प्रतिक्षण उदित होने वाले कषायोजनित जो अन्तरंग व बाह्म दोष साधक की प्रतीति में आते हैं जीवन सोधन के लिए उनका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आलोचना सबसे उत्तम मार्ग है । सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के अनुसार – गुरू के समक्ष दस दोषों को टाल कर अपने प्रमाद का निवेदन करना आलोचना है । भगवती आराधना में आलोचना के भेदों का वर्णन करते हुए ओघालोचना की परिभाषा कही है
आलोयणाहुदुविहा आघेण य होदि पदविभागीय ।
आघेण मूलपत्तस्य पयविभागी य इदरस्स ।।५३३।।
आलोचना के दो ही प्रकार है – एक ओघालोचना दूसरी पदविभागी आलोचना अर्थात् सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना ऐसे इनके और भी दो नाम है । यह वचन सामान्य और विशेष , इन धर्मों का आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है अत: आलोचना के उपर्युक्त दो भेद है ।
ओघेणालीचेदि हु अपरिमिदवराधसव्वघादी वा ।
अज्जीपाए इत्थं सामण्णमहं खु तुच्छेदि ।।५३४।।
जिसने अपरिमित अपराध किये हैं अथवा जिसके रत्नत्रय का – सर्व व्रतों का नाश हुआ है वह मुनि सामान्य रीति से अपराध का निवेदन करता है । आज से मैं पुन: मुनि होने की इच्छा करता हूं , मैं तुच्छ हूं अर्थात् मै रत्नत्रय से आप लोगों से छोटा हूं ऐसा कहना सामान्य आलोचना या ओघालोचना है