२.१ जैन परम्परा के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में ह्रास होते-होते जब भोगभूमि का स्थान कर्मभूमि ने ले लिया तो भगवान् ऋषभदेव ने जनता के योगक्षेम के लिए पुरुषों की बहत्तर कलाओं और स्त्रियों के चौसठ गुणों को बतलाया। जैन अंग साहित्य के तेरहवें पूर्व में उनका विस्तृत वर्णन था, वह अब नष्ट हो चुका है। इससे पता लगता है कि पहले कला का अर्थ बहुत व्यापक था। उसमें जीवन-यापन से लेकर जीव-उद्धार तक के सब सत्प्रयत्न सम्मिलित थे। कहा भी है-
कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार।
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार।।
जैनधर्म का तो प्रधान लक्ष्य ही जीव उद्धार है। बल्कि यदि कहा जाये कि जीव उद्धार के लिए किये जाने वाले सत्प्रयत्नों का नाम ही जैनधर्म है तो अनुचित न होगा। इसी से आज कला की परिभाषा जो ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ की जाती है अर्थात् जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला है, वह जैन कला में सुघटित है, क्योंकि जैनधर्म से सम्बद्ध चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकला सुन्दर होने के साथ ही साथ कल्याणकर भी है और सत्य का दर्शन कराती है। नीचे उनका परिचय संक्षेप में दिया जाता है।
सरगुजा राज्य के अन्तर्गत लक्ष्मणपुर से १२ मील रामगिरि नामक पहाड़ है वहाँ पर जोगीमारा गुफा है। गुफा की चौखट पर बड़े ही सुन्दर चित्र अंकित हैं। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीन हैं तथा जैनधर्म से संबंधित हैं परन्तु संरक्षण के अभाव में चित्रों की हालत खराब हो गई है।
पुद्दुकोटै राज्य में राजधानी से ९ मील उत्तर एक जैन गुफा मंदिर है उसे सितन्नवासल कहते हैं। सितन्नवासल का प्राकृत रूप है सिद्धण्णवास-सिद्धों का निवास। इसकी भीतों पर पूर्वपल्लव राजाओं की शैली के चित्र हैं जो तमिल संस्कृति और साहित्य के महान् संरक्षक प्रसिद्ध कलाकार राजा महेन्द्रवर्मा प्रथम (६००-६२५ ई.) के बनवाये हुए हैं और अत्यन्त सुन्दर होने के साथ ही साथ सबसे प्राचीन जैन चित्र हैं। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अजंता के सर्वोत्कृष्ट चित्रों के साथ सितन्नवासल के चित्रों की तुलना करना अन्याय होगा किन्तु ये चित्र भी भारतीय चित्रकला के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। इनकी रचना शैली अजंता के भित्ति चित्रों से बहुत मिलती-जुलती है।
यहाँ अब दीवारों और छतों पर सिर्फ दो चार चित्र ही कुछ अच्छी हालत में बचे हैं। इनकी विशेषता यह है कि बहुत थोड़ी किन्तु स्थिर और दृढ़ रेखाओं में अत्यन्त सुन्दर आकृतियाँ बड़ी होशियारी के साथ लिख दी गई हैं जो सजीव सी जान पड़ती हैं। गुफा में समवसरण की सुन्दर रचना चित्रित है। सारी गुफा कमलों से अलंकृत है, खम्भों पर नर्तकियों के चित्र हैं। बरामदे की छत के मध्यभाग में पुष्करिणी का चित्र है। जल में पशु-पक्षी जलविहार कर रहे हैं। चित्र के दाहिनी ओर तीन मनुष्याकृतियाँ आकर्षक और सुन्दर हैं। गुफा में पर्यंकमुद्रा में स्थित पुरुष प्रमाण अत्यन्त सुन्दर पाँच तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं जो मूर्तिविधान कला की अपेक्षा से भी उल्लेखनीय हैं। वास्तव में पल्लवकालीन चित्र भारतीय विद्वानों के लिए अध्ययन की वस्तु हैं।
