जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। ‘इसके होने पर ही यह होता है’, यह अन्वय है और ‘इसके न होने पर यह नहीं होता’, यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्णय कराता है। इसका उदाहरण है—‘अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता’ इस प्रकार अग्नि के साथ धूम को व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक् अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है।
वह न प्रमाण के विषय का परिशोधक है और न प्रमाण सम्पोषक, जैसा कि वैशेषिक—नैयायिक मानते हैं। वह स्वतंत्र प्रमाण है। उसके विषय (व्याप्ति) का निश्चय न प्रत्यक्ष से संभव है, क्योंकि वह केवल वर्तमान का ज्ञापक होता है और व्याप्ति समस्त देश—काल विषयिणी होती है, न अनुमान से उसका ग्रहण सम्भव है, क्योंकि उसी अनुमान से उसका निश्चय मानने पर अन्योन्याश्रय तथा अन्य अनुमान से उसका ज्ञान मानने पर अनवस्था दोष आते हैं। अत: व्याप्ति—निर्णायक एकमात्र तर्क प्रमाण है।
दर्शन और तर्क दोनों भिन्न हैं, लेकिन आज दोनों पर्यायवाचक जैसे प्रतीत होते हैं। दर्शन का स्थान तर्क ग्रहण करता जा रहा है। दर्शन परम सत्य अथवा परम तत्त्व को देखने एवं प्राप्त करने का उपाय, मार्ग अथवा दृष्टिकोण है। विशुद्ध विचार का नाम दर्शन है, परन्तु विचार—स्वर्ण की परीक्षा तो तर्क की अग्नि में होती है। तर्क की कसौटी में निखरा विचार विशुद्ध होता है। विचार में दोष—आग्रह, मोह, पक्षपत, बुद्धि का मलिनता और दृष्टि के संकोच के कारण आते हैं। तर्क इन दोषों का निराकरण करके विचार को शुद्ध बनाता है और बुद्धि को निर्मल करता है। अत: तर्क को दर्शन का अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग माना गया है। कहा गया है—
मोहं रुणद्धि विमलीकुरुते च बुद्धि, सूते च संस्कृत—पद—व्यवहार—शक्तिम्।
शास्त्रान्तरभ्यसन योग्यतया युनक्ति; तर्क—श्रमो न तनुते किमिहोपकारम्।।
अर्थात् तर्कशास्त्र में किया गया श्रम, व्यक्ति के व्यक्तित्व—विकास का पथ प्रशस्त करता है। व्यामोह को दूर करता है। बुद्धि को विमल बनाता है। परस्पर के व्यवहार की योग्यता को बढ़ता है। प्रत्येक शास्त्र के अध्ययन की क्षमता प्रदान करता है।
भारतीय दर्शन में, तर्कशास्त्र को हेतु—विद्या, हेतु—शास्त्र, प्रमाणशास्त्र और न्यायशास्त्र कहा गया है। तर्क का उपयोग मुख्यतया तीन प्रयोजनों के लिए किया जाता है जैसे कि—
(क) अपने सिद्धान्त की स्थापना के लिए और अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए।
(ख) अपने मत पर किए गए, आरोप, आक्षेप या दोष के निवारण के लिए।
(ग) विरोधी के मत एवं सिद्धान्त के खण्डन के लिए।
वाद, जल्प, कथा और सम्वाद भी तर्कशास्त्र के ही अंगभूत हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय ही अपनी रक्षा के लिए तथा विरोधी पर आक्रमण करने के लिए तर्कशास्त्र का भरपूर उपयोग करता था। वादविद्या और वादशास्त्र का अध्ययन करता था। तीर्थंकर के शिष्यों में वादी—प्रतिवादी शिष्य भी होते थे, जिनका संघ में आदर—सत्कार एवं सम्मान होता था। ब्राह्मण परम्परा में, बौद्ध परम्परा में और जैन परम्परा में भी शास्त्रार्थी विद्वानों का होना परम आवश्यक माना जाता था। शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करना धर्म की प्रभावना का एक प्रधान अंग था।
