स्वस्थ रहना मनुष्य के लिये अत्यावश्यक है, क्योंकि स्वस्थ मनुष्य ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ की सिद्धि कर सकता है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् जैसी कतिपय प्रसिद्ध लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के महत्त्व को प्रदर्शित करती हैं।
आध्यात्मिक शास्त्रों के अनुसार स्वस्मिन् तिष्ठतीति स्वस्थ:। जो स्व में (अपने में) स्थित है, वह स्वस्थ है अर्थात् जो विभावों की परतन्त्रता से मुक्त हो चुका है वह स्वस्थ है। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक व्याधियों से रहित पुरुष स्वस्थ है। स्वस्थ के भाव या कर्म को स्वास्थ्य कहते हैं।
योगशास्त्र के अनुसार जो मन, बुद्धि और अहंकार पर नियन्त्रण कर लेता है वह स्वस्थ है।
आयुर्वेद के ज्ञाता मानते हैं—
समदोष: समाग्निश्च, समधातुमलक्रिय:।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमन:, स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
अर्थात्—जिस व्यक्ति के त्रिदोष सम हैं, जिसकी अग्नि और धातुयें सम हैं, जिसकी मल और क्रियायें व्यवस्थित हैं तथा जिसकी आत्मा, इन्द्रियाँ व मन प्रसन्न है वह स्वस्थ है—ऐसा कहा जाता है।
दिगम्बर जैनाचार्य श्री उग्रादित्य जी महाराज ने स्वस्थ का उपर्युक्त लक्षण स्वीकार किया है। साथ ही निषेधात्मकरूप से स्वस्थ पुरुष का लक्षण बताते हुए उन्होंने लिखा है—
यदा गदैर्मुक्ततनुर्भवेत्पुमान्। तदैव स स्वस्थ इति प्रकीर्तित:।।
अर्थात् जब मनुष्य रोगों से रहित शरीर को धारण करता है तब उसे स्वस्थ कहते हैं।
यदि मनुष्य का शरीर स्वस्थ है तो इससे बढ़कर संसार में कोई सुख नहीं है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है। पहला सुख निरोगी काया। सांसारिक सुखों की गणना में मनुष्य का उत्तम स्वास्थ्य ही पहले नम्बर पर आता है। बिना अच्छे स्वास्थ्य के जीने में कोई आनन्द नहीं रह जाता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि अच्छा स्वास्थ्य किसे कहते हैं ? इसका उत्तर यह है कि अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्ति का शरीर हल्का और मन प्रसन्न रहता है। अच्छे स्वास्थ्य की दशा में आदमी उछलता है, कूदता है, गाने गाता है। वह मुस्कराता है और खूब हंसता है, उत्साह से और चाव से खूब इधर—उधर घूमता है। वह खूब अच्छी तरह से सोच विचार कर सकता है। वह हर काम फुर्ती से करता है। खूब गहरी नींद सोता है। उसमें जिन्दादिली और हौंसला होता है।
