शंभु छंद
तीर्थंकर के मुख से खिरती, अनअक्षर दिव्यध्वनी भाषा।
बारह कोठों में सबके हित, परिणमती सर्वजगत् भाषा।।
गणधर गुरु जिन ध्वनि को सुनकर, बारह अंगों में रचते हैं।
हम दिव्यध्वनी का आह्वानन, करके भक्ती से यजते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
भुजंगप्रयात छंद मुनीचित्त सम नीर पावन लिया है।
सरस्वति चरण तीन धारा दिया है।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै जलं…….।
तपे स्वर्णरस सम घिसा गंध लाया।
सरस्वति चरण चर्च कर सौख्य पाया।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै चंदनं…….।
धुले श्वेत अक्षत अखंडित लिये हैं।
प्रभो कीर्ति को पुंज अर्पण किये हैं।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै अक्षतं…….।
जुही मोगरा केतकी पुष्प लेके।
चढ़ाऊँ प्रभू की ध्वनी को रुची से।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै पुष्पं……।
मलाई पुआ खीर पूरी बनाके।
चढ़ाऊँ प्रभू कीर्ति को क्षुध विनाशे।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै नैवेद्यं…….।
जले दीप ज्योती दशों दिक् प्रकाशे।
जजें नाथ ध्वनि को स्वपर ज्ञान भासे।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै दीपं……।
अगनिपात्र में धूप खेऊं सुगंधी।
सरस्वति कृपा से करूँ मोह बंदी।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै धूपं…….।
अनंनास अंगूर केला फलों को।
चढ़ाऊँ महामोक्ष फल हेतु ध्वनि को।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै फलं…….।
जलादी लिये स्वर्ण पुष्पों सहित मैं।
करूँ अर्घ अर्पण सरस्वति चरण में।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै अर्घ्यम…..।
दोहा
गंगा नदि को नीर ले, शारद माँ पद कंज।
त्रय धारा देते मिले, मुझे शांति सुखकंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
पुष्पांजलिः।
शंभु छंद
जय जय तीर्थंकर धर्म चक्रधर, जय प्रभु समवसरण स्वामी।
जय जय त्रिभुवन त्रयकाल एक, क्षण में जानो अंतर्यामी।।
जय सब विद्या के ईश आप की, दिव्यध्वनी जो खिरती है।
वह तालु-ओष्ठ-कंठादिक के, व्यापार रहित ही दिखती है ।।१।।
अठरह महाभाषा सातशतक, क्षुद्रक भाषामय दिव्य धुनी।
उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।।
तीनों संध्या कालों में वह, त्रय त्रय मुहूर्त स्वयमेव खिरे।
गणधर-चक्री अरु इंद्रों के, प्रश्नों वश अन्य समय भि खिरे ।।२।।
भव्यों के कर्णों में अमृत, बरसाती शिव सुखदानी है।
चैतन्य सुधारस की झरणी, दुखहरणी यह जिनवाणी है।।
जन चार कोश तक इसे सुनें, निजनिज के सब कर्तव्य गुनें।
नित ही अनंत गुण श्रेणिरूप, परिणाम शुद्ध कर कर्म हनें ।।३।।
छह द्रव्य पांच हैं अस्तिकाय, अरु तत्त्व सात नवपदार्थ भी।
इनको कहती ये दिव्यध्वनी, सबजन हितकर शिवमार्ग सभी।।
आनन्त्य अर्थ के ज्ञान हेतु, जो बीज पदों का कथन करे।
अतएव अर्थकर्ता जिनवर, उनकी ध्वनि मेघ समान खिरे ।।४।।
उन बीजपदों में लीन अर्थ, प्रतिपादक बारह अंगों को।
गणधर गुरु गूंथे अतएव ग्रन्थ-कर्ता मानें वंदूं उनको।।
जिन श्रुत ही महातीर्थ उत्तम, उसके कर्ता तीर्थंकर हैं।
ये सार्थक नाम धरें जग में, इससे तिरते भवसागर हैं ।।५।।
जय जय प्रभुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अति शीतल है।।
चंदन अरु मोतीहार चंद्र-किरणों से भी शीतलदायी ।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी ।।६।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो ।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो ।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से ।
वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते ।।७।।
प्रत्येक वस्तु है अस्तिरूप, अरु नास्तिरूप भी है वो ही ।
वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही ।।
वो अस्तिरूप अरु अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंग धरे ।
फिर अस्तिनास्ति अरु अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे ।।८।।
इस सप्तभंगमय सिंधू में जो, नित अवगाहन करते हैं ।
वे मोह-राग-द्वेषादिरूप, सब कर्मकालिमा हरते हैं ।।
वे अनेकांतमय वाक्यसुधा, पीकर आतमरस चखते हैं ।
फिर परमानंद परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं ।।९।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं ।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही ।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ ।
निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ ।।१०।।
भगवन्! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुत दृग् से निज को अवलोकूँ ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ ।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निज को अवलोकू सुख पाऊँ ।।११।।
दोहा
सब भाषामय दिव्यध्वनि, वाङ्मय गंगातीर्थ ।
इसमें अवगाहन करूँ, बन जाऊँ जग तीर्थ ।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै जयमाला पूर्णार्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
इत्याशीर्वाद: , पुष्पांजलिः।