सितन्नवासल के बाद जैनधर्म से संबंधित चित्रकला के उदाहरण दशवीं शती से लगाकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक मिलते हैं। विद्वानों का कहना है कि इस मध्यकालीन चित्रकला के अवशेषों के लिए भारत जैन भण्डारों का आभारी है, क्योंकि प्रथम तो इस काल में प्राय: एक हजार वर्ष तक जैनधर्म का प्रभाव भारतवर्ष के एक बहुत बड़े भाग में फैला हुआ था। दूसरे जैनों ने बहुत बड़ी संख्या में धार्मिक ग्रंथ ताड़पत्रों पर लिखवाये और चित्रित करवाये थे। वि. सं. ११५७ की चित्रित निशीथचूर्णि की प्रति आज उपलब्ध है जो देवनागरी कला में अति प्राचीन है। १५वीं शती के पूर्व की जितनी भी कलात्मक चित्रकृतियाँ मिलती हैं वे केवल जैनग्रंथों में ही प्राप्त हैं।
आज तक जो प्राचीन जैन साहित्य उपलब्ध हुआ है उसका बहुभाग ताड़पत्रों पर लिखा हुआ मिला है अत: भारतीय चित्रकला का विकास ताड़पत्रों पर भी खूब हुआ है। मुनि जिनविजय जी का लिखना है कि चित्रकला के इतिहास और अध्ययन की दृष्टि से ताड़पत्र की ये सचित्र पुस्तकें बड़ी मूल्यवान और आकर्षणीय वस्तु हैं।
मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियम से एक मूल्यवान ग्रंथ श्री टी.एन. रामचन्द्रन् द्वारा लिखित प्रकाशित हुआ है। इसमें प्रकाशित चित्रों से दक्षिण भारत की जैन चित्रकला पद्धति का अच्छा आभास मिलता है। इनमें से अधिकांश चित्र भगवान् ऋषभदेव और महावीर की जीवन घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। उनसे उस समय के पहनावे से, नृत्यकला आदि का परिचय मिला है।
ताड़पत्रों को सुरक्षित रखने के लिए काष्ठफलों का प्रयोग किया जाता था अत: उन पर भी जैन चित्रकला के सुन्दर नमूने मिलते हैं।
जैन चित्रकला के संबंध में चित्रकला के मान्य विद्वान् श्री एन.सी. मेहता ने जो उद्गार प्रकट किये हैं वे उस पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त होंगे। वे लिखते हैं-‘‘जैन चित्रों में एक प्रकार की निर्मलता, स्फूर्ति और गतिवेग है, जिससे डॉ. आनन्दकुमार स्वामी जैसे रसिक विद्वान् मुग्ध हो जाते हैं। इन चित्रों की परम्परा अजंता, एलोरा, बाघ और सितन्नवासल के भित्तिचित्रों की है। समकालीन सभ्यता के अध्ययन के लिए इन चित्रों से बहुत कुछ ज्ञानवृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोग में आने वाली चीजें आदि के संबंध में अनेक बातें ज्ञात होती हैं।
जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है अत: प्रारंभ से लेकर आज तक उसके मूर्तिविधान में प्राय: एक ही रीति के दर्शन होते हैं। ई. सं. के आरंभ में कुशान राज्यकाल की जो जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं उनमें और सैकड़ों वर्ष पीछे की बनी जैन मूर्तियों में बाह्य दृष्टि से थोड़ा बहुत ही अन्तर है। प्रतिमा के लाक्षणिक अंग लगभग दो हजार वर्ष तक एक ही रूप में कायम रहे हैं। पद्मासन या खड्गासन मूर्तियों में लम्बा काल बीत जाने पर भी विशेष भेद नहीं पाया जाता। जैन तीर्थंकरों की मूर्ति