मनुष्य का शरीर अनेक धातुओं से बना हुआ है; जैसे रस, रक्त, हड्डियाँ, मांस, पेशियाँ, स्नायु, मेदा, चर्बी आदि। इनमें सन्तुलन कायम रहना चाहिए। इनका सन्तुलन ही स्वास्थ्य है। कहा जाता है कि जिसके दोष (वात , पित्त, कफ), अग्नि (जठराग्नि), धातुएं सन्तुलित हैं और मल—विसर्जन—क्रिया ठीक होती है, जिसकी आत्मा, इन्द्रियाँ और मन प्रसन्न रहते हैं, वही स्वस्थ हैं
स्वास्थ्य के लिये दो बातें आवश्यक हैं : एक व्यक्ति की पाचन—शक्ति ठीक हो और दूसरी यह कि उसका मल—मूत्र पूरे और नियमित तौर पर शरीर से बाहर निकलता रहे। पाचन ठीक होने से आशय यह है कि व्यक्ति जो कुछ खाए, वह पूरे तौर पर पच जाए और शरीर में घुल—मिल जाए, अर्थात् खाया—पिया अंग को लगे, ताकि शरीर को आवश्यकतानुसार पोषण और शक्ति मिलती रहे। मल—मूत्र विसर्जन ठीक—ठाक होना इसलिए जरूरी है कि मल—मूत्र शरीर का कूड़ा होता है जिसमें गन्दा माद्दा भरा होता है। इस माद्दे और गन्दगी के निकलते रहने पर ही शरीर शुद्ध, स्वस्थ और स्वच्छ रह सकता है।
रोगों के बारे में यह सत्य है कि ९०ज्ञ् रोग पेट की खराबी से पैदा होते हैं फिर वह चाहे पाचन खराब होने से हो या कब्ज से। वास्तव में स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी उपाय और नियम जानने से पहले यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने शरीर के बारे में कुछ जाने। अपने पेशे का ज्ञान हासिल करने के लिए लोग विदेशों तक अध्ययन के लिये जाते हैं और हजारों—लाखों रुपये भी खर्च करते हैं। लेकिन क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि व्यक्ति अपने निज के शरीर के बारे में कुछ भी नहीं जानते ?
उस शरीर के सम्बन्ध में व्यक्ति बिल्कुल अंधकार में रहते हैं जिसे लेकर व्यक्ति के समस्त जीवन का व्यापार चलता है। अपने शरीर के बारे में व्यक्ति का यह अज्ञान बहुत बार बुरे स्वास्थ्य और रोगी होने का कारण होता है। अत: व्यक्ति को अपने शरीर के बारे में मुख्य और मोटी बातों का जानना जरूरी है।
पहला सुख निरोगी काया यह उक्ति संसार भर में सुप्रसिद्ध है। शरीर वह रथ है, जिस पर बैठ कर मनुष्य अपने जीवन की यात्रा करता है। शरीर एक चलता फिरता देवालय है। आत्मारूपी भगवान इसी देवालय में रहता है। आचार्य श्री योगीन्द्रदेव जी महाराज ने लिखा है—
देहं चैत्यालयं प्राहुर्देही चैत्यं तथोच्यते।
अर्थात् देह चैत्यालय (मन्दिर) है और आत्मा चैत्य (भगवान की प्रतिमा) है।
स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। अत: शरीर को मन की निर्मलता और बुद्धि की शुद्धता का कारण भी माना गया है। शरीर एक साधन है, जिसकी सहायता से मोक्षरूपी साध्य को प्राप्त करने के लिये जप, तप और ध्यान किया जा सकता है। यदि साधन अशुद्ध होगा तो साध्य की सिद्धि कैसे होगी ?
