मोक्षमार्ग की साधना का तीसरा चरण चारित्र है। चारित्र के दो रूप माने गये हैं—निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र। निश्चय चारित्र निवृत्तिमूलक है और व्यवहारचारित्र प्रवृत्तिपरक। चारित्र का बाह्य आचारात्मक पक्ष व्यवहारचारित्र है और उसका आन्तरिक पक्ष निश्चयचारित्र है। निश्चयचारित्र का अर्थ है–समस्त राग—द्वेषादि वैभाविक भावों से रहित होकर परम साम्यभाव में अवस्थिति। यह आत्मरमण की स्थिति है। निश्चयचारित्र की भावना ही जीव के आध्यात्मिक विकास का आधार है। इसे ही समता, वीतरागता या माध्यस्थता भी कहते हैं।
व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध आचार नियमों के परिपालन से है। मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों को त्यागकर व्रत, समिति आदि शुभ प्रवृत्तियों में लीन होना व्यवहार चारित्र है। इसे देशव्रत और सर्वव्रत इन दो वर्गों में विभाजित किया गया है। देशव्रत चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थों से और सर्वव्रत का सम्बन्ध मुनियों से है। गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन किया जाता है तथा मुनि आचार के अन्तर्गत महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि के साथ अट्ठाईस मूलगुणों का पालन किया जाता है।
सम्यक्चारित्र भी सम्यग्दर्शन के समान दो प्रकार का है-निश्चय सम्यक्चारित्र और व्यवहार सम्यक्चारित्र। मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप बाह्य क्रिया और उपयोग की रागद्वेष रूप आभ्यन्तर क्रिया को रोककर आत्मस्वरूप में स्थित होना सम्यक्चारित्र है। यह वह स्थिति है, जब शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति के आनंद का अनुभव होता है, जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की एकता निष्पन्न होती है, जब ध्यान, ध्याता, ध्येय और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का विकल्प मिट जाता है। जब यह स्थिति स्थाई बन जाती है तो वह सब कर्मोें से रहित मोक्ष दशा या जीवन्मुक्ति की दशा कहलाती है, किन्तु जब ऐसी स्थिति अस्थाई होती है, तो उस काल में असंख्यात कर्मों का क्षय हो जाता है और उस स्थिति में कर्मों का नवीन बंध नहीं होता।
व्यवहार सम्यक्चारित्र अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति रूप होता है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति तो मिथ्यादृष्टि भी करता है, किन्तु उसका वह कार्य सम्यक्चारित्र नहीं कहलाता। सम्यक्चारित्र तो सम्यक्दर्शनपूर्वक ही होता है। व्यवहार सम्यक्चारित्र शुभ प्रवृत्ति रूप है। उसमें शुभराग के अंश रहते हैं। शुभराग से कर्मबंध होता है। इसीलिए अनेक लोग इस चारित्र को हेय भी कहते हैं। वे कहते हैं कि ‘‘व्यवहार चारित्र तो जीव ने अनन्त बार धारण किया, किन्तु उसे मुक्ति नहीं मिली। इस चारित्र से कर्मबंध होता है, कर्म-क्षय नहीं होता। राग से वीतरागता नहीं आती। अत: व्रत-समिति-गुप्ति आदि सारा चारित्र व्यवहार मिथ्या है, हेय है।’’ व्यवहार चारित्र के संबंध में ऐसी जिनकी अश्रद्धा है, उसके दो ही कारण हैं-
१. वीतराग सर्वज्ञ की वाणी पर उनको श्रद्धा नहीं है।
२. उन्होंने चरणानुयोग के ग्र्रंथों का अध्ययन नहीं किया है।
यह जीव आज तक एक बार भी व्यवहार सम्यक्चारित्र धारता तो, उसे मुक्ति अवश्य मिलती, जो इसे हेय मानकर अंगीकार करने से भय मानता है, उसका संसार अभी लम्बा है। मुक्तिप्राप्ति के लिए तीर्थंकरों और अनन्त मुनियों ने भी इसे धारण किया। यह चारित्र उनकी भूमिकानुसार नहीं हो गया, बल्कि उस भूमिका के बनाने के लिए अर्थात् मुनिपद धारण करने के लिए सर्वपरिग्रह का त्याग करके केशलुंचन किया और मुनियों के व्रत अंगीकार किये। यह सब स्वत: नहीं हो गया, इसके लिए उन्होंने पुरुषार्थ किया।
व्यवहार सम्यक्चारित्र को समझ लिया जाये तो ऐसी भ्रान्ति या सन्देह नहीं रह सकता। व्यवहार सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन होने पर ही कहलाता है। इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही प्रकार के अंश रहते हैं। वहाँ अशुभ की निवृत्ति हुई, सो तो निश्चय चारित्र का अंश है और शुभ में प्रवृत्ति हुई, वह व्यवहार नय से चारित्र है। निवृत्ति से कर्मों की निर्जरा होती है। जो प्रवृत्ति है, वह शुभ है, मन्दकषायरूप है। इससे पुण्य प्रकृतियों का तीव्र बंध होता है। व्यवहार सम्यक्चारित्र के जो द्रव्य और भावरूप भेद किए गये है। उनका आशय भी प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप अंश है। जितना रागांश है, वह प्रवृत्ति या द्रव्यरूप है और जितना वीतरागता का अंश है, वह निवृत्ति या भावरूप है। यह चारित्र व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्ररूप है। श्रावक के अणुव्रत और मुनि के महाव्रत आदि सभी चारित्र व्यवहारचारित्र कहलाते हैं।