इस प्रकार, जैन परम्परा में (अत्यन्त सूक्ष्म व अतीन्द्रिय पदार्थों को छोड़कर) सर्वत्र युक्ति व तर्क का आश्रय लेकर तत्त्वज्ञान-प्रक्रिया के आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता गया और जैन न्यायशास्त्र का साहित्य-भण्डार समृद्ध होता गया। न्यायशास्त्र के अतिरिक्त भी अध्यात्म, तत्त्वज्ञान, आचारशास्त्र आदि विषयों से संबंद्ध ग्रंथों या उनकी व्याख्याओं में तर्क का वर्चस्व बढ़ता गया। मौलिक ग्रंथों में भी यथासंभव अपनी बात को युक्ति व तर्क के सहारे कहने का प्रचलन बढ़ा। इस तथ्य के समर्थक कुछ विवरण यहाँ प्रस्तुत हैं—
(१) धवला में ‘न्याय’ की उपयोगिता को लोकव्यवहार में रेखांकित करते हुए कहा गया कि ‘न्याय’ को लोकव्यवहार से बहिर्भूत नहीं मानना चाहिए।
(२) कसायपाहुड़ में कहा गया कि जो शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरुवचन के आधार पर प्रवृत्ति करता है, उसे प्रमाणानुसारी (प्रामाणिक) मानने में विरोध (असंगति) है।
(३) नीतिवाक्यामृत में आचार्य सोमदेव ने ‘आन्वीक्षिकी’ के कई लाभ बताये। उनके विचार में आन्वीक्षिकी का अध्येता युक्तिपूर्वक कार्य-अकार्य के बलाबल (लाभ-हानि) का सही विचार कर पाता है, फलस्वरूप वह किसी संकट में नहीं पड़ता, अभ्युदय में मदोन्मत्त नहीं होता और बुद्धिकौशल व वाणीकौशल को प्राप्त करता है।
(४) अध्यात्म्विद्या में भी इसकी उपयोगिता ‘हेतुविचय’ नामक धर्मध्यान (दस प्रकारों में एक) में रेखांकित की गयी। तर्क का अनुसरण कर व्यक्ति द्वारा स्याद्वादपद्धति का आश्रय लेकर समीचीन मोक्षमार्ग का चिन्तन-मनन करना ‘हेतुविचय’ धर्मध्यान होता है। इसी तरह आज्ञाविचय व अपायविचय धर्मध्यान में न्यायविद्या की उपयोगिता समाहित दृष्टिगोचर होती है।
(५) सूत्र के लक्षण में ‘हेतुमत्’ विशेषण से भी सूत्र का सयुक्तिक होना लक्षित होता है। (हेतुमत् का अन्य अर्थ सप्रयोजन, सोद्देश्य भी होता है।) सूत्रकारों ने भी अपनी मर्यादा में रहते हुए भी, यथास्ांभव अपने कथन में युक्ति या तर्क भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उदाहरणार्थ, तत्त्वार्थसूत्र के निम्नलिखित सूत्र उल्लेखनीय हैं—
‘‘सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धे: उन्मत्तवत्।
‘‘तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात्। पूर्वप्रयोगाद् असङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात तथागतिपरिणामाच्च।
आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुवद् एरण्डबीजवद् अग्निशिखावच्च।। धर्मास्तिकायाभावात्।
उपर्युक्त सूत्रों में सूत्रकार ने दृढ़ हेतु व दृष्टान्त की प्रस्तुति के साथ अपना कथ्य निरूपित किया है, यद्यपि यह कार्य व्याख्याकार भी कर सकता था।
(६) आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में भी यत्र-तत्र ‘जम्हा, तम्हा’ पदों से गाथा में तर्क व युक्ति के माध्यम से आगमोक्त विषयों को बुद्धिगम्य बनाने का प्रयास पाया जाता है।
(७) धवला (एवं अन्यान्य ग्रंथों) में अनेक ‘न्यायोक्ति’ प्रयुक्त हैं और जिनके माध्यम से विषय-वस्तु को अधिक बुद्धिगम्य कराने का प्रयास किया गया है। प्रमाणमीमांसा व स्याद्वादमंजरी में भी अनेक न्यायोक्तियाँ देखी जा सकती हैं।
