तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के प्रणेता श्री उमास्वामी जी आचार्य के जीवन परिचय का कुछ विशेष पता नही मिलता । वे कुन्द कुन्दाचार्य के पट्टशिष्य थे । उनकी परम्परा में आपके समान अन्य विद्वान शिष्य मण्डली में नहीं था । आपने १८ वर्ष की अवस्था में मुनि दीक्षा ली । २५ वर्ष बाद आचार्य पद का लाभ मिला । आप ४० वर्ष ८ दिन आचार्य पद पर रहे । कुल आयु आपकी ८४ वर्ष की थी । आप समन्तभद्र से पूर्व प्रथम शताब्दी के विद्वान थे ।
आप अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न थे । आपके शरीर के स्पर्शमात्र से पवित्र वायु हालाहल विष को भी अमृत बना देता था, आप अपनी ऋद्धि के प्रभाव से आकाश में चला करते थे । एक बार मयूर पिच्छ गिर जाने पर प्राणिरक्षा की शुभ भावना से आपने गिद्ध के पंखो से पीच्छी का काम चलाया था जिससे आप ‘ग्रद्ध पिच्छ’ कहे जाने लगे थे । लिखा भी है –
‘तत्त्वार्थसूत्र कर्तारं , ग्रद्ध पिच्छोपलक्षितम् ।
वन्दे गणीन्द्र संजातमुमास्वामी मुनीश्वरम् ।।
रचना के विषय में कहा गया है कि सौराष्ट्र प्रान्त में ऊर्जयन्त गिरि के निकट गिरनार नगर में आसन्न भव्य, स्वहितार्थी द्वैपायक ब्राह्मण नामक एक विद्वान था । उसने दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: सूत्र बनाया और एक पटिये पर लिख छोड़ा चर्या से लौटने के बाद एक दिन श्री उमास्वामी, मुनिराज की दृष्टि उस पटिये पर पड़ी । तब आपने उस सूत्र में ‘सम्यक’ शब्द जोड़ दिया ।
जब वह द्वैपायक अपने घर आया और उसने उस सूत्र में ‘सम्यक’ शब्द जुड़ा देखा । तब प्रसन्न होकर अपनी माता से पूछा कि, किन महानुभाव ने यह शब्द जोड़ा है ? माता ने उत्तर दिया कि एक निग्र्रन्थाचार्य ने यह शब्द जोड़ा है ।
तब वह तलाशता हुआ उनके आश्रम में पहुँचा और भक्तिभाव से नम्रीभूत होकर उक्त मुनिराज से पूछने लगा कि आत्मा का हित क्या है ? मुनिराज ने कहा ‘मोक्ष’ है । इस पर मोक्ष का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय पूछा गया जिसके उत्तर रूप में ही इस ग्रन्थ का अवतार हुआ है । इसी कारण इस ग्रन्थ का अपरनाम ‘मोक्षशास्त्र ’ भी है ।