सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में औपशमिक भाव का लक्षण इस प्रकार कहा है –
‘‘उपशम: प्रयोजनमस्येत्यौपशमिक: ’
जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है । धवला ग्रन्थ में आया है कि जो कर्मों के उपशम से उत्पन्न होता है उसे औपशमिक भाव कहते है क्योंकि गुणो के साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञा को प्राप्त होता है ।तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी ने औपशमिक भावों के भेदो का वर्णन करते हुए कहा है कि – ‘‘सम्यक्तवचारित्रे ’’
अर्थात् – औपशमिक भाव के दो भेद है –
औपशमिक सम्यक्तव
औपशमिक चारित्र ।
धवला टीका में कहा है कि औपशमिक भाव में सम्यक्तव और चारित्र ये दो ही स्थान होते हैं तथा औपशमिक भाव के विकल्प आङ्ग होते है जो कि क्रोधादि कषायों के उपशमन रूप जानना चाहिए । औपशमिक भाव के सम्यक्तव और चारित्र ये दो ही स्थान होते है क्योंकि औपशमिक सम्यक्तव और औपशमिक चारित्र ये दो ही भाव पाए जाते है इनमें से औपशमिक सम्यक्तव एक प्रकार का है और औपशमिक चारित्र सात प्रकार का है । जैसे – नपुंसकवेद के उपशमन काल में एक चारित्र, स्त्री वेद के उपशमन काल में दूसरा चारित्र, पुरूषवेद और छ: ने काषायों के उपशमन काल में तीसरा चारित्र , क्रोध संज्वलन के उपशमनकाल में चौथा चारित्र और लोभ संज्वलन के उपशमन काल में सातवाँ औपशमिक चारित्र होता है । भिन्न – भिन्न कार्यों के लिंग से कारणों में भी भेद की सिद्धि होती है , इसलिए औपशमिक चारित्र सात प्रकार का कहा है । अन्यथा अर्थात् उक्त प्रकार की विवक्षा न की जाय तो वह अनेक प्रकार है क्योंकि प्रतिसमय उपशम श्रेणी में पृथक – पृथक असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा के निमित्तभूत परिणाम पाए जाते हैं ।
षटखण्डागम में आचार्य पुष्पदंत – भूतबलि ने वर्णन किया है कि जो औपशमिक अवपिाक प्रत्ययिक जीव भावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है – उपशांत क्रोध, उपशांत मान, उपशांत माया, उपशांत लोभ, उपशांत राग, उपशांत दोष, उपशांत मोह, उपशांत कषाय, वीतराग द्यद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्तव और औपशमिक चारित्र तथा इनसे लेकर जितने (अन्य भी) औपशमिक भाव है , वह सब औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।