आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा में आचार्य श्री ने कहा –
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उवओगो वि य कमसो बीसं तु परूवणा भणिदा ।।
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इस प्रकार ये बीस प्ररूपणा पूर्वाचार्यों ने कही हैं । ओघ, सामान्य या अभेद से निरूपण करना यह पहली प्ररूपणा है ।
धवला ग्रन्थ के अनुसार ओघ, वृन्द, समूह, संपात, समुदय, पिण्ड, अविशेष अभिन्न और सामान्य से सब पर्यायवाची शब्द है । इस ओघनिर्देशिका प्रकृत में स्पष्टीकरण इस प्रकार हुआ कि गत्यादि मार्गणा स्थानों से विशेषता को नहीं प्राप्त हुए केवल चौदहों गुणस्थानों के अर्थात् चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवों के प्रमाण का प्ररूपण करना ओघ्ज्ञनिर्देश है ।
संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा ।
वित्थारादे सो त्ति य, मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।।
संक्षेप और ओघ यह गुणस्थान की संज्ञा है और वह मोह तथा योग के निमित्त से उत्पन्न होती है । इसी तरह विस्तार तथा आदेश यह मार्गणा की संज्ञा है और वह भी अपने अपने योग्य कर्मों के उदयदि से उत्पन्न होती है । यहां पर अगर यह शंका हो कि मोह तथा योग के निमित्त से गुणस्थान उत्पन्न होते हैं न कि ‘गुणस्थान’ यह संज्ञा, फिर संज्ञा को ‘मोहयोगभवा’ क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि परमार्थ से मोह और योग के द्वारा गुणस्थान ही उत्पन्न होते हैं न कि गुणस्थान संज्ञा तथापि यहाँ पर वाच्य वाचक में कथंचित् अभेद मानकर उपचार से संज्ञा को भी ‘मोहयोगभवा’ कह दिया है ।