‘मूल’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। फिर भी यहाँ मूल का प्रधान-मुख्य ऐसा अर्थ लिया गया है। ‘गुण’ शब्द के भी अनेक अर्थ हैं फिर भी यहाँ ‘आचरण विशेष’ ऐसा अर्थ लिया है। ये मूलगुण इस लोक और परलोक में हित करने वाले हैं। इस लोक में सर्वजनमान्यता, गुरुपना और सभी जनों के साथ मैत्रीभाव आदि गुण होते हैं और परलोक में देवों का ऐश्वर्य, तीर्थंकरपद, चक्रवर्तिपद आदि प्राप्त होते हैं और परम्परा से यह आत्मा सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाता है। इन मूलगुणों के बिना आज तक किसी को शुक्लध्यान की सिद्धि नहीं हुई है और शुक्लध्यान के बिना मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि ये मूलगुण वृक्ष की मूल जड़ या बीज के समान ही मोक्ष के लिए मूलकारण हैं और तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट होने से प्रामाणिक हैं।
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, षट् आवश्यक तथा लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त।
मुख्यव्रतों को महाव्रत कहते हैं। ‘महान् शब्द का अर्थ प्रधान है और व्रत शब्द, सावद्यनिवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण में आता है अर्थात् मोक्ष के लिए जो हिंसादि पापों का त्याग किया जाता है, उसे ही व्रत कहते हैं। तीर्थंकर आदि महान् पुरुषों के द्वारा इनका अनुष्ठान किया जाता है। इसलिए भी इन्हें महाव्रत कहते हैं।’ अथवा महान पुरुषार्थ जो मोक्ष, उसकी प्राप्ति में ये स्वत: ही हेतु होते हैं इसलिए महाव्रत कहलाते हैं। ये पाँच होते हैं।
१. अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की हिंसा का मन-वचन-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत में सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह का त्याग हो जाता है।
२. सत्य महाव्रत-राग, द्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से युक्त असत्य वचनों का त्याग कर देना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात हो जावे वह सत्य महाव्रत है।
३. अचौर्य महाव्रत-ग्राम, शहर आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के द्वारा बिना दी गई ऐसी योग्य वस्तु को भी नहीं लेना सो अचौर्य महाव्रत है।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-राग भाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना। बालिका, युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना यह त्रैलोक्य पूज्य ब्रह्मचर्य व्रत है।
५. परिग्रहत्याग महाव्रत-धन, धान्य आदि दस प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्व, वेद आदि चतुर्दश प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग कर देना, वस्त्राभूषण अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना, लंगोटी मात्र भी नहीं रखना, सो अपरिग्रह महाव्रत है।
पाँच समितियाँ-
आगम के कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सं-सम्यक् इति प्रवृत्ति करना समिति हैं। ये समितियाँ व्रतों की रक्षा करने में वृत्ति-बाड़ के समान हैं। इनके भी पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।
६. ईर्या समिति-निर्जंतुकमार्ग से सूर्योदय के प्रकाश में चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्तपूर्वक तीर्थयात्रा, गुरुवंदना आदि धर्म कार्यों के लिए गमन करना ईर्या समिति है।
७. भाषासमिति-चुगली, हंसी, कर्कश, परनिंदा आदि से रहित हित-मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है।
८. एषणा समिति-छ्यालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक, निर्दोष, पवित्र आहार लेना एषणासमिति है।
९. आदाननिक्षेपण समिति-पुस्तक, कमण्डलु आदि को रखते या उठाते समय कोमल मयूर पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना उठाना, तृण, घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना सो आदाननिक्षेपण समिति है।
१०. उत्सर्गसमिति-हरी घास से रहित, चिंवटी आदि से या उनके बिलों से रहित प्रासुक और एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापनसमिति है।
स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इंद्रियों को वश में रखना, इनको शुभध्यान में लगा देना पंचेन्द्रिय निरोध होता है। इसके भी पाँचों इंद्रियों की अपेक्षा पाँच भेद हो जाते हैं।