(८) तर्क व वर्चस्व इतना बढ़ा कि इसे प्रभावना का भी एक साधन माना गया। उत्तरपुराण में यहाँ तक कहा गया कि अन्य प्रतिपक्षी विरोधी दार्शनिकों के दर्प को चूर-चूर कर, शूरता-वीरता के साथ, जैन धर्म की प्रभावना की जानी चाहिए।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उपर्युक्त स्थिति एक सामयिक परिस्थिति की उपज थी, क्योंकि जैन परम्परा की मूल मान्यता तो आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में यह थी कि पर-दर्शनों के साथ विवाद न किया जाये। किन्तु अन्य दार्शनिकों द्वारा खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया में जब तटस्थता की जगह द्वेषभाव आने लगा, जैन आचार्यों को विवश होकर अपनी सुरक्षा हेतु शास्त्रार्थ-प्रक्रिया में उतरना पड़ा और विरोधियों को परास्त भी करना पड़ा। वस्तुत: कुछ प्राचीन आचार्यों व साधुओं में ‘वादित्व’ ऋद्धि हुआ करती थी, जिससे परतीर्थिक सहज निरुत्तर हो जाते थे।
समस्त दार्शनिक दृष्टियाँ या तो अभेदग्राहिणी होती हैं या भेदग्राहिणी। अभेदग्राहिणी दृष्टि द्रव्यार्थिक नय है और भेदग्राहिणी दृष्टि पर्यायार्थिक नय है। इन्हीं के सात भेद हैं—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ व एवम्भूत नय। आचार्य सिद्धसेन ने स्पष्ट किया कि नैयायिक-वैशेषिक दर्शन नैगमनय के प्रतिनिधि हैं तो सांख्य व ब्रह्मवादी (अद्वैत) दर्शन संग्रह नय के प्रतिनिधि हैं। चार्वाक दर्शन व्यवहार नय का, बौद्ध दर्शन ऋजूसूत्र नय का प्रतिनिधित्व करता है।
वैशेषिक व बौद्ध कार्य व कारण में भेद मानते हैं और सांख्य दर्शन दोनों में अभेद मानता है। इनमें एक दृष्टि भेदग्राहिणी है और दूसरी दृष्टि अभेदग्राहिणी। अत: प्रत्येक दर्शन सत्य का अंश है, पूर्ण सत्य नहीं। यदि वह स्याद्वाद व अनेकान्तवाद की शरण ग्रहण करे और अन्य दर्शन का भी आदर करे, परस्पर-सापेक्ष होकर अपना मत प्रकट करे तो सत्यांश होते हुए भी ‘सत्य’ की कोटि में अपने को प्रतिष्ठापित कर सकता है।
आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में जिस प्रकार रसायन से संयुक्त होकर लोहा भी स्वर्ण हो जाता है, उसी प्रकार सभी नयात्मक दर्शन ‘स्यात्’ पद से संयुक्त होकर स्वर्णवत् उपादेय हो जायेंगे। वस्तुत: प्रत्येक दर्शन का दुराग्रह ही है जो उसे अन्य दर्शन विरोधीरूप में दिखाई पड़ते हैं। ‘स्यात्’ पद, जो सापेक्षता का, परस्पर समन्वय का सूत्र है, उसमें बंध जायें तो परस्पर-विरोधी दिखेगा ही नहीं। इस प्रकार जैन न्यायविद्या ने सब दर्शनों को जोड़ने का काम किया, तोड़ने का नहीं। यह इसकी परम विशेषता है।
निष्कर्ष में, जैन न्यायविद्या ने क्रमश: समय की मांग को देखते हुए तर्क व युक्ति को महत्व दिया और न्यायशैली को अपने स्याद्वाद के रंग में ढाल कर समृद्ध किया, यथासमय परपक्षनिराकरण में भी अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित की और वस्तुत: स्याद्वादशासन को दार्शनिक क्षेत्र में अलंघ्य व अजेय बनाया। खण्डन-मण्डन के क्षेत्र में छल आदि के प्रयोग को अमान्य करते हुए जैन न्यायविद्या ने सवैदा अपनी मौलिक विशेषताओं को सुरक्षित रखा। जिस प्रकार एक पूर्ण अहिंसा साधक के चरण सानिध्य में सिंह व हिरण दोनों वैर भूलकर सौहार्द रखते हैं। वैसे ही स्याद्वाद शासन के आलोक में भी दर्शन सौहार्द भाव से रह सकते हैं। इस तथ्य को जैन न्याय विद्या ने प्रत्येक दर्शन को हृदयंगम कराने का प्रयास किया है। इस प्रकार जैन परम्परा में न्यायविद्या न्यायसंगत होकर प्रतिष्ठित दृष्टिगोचर होती है।