( देव नारकियों का जन्म )
तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ में लिखा हैं- देव नारकाणा मुमपाद: देवों और नारकियों का उपपाद जन्म हैं ।
स्वर्ग और नरक में जन्म के लिए विशेष नियत स्थानों को उपपाद स्थान कहते हैं । देव शैय्या के ऊपर का भाग दिव्य वस्त्र से ढका रहता है और नारकियों का उपपाद क्षेत्र बिलों के ऊपरी भाग में वज्रमय गवाक्ष आदि होता है । शरीर लघु अन्तमुदूर्त में ही सम्पूर्ण होकर उपपाद जन्म हो जाता है ।
देवों का जन्म पुण्य के उदय से देवगति में उपपाद शय्या से होता है । जन्म लेते ही आनन्द वादित्र बजने लगते हैं । अन्तमुहूर्त में ही देव अपनी छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर नवयौवन सहित हो जाते हैं और अवधिज्ञान से सब जान लेते हैं अनंतर सरोवर में स्नान करके वस्त्रालंकार से भूषित होकर जिनमंदिर में जाकर भगवान की पूजा करते हैं । जो देव मिथ्यादृष्टि हैं वे अन्य देवों की प्रेरणा से जिनदेव को कुलदेवता मानकर पूजन करते हैं ।
नारकी जीव महापाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त काल में छहों पर्याप्तियों को पूर्णकर छत्तीस आयुओं के मध्य में औंधे मुँह गिरकर वहाँ से गेंद के समान उछलता है प्रथम पृथ्वी में नारकी सात योजन, छह हजार, पाँच सौ धनुष प्रमाण ऊपर को उछलता है । इसके आगे शेष नरकों में उछलने का प्रमाण दूना-दूना है ।