११. स्पर्शनइंद्रिय निरोध-सुखदायक, कोमल स्पर्शादि में या कठोर कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनंद या खेद नहीं करना।
१२. रसनेन्द्रिय निरोध-सरस, मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन में हर्ष-विषाद नहीं करना।
१३. घ्राणेन्द्रिय निरोध-सुगंधित पदार्थ में या दुर्गंधित वस्तु में राग-द्वेष नहीं करना।
१४. चक्षु इन्द्रिय निरोध-स्त्रियों के सुन्दररूप या विकृत वेष आदि में रागभाव और द्वेषभाव नहीं करना।
१५. कर्णेन्द्रिय निरोध-सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर-निंदा गाली आदि के वचनों में हर्ष विषाद नहीं करना। यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो, तो उसे रागभाव से नहीं सुनना।
जो अवश्य-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है वह आवश्यक कहलाता है। उसके छह भेद हैं-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
१६. समता-‘‘जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख आदि में हर्ष विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसे ही सामायिक कहते हैं। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिकव्रत है।’’ प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहुर्त-४८ मिनट तक सामायिक करना होता है।
१७. स्तुति-वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तव नाम का आवश्यक है।
१८. वंदना-अर्हंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमाओं को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
१९. प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतीचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके ऐर्यापथिक, दैवसिक/रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और और पार्थिक ये सात भेद हैं।
२०. प्रत्याख्यान-मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनन्तर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है वह प्रत्याख्यान कहलाता है।
‘‘अतीतकाल के दोष का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमानकाल में द्रव्यादि दोष का परिहार करना प्रत्याख्यान है। यही इन दोनों में अन्तर है। तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है। किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के निराकरण हेतु ही है।’’
२१. कायोत्सर्ग-दैवसिक, रात्रि आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग अर्थात् कार्य से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
२२. लोंच-हाथों से अपने शिर, दाढ़ी और मूँछ के बाल उखाड़ना केशलोंच मूलगुण है।
२३. अचेलकत्व-सूती, रेशमी आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेष धारण करना अचेलकत्व है। यह जितेन्द्रिय महान् पुरुषों के द्वारा स्वीकार किया जाने से तीनों जगत् में वंदनीय महान् पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं। अत: निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है।
२४. अस्नानव्रत-स्नान, उबटन आदि का त्याग करना अस्नानव्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को भी धो डालते हैं। चांडाल आदि अस्पृश्य जन का अथवा विष्ठा, हड्डी, चर्म आदि का स्पर्श हो जाने से मुनि दंडस्नान करके गुरु से प्रायश्चित्त भी ग्रहण करते हैं।
२५. क्षितिशयन-निर्जंतुक भूमि में घास, पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमिशयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से थककर स्वल्प निद्रा लेना होता है।
२६. अदंतधावन-दंत मंजन नहीं करना अदंतधावन व्रत है। दांतों को नहीं घिसने से इंद्रिय संयम होता है, शरीर से विरागता प्रगट होती है और सर्वज्ञदेव की आज्ञा का पालन होता है।
२७. स्थितिभोजन-पांवों को चार अंगुल अन्तराल से रखकर एक स्थान में खड़े होकर दोनों हाथों की अंजुली बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थितिभोजन व्रत है।
२८. एकभक्त-एक बेला में आहार लेना-सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल को छोड़कर एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त है।
इस प्रकार दिगम्बर जैन साधु इन २८ मूलगुणों का पालन करते हुए इस जगत् में सर्वत्र पूज्य होते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त करने वाले होते हैं।
‘‘पढमं ताव सुदं मे आउस्संतो।’’
हे आयुष्मन्तों भव्यों ! मैंने प्रथम ही सुना है।
क्या सुना है ?
