उपद्रवण, विद्रावण, परितापन और आरम्भरूप क्रियाओं के द्वारा जो आहार तैयार किया जाता है वह चाहे अपने हाथ से किया है अथवा दूसरे से कराया है अथवा करते हुए की अनुमोदना की है अथवा जो नीच कर्म से बनाया गया है वह औद्देशिक आहार है जो कि साधु के लेने योग्य आहार के छियालीस दोषो में से एक है अर्थात् इन छियालीस दोषो को दूर कर ही साधुजन आहार ग्रहण करते हैं ।
मूलाचार ग्रन्थकर्ता आचार्य श्री ने दातार की अपेक्षा कहा कि नाग यक्षादि देवता के लिए, उनके नाम से बनाया गया भोजन औद्देशिक है अथवा संक्षेप से समौद्देशिक के कहे जाने वाले चार भेद है
१ जो कोई आएगा सबको देंगे ऐसे उद्देश्य से किया अन्न याचानुददेश है
२ पाखण्डी अन्यलिंगी के निमित्त से बना हुआ अन्न समुद्देश है
३ तापस परिव्राजक आदि के निमित्त बनाया भोजन आदेश है ।
४ निग्र्रन्थ दिगम्बर साधुओं के निमित्त बनाया गया समादेश दोष सहित है ।
पात्र की अपेक्षा साधु द्रव्य और भाव दोनों से प्रासुक द्रव्य का भोजन करे जिसमें से एकेन्द्रिय जीव निकल गए वह प्रासुक आहार है और जो प्रासुक आहार होने पर भी मेरे लिए किया है , ऐसा चिन्तन करे वह भाव से अशुद्ध करने में अथवा पाक कराने में पांच उपकरणों के (पंचसूना से ) अध:कर्म में प्रवृत्त हुआ और अनुमोदना से प्रवृत्त हो मुनि उस पचनादि से नहीं डरता है वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है । न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है ।
भगवती आराधना में इसकी परिभाषा बताई कि मुनि के उद्देश्य से किया हुआ आहार, वसतिका वगैरह को औद्देशिक कहते है वह अध: कर्मादि १६ प्रकार के दोषों से युक्त है ।
पद्मपुराण में वर्णन आया कि एक बार भगवान ऋषभदेव ससंघ अयोध्या नगरी में पधारे । तब भरत अच्छे – अच्छे भोजन बनवाकर नौकर के हाथ उनके स्थान तक ले गए और भक्तिपूर्वक भगवान से प्रार्थना करने लगे कि समस्त संघ उस आहार को ग्रहण करके उसे सन्तुष्ट करे । भरत के ऐसा कहने पर भगवान ने कहा कि हे भरत ! जो भिक्षा मुनियों के उद्देश्य से तैयार की जाती है वह उनके योग्य नहीं है – मुनिजन उदिदष्ट भोजन ग्रहण नहीं करते। श्रावको के घर ही भोजन के लिए जाते है और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष को मौन से खड़े रहकर ग्रहण करते है ।
‘दीन, अनाथ अथवा कृपण आवेंगे अथवा सर्वधर्म के साधु आवेगे अथवा जैनधर्म से भिन्न ऐसे साधु अथवा निग्र्रन्थ मुनि आवेगे उन सब जनो को यह वसति होगी ’ इस उद्देश्य से बांधी गयी वसतिका औद्देशिक दोष से दृष्ट है ।