ओम अथवा ‘ऊँ ’यह एक अक्षर पांचो परमेष्ठियों के आदि पदस्वरूप है । अरहंत का प्रथम अक्षर ‘अ ’ , सिद्ध अर्थात् – अशरीरी का प्रथम अक्षर ‘अ ’ आचार्य का प्रथम अक्षर ‘आ’ उपाध्याय का प्रथम अक्षर ‘उ’ साधु या मुनि का प्रथम अक्षर ‘म् ’ इस प्रकार इन पांचो परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर से सिद्ध जो ओंकार है वही पंचपरमेष्ठियों के समान है । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित द्रव्य संग्रह में ओंकार की परिभाषा इस प्रकार बताई है –
‘ओ एकाक्षरं पञचपरमेष्ठिनामादिपदम् ।।
‘‘अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झ्या मुणिणा ।
पढमक्खरणिप्पणो ऊँकारो पंच परमेष्ठी ।।९।।
इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो प्रथम अक्षर है ( अ अ आ उ म् ) इनमें पहले आचार्य शर्ववर्म कृत कातन्त्र व्याकरण ग्रन्थ के सूत्रानुसार ‘समान: सवर्णे दीर्घी भवति परश्च लोपम् ’’ इस सूत्र से ‘अ अ’ मिलकर दीर्घ ‘आ’ बनाकर परश्म लोपम इससे अक्षर ‘आ’ का लोप करके अ अ आ ‘ओ’ बनाया पुन: म् मिला ऐसा स्परसन्धि करने से ‘ओम् ’ यह शब्द सिद्ध होता है ।
वैदिक साहित्य में परम बाह्म के अर्थ में अ+ उ+ ँ इस प्रकार अठाई मात्रा से निष्पन्न यह पद सर्वोपरि व सर्वस्व माना गया है । सृष्टि का कारण शब्द है और शब्दो की जननी मातृकाओं (क,ख, ग आदि ) का मूल होने से यह सर्व सृष्टि का मूल है अत: परब्रह्मस्वरूप है ।
ऊँ यह प्रणवमंत्र है । पदस्थ ध्यान में इस मंत्र को दो भौहों के बीच में व अन्यत्र विराजमान करके ध्यान किया जाता है । अर्हन्त भगवान की वाणी भी ऊँकार मयी ध्वनि मात्र है अर्थात् केवलज्ञान प्राप्ति के बाद समवसरण में जब तीर्थंकर प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती है तो वह ७१८ भाषाओं में खिरती है जिसमे १८ महाभाषाएं एवं ७०० लघु भाषाएं होती है । तीर्थंकर प्रभु की वाणी को ऊंकार ध्वनि मात्र है जिसे वहां बैङ्गे प्रत्येक प्राणी अपनी – अपनी भाषा में समझ लेते है ।
ऊँ तीनलोक के अर्थ में भी घटित होता है । अ – अधोलोक, ऊ – ऊध्र्वलोक और म – मध्यलोक । इस प्रकार की व्याख्या के द्वारा वैदिक साहित्य में इसे तीन लोक का प्रतीक माना गया है । जैन आम्नाय के अनुसार भी ऊँकार त्रिलोकाकार घटित होता है । आगम में तीन लोक का आकार चित्र जैसा है अर्थात् तीन वातवलयों से वेष्ठित जिसके ललाट पर अर्धचन्द्राकार में बिन्दुरूप सिद्धलोक शोभित होता है । बीचोंबीच हाथी के सूंडवत् त्रसनाली है यदि उसी आकार को जल्दी से लिखने में आवे तो ऐसा लिखा जाता है यही कारण है कि भेदभाव से रहित भारत के सर्व ही धर्म इसको समान रूप से उपास्य मानते है ।
प्रदेशापचय के अर्थ में (ज्ञानावरण कर्म का द्रव्य) स्यात् ‘ओम’ है क्योकि कदाचित् प्रदेशों का उपयच देखा जाता है । स्यात् नो ओम् नो विशिष्ट है क्योंकि प्रत्येक पदभेद की विवक्षा होने पर वृद्धि – हानि नहीं देखी जाती है ।
अनामिका, कनिष्ठा और अंगूठे से नाक को पकड़ना ओंकार मुद्रा है ।