मीमांसा की व्यवस्थित पद्धति अथवा प्रमाण की मीमांसा का नाम न्याय है। न्याय शब्द के अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं-
(१) नियमयुक्त व्यवहार—न्यायालय आदि प्रयोग इसी अर्थ में होते हैं।
(२) प्रसिद्ध दृष्टान्त के साथ दिखाया जाने वाला सादृश्य, जैसे—देहली-दीपक-न्याय।
(३) अर्थ की प्राप्ति या सिद्धि।
यहाँ न्याय का तीसरा अंग प्रासंगिक है।
वस्तु का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है। ज्ञाता उसे जाने या न जाने, इससे उसके अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं आता। वह ज्ञाता के द्वारा जानी जाती है तब प्रमेय बन जाती है और ज्ञाता जिससे जानता है, वह ज्ञान यदि सम्यक् या निर्णायक होता है तो प्रमाण बन जाता है। इसी आधार पर ‘न्याय’ की परिभाषा निर्धारित की गई—‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:’ अर्थात् प्रमाण के द्वारा अर्थ (पदार्थ) का परीक्षण करना न्याय है। न्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए भी शास्त्रकारों ने उसका यही अर्थ किया है—‘नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्याय:’ जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तुतत्त्व का ज्ञान होता है, उसे न्याय कहते हैं।
‘प्राप्यतेऽर्थसिद्धियेन स न्याय:—जिससे अर्थसिद्धि प्राप्त की जाती है, उसे न्याय कहते हैं। न्याय की प्रवृत्ति अर्थसिद्धि के लिए होती है। व्यक्ति किसी उद्देश्य से कार्य का प्रारंभ करता है और उसकी सिद्धि होने पर उसका अन्त हो जाता है। उद्देश्य और सिद्धि एक ही क्रिया के दो पहलू हैं। उद्देश्य की सिद्धि के लिए क्रिया चलती है और उसकी सिद्धि होने पर क्रिया रुक जाती है।
न्याय-पद्धति की शिक्षा देने वाला शास्त्र ‘न्याय-शास्त्र’ कहलाता है। इसके मुख्य चार अंग है-
१. प्रमाण—वस्तु को जानने का साधन।
२. प्रमेय—द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु।
३. प्रमिति—प्रमाण का फल, प्रमाण द्वारा प्रमेय को जानने पर प्राप्त होने वाला परिणाम।
४. प्रमाता—आत्मा—प्रमाण के द्वारा प्रमेय को जानने वाला।
जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप का सम्यक् ज्ञान हो, उसे न्याय कहते हैं। वस्तु स्वरूप का सम्यक् ज्ञान प्रमाण और नय के द्वारा होता है, अत: न्याय को प्रमाणनय स्वरूप कहा गया है—प्रमाणनयात्मको न्याय:।
प्रमाण और नय का विवेचन क्रमश: उद्देश्य, लक्षण निर्देश और परीक्षा द्वारा होता है।
।।‘‘प्रमाणनयैरधिगम:’’।।
प्रमाण और नय के द्वारा जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होता है इस प्रकार से महाशास्त्र तत्वार्थसूत्र में कहा है। वह परम मोक्ष पुरुषार्थ के लिए साधनभूत सम्यग्दर्शनादिक और उनके विषयभूत जीवादि तत्त्वों के जानने के उपाय को बताता है अर्थात् प्रमाण और नयों के द्वारा ही जीवादि तत्त्वों का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होता है क्योंकि प्रमाण और नय के बिना तत्त्वों को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है इसलिए जीवादि को जानने के उपायभूत प्रमाण और नयों का वर्णन करना चाहिए।
प्रमाण का सामान्यतया व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है—‘‘प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्’’ अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो उस द्वार का नाम प्रमाण है दूसरे शब्दों में जो प्रमा का साधकतम करण हो वह प्रमाण है। इस सामान्य-निर्वचन में कोई विवाद न होने पर भी उस द्वार में विवाद है।
नैयायिकादि प्रमा में साधकतम इन्द्रिय और सन्निकर्ष को मानते हैं जब कि जैन और बौद्ध ज्ञान को ही प्रमा में साधकतम कहते हैं। जैनदर्शन की दृष्टि है कि जानना या प्रमारूप क्रिया चूँंकि चेतन है अत: उसमें साधकतम उसी का गुण-ज्ञान ही हो सकता है, अचेतन सन्निकर्षादि नहीं, क्योंकि सन्निकर्षादि के रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता और सन्निकर्षादिके अभाव में भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
अत: जानने रूप क्रिया का साक्षात् अव्यवहित कारण ज्ञान ही है, सन्निकर्षादि नहीं। प्रमिति या प्रमा अज्ञान—निवृत्तिरूप होती है। इस अज्ञाननिवृत्ति में अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है, जैसे कि अंधकार की निवृत्ति में अंधकार का विरोधी प्रकाश। इन्द्रिय, सन्निकर्षादि स्वयं अचेतन है, अतएव अज्ञानरूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात् करण नहीं हो सकते।
यद्यपि कहीं-कहीं इन्द्रिय, सन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पादक सामग्री में शामिल है, पर सार्वत्रिक और सार्वकालिक अन्वय-व्यतिरेक न मिलने के कारण उनकी कारणता अव्याप्त हो जाती है। अन्तत: इन्द्रियादि ज्ञान के उत्पादक भी हों, फिर भी जानने रूप क्रिया में साधकतमता-अव्यवहितकारणता ज्ञान की ही है, न कि ज्ञान से व्यवहित इन्द्रियादि को।
जैसे कि अंधकार की निवृत्ति में दीपक ही साधकतम हो सकता है, न कि तेल, बत्ती और दिया आदि। सामान्यतया जो क्रिया जिस गुण की पर्याय होती है, उसमें वही गुण साधकतम हो सकता है। चूँकि ‘जानाति क्रिया’—जाननेरूप क्रिया ज्ञानगुण की पर्याय है, अत: उसमें अव्यवहित करण ज्ञान ही हो सकता है। प्रमाण चूँकि हित-प्राप्ति और अहितपरिहार करने में समर्थ है, अत: वह ज्ञान ही हो सकता है।
यहां पर प्रमाण और नयों का वर्णन करने में उद्देश्य, लक्षण निर्देश तथा परीक्षा इन तीन की आवश्यकता है क्योंकि जिसका कथन नहीं किया है उसका लक्षण निर्देश नहीं बन सकता तथा जिसका लक्षण निर्देश नहीं किया उसकी परीक्षा नहीं हो सकती और जिसकी परीक्षा नहीं की है उसका विवेचन भी नहीं हो सकता