‘‘गिहत्थधम्मं’’ गृहस्थ धर्म सुना है। किनसे सुना है ?
इह खलु— ‘‘भयवदा महदिमहावीरेण’’ यहां (विपुलाचल पर्वत पर) भगवान महतिमहावीर के श्रीमुख से सुना है। ये भगवान महावीर कैसे हैं ?
समणेण महाकस्सवेण सवण्हणाणेण सव्वलोयदरसिणा।’’ जो श्रमण हैं, महाकाश्यप गोत्र में जन्में हैं, सर्वज्ञानी हैं और सर्वदर्शी हैं ऐसे भगवान महावीर ने उपदेश दिया है और हमने सुना है।
किसके लिये उपदेश दिया है ? ‘‘सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण।’’
श्रावक और श्राविकाओं के लिये तथा क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के लिए उपदेश दिया है।
क्या उपदेश दिया है ? ‘‘पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसिदाणि।’’ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थधर्म का सम्यक् उपदेश दिया है।
वे गौतमस्वामी उस पाक्षिक यतिप्रतिक्रमण में उपर्युक्त पंक्तियों को कह रहे हैं कि-
‘‘हे आयुष्मन्तों ! मैंने सुना है—महाकाश्यप गोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, श्रमण भगवान् महावीर ने श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका इनके लिये पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का सम्यक््â उपदेश दिया है।’’
यहाँ पर ये पंक्तियाँ बहुत ही महत्व की हैं क्योंकि श्रीगौतमस्वामी मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चारों ज्ञान से सहित थे। बुद्धि, ऋद्धि आदि सात प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित थे। जिन्होंने कुछ दिन कम तीस वर्ष तक बराबर श्री महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि को सुना था तथा जिन्होंने स्वयं ही ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप से ग्रंथ रचना की थी ऐसे महान् गणधर पूर्ण प्रामाणिक श्री गौतमस्वामी गौरवपूर्ण शब्दों में स्वयं कह रहे हैं कि ‘‘मैंने सुना है’’ तथा अतीव कोमल और प्रिय शब्दों में भक्तों को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि ‘‘हे आयुष्मन्तों ! मैंने सुना है।’’ इन शब्दों से श्री गणधरदेव गृहस्थ धर्म को भगवान् महावीर द्वारा कथित सिद्ध कर रहे हैं, जो कि बारह व्रतरूप है।
इन बारह व्रतों में स्वयं गौतमस्वामी के शब्दों में ही आप उनके नाम देखिये-
‘‘तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि पढमे अणुव्वदे थूलयडे पाणादिवादादो वेरमणं, विदिए अणुव्वदे थूलयडे मुसावादादो वेरमणं, तिदिए अणुव्वदे थूलयडे अदत्तादाणादो वेरमणं, चउत्थे अणुव्वदे थूलयडे सदारसंतोस परदारागमणवेरमणं कस्स य पुणु सव्वदो विरदी, पंचमे अणुव्वदे थूलयडे इच्छाकदपरिमाणं चेदि, इच्चेदाणि पंच अणुव्वदाणि।।’’
पांच अणुव्रत—उन बारह व्रतों में से पहले पाँच अणुव्रत हैं। पहले अणुव्रत में स्थूलरूप से प्राणीिंहसा से विरति है। दूसरे अणुव्रत में स्थूलरूप से असत्य से विरति है। तीसरे अणुव्रत में स्थूलरूप से बिना दिये हुये परद्रव्य से विरति है। चौथे अणुव्रत में स्वदार संतोष है अर्थात् अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष है और परस्त्री से विरति है इसीलिये यह स्थूलरूप से व्रत है अथवा किसी—किसी की सम्पूर्ण स्त्री मात्र से ही विरति है। पाँचवें अणुव्रत में अपनी इच्छा के अनुसार परिग्रह का परिमाण किया गया है। इसलिये इसमें भी परिग्रह का पूर्ण त्याग न होने से स्थूलरूप से विरति है। इसीलिये ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं।
तीन गुणव्रत—बारह व्रतों के अंतर्गत तीन गुणव्रत का वर्णन करते हुये श्री गौतमस्वामी कहते हैं—
‘‘तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि, तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसिविदिस पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविधअणत्थदण्डादो वेरमणं, तिदिए गुणव्वदे भोगोपभोगपरिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि।।’’
उन बारह व्रतों के अंतर्गत ये तीन गुणव्रत हैं। उनमें से पहले गुणव्रत में दिशा—विदिशाओं का प्रत्याख्यान (नियम) किया जाता है। दूसरे गुणव्रत में विविध प्रकार के अनर्थदण्ड से विरति होती है। तीसरे गुणव्रत में भोग—उपभोग वस्तुओं का परिसंख्यान—परिमाण किया जाता है। इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हैं।
चार शिक्षाव्रत—पुन: आगे चार शिक्षाव्रतों को कहते हैं—
‘‘तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामायियं, विदिए पोसहोवासयं, तिदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणामरणं तिदियं अब्भोवस्साणं चेदि।
उन बारह व्रतों के अंतर्गत ये चार शिक्षाव्रत हैं। उनमें से प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत है, दूसरा प्रोषधोपवास व्रत है, तीसरा अतिथिसंविभाग व्रत है और चौथा अंत में सल्लेखनामरण नाम का शिक्षाव्रत है, इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रत हैं।
ये बारहव्रत धर्म हैं—
‘‘पढम ताव सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सव्वण्हणाणेण सव्वलोयदरिसिणा सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारहविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसियाणि।।’’
हे आयुष्मन्तों भव्यों ! प्रथम ही मैंने सुना है। यहां भरतक्षेत्र के आर्यखंड में महाकाश्यपगोत्री, सर्वज्ञानी, सर्वलोकदर्शी, श्रमण, भगवान महतिमहावीर ने श्रावक—श्राविकाओं और क्षुल्लक—क्षुल्लिकाओं के लिए पंच अणुव्रत आदि बारहविध गृहस्थ धर्म (श्रावक धर्म) का सम्यक् प्रकार से उपदेश दिया है।
से अभिमद—जीवाजीव—उवलद्ध—पुण्णपाव—आसव—संवर—णिज्जर—बंधमोक्ख—महिकुसले धम्माणु—रायरत्तो पि माणु—रागरत्तो (पेम्माणुरागरत्तो) अट्ठि—मज्जाणुरायरत्तो मुच्छिदट्ठे गिहिद्ट्ठे विहिदट्ठे पालिदट्ठे सेविदट्ठे इणमेव णिग्गंथापावयणो अणुत्तरे सेअट्ठे सेवणुट्ठे—
अर्थ—उपर्युक्त बारह व्रतों का धारक-जिसने जीव-अजीव तत्त्व को समझ लिया है तथा जिसने पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, संवर-निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों को उपलब्ध कर लिया है ऐसे नव पदार्थों के विषय में अभिकुशल-निपुण व्यक्ति धर्मानुराग से अनुरक्त होकर भी माँ-लक्ष्मी के अनुराग में रक्त है। (गृहस्थ होने से परिग्रह का त्यागी नहीं है) एवं अस्थिमज्जा के समान अनुराग से रक्त है। (जिस प्रकार सात धातुओं में अस्थि-हड्डी मज्जा नामक धातु से निरन्तर संलग्न रहती है उसी तरह सह-धर्मियों के साथ प्रीति का होना ऐसी सघन प्रीति को अस्थिमज्जा प्रीति कहते हैं।) ऐसा गृहस्थ मूर्च्छितार्थ—ममतापूर्वक ग्रहण किये गये पदार्थ में, गृहीतार्थ—सामान्य रूप से ग्रहण किये गये पदार्थ में, विहितार्थ—अपने द्वारा किये गये पदार्थ में, पालितार्थ—अपने द्वारा पालन किये गये पदार्थ में, सेवितार्थ—अपने द्वारा सेवित-उपयोग में आने वाले पदार्थ में, निर्ग्रंथ प्रवचन—मुनियों के प्रवचन में, अनुत्तर—सर्वश्रेष्ठ, श्रेयो—कल्याणकारी पदार्थ में, सेवितार्थ—सेवन प्रवृत्तिरूप क्रिया में (प्रमाद से जो हुआ हो वह मिथ्या होवे) ऐसा अभिप्राय है।
उसी के अन्तर्गत
णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदििंगछा अमूढदिट्ठी य।