विरक्त, शांत और प्रसन्न होती है। उसमें मनुष्य हृदय की विकृतियों को स्थान नहीं होता। इससे जैन प्रतिमा उनकी मुखमुद्रा के ऊपर से तुरन्त ही पहचानी जा सकती हैं। खड़ी मूर्तियों के मुख पर प्रसन्नता और दोनों हाथ निर्जीव जैसे सीधे लटकते हुए होते हैं। बैठी हुई प्रतिमा ध्यानमुद्रा में पद्मासन से विराजमान होती हैं। दोनों हाथ गोदी में सरलता से स्थापित रहते हैं। २४ तीर्थंकरों के प्रतिमा विधान में व्यक्ति भेद न होने से उनके आसन के ऊपर अंकित चिन्हों से जुदे-जुदे तीर्थंकर की प्रतिमा पहचानी जाती है।
मध्यकालीन जैन मूर्तियों में बौद्ध प्रथा के समान कपाल पर उर्णा और मस्तक पर उष्णीष तथा वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिन्ह भी अंकित होने लगा किन्तु जैन मूर्तियों की लाक्षणिक रचना में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति निश्चय से मौर्यकाल की है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी। वास्तव में मथुरा में जैनमूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है। श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यत: जैन सम्प्रदाय की है।
खण्डगिरि और उदयगिरि में ई. पू. १८८-३० तब की शुंगकालीन मूर्ति शिल्प के अद्भुत चातुर्य के दर्शन होते हैं। वहाँ पर इस काल की कटी हुई सौ के लगभग जैन गुुफाएं हैं जिनमें मूर्ति शिल्प भी है। दक्षिण भारत के अलगामलै नामक स्थान में खुदाई से जो जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनका समय ई. पू. ३००-२०० के लगभग बताया जाता है। उन मूर्तियों की सौम्याकृति द्रविड़कला में अनुपम मानी जाती है। श्रवणबेलगोला की प्रसिद्ध जैन मूर्ति तो संसार की अद्भुत वस्तुओं में से है। वह अपने अनुपम सौंदर्य और अद्भुत शांति से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। यह विश्व को जैन मूर्तिकला की अनुपम देन है।
तीर्थंकरों की सादी प्रतिमाओं के आवासगृहों को सजाने में जैनाश्रित कला ने कुछ बाकी नहीं रखा। भारतवर्ष के चारों कोनों में जैन मंदिरों की अद्वितीय इमारतें आज भी खड़ी हुई हैं। मैसूर राज्य के हासन जिले में वेलूर के जैन मंदिर मध्यकालीन जैन वैभव की साक्षी देते हैं। गुजरात में आबू के मंदिरों में तो स्थापत्यकला देखते ही बनती है। विन्ध्य प्रान्त के छतरपुर राज्य के खजुराहो स्थान में नवमी से ग्यारहवीं शती तक के बहुत से सुन्दर देवालय बने हुए हैं और काले पत्थर की खंडित-अखंडित अनेक जैन प्रतिमाएँ जगह-जगह दृष्टिगोचर होती हैं। इलाहाबाद म्युनिसिपल संग्रहालय जैन मूर्तियों का अच्छा संग्रह है जो प्राय: बुन्देलखण्ड से लायी गयी हैं। किसी समय में बुन्देलखण्ड जैन पुरातत्व और कला का महान् पोषक था। उसने शिल्पियों को यथेच्छ द्रव्य देकर जैन कलात्मक कृतियों का सृजन कराया। इसका पूरा हाल खजुराहो और देवगढ़ की यात्रा करके ही जाना जा सकता है। चित्तौड़ का जैन स्तम्भ स्थापत्यकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है। यह अपनी शैली का अकेला ही है। इसकी ऊँचाई ८० फुट है और धरातल से चोटी तक सुन्दर नक्काशी और सजावट से शोभित है। इसके नीचे एक शिलालेख भी है जिसमें उसका समय ८९६ ई. दिया है। यह स्तंभ प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ से संबद्ध है। इसके ऊपर उनकी सैकड़ों मूर्तियाँ अंकित हैं। ग्वालियर की पहाड़ी पर भी पुरातत्व की उल्लेखनीय सामग्री है। पहाड़ के चारों ओर बहुत सी मूर्तियाँ खोदी हुई हैं, उनमें से कुछ तो ५७ फुट ऊँची हैं। फ्रेंच कलाविद ज्यूरिनों ने अपनी पुस्तक -ला रेलिजन द जैन’ में ठीक ही लिखा है-विशेषत: स्थापत्य कला के क्षेत्र में जैनियों ने ऐसी पूर्णता प्राप्त कर ली है कि शायद ही कोई उनकी बराबरी कर सके।
जैन स्थापत्यकला के सबसे प्राचीन अवशेष उड़ीसा के उदयगिरि और खंडगिरि पर्वतों की तथा जूनागढ़ के गिरनार पर्वत की गुफाओं में मिलते हैं। उदयगिरि और खंडगिरि की गुफाओं के बारे में फर्ग्युसन का कहना है कि उनकी विचित्रता और प्राचीनता तथा उसमें पायी जाने वाली मूर्तियों के आकार-प्रकार के कारण उनका असाधारण महत्व है। उदयगिरि की हाथी गुफा तो खारवेल के कारण ही महत्वपूर्ण है परन्तु स्थापत्य कला की दृिष्ट से रानी और गणेश गुफाएँ उल्लेखनीय हैं। उनमें भगवान पार्श्वनाथ का जीवन वृत्तान्त बड़ी कुशलता से खोदा गया है। कला की दृष्टि से मथुरा के आयागपट्ट, बोड़न स्तूप और तोरण उल्लेखनीय हैं।
जैन स्थापत्य कला के अपेक्षाकृत अर्वाचीन उदाहरण आबू आदि स्थान में और राणा कुम्भा के समय के अवशेषों में मिलते हैं। अलवर राज्य के भानुगढ़ स्थान में भी बहुत सुन्दर जैन मंदिर हैं। उनमें से एक तो १०-११वीं शती का है और खजुराहो के जैसा ही सुन्दर है। श्री फर्ग्युसन का कहना है कि राजपुताने में जैनी कम रह गये हैं फलत: उनके मंदिरों की दुरवस्था है किन्तु भारतीय कला के प्रेमियों के लिए वे बहुत काम के हैं। यही अवस्था पूरे देश की है।
जैनों की स्थापत्य कला ने गुजरात की भी शोभा बढ़ायी है। यह सब मानते हैं कि यदि जैन कला और स्थापत्य जीवित न होते तो मुस्लिम कला से हिन्दूकला दूषित हो जाती। फर्ग्युसन ने स्थापत्य पर एक ग्रंथ लिखा है। उसमें वह लिखते हैं कि जो कोई भी बारहवीं शती का ब्राह्मण धर्म का मंदिर है, गुजरात में जैनों के द्वारा व्यवहृत शैली का उदाहरण है। राणकपुर के जैन मंदिर के अनेक स्तम्भों को देखकर कला के पारखी मुग्ध हो जाते हैं। दक्षिण में जहाँ बौद्ध धर्म के स्थापत्य के इने-गिने अवशेष हैं वहाँ जैनधर्म के प्राचीन स्थापत्य के बहुत से उदाहरण आज भी उपलब्ध हैं। उनमें प्रमुख हैं-एलोरा की इन्द्रसभा और जगन्नाथसभा। संभवत: इनकी खुदाई चालुक्यों की बादामी शाखा या राष्ट्रकूटों के तत्त्वावधान में हुई होगी, क्योंकि बादामी में भी इसी तरह की एक जैन गुफा है, जो सातवीं शती की मानी जाती है। दक्षिण में जैन मंदिरों और मूर्र्तियों की बहुतायत है। श्रवणबेलगोला (मैसूर) में गोम्मटस्वामी की प्रसिद्ध जैन मूर्ति है जो स्थापत्य कला की दृष्टि से अपूर्व है। वहाँ अनेक जैन मंदिर हैं। जो द्रवेड़ियन शैली के हैं। कनाड़ा जिले में अथवा तुलु-प्रदेश में जैन मंदिरों की बहुतायत है किन्तु उनकी शैली न दक्षिण भारत की द्रवेड़ियन शैली से ही मिलती है और न उत्तर भारत की शैली से। मूडबिद्री के मंदिरों में लकड़ी का उपयोग अधिक पाया जाता है और उसकी नक्काशी दर्शनीय है। सारांश यह है कि भारतवर्ष का शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँ जैन पुरातत्त्व के अवशेष न पाये जाते हों। जहाँ आज जैनों का निवास नहीं है वहाँ भी जैन कला के सुन्दर नमूने पाये जाते हैं।
