रारंभिक चार अंग और उपगूहनादि चार अंग सामाजिक उन्नति के लिये आवश्यक हैं। आठ अंगों का स्वरूप इस प्रकार है—
१. नि:शंकित अंग—मोक्षमार्ग में अविश्वास नहीं करना, उस पर संदेह व शंका न रखकर अविचल आस्था बनाए रखना।
२. नि:कांक्षित अंग—लोक और परलोक संबंधी भौतिक विषय भोगों की आकांक्षा नहीं करना।
३. निर्विचिकित्सा अंग—धार्मिक जनों के ग्लानिजनक रूप को देखकर घृणा नहीं करना, अपितु उनके गुणों के प्रति आदर भाव रखना।
४. अमूढ़दृष्टि अंग—लौकिक प्रलोभन, चमत्कार या दबाव वश कुमार्ग की ओर नहीं झुकना।
५. उपगूहन अंग—दूसरों के दोष तथा अपने गुणों को छुपाकर रखना।
६. स्थितीकरण अंग—किसी कारणवश धर्म मार्ग से च्युत होते हुए व्यक्ति को सहारा देकर उसे धर्म मार्ग में स्थिर करना।
७. वात्सल्य अंग—धर्मात्माओं के प्रति आन्तरिक अनुराग रखना।
८. प्रभावना अंग—जनकल्याण की भावना से अपने आचरण और प्रतिभा से धर्म का प्रचार—प्रसार करना।
इन आठ अंगों की पूर्णता से ही सम्यग्दर्शन सार्थक होता है। जिस प्रकार किसी विषहारी मन्त्र में एक अक्षर भी न्यून हो जाने से वह विष दूर करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार एक अंग से भी हीन सम्यग्दर्शन हमारी संसार संतति को नष्ट नहीं कर सकता।
संवेग, निर्वेग, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा, उपशम, भक्ति, आस्तिक्य और अनुकम्पा सम्यग्दर्शन के आठ गुण हैं। इन गुणों के माध्यम से सम्यग्दर्शन का अनुमान किया जा सकता है।
१. संवेग—धर्म, धर्म के फल और धर्मात्माओं के प्रति अत्यन्त हर्ष, अनुराग और उत्साह बना रहना।
२. निर्वेग/निर्वेद—संसार, शरीर और विषय—भोगों से विरक्ति।
३. आत्मनिन्दा—अपने दोषों की निन्दा/आलोचना करना।
४. आत्मगर्हा—गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना।
५. उपशम—क्रोधादि विकारों को नियंत्रित रखना।
६. भक्ति—अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि पूज्यजनों की पूजा, स्तुति, विनय आदि करना।
७. आस्तिक्य—आत्मा, कर्म, पाप—पुण्य, स्वर्ग—नरक पुनर्जन्म आदि में विश्वास रखना।
८. अनुकम्पा—सभी जीवों के प्रति दया भाव रखना।
अतिचार का अर्थ है—प्रतिज्ञा का आंशिक खण्डन। मानव मन की यह दुर्बलता है कि वह अपने जीवन—व्यवहार को मर्यादित व नियंत्रित करने के लिए जो कुछ भी व्रत—नियम अंगीकार करता है, मन उसके विरूद्ध दिशा में आकर्षित होने लगता है। जैसे धरती पर बीज बोने के बाद अंकुरोत्पत्ति के साथ ही अनेक प्रकार के खर, पतवार उग आते हैं, उनकी निंदाई—गुड़ाई करनी पड़ती है, उसी प्रकार व्रत, नियम, संयम आदि अंगीकार करने के बाद भी मनोभूमि में व्रतों को मलिन करने वाली अनेक प्रकार की दुर्भावनाएँ/दुर्वृत्तियाँ उभरने लगती हैं। ये ही अतिचार कहलाते हैं। इनके प्रति सजग रहने की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं–शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव।
१. शंका—वीतराग–जिनेन्द्र—प्रतिपादित तत्त्व में अश्रद्धामूलक शंका करना, उसे संदिग्ध दृष्टि से देखना।
२. कांक्षा–धर्माचरण से ऐहिक फलों/विषयभोगों की आकांक्षा रखना।
३. विचिकित्सा—मुनिजनों की आन्तरिक उज्ज्वलता की ओर न देखकर शारीरिक मलिनता को ही देखना और मन में ग्लानि भाव उत्पन्न करना।
४. अन्यदृष्टि प्रशंसा—कुमार्गगामी व्यक्ति की परोक्ष में मन से प्रशंसा करना।
५. अन्यदृष्टि संस्तव—कुमार्गगामी व्यक्तियों की मुख से प्रशंसा करना।
ये पाँच अतिचार सम्यक्त्व में मलिनता उत्पन्न करते हैं। यदि प्रारंभ में ही इन्हें नहीं रोका जाए, तो ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि बढ़ते—बढते ये दोष पूरे सम्यक्त्व को ही निगल जाएँ। अत: सम्यग्दृष्टि को यह सावधानी रखनी चाहिए कि जीवन में इनका प्रादुर्भाव ही न होने पाए।