रोग बाहरी चीज है, जिसका शरीर पर आक्रमण हुआ है। रोग का कारण असाता कर्म का उदय है। ऋतुपरिवर्तन रोगों का प्रमुख बाह्य कारण है। कीटाणुओं के आक्रमण से रोगों की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार की कतिपय भ्रान्त धारणाओं में जी रहा मनुष्य अपने अमूल्य स्वास्थ्यरत्न को खो रहा है।
जिस प्रकार कर्म के चार आस्रवद्वार हैं, उसी प्रकार रोग के भ्ाी चार आस्रवद्वार हैं। यदि आस्रवद्वारों का संवर कर दिया जाये तो मनुष्य निरोगी अर्थात् स्वस्थ रह सकता है।
१. अनियमित भोजन—आवश्यकता से अधिक भोजन करना, एक ही पदार्थ का सेवन अतिमात्रा में करना, तले हुए भोजन का अधिक सेवन करना, भोजन को चबाकर नहीं खाना और भोजन में मिर्च—मसालों का अधिक प्रयोग करना—इत्यादि अनेक प्रकार के अयोग्य आहार से रोगों का उद्भव होता है।
२. अप्राकृतिक जीवनशैली—ऋतुचर्या व दिनचर्या का पालन नहीं करना।
३. मानसिक कुविचार—मनोभावनाओं की विकृति रोगों की जननी है।
४. प्रारब्ध—प्राकृतिक आपदायें, अज्ञात रोग, वंशानुगत रोग और दुर्घटनायें इन सभी पर मनुष्य का कोई नियन्त्रण नहीं होता। ये सभी पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से होते हैं।
जिस प्रकार भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करने से व्यक्ति को जेल जाना पड़ता है, उसी प्रकार स्वास्थ्य विषयक आचार संहिता का उल्लंघन करने पर मनुष्य रोगी होता है। औषधियाँ रोगों का दमन करती हैं, शमन नहीं। रोगों का समूल नाश करना हो तो इन्द्रियसंयम और मनशुद्धि को अंगीकार करना चाहिये। जो रोग दवाओं से ठीक नहीं होते, वे दुआओं से ठीक होते हैं।
शरीर निरोग हो तो चित्त प्रसन्न रहता है। जिसका मन प्रसन्न है, वह ऊर्जावान रहता है। ऐसा जीव जिस कार्य को करेगा, उसमें केवल सफलता को ही प्राप्त करेगा। अर्थात् जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये स्वस्थ होना आवश्यक है। शरीर निरोग हो तो चिन्तनशक्ति और धारणाशक्ति बढ़ती है। शरीर के निरोगी होने पर मन—बुद्धि और प्राणों में सात्विकता का संचार होता है।
पाश्चात्य देशों में स्वास्थ्य को धन (Health is Wealth) माना गया है, किन्तु भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य को जीवन (Health is Life) माना गया है। धन की अपेक्षा जीवन अधिक मूल्यवान है। अत: धन से अधिक जीवन की सुरक्षा आवश्यक है। पाश्चात्य चिकित्सक भौतिक देह की चिकित्सा पर बल देते हैं। उनकी दृष्टि में मन और तन, ये दोनों स्वस्थ रहने पर जीवन आनन्दित हो सकता है। अत: उन्होंने केवल कायिक और मानसिक चिकित्सा की चर्चा की है।
हमारी संस्कृति तन और मन से अधिक आत्म सापेक्ष संस्कृति है। यहाँ तन और मन का उपयोग केवल उपभोग तक सीमित नहीं है, अपितु तन और मन इन दो साधनों के द्वारा आत्मोद्धार की सिद्धि को जीवन का परम लक्ष्य माना है। कायिक और मानसिक चिकित्सा भौतिक चिकित्सा है।
एक जीवन में इन चिकित्साओं का पुनरावर्तन अनेक बार होता है, किन्तु एक बार आत्मिक चिकित्सा सम्पन्न हो जाये तो फिर किसी चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं रहती। आत्मा की चिकित्सा करने पर उपलब्ध होने वाले स्वास्थ्य को ही भारतीय दर्शन में परमार्थ स्वास्थ्य माना है। इस स्वास्थ्य की उपलब्धि का प्रयत्न करने वाले मनुष्य के जीवन में अन्य चिकित्साओं का मूल्य नहीं रह पाता।
