कुछ सम्प्रदाय वाले मोक्ष को अकारण मानते हैं व कुछ सम्प्रदाय वाले संसार को ही अहेतुक कहते हैं। अष्टसहस्री ग्रंथ में उनकी मान्यता का निरसन करते हुये आचार्य श्री विद्यानंदि महोदय ने मोक्ष व संसार दोनों को सकारण सिद्ध किया है।
मोक्ष कारण सहित है, क्योंकि प्रतिनियत काल आदिपूर्वक होती है वस्त्रादि के समान अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और तीर्थ आदि सामग्री के बिना मोक्ष नहीं हो सकता है इसलिए सकारण है। अन्यथा मोक्ष को बिना निमित्त के मानने पर तो सर्वदा सभी जगह सभी को मोक्ष प्राप्त हो जायेगा, चूँकि वह पर की अपेक्षा से रहित है तथा आगम से भी मोक्ष का कारण तत्त्व बाधित नहीं है। बल्कि वह उस निमित्त का साधक ही है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं, यह आगम वाक्य है।
संसारस्थितिछेद के कारण-
समयसार के आस्रव अधिकार में आचार्य श्री जयसेन ने परमागम के कहे अनुसार संसार स्थिति छेद के कारण बताये हैं-
‘‘द्वादशांग का ज्ञान, उसकी तीव्र भक्ति, अनिवृत्ति परिणाम और केवलीसमुद्घात ये चार संसार स्थिति का घात करने वाले होते हैं।’’
रत्नत्रय तो छद्मस्थों के संसार स्थिति का घात करते हैं और केवली समुद्घात केवली भगवान के अघाति कर्मों की स्थिति का घात करता है।
श्री कुंदकुंददेव सूत्रपाहुड़ में कहते हैं-
णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।।२३।।
वस्त्र धारण करने वाला मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है भले ही वह तीर्थंकर ही क्यों न हो, ऐसा जिनशासन में कहा है। अत: नग्न दिगम्बरपना ही मोक्ष का मार्ग है, इसके सिवाय शेष सभी उन्मार्ग हैं।
पुण्यास्रव भी मोक्ष का कारण है-
देखिये श्री भट्टाकलंक देव के वचन-
‘‘तत्र पुण्यास्रवो व्याख्येय: प्रधानत्वात् तत्पूर्वकत्वात् मोक्षस्य।’’
इस सप्तम अध्याय में अब पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि वह प्रधान है। ऐसा क्यों ? तो उस पुण्यास्रवपूर्वक ही मोक्ष होता है अर्थात् मोक्ष के लिए यह कारण है।
तभी तो जीवों से व्याप्त इस लोक में विचरण करते हुए भी मुनि कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं-
प्रश्न यह हुआ कि-
‘कथं चरे कथं चिट्ठे कथमासे कथं सए।
कथं भुंजेज्ज भासेज्ज जदो पावं ण बंधइ’।।
हे भगवन्! वैâसे आचरण करें ? कैसे ठहरें ? वैâसे बैठें ? कैसे शयन करें ? वैâसे भोजन करें ? और कैसे बोलें कि जिससे पापों का बंध नहीं होवे।
तब- जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सए।
जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बंधइ।।६३।।
यत्नपूर्वक आचरण करो, यत्नपूर्वक खड़े रहो, यत्नूपूर्वक बैठो, यत्नपूर्वक शयन करो, यत्नपूर्वक भोजन करो और यत्नपूर्वक संभाषण करो, इस प्रकार से पाप कर्म का बंध नहीं होता है।
और तभी तो कहा है-
जब महाव्रतियों के प्रतिसमय घटिका यंत्र के जल के समान असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है तब उनके पाप वैâसे संभव है ? अर्थात् कथमपि उनके पाप का बंध नहीं हो सकता। निष्कर्ष यह निकला कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये ही बंध के कारण हैं न कि अणुव्रत, महाव्रत आदि। ये व्रत तो मोक्ष के लिए कारणभूत ऐसे रत्नत्रय के अंतर्गत हैं।
ऐसे ही संसार भी अनिमित्तक नहीं है-
कोई कहता है कि ‘‘संसार अहेतुक है क्योंकि वह अनादि अनंत है आकाश के समान। तो आचार्य कहते हैं ऐसा नहीं कहना, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से संसार अनादि अनंत नहीं है। द्रव्यार्थिकनय से है तो हमें इष्ट ही है। सुख-दुख आदि पर्यायों के वर्तनरूप जो यह संसार है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकार का है। ‘मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के कारण हैं’। और ये बंध के कारण ही तो संसार के कारण हैं।’’
निष्कर्ष यही निकला कि जैसे संसार सनिमित्तक है वैसे ही मोक्ष भी सनिमित्तक है। मोक्ष के कारण सम्यक्चारित्र में सकल चारित्र और विकल चारित्र से दो भेद हो जाते हैं। विकल चारित्र में बारह व्रतों के अंतर्गत चार शिक्षाव्रतों में दान और पूजा का ग्रहण है अत: ये दान पूजा आदि मोक्ष के ही कारण हैं यह निश्चित समझना चाहिए।
संसार के कारण-श्री कुंदकुंद देव ने समयसार ग्रंथ में भी संसार के कारण व मोक्ष के कारण बताये हैं।
मिथ्यात्व पुन: दो प्रकार का है-एक जीव मिथ्यात्व, दूसरा अजीव मिथ्यात्व, और उसी प्रकार से अज्ञान, अविरति, योग, मोह और क्रोधादि कषाय ये सभी भाव जीव-अजीव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। यहाँ अजीव मिथ्यात्व आदि बाह्य निमित्त हैं और जीव मिथ्यात्व आदि अंतरंग निमित्त हैं अथवा उपादान कारण हैं।
अब आप श्री कुंदकुंददेव के समयसार में मोक्ष के कारणों को देखिये-
साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र नित्य ही सेवन करने योग्य है। पुन: इन तीनों को भी निश्चय से आत्मा ही जानना चाहिए अर्थात् व्यवहार से ये तीन हैं और निश्चय से तीनों स्वरूप एक आत्मा ही है।
यहाँ पर भी भेदरत्नत्रय बाह्य कारण होने से निमित्त है और अभेदरत्नत्रय अंतरंग कारण होने से उपादान है।
आगे और कहते हैं-
जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उन्हीं का जानना वह ज्ञान है और रागादि का त्याग करना चारित्र है यही मोक्ष का पथ है।
कार्य दो तरह के कारणों से होता है-(१) उपादान कारण से (२) निमित्त कारण से। जो कारण स्वयं कार्यरूप बनता है, वह उपादान कारण होता है। उपादान कारण के सिवाय एवं दूसरे कारण जो कार्य बनने में सहायता करते हैं, वे निमित्त कारण होते हैं। जैसे-खान में सोने का पत्थर (सुवर्ण पाषाण) तभी शुद्ध सोना बनता है जब उसे सोना बनने योग्य आस-पास के सहायक कारणों का संयोग मिलता है। खान से निकला हुआ सुवर्ण-पाषाण उपादान कारण है एवं उसको शुद्ध करने वाला न्यारिया, सुनार आदि निमित्त कारण है। इसी प्रकार संसारी आत्मा भी शुद्ध परमात्मा तभी बनती है जब उसको मुक्त होने के योग्य द्रव्य (कुलीन मनुष्य पर्याय), क्षेत्र (कर्मभूमि), काल (दु:षमा-सुषमाकाल), भाव (क्षपक श्रेणी के योग्य अपने सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र भाव) प्राप्त होता है। मुक्त होने में संसारी आत्मा उपादान कारण होता है और मनुष्य भव, वङ्काऋषभनाराचसंहनन, कर्मभूमि, चौथा काल आदि निमित्त कारण हैं। दोनों तरह के समस्त कारण मिलने पर ही मुक्ति रूप शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है।
समयसार के संवर अधिकार में भी बहुत ही सुंदर क्रम बताया है-
‘‘पूर्व में कहे हुये राग-द्वेष मोहरूप आस्रवों के हेतु सर्वज्ञदेव ने मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग ये चार अध्यवसान कहे हैं सो ज्ञानी के इन हेतुओं का अभाव होने से नियम से आस्रव का निरोध होता है। आस्रव भाव के बिना कर्म का भी निरोध हो जाता है। कर्म के अभाव से नोकर्मों का भी निरोध हो जाता है तथा नोकर्मों का निरोध हो जाने से संसार का निरोध हो जाता है।’’
इन प्रकरणों से यह स्पष्ट है कि संसारी आत्मा व्यवहारनय से ही निमित्त रूप से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है, अशुद्ध निश्चयनय से उपादान रूप से निज अशुद्ध भावों का ही कर्त्ता-भोक्ता है। जैसे-कुम्भकार मिट्टी से घड़े को बनाता है उसमें मिट्टी घड़े के लिए उपादान कारण है और कुम्भकार निमित्त कारण है वैसे ही यह आत्मा पुद्गलवर्गणाओं को कर्मरूप परिणमाता है उसमें यह निमित्त कारण है तथा उन पुद्गलों के लिये भी जीव के भाव निमित्त कारण हैं अन्यथा वह पुद्गल कर्मरूप नहीं बनता तथा आत्मा स्वयं अपने रागादि भावों का उपादान कारण है वैसे ही पुद्गल द्रव्य भी कर्मों के लिए उपादान कारण है और जो कारण सहकारी रहता है वह निमित्त कारण है। यद्यपि मिट्टी में हमेशा उपादान कारण मौजूद है किन्तु निमित्तरूप कुम्भकार, चाक, दण्ड आदि के मिले बिना वह मिट्टी कभी घट रूप नहीं बन सकती है वैसे ही कार्मण वर्गणारूप पुद्गल में कर्मरूप होने की उपादान शक्ति मौजूद है किन्तु जीव के रागादि भाव हुये बिना वे पुद्गल वर्गणायें कर्मरूप परिणत नहीं हो सकती हैं। किन्तु जीव के परिणामों का निमित्त लेकर ही कर्मभाव को प्राप्त होती हैं अत: निमित्त के बिना भी कार्य का होना असम्भव ही है। जीव के रागादि भाव होवें और कर्म न बंधे ऐसा कभी नहीं हो सकता है।
‘‘णमोकार महामंत्र भी तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा का कारण है।’’
इस प्रकरण से यह स्पष्ट है कि देशव्रती तो पुण्य ही करता है, मुनिराज भी सराग संयम, मंगल और महामंत्र के द्वारा पुण्य बंध के साथ-साथ कर्मों की असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा भी किया करते हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि यह मंगल, सरागसंयम और महामंत्र का स्मरण पुण्यबंध के साथ-साथ कर्मनिर्जरा में भी निमित्त है।