( जिसका बार-बार प्रयोग हो )
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ में आचार्य श्री। समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है-
भुक्तवा परिहातव्यो, भोगो भुक्तवा पुनश्च भोक्तव्य: । उपभोगो शनवसन-प्रभृति: पाञ्चेन्द्रिया विषय: । अर्थात् जो एक बार भोगकर छोड़ दी जाती है वह भोग कहलाती है और जो भोगकर पुन: भोगने में आती है वह उपयोग है । जैसे – भोजन, गंध आदि भोग है और वस्त्र आभूषण आदि उपभोग हैं । और जब उपभोग की वस्तुओं में अन्तराय पड़ जाता है अर्थात् होते हुए भी उसे उपयोग में नहीं ला पाते हैं उसे उपभोगान्तराय कहतें है । जैसे तिजोरी की चाभी खो गई उसमें आभूषण रखे है फिर भी हम उसको पहन नहीं सकते यह उपभोगान्तराय है । और जैसे साड़ी है लेकिन वह फट गई तो उसे भी पहन नहीं सकते । यह भी उपभोगान्तराय है ।
भोजन, वाहन, शय्या, स्नान, पवित्र अंग में सुगंधित गंध माला आदि तथा तांबूल-पान, वस्त्र, आभूषण, कामभोग, संगीतश्रवण, गीत नाटक आदि से सभी भोगोपभोग सामग्री है । इनमें से सभी का किसी एक दो आदि विषयों का कुछ दिन की मर्यादा से नियम करना जैसे कि आज एक दिन या रात्रि, पन्द्रह दिन, महिना, दो महिना, छ: महिना, आदि की अवधि से इनका त्याग करना भोगोपभोग परिमाण व्रत हो जाता है । जो भी श्रावक के गुणव्रत का एक भेद है ।