दिगम्बर जैनाचार्य श्री उग्रादित्य जी महाराज ने लिखा है—
अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं, यदेतदात्यन्तिकमद्वितीयम्।
अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभि:, तदेतदुक्तं परमार्थनामकम्।।
अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न, अद्भुत, आत्यन्तिक और अद्वितीय, विद्वानों के द्वारा अपेक्षित, जो अतीन्द्रिय मोक्षसुख है उसे पारमार्थिक स्वास्थ्य कहते हैं।
पारमार्थिक स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिये कायिक और मानसिक चिकित्सा भी सहयोग करती हैं। इसीलिये ये चिकित्सायें भी उपादेय है। नियमित जीवनशैली को अपनाने से, अपने शरीर की ऊर्जा को बढ़ाने से और उस ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग करने से व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का मंगल हो सकता है।
हरड़ लगे ना फिटकरी रंग चोखो आ जाय—यह कहावत तो आपने सुनी ही है। हास्यचिकित्सा के विषय में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। इस चिकित्सापद्धति को अपनाने में किसी प्रकार खर्च भी नहीं होता और शरीर का अंग—प्रत्यंग लाभान्वित भी होता है।
हँसी या मुस्कराहट पर हमें कुछ खर्च नहीं करना पड़ता, परन्तु यह बहुत कुछ पैदा कर सकती है। पाने वाला मालामाल हो जाता है और देने वाला कभी गरीब नहीं होता।
मुस्कान की कोई कीमत नहीं है, फिर भी यह बेशकीमती है। यह मोल में नहीं मिलती है, फिर भी अनमोल है। इसे देने वाले या लुटाने वाले का कुछ घटता नहीं है, पाने वाला खुशहाल एवं निहाल हो जाता है। पाने तथा लेने वाले के लिये मुस्कान यादगार सौगात बन कर रह जाती है। दोनों को मुस्कान मालामाल कर देती है। कोई इतना अमीर नहीं कि इसके बिना काम चला सके और कोई इतना गरीब नहीं कि इसके फायदे को न पा सके। मुस्कान दोस्तों का अरमान है, अपरिचितों की पहचान है, भव्य व्यक्तित्व का सम्मान है, थके हुए के लिये आराम है। हर मुश्किल के लिये कुदरत की सबसे अच्छी दवा है।
वैसे तो हँसने पर समय का कोई प्रतिबन्ध नहीं है फिर भी विशेषज्ञों ने प्रात: आसन, प्राणायाम, ध्यान और टहलने के उपरान्त हँसने को उपयुक्त माना है। पेट खाली होने पर अथवा भोजन के तीन/चार घण्टों के बाद हास्य का प्रयोग करना उचित है। बीस से तीस मिनट तक यह उपचार किया जा सकता है।
किसी मनोनुकूल परिस्थिति पर जो हँस्ाने की क्रिया होती है, वह इस कृत्रिम हँसी से भिन्न है। उसका समय तो परिस्थिति और मन:स्थिति पर आधारित है।
सामूहिक हास्यचिकित्सा के लिये किसी प्राकृतिक स्थल का चयन करना चाहिये। प्रदूषणमुक्त, शुद्ध एवं सात्विक पर्यावरण इस चिकित्सा का प्राण है। सामूहिक हास्यचिकित्सा के लिये वृत्ताकार घेरा डालकर बैठना चाहिये। घेरे में केवल निर्देशक होगा।
यदि हास्य चिकित्सा का प्रयोग वैयक्तिकरूप से करना हो तो कमरे की खिड़कियों को खोल कर काँच के सामने यह उपचार करना चाहिये।
