निश्चय नय एवं व्यवहार नय।
निश्चयनय-गुण-गुणी में तथा पर्याय-पर्यायी आदि में भेद न करके अभेदरूप से वस्तु को ग्रहण करना।
व्यवहारनय-गुण-गुणी में तथा पर्याय-पर्यायी में भेद करके वस्तु को भेद रूप से ग्रहण करना।
निश्चय नय के भेद–शुद्धनिश्चयनय, अशुद्धनिश्चयनय।
शुद्धनिश्चयनय-जो नय कर्मजनित-विकार रहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है। जैसे-जीव केवलानमयी है। शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा जीव के न बंध है, न मोक्ष है और न गुणस्थान आदि हैं।
अशुद्धनिश्चयनय-जो नय कर्मजनित-विकार सहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है। जैसे-आत्मा मोह, रागद्वेष रूप भाव कर्मों का कर्ता और भोक्ता है।
सद्भूत व्यवहारनय एवं असद्भूत व्यवहारनय।
सद्भूत व्यवहारनय-एक वस्तु में गुण-गुणी का संज्ञादि की अपेक्षा भेद करना। जैसे-जीव के ज्ञान, दर्शनादि।
सद्भूत व्यवहारनय के भेद-उपचरित सद्भूत व्यवहारनय एवं अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय।
उपचरित सद्भूत व्यवहारनय-कर्मजनित-विकार सहित गुण-गुणी के भेद को ग्रहण करने वाला नय। जैसे-जीव के मतिज्ञान आदि गुण।
अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय-कर्मजनित-विकार रहित जीव के गुण-गुणी के भेदरूप विषय को ग्रहण करने वाला नय। जैसे-जीव के केवलज्ञानादि गुण।
असद्भूत व्यवहारनय-भिन्न वस्तु को ग्रहण करने वाला नय। जैसे-जीव का शरीर, मकान आदि।
असद्भूत व्यवहारनय के भेद-उपचरित असद्भूत व्यवहारनय एवं अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय।
उपचरित असद्भूत व्यवहारनय-संश्लेष संबंध रहित ऐसी भिन्न-भिन्न वस्तुओं का परस्पर में संबंध ग्रहण करने वाला नय है। जैसे-देवदत्त का धन, राम का महल, रावण की लंका आदि।
अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय-संश्लेष संबंध सहित वस्तु के संबंध को विषय करने वाला नय। जैसे-जीव का शरीर कहना।
उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के भेद-
१. स्वजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय-जो नय उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है, वह स्वजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे-शिष्य-पुत्र, पुत्री, स्त्री आदि मेरे हैं।
२. विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय-सोना, चांदी, वस्त्र, पिच्छी, कमण्डलु आदि मेरे हैं, ऐसा कहना विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय हैं।
३. स्वजातीय-विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय-देश, राज्य, दुर्ग ये सब मेरे हैं, ऐसा जो नय कहता है वह स्वजातीय-विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है, क्योंकि देश, राज्य आदि में सचेतन, अचेतन दोनों पदार्थ रहते हैं।
जहाँ कालकृतभेद है वह पर्यायार्थिक नय है तथा जहाँ कालकृत भेद नहीं वह द्रव्यार्थिकनय है। सप्त नयों में नैगम-संग्रह-व्यवहार द्रव्यार्थिक नय हैं तथा ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ़ और एवंभूत ये पर्यायार्थिक नय हैं। नैगम-संग्रह-व्यवहार शब्दनय हैं। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये अर्थनय हैं।
नय का ज्ञान सुखी-संतोषी जीवन की एक कला है। नय का ज्ञान एक दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान करने में सहायक बन किसी को तिरस्कृत नहीं करता। नयापेक्षा नहीं जानने से मन भेद-मतभेद खड़े हो जाते हैं। नयापेक्षा वात्सल्य का प्रतीक है, यह एक दूसरे को जोड़ती है। नयापेक्षा से रहित मानव-मस्तिष्क मात्र एक हठवाद है। पतन, द्वेष व आपसी मतभेद का कारण है। नय की सत्यता का ज्ञान जीवन में पग-पग पर एक मार्गदर्शक है। ‘‘सफल-शान्त जीवन की यह कुंजी है।’’
नय पदार्थों का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है। इसलिए नय का कथन किया जाता है।