उवगूहण ट्ठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ।।
नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं।
सव्वेदाणि पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारसविहं गिहत्थधम्ममणुपालइत्ता।।
दंसण वय सामाइय पोसह सचित राइभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।।
ये पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत मिलकर बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म है। इनका पालन करते हुए श्रावक क्रम से ग्यारह स्थानों को प्राप्त करते हैं। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्त त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ निवृत्ति, परिग्रह विरति, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग ये देशव्रत के ग्यारह स्थान हैं।
भावार्थ—श्रीगौतमस्वामी ने यहां इन बारह व्रतों को गृहस्थ का धर्म कहा है।
तथा जो ग्यारह स्थान बताए हैं, इन्हें प्रतिमा भी कहते हैं। इनमें से दर्शन प्रतिमा से लेकर रात्रिभुक्त त्याग प्रतिमा तक छह प्रतिमा तक के व्रत ग्रहण करने वाले श्रावक गृहस्थ हैं, इन्हें जघन्य श्रावक संज्ञा है। ब्रह्मचर्य व्रत से लेकर परिग्रह विरति तक मध्य के तीन प्रतिमा वाले मध्यम श्रावक हैं तथा अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा वाले उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तो क्षुल्लक—ऐलक ही होते हैं।
आगे श्री गौतमस्वामी कहते हैं—
महुमंसमज्जजूआ वेसादिविवज्जणासीलो।
पंचाणुव्वयजुत्तो सत्तेिंह सिक्खावएिंह संपुण्णो।।
मधु, मांस, मद्य, जुआ और वेश्या आदि व्यसन इनको त्याग करने वाला, पाँच अणुव्रतों से युक्त तथा सात शिक्षाव्रतों से परिपूर्ण गृहस्थ होता है। यहाँ मद्य, मांस, मधु के त्याग का आदेश दिया है—
भावार्थ— जुआ खेलना मांस मद, वेश्यागमन शिकार।
चोरी पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार।।
इस प्रकार जुआ और वेश्या आदि शब्द से सातों व्यसनों के त्याग का उपदेश दिया गया समझना चाहिए।
यहाँ महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि गौतमस्वामी जैसे चार ज्ञान धारी, सप्तऋद्धि समन्वित, तद्भवमोक्षगामी, गणधरदेव स्वयं गृहस्थ श्रावक को आत्मा—आत्मा का ही उपदेश न देकर मद्य, मांस,, मधु त्याग और जुआ आदि व्यसनों के त्याग का उपदेश दे रहे हैं तथा इसे ही वे गृहस्थों के लिए ‘धर्म’ शब्द से घोषित कर रहे हैं। जो आज इस त्याग की परम्परा को ‘धर्म’ नहीं कहते हैं उन्हें इन पंक्तियों को देखना चाहिए। ये पंक्तियां साक्षात् गौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत हैं।
पुन: वे स्वयं इस गृहस्थ धर्म के फल को बतलाते हुए कहते हैं—
‘जो एदाइं वदाइं धरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय, खुड्डियाओ वा अट्ठदह भवणवासियवाणविंवतरजोइसिय-सोहम्मीसाणदेवीओ वदिक्कमित्तं उपरिम अण्णदरमहड्ढियासु देवेसु उववज्जंति।’ जो श्रावक, श्राविकायें अथवा क्षुल्लक—क्षल्लिकायें इन व्रतों को धारण करते हैं वे अठारह स्थान, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों का व्यतिक्रम कर ऊपर में अन्य किन्हीं भी महर्द्धिक देवों में उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ—सम्यग्दृष्टि और व्रती चाहे स्त्री हों या पुरुष, वे भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव—देवियों में जन्म नहीं लेते हैं तथा सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों में भी जन्म नहीं लेते हैं। अर्थात् कल्पवासी देवों की देवियां दो स्वर्ग तक ही जन्म लेती हैं। आगे तीसरे से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के देव अपनी—अपनी देवियों की उत्पत्ति ज्ञातकर आकर अपने—अपने स्वर्ग में ले जाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव कल्पवासी देवियों में भी जन्म नहीं लेते हैं। इनसे अतिरिक्त सोलह स्वर्गों में विशेष ऋद्धिधारी देवों में जन्म लेते हैं।