हास्य का सर्वाधिक प्रभाव फेफड़े पर होता है। इससे फेफड़े की जीवनीय वायटल क्षमता बढ़ जाती है। अस्थमा और ब्रोंकाइट्सि के रोगियों के लिये हास्यचिकित्सा एक अनुपम व्यायाम है।
हँसने के कारण फेफड़ों में हेमोग्लोबिन तथा ऑक्सीजन का जिस तेजी से मिश्रण होता है, उतनी ही तेजी से ऑक्सीजेनेटेड (हेमोग्लोबिन तथा ऑक्सीजन का मिश्रण) विशुद्ध रक्त फेफड़े से हृदय में पहुँच कर महाधमनियों में धकेल दिया जाता है। डीऑक्सीजेनेटेड रक्त की कार्बोक्सिल एसिड कार्बनडाय ऑक्साईड के रूप में प्रश्वास के द्वारा बाहर निकल जाती है। इससे हृदयरोग दूर होता है।
हँसने से रक्त—शुद्धीकरण की प्रक्रिया में अप्रत्याशित सुधार होता है। हँसने से रक्तसंचरण—क्रिया सुव्यवस्थित होती है। रक्तसंचरण के द्वारा एक—एक कोश की भलीभाँति सफाई होती है तथा उन्हें भरपूर पोषण मिलता है।
हँसने से समस्त तन्त्रिकायें झंकृत होती हैं। इससे चेतना का प्रवाह समुचितरूप से प्रवाहित होता है और रोगप्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास होता है। निराशा और उदासी के बादलों को छाँटना हो अथवा प्रसन्नता से तन और मन को आप्लावित करना हो तो खुलकर हँसना आवश्यक है। हँसने से कल्पनाशक्ति, मेधाशक्ति, धृति और धारणाशक्ति का विकास होता है।
हँसते हुए जब पेट में बल पड़ता है तब आँतों में चिपका हुआ पुराना मल मुख्य स्रोत में आ जाता है। इससे बद्धकोष्ठता की समस्या दूर होती है। हँसने से गुर्दे, यकृत, प्लीहा, आमाशय, आँतें और अग्न्याशय में आकुंचन—प्रसारण की क्रिया होती है। इस क्रिया से रक्तसंचार की क्रिया समुचितरूप से होती है और उन अंगों को बल मिलता है।
खुलकर हँसने से ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ जाती है, जिससे हृदय की मांसपेशियाँ सक्रिय हो जाती हैं तथा हृदय की धड़कन और श्वसन की रफ्तार भी बढ़ जाती है।
हँसने के कारण अन्त:स्रावी ग्रंथियाँ भी नियोजित ढंग से हार्मोन्स का स्रवण करने लगती हैं। हँसने से रक्त की बढ़ोत्तरी करने वाले अंग सक्रिय हो जाते हैं। श्वेतप्रदर आदि मासिक समस्याओं से युक्त महिलाओं को इस औषधि का सेवन करना ही चाहिये।
हास्य एक ऐसी संजीवनी है जो वयोवृद्धों में भी यौवनावस्था का उत्साह भर देती है। क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, शत्रुता और भय के भाव हँसने के साथ ही नष्ट होने लगते हैं, जिससे मन की शुद्धि होती है। हँसने से मन में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थता जैसे भाव प्रगाढ़ होने लगते हैं। इन भावों से आध्यात्मिक उन्नति होती है। अचेतन मन में दमित वासनाओं के कारण से जो मनोरोग होते हैं, उनका उच्चाटन करने के लिये हास्य ही सर्वाधिक सुगम और सहज पद्धति है।
स्नायविक रोगों के विनाश के लिये भी हँसना लाभप्रद है।
हँसी निराश मनुष्य के जीवन में आशा का प्रकाश पैâलाती है। जिस प्रकार क्लान्त और अशान्त पथिक को वृक्ष की घनी और शीतल छाया आनन्दित करती है, उसी प्रकार जीवन संग्राम में हार के अभिमुख हुए मनुष्य को हँसी बल और आनन्द प्रदान करती है।
गुस्से के गुब्बारे में हँसी सुई चुभाने का काम करती है। हँसने के कारण मनोमालिन्य दूर होता है। हँसने से दिव्य सम्भावनाओं के द्वार उद्घाटित होते हैं।
