ईर्ष्या , राग द्वेष क्रोधादिक कषायों के वशीभूत अन्य प्राणी का सताना उपसर्ग कहलाता है । पूर्व जन्म के वैर को याद कर कष्ट देना उपसर्ग कहलाता है । भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर उनके पूर्व भवो में कमठ के जीव ने अनेकों बार उपसर्ग किए लेकिन पार्श्वनाथ के जीव न उन्हें सहन कर तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लिया ।
इसकी कथा इस प्रकार है –
कमठ और मरूभूति सगे भाई थे । ये पोदनपुर के राजा अरविन्द के मंत्री थे । कमठ ने किसी समय छेटे भाई मरूभूति की पत्नी से व्यभिचार किया तब राजा ने उसे दंडित कर देश से निकाल दिया । वह तापसाश्रम में जाकर कुतप करने लगा । मरूभूति भाई के प्रेम से एक बार उससे मिलने गया तब उसने उस भाई के प्रति अकारण क्रोध करके हाथ की शिला पटक दी जिससे वह मर गया और सल्लकी वन में हाथी हो गया । किसी एक दिन अरविन्द महाराज ने विरक्त हो दीक्षा ले ली । वे संघ लेकर सम्मेद शिखर की यात्रा के लिए जाते हुए उसी वन में ठहरे । उन्हें ध्यान में स्थित देख यह हाथी मारने के लिए दौड़ा । किन्तु उनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह देखकर जातिस्मरण को प्राप्त होकर शांत हो गया । मुनिराज ने उसे उपदेश देकर सम्यक्तव और पाँच अणुव्रत ग्रहण करा दिए । यह उस दिन से व्रती श्रावक बन गया, सूखे पत्ते आदि खाकर अपना पेट भरने लगा । कालांतर में एक नदी के कीचड़ में फंस गया । उसके पूर्वभव के भाई कमठ का जीव मरकर कुक्कुट सर्प हुआ था उसने आकर उस समय उसे डस लिया । यह हाथी महामंत्र के स्मरण पूर्वक प्राण छोड़कर बारहवें स्वर्ग में देव हो गया । और वह सर्प मरकर पाँचवे नरक चला गया । पुन: यह मरूभूति का जीव देव पर्याय से चयकर विद्याधर हुआ, पुन: अच्युत स्वर्ग में गया वहाँ से आकर वज्रनाभि चक्रवर्ती हुआ , पुन: अहमिद्रं हुआ, वहाँ से आकर आनन्द नामक राजा होकर सोलहकारण भावना भाकर आनत इंद्र हुआ वहां से आकर भगवान पार्श्वनाथ हुए है । यह कमठ का जीव नरक से निकल कर अजगर सर्प हुआ, पुन: नरक गया, पुन: भिल्ल हुआ, पुन: नरक गया , पुन: सिंह हुआ, पुन: नरक गया वहाँ से आकर महीपाल राजा होकर पंचाग्नि तप करके शंबर नामक ज्योतिषी देव हो गया । इसने हर मनुष्य व तिर्यंच पर्याय में मरूभूति के जीवपर उपसर्ग किया है पुन: अंत में पार्श्वनाथ भगवान के ऊपर घोर उपसर्ग किया है । प्रभु उपसर्ग सहकर केवली हुए है । इस प्रकार से जो सहन करके क्षमा धारण करते है वे पार्श्वनाथ जैसे महान् बन जाते है और जो क्रोध के वशीभूत रहते है वे कमठ जैसे महादु:खो को उठाते रहते है ।
ऐसे ही पाँचो पांडव महामुनियों पर शत्रु द्वारा लोहे के तप्त आभूषण पहनाने का उपसर्ग हुआ जिसे वे सहनकर केवली हो गए ।