सम्यग्दृष्टि कहां—कहां जन्म लेते हैं ? सो ही बताते हैं-
तं जहा—सोहम्मीसाणसणक्कुमारमािंहदबंभबंभुत्तरलांतवकापिट्ठसुक्कमहासुक्कसतारसहस्सार—आणतपाणतआरण-अच्चुदकप्पेसु उववज्जंति।
अडयंबरसत्थधरा, कडयंगदबद्धनउडकयसोहा।
भासुरवरबोहिधरा, देवा य महड्ढिया होंति।।
सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन कल्पों में उत्पन्न होते हैं।
वहां नाना प्रकार के वस्त्र—आभरण—कटक, अंगद, मुकुट आदि से शोभायमान, दिव्य वैक्रियिक शरीर के धारक और देदीप्यमान बोधि के धारक महर्द्धिक देव होते हैं।
इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि वस्त्र सहित क्षुल्लक, ऐलक आदि जो कि संयमासंयम को धारण करने वाले पंचमगुण स्थानवर्ती हैं ये सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। इन कल्पों के ऊपर दिगम्बर मुनि ही जाते हैं। भले ही कोई द्रव्यिंलगी ही क्यों न हो वह भी अंतिम ग्रैवेयक तक जाने की योग्यता रखता है। यहाँ पर तो गृहस्थधर्म की महानता को बतलाया है।
पुन: श्री गणधरदेव कहते हैं-
उक्कस्सेण दो तिण्णि भवगहणाणि जहण्णेण सत्तट्ठभवगहणाणि तदो समणुसुत्तादो सुदेवत्तं सुदेवत्तादो सुमाणुसत्तं तदो साइहत्था पच्छा णिग्गंथा होऊण सिज्झंति बुज्झंति मुंचंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।’
ये श्रावक या श्राविका अथवा क्षुल्लक या क्षुल्लिका उत्कृष्टपने से दो या तीन भव ग्रहण करते हैं, जघन्यरूप से सात या आठ भव ग्रहण करते हैं। इन भवों में भी सुमनुष्यत्व से सुदेवत्व—अच्छे, कुलीन, श्रेष्ठ, राजा, महाराजा आदि मनुष्य होकर उत्कृष्ट जाति के देव हो जाते हैं। सुदेवत्व से सुमनुष्यत्व को प्राप्त कर लेते हैं पुन: अन्तिम भव में नियम से निर्ग्रंथ मुनि होकर सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं और सभी दु:खों का अंत कर देते हैं।
यह है गृहस्थ धर्म का फल, श्री गणधर देव के शब्दों में। अत: गृहस्थाश्रम में रहते हुए गृहस्थधर्म का पालन करना कितने महत्व की बात है यह समझना आवश्यक है। वास्तव में जो गृहस्थ, मद्य, मांस आदि के त्यागी होते हैं, जुआ आदि दुर्व्यसनों से दूर रहते हैं और अणुव्रतों का पालन करते हैं। वे घर में रहते हुए भी बहुत ही सुखी रहते हैं। राजनैतिक अन्याय न करने से उन्हें मानसिक शांति बनी रहती है। सर्वत्र प्रशंसा के पात्र होते हैं और सभी जनों में विश्वस्तता को भी प्राप्त कर लेते हैं। इन धर्मों से युक्त गृहस्थों को सर्वत्र सुख, शांति, यश और धन की वृद्धि आदि प्राप्त होते हैं तथा परभव में स्वर्ग के सुख भोगकर पुन: चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि के भी पुण्य को प्राप्त कर परम्परा से मोक्ष को प्राप्तकर शाश्वत सुख के भोक्ता बन जाते हैं। इसलिए गृहस्थाश्रम में रहते हुए प्रत्येक स्त्री या पुरुष को अणुव्रत आदि गृहस्थधर्मों का पालन करना बहुत ही आवश्यक है, सर्वथा हितकर ही है ऐसा समझना चाहिए क्योंकि यह धर्म भगवान महावीर ने अपनी दिव्यध्वनि में कहा है और श्री गौतमस्वामी ने तीस वर्ष तक उनके पादमूल में रहकर उनसे श्रवण किया है और परमकरुणा बुद्धि से गृहस्थों के लिए कहा है।