प्रसन्नचित्त मनुष्य अधिक जीता है। दु:खी, चिन्तातुर और उदास मुख वाले मनुष्य को देखकर सभी को ऐसा महसूस होता है, जैसे कोई मौत की खबर लेकर आया हो।
हँसने से मन निष्पाप हो जाता है। निष्पाप मन शारीरिक सौन्दर्य का विकासक है। हँसने से हार्मोन, रक्तसंचार और भावनाओं पर विधेयात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे सारा शरीर दिव्य आभामय हो जाता है।
हास्य चाहे कृत्रिम हो या स्वाभाविक, वह हमारे शरीर पर पूर्ण असर करता है तथा हमारी जीवनीशक्ति, सहनशक्ति और रोगप्रतिरोधकशक्ति की अभिवृद्धि करने में निर्णायक भूमिका प्रस्तुत करता है।
हँसना और हँसाना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। हँसना प्रेम की सम्यक््â भाषा है। हँसने से मन इतना संवेदनशील हो जाता है कि उससे पाप नहीं हो सकते। जो मनुष्य जितना हँसता है, उससे रोग और शत्रु उतने ही दूर भागते हैं। इस सत्य को आप जानते हैं न ! इसीलिये रोगों का भय और दु:खों को भूल कर हँसो, खूब हँसो और स्वस्थ रहो।
वैदिक महर्षि चरक के अनुसार स्वास्थ्य के तीन उपस्तम्भ हैं। यथा—
त्रय उपस्तम्भा इति—आहार: स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति।
अर्थात्—आहार, स्वप्न और ब्रह्मचर्य ये तीन स्वास्थ्य के उपस्तम्भ हैं।
जब तीनों ही उपस्तम्भों का युक्तिपूर्वक सेवन किया जाता है, तब स्वास्थ्य लाभ होता है।
तीनों उपस्तम्भों पर गहन विचार किया जाये तो एक बात स्पष्ट होती है कि आहार प्रत्यक्षरूप से शरीर का पोषण करता है और ब्रह्मचर्य प्रत्यक्षरूप से मन को संस्कारित करता है। इसका अर्थ यह हुआ जोकि आहार और ब्रह्मचर्य का एक—एक क्षेत्र है। निद्रा जहाँ शरीर को विश्राम देती है, वहाँ मन को भी प्रफुल्लित करती है। इस प्रकार आहार और ब्रह्मचर्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण निद्रा है। मन जब कार्य करते—करते थक जाता है और इन्द्रियाँ भी अपना कार्य करते हुए थक कर विषयों से निवृत्त हो जाती हैं तब निद्रा का आगमन होता है।
निद्रा जीवनशक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। यह केवल शारीरिक विश्राम का साधन ही नहीं है, अपितु इससे शक्तिसंचयन और शक्तिरक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य भी होते हैं। निद्रा स्वयं सबसे बड़ी औषधि है।
एक मीठी नींद लोगों को आनन्द, खुशी और ताजगी प्रदान करती है। निद्रा के कारण जीवनी शक्ति का विकास होता है। अनिद्रा का कारण मानसिक अथवा शारीरिक कार्यों की अधिकता हुआ करती है। मानसिक कार्य से मनुष्य का मस्तिष्क ही नहीं थकता, शरीर भी बुरी तरह थक जाता है। यही कारण है कि अनिद्रा रोग के सर्वाधिक रोगी मानसिक कार्य करने वाले मनुष्य पाये जाते हैं।
यदि शारीरिक कार्य भी बहुत कठिन प्रकार का अथवा शक्ति से अधिक किया जाता है तो छीजन और थकान नाड़ी मण्डल को हिला देती है। इससे शरीर के समन्वयीकरण की विधि बिगड़ जाती है और निद्रा में बाधा उपस्थित होती है।
चिन्ता, व्यसनों का सेवन, रात्रिभोजन, उत्तेजनापूर्ण साहित्य का पठन अथवा उत्तेजक दृश्यों का अवलोकन इत्यादि कारणों से निद्रा दूर होती है। हृदय की धड़कन, अपच, गठिया अथवा किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा भी निद्रा में बाधा उत्पन्न करती है।