इसी से प्रसिद्ध चित्रकार श्रीयुत रविशंकर रावल का कहना है-‘भारतीय कला का अभ्यासी जैनधर्म की जरा भी उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे जैनधर्म, कला का महान् आश्रयदाता, उद्धारक और संरक्षक प्रतीत होता है।’
स्व. का. प्र. जायसवाल ने जैनधर्म से संबद्ध वास्तुकला के विषय में एक भ्रामक बात कही है। जैन और बौद्ध मंदिरों पर अप्सराओं आदि की मूर्ति को लेकर उन्होंने लिखा है-अब प्रश्न यह है कि बौद्धों और जैनों को ये अप्सराएं कहाँ से मिलीं …….मेरा उत्तर यह है कि उन्होंने ये सब चीजें सनातनी हिन्दू (वैदिक) इमारतों से ली हैं।
भारतीय कला को इस तरह फिर्कों में बांटने के संबंध में व्युहलर का मत उल्लेखनीय है जो उन्होंने मथुरा से प्राप्त पुरातत्व से शिक्षा ग्रहण करके निर्धारित किया था। उनका कहना है-‘मथुरा से प्राप्त खोजों ने मुझे यह पाठ पढ़ाया है कि भारतीय कला साम्प्रदायिक नहीं है। बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्मों ने अपने-अपने समय की और देश की कलाओं का उपयोग किया है। उन्होंने कला के क्षेत्र में प्रतीकों और रुढ़िगत रीतियों को एक ही रूप से लिया है। चाहे स्तूप हों या पवित्र वृक्ष या चक्र या और कुछ हों ये सभी धार्मिक या कलात्मक तत्त्वों के रूप में जैन, बौद्ध और सनातनी हिन्दू सभी के लिए समान रूप से सुलभ हैं।
उनके इस मत की पुष्टि विसेण्ट स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘द जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टींक्विटीस ऑफ मथुरा’ में की है। इस तरह प्राचीन मंदिरों, मूर्तियों, शिलालेखों, गुफाओं और ताम्रपत्रों के रूप में आज भी जैन पुरातत्व यत्र-तत्र पाया जाता है और बहुत सा समय के प्रवाह में नष्ट हो गया अथवा नष्ट कर दिया गया। श्री फर्ग्युसन का कहना है कि बारह खंभों के गुम्बजोें का जैनों में बहुत चलन रहा है। इस तरह का गुम्बज एक तो भेलसा में निर्मित समाधि में पाया जाता है जो संभवत: ४वीं शती का है। दूसरा बाघ की महान् गुफाओं में है जो छठी या सातवीं शती का है। इस तरह के गुम्बज के पतले और शानदार स्तंभों को मुसलमानों ने अपने काम का पाया, क्योंकि वे बड़ी सरलता से फिर से बैठाये जा सकते थे इसलिए उन्हें बिना नष्ट किये ही मुसलमानों ने अपने काम में ले लिया। उनका मत है कि अजमेर, देहली, कन्नौज, धार और अहमदाबाद की विशाल मस्जिद जैनों के मंदिरों को तोड़ने से प्राप्त सामग्री से ही पुन: निर्मित की गई हैं।
गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ के मंदिर को कौन नहीं जानता। ई. १०२५ में महमूद गजनवी ने इसे तोड़ा था। इस मंदिर की निर्माण शैली गिरनार पर्वत पर स्थित श्री नेमिनाथ के जैन मंदिरों से मिलती-जुलती हुई है। श्री फर्ग्युसन का कहना है कि जब मुसलमानों ने इस मंदिर पर आक्रमण किया उस समय वह सोमेश्वर का मंदिर कहा जाता था। सोमेश्वर नाम से ही शिव मान लिया गया। यदि वह शिव का था तो उसमें अवश्य ही शिवलिंग प्रतिष्ठित होना चाहिए किन्तु मुस्लिम इतिहास लेखकों का कहना है कि मूर्ति के सिर, हाथ, पैर और पेट था। ऐसी स्थिति में वह मूर्ति शिवलिंग न होकर विष्णु की या किसी जैन तीर्थंकर की होनी चाहिए। उस समय गुजरात में वैष्णव धर्म का नामोनिशान भी देखने को नहीं मिलता तथा मुसलमानों के बाद उस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा भीमदेव, सिद्धराज और कुमारपाल ने कराया, सब जैन थे। इन सब बातों पर से फर्ग्युसन सा. ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सोमनाथ का मंदिर जैन मंदिर था।
कला की तरह पुरातत्व शब्द का अर्थ भी बहुत व्यापक है। इतिहास आदि के निर्माण में जिन साधनों की आवश्यकता होती है वे सभी पुरातत्व में गर्भित हैं अत: प्राचीन मंदिरों, गुफाओं और स्तंभों की तरह प्राचीन शिलालेखों और शास्त्रों को भी पुरातत्व में सम्मिलित किया गया है।
श्रवणबेलगोला (मैसूर) में बहुत से शिलालेख अंकित हैं। मैसूर पुरातत्त्व विभाग के तत्कालीन अधिकारी लूइस राइस साहब ने श्रवणबेलगोला के १४४ शिलालेखों का संग्रह प्रकाशित किया था। इसकी भूमिका में उन्होंने इन लेखोें के ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया और चन्द्रगुप्त मौर्य तथा भद्रबाहु के पारस्परिक संबंध का विवेचन कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने भद्रबाहु से जिनदीक्षा ली थी तथा शि. लेख नं. १ उन्हीं का स्मारक है।
उक्त संग्रह का दूसरा संस्करण रायबहादुर आर. नरसिंहाचार्य ने रचकर प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने ५०० शिलालेखों का संग्रह किया है व भूमिका में उनके ऐतिहासिक महत्व का विवेचन किया है किन्तु ये संग्रह कनड़ी व रोमन लिपि में थे अत: उक्त लेखों का एक देवनागरी संस्करण प्रो. हीरालाल तथा श्री विजयमूर्ति आदि से सम्पादित कराके श्री नाथूराम जी प्रेमी ने प्रकाशित किया है। इस तरह आबू, देवगढ़ आदि में भी अनेक शिलालेख मूर्तिलेख वगैरह पाये जाते हैं। भारतीय इतिहास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण खण्डगिरि, उदयगिरि में प्राप्त जैन शिलालेख की चर्चा पहले की जा चुकी है।
इस तरह जैनों ने बहुसंख्यक शिलालेखों, प्रतिमालेखों, ताम्रपत्रों, ग्रंथ प्रशस्तियों, पुष्पिकाओं, पट्टावलियों, गुर्वावलियों, राज वंशावलियों और ग्रंथों के रूप में विपुल ऐतिहासिक सामग्री प्रदान की है।
स्व. वैरिस्टर श्री का. प्र. जायसवाल ने अपने एक लेख में लिखा था-‘जैनों के यहाँ कोई २५०० वर्ष की संवत् गणना का हिसाब हिन्दुओं भर में सबसे अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समय में ऐतिहासिक परिपाटी की वर्ष गणना हमारे देश में थी। जब वह और जगह लुप्त और नष्ट हो गई, तब केवल जैनों में बची रही। जैनों की गणना के आधार पर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुत-सी घटनाओं को जो बुद्ध और महावीर के समय से इधर की हैं, समयबद्ध किया और देखा कि उनका ठीक मिलान सुज्ञात गणना से मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक बातों का पता जैनों की ऐतिहासिक लेख पट्टावलियों में ही मिलता है।’