स्व और पर के अनुग्रह हेतु अपना धन आदि वस्तु देना दान कहलाता है । इसके आहार, औषधि, शास्त्र और अभयदान यह चार भेद है । जिनको दान दिया जाता है उसे पात्र कहते है वह तीन प्रकार के है । उत्तम आदि पात्रों को किसी प्रकार का रोग हो जाने पर शुद्ध प्रासुक औषधि का दान देना औषधिदान है यह दान भव –भव मे नीरोग शरीर प्रदान करके अंत में मोक्ष प्रदान करने वाला है । प्राणियों के कलेवर आदि से बनी हुई अशुद्ध औषधियों के दान से पुण्य के बजाय पापबंध हो जाता है ।
उमास्वामी श्रावकाचार में आचार्य उमास्वामी ने कहा है कि –
जो दाता मुनि, आर्यिका , श्रावक, श्राविका आदि पात्रों को निंद्य, अस्पृश्य औषधियां देता है वह दाता भव – भव में नरक का पा होता है । पात्र के लिए पवित्र और प्रासुक औषधि ही देनी चाहिए । अपवित्र और अप्रासुक औषधि कभी नहीं देनी चाहिए । चतुर पुरूष को सब प्रकार के पात्रों को विधिपूर्वक अनेक प्रकार की औषधियां देनी चाहिए । औषधि दान देने से अपने सब प्रकार के रोग नष्ट हो जाते है ।
शरीर इच्छानुसार भोजन, गमन और सम्भाषण से नीरोग रहता है परन्तु इस प्रकार की इच्छानुसार प्रवृत्ति साधुओं के लिए सम्भव नहीं है इसलिए उनका शरीर प्राय: अस्वस्थ रहता है ऐसी अवस्था में चूंकि श्रावक उस शरीर को औषध पथ्य भोजन और जल के द्वारा व्रत परिपालन के योग्य करता है अतएव यहां उन मुनियों का धर्म उत्तम श्रावक के निमित्त से ही चलता है इसलिए दानदाता महान पुण्य का संपादन करता है ।
इस औषधि नामक महादान में वृषभसेना नाम की किसी सेङ्ग की पुत्री जगत् प्रसिद्ध हुई तथा आगे उत्तम ऋद्धि को प्राप्त किया था ।