सोना भी एक कला है। ध्यान रहे—
खुली हवादार शान्त जगह में साफ—सुथरे बिछावन पर सोने से निद्रा अच्छी तरह आती है।
सोते समय ढीले कपड़े पहनने चाहिये।
सारे संशयों को दूर कर और सभी झंझटों को मस्तिष्क से निकाल कर शरीर को ढीला करके सोना चाहिये।
सोने से लगभग आधा घण्टा पूर्व ही मस्तिष्क पर जोर डालने वाले कामों से मुक्ति पा लेनी चाहिये।
उचित समय पर भोजन करना और उचित समय पर सोना—ये निद्रादेवी की दो सहेलियाँ हैं।
कुछ लोग निद्रा लाने के लिये विविध प्रकार की बाजारू दवाओं का उपयोग करते हैं। वह दवा भले ही तत्काल लाभ पहुँचा दे, किन्तु कुछ दिनों बाद वह निष्प्रभावी हो जाती है। फिर उसकी मात्रा बढ़ाने पर भी वह लाभदायक नहीं होती। ये दवायें इतनी विषैली होती हैं कि इनके प्रयोग से कुछ ही दिनों में शरीर टूटने लगता है। इनसे बचने में ही भलाई है। अनिद्रा को दूर करने के लिये युक्त आहार—विहार, नित्य व्यायाम और निश्चिन्त जीवनशैली को अपनाना चाहिये।
गहरी निद्रा तन तथा मन को अपूर्व शान्ति एवं स्वास्थ्य प्रदान करती हैं। निद्रा में गुर्दो द्वारा विषैले विजातीय पदार्थों को बाहर निकाल कर फेंकने की प्रक्रिया तीव्ररूप से होती है। निद्रा के समय शरीर की अनावश्यक गर्मी को बाहर कर तापमान तथा रक्तचाप को नियन्त्रित किया जाता है। निद्रा के कारण खर्च हुई ऊर्जा तथा जीवनीशक्ति पुन: प्राप्त होती है।
व्यवस्थित निद्रा नहीं लेने से अनिद्रा, अनिर्णय, दुष्चिन्ता, क्रोध, मधुमेह तथा हृदयरोग होते हैं।
रात्रि को मात्र एक घण्टा नींद कम लेने से व्यक्ति की कार्यक्षमता में एक चौथाई कमी आती है, जिसकी पूर्ति झपकी लेकर करनी चाहिये। हम सब पौष्टिक भोजन और व्यायाम के विषय में तो जान गये हैं, किन्तु नींद के प्रति अज्ञानी हैं जबकि यह हमारी कार्यक्षमता एवं स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली प्रथम कारक है।
प्रोफेसर विलियम एन्थनी ने अपनी पुस्तक द आर्ट ऑफ नैिंपग में लिखा है—
दिन में जब भी मौका मिले, झपकी लें, इससे शरीर के एक—एक अवयव को भरपूर विश्राम मिलता है। वे तरोताजा हो जाते हैं। भोजन के बाद एक झपकी ले ली जाये तो वह बड़ों तथा बच्चों दोनों के स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त लाभदायक है। इससे शरीर में काम करने की नयी शक्ति एवं जोश भर जाता है।
गहन निद्रा न केवल शारीरिक स्वास्थ्य की संरक्षिका है, अपितु वह समस्त सृजनात्मक कार्यों की निर्देशिका भी है। जिसकी निद्रा पूर्ण हो चुकी है, ऐसे मनुष्य से प्रमाद कोसों दूर रहता है, जिससे वह साध्य की सिद्धि के लिये प्रयत्न कर सकता है। निद्रा पूर्ण होने पर मस्तिष्क तरोताजा होता है। इससे स्मरणशक्ति तीव्रता से बढ़ती है।
जिस प्रकार रात्रिकालीन तमस का विनाशकारी सूर्योदय होने लगता है तो सम्पूर्ण सृष्टि प्रफुल्लित हो जाती है, उसी प्रकार निद्रा पूर्ण होने पर मनुष्य का अंग—प्रत्यंग प्रफुल्लित हो जाता है। अत: रात्रि में समय पर समयबद्ध निद्रा अवश्य लें तथा सोने से पूर्व णमोकार मंत्र का जाप करें ताकि स्वप्न भी शुभ ही दिखें।