अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद का विस्तृत रूप सप्तभंगी में दृष्टिगोचर होता है। अनेकांत सिद्धांत के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रत्येक पदार्थ परस्पर विरोधी अनेक धर्म युगलों का पिंड है। वे वस्तु में एक साथ रह तो सकते हैं परन्तु उन्हें युगपत् व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसके युगपत् प्रतिपादन के लिए भाषा में क्रमिकता ओर सापेक्षता चाहिए। स्याद्वाद पद्धति द्वारा प्रत्येक धर्म का वर्णन उसके प्रतिपक्षी धर्म की अपेक्षा से अस्ति (विधि) नास्ति (निषेध) और अवक्तव्य आदि रूप से सात प्रकार से किया जाता है, क्योंकि प्रत्येक धर्म युगल धर्म सप्तक लिए हुए हैं। वे सात धर्म सात वाक्यों द्वारा कहे जाते हैं। प्रत्येक धर्मों की सप्त प्रकारीय इस वर्णन शैली को सप्तभंगी कहते हैं। सप्तभंगी अर्थात् सात प्रकार के भंग, सात प्रकार के वाक्य विन्यास। सप्तभंगी का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि—
‘‘प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी।’’ अर्थात् प्रश्नानुसार वस्तुगत किसी भी एक धर्म में विधि और निषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है। जब वस्तुगत किसी धर्म का विधि निषेधपूर्वक अविरुद्ध कथन करना होता है तब जैन दार्शनिक सप्तभंगी न्याय का अनुसरण करते हैं।
स्याद् अस्ति एव—किसी अपेक्षा से है ही।
स्याद् नास्ति एव—किसी अपेक्षा से नहीं ही है।
स्याद् अस्ति एव स्याद् नास्ति एव—किसी अपेक्षा से है ही, किसी अपेक्षा से नहीं ही है।
स्याद् अवक्तव्यमेव—किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति एव अवक्तव्य एव—किसी अपेक्षा से है ही और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है।
स्याद् नास्ति एव स्याद् अवक्तव्य एव—किसी अपेक्षा से नहीं है ही और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति एव, स्याद् नास्ति एव, स्याद् अवक्तव्य एव—किसी अपेक्षा से है ही, किसी अपेक्षा से नहीं ही है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है।
उक्त सात भंगों में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ भंग ही मूल भंग हैं। शेष चार भंगों में तीसरा, पांचवां और छठा भंग द्विसंयोगी है तथा सातवां भंग त्रिसंयोगी है। गणित के नियमानुसार भी ‘अस्ति’, ‘नास्ति’ और अवक्तव्य इन तीन भंगों से चार संयुक्त भंग बनकर सप्तभंगी दृष्टि का उदय होता है। नमक, मिर्च और खटाई इन तीनों स्वादों के संयोग से चार और स्वाद उत्पन्न होंगे। नमक, मिर्च, खटाई, नमक—मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च खटाई तथा नमक—मिर्च और खटाई। इस प्रकार सात स्वाद होंगे। इसलिए कहा गया है कि प्रत्येक धर्म युगल में सप्त ही भंग बनते हैं, हीनाधिक नहीं।
ये सातों भंग वक्ता के अभिप्रायानुसार बनते हैं। वक्ता की विवक्षा के अनुसार एक वस्तु है भी कही जा सकती है और नहीं भी। दोनों के योग से ‘हाँ ना’ एक मिश्रित वचन भंग भी हो सकता है। और इसी कारण उसे अवक्तव्य भी कहा जा सकता है। वह यह भी कह सकता है कि प्रस्तुत वस्तु है भी और फिर भी अवक्तव्य है, नहीं है फिर भी अवक्तव्य है अथवा है भी नहीं भी है फिर भी अवक्तव्य है। इन्हीं सात दृष्टियों के आधार पर सप्तभंगियां बनी हैं। सप्तभंगियों की सार्थकता को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं। किसी ने पूछा, ‘‘आप ज्ञानी हैं ?’’ इसके उत्तर में इस भाव से कि मैं कुछ न कुछ तो जानता ही हूं। मैं कह सकता हूं कि ‘‘मैं स्याद् ज्ञानी हूं।’’ चूंकि मुझे आगम का ज्ञान है, किन्तु गणित, विज्ञानादि अन्य अनेक विषयों का पर्याप्त ज्ञान नहीं है उस अपेक्षा से मैं कहूं कि ‘‘मैं स्याद अज्ञानी हूं’’ तो भी अनुचित नहीं होगा। कितनी ही बातों का ज्ञान है और कितनी ही बातों का ज्ञान नहीं है। अत: मैं यदि कहूं कि ‘‘मैं स्याद् ज्ञानी भी हूं और नहीं भी’’ तो भी असंगत नहीं होगा। अगर इस दुविधा के कारण मैं इतना ही कहूं कि ‘‘मैं कह नहीं सकता कि मैं ज्ञानी हूं या नहीं’’ तो भी मेरा वचन असत्य नहीं होगा। इन्हीं आधारों पर सत्यता के साथ यह भी कह सकता हूं कि ‘‘मुझे कुछ ज्ञान है तो, फिर भी कह नहीं सकता कि आप जिस विषय को मुझसे जानना चाहते हैं उस विषय पर प्रकाश डाल सकता हूं या नहीं।’’ इसी बात को दूसरी तरह से कह सकता हूं कि ‘‘मैं ज्ञानी तो नहीं हूं फिर भी संभव है आपकी बात पर कुछ प्रकाश डाल सकूं’’ अथवा इस प्रकार भी कह सकता हूं कि ‘मैं कुछ ज्ञानी भी हूं कुछ नहीं भी हूं।’’ अत: कह नहीं सकता कि प्रकृत विषय का मुझे ज्ञान है या नहीं। ये समस्त वचन प्रणालियां अपनी—अपनी सार्थकता रखती हैं तथा पृथक््â—पृथक््â रूप में वस्तु—स्थिति के एक अंश को ही प्रकट करती हैं, उसके पूर्ण स्वरूप को नहीं। स्याद्वाद का एक शास्त्रीय उदाहरण है घट, जिसका स्वरूप नियमन जैन दार्शनिक सप्तभंगी के माध्यम से इस प्रकार करते हैं—
स्याद् अस्ति एव घट-कथंचिद् घट है ही।
स्याद् नास्ति एव घट-कथंचिद् घट नहीं ही है।
स्याद् अस्ति नास्ति एव घट-कथंचिद् घट है ही, कथंचिद् घट नहीं ही है।
स्याद् अवक्तव्य एव घट-कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति अवक्तव्य एव घट-कथंचिद् घट है ही और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है।
स्याद् नास्ति अवक्तव्य एवं घट-कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य एव घट-कथंचिद् घट है ही, कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है।
कथंचिद् घट है ही। इस वाक्य में ‘घट’ विशेष्य और अस्ति विशेषण है। एवकार विशेषण से युक्त होकर घट के अस्तित्व धर्म का अवधारण करता है। यदि इस वाक्य में ‘स्यात्’ का प्रयोग नहीं होता तो ‘अस्तित्व एकांतवाद’ का प्रसंग आ जाता, जो इष्ट नहीं है, क्योंकि घट में केवल अस्तित्व धर्म ही नहीं है, इसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी उसमें हैं। ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग इस आपत्ति को निरस्त कर देता है। ‘अवकार’ के द्वारा सीमित अर्थ को वह व्यापक बना देता है। विवक्षित धर्म का असंदिग्ध प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक धर्मों का संग्रहण—इन दोनों की निष्पत्ति के लिए ‘स्यात्कार’ और ‘एवकार’ का समन्वित प्रयोग किया जाता है।
सप्तभंगी के प्रथम भंग में विधि की और दूसरे में निषेध की कल्पना है। प्रथम भंग में विधि प्रधान है और दूसरे में निषेध। वस्तु स्वरूप शून्य नहीं है इसलिए विधि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है। अत: निषेध की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है।
जैसे विधि वस्तु का धर्म है वैसे ही निषेध भी वस्तु का धर्म हैं स्व—द्रव्य की अपेक्षा से घट का अस्तित्व है। यह विधि है पर द्रव्य की अपेक्षा से घट का नास्तित्व है। यह निषेध है। इसका अर्थ यह हुआ कि निषेध आपेक्षिक पर्याय है, दूसरे के निमत्त से होने वाली पर्याय है। किन्तु वस्तुत: ऐसा नहीं है। निषेध की शक्ति द्रव्य में निहित है। द्रव्य में यदि अस्तित्व धर्म हो और नास्तित्व धर्म न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नहीं रख सकता। निषेध ‘पर’ की अपेक्षा से व्यवहृत होता है इसलिए उसे आपेक्षिक या पर निमित्तक पर्याय कहते हैं। वह वस्तु के सुरक्षा कवच का काम करता है, एक के अस्तित्व या पर निमित्तक पर्याय कहते हैं। वह वस्तु के सुरक्षा कवच का काम करता है, एक के अस्तित्व में दूसरे को मिश्रित नहीं होने देता। ‘स्व द्रव्य की अपेक्षा से घट है’ और ‘पर द्रव्य की अपेक्षा से घट नहीं है’ ये दोनों विकल्प इस सत्यता को प्रकट करते हैं कि घट सापेक्ष है। वह सापेक्ष है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस क्षण में उसका अस्तित्व है, उस क्षण में उसका नास्तित्व नहीं है। अस्तित्व और नास्तित्व (विधि और निषेध) दोनों युगपत हैं, किन्तु एक क्षण में एक साथ दोनों का प्रतिपादन कर सकें, ऐसा कोई शब्द नहीं है। इसलिए युगपत् दोनों धर्मों का बोध कराने के लिए अवक्तव्य भंग का प्रयोग होता है। इसका तात्पर्य है कि दोनों धर्म एक साथ हैं, किन्तु उनका कथन नहीं किया जा सकता। उक्त विवेचन का सार यह है कि स्याद्वाद के अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य आदि भंग घट वस्तु के द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव पर निर्भर करते हैं। घट जिस द्रव्य से निर्मित है जिस क्षेत्र, काल और भाव में हैं उस द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से उसका अस्तित्व है। किन्तु अन्य द्रव्य, अन्य क्षेत्र, अन्य काल और अन्य भाव की अपेक्षा में उसका नास्तित्व है। इस प्रकार घट में अस्तित्व—नास्तित्व दोनों हैं और इन युगल धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता। अत: वह (घट) अवक्तव्य भी है। अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य—ये तीनों मूल भंग हैं। शेष चार इन्हीं भंगों से निष्पन्न होते हैं। अत: उनका विवेचन अनावश्यक है। सप्तभंगी से घटादि वस्तु समग्र भावाभावात्मक, सामान्य विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक और वाच्यावाच्यात्मक धर्मों का युगपत् कथन संभव है।
यहाँ पर जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है, कि अनेकांत, स्याद्वाद और सप्तभंगी इन तीनों में क्या अंतर है। इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि अनेकांत वस्तु है/वाच्य है, स्याद्वाद उसका व्यवस्थापक है/वाचक है और सप्तभंगी स्याद्वाद का साधन है। स्याद्वाद जब अनेकांत रूप वस्तु का कथन करता है तो सप्तभंगी के माध्यम से ही करता है। इसका आश्रय लिये बिना वह उसका निरूपण नहीं कर सकता। इसे और स्पष्टतया समझें कि स्याद्वाद स्याद्वादी वक्ता का वचन है। अनेकांत उसके द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ है और सप्तभंगी उसके प्रतिपादन की शैली, पद्धति या प्रक्रिया है। अत: सप्तभंगी में सात भंगों का समन्वय है इसलिए उसे सप्तभंगी कहा जाता है।
इस प्रकार यह स्याद्वाद का संक्षिप्त रूप है। यद्यपि यह विषय अत्यन्त व्यापक है और विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है, फिर भी यहां उसका संक्षिप्त स्वरूप दर्शाना ही इष्ट है। इसके विस्तृत विवेचन के लिए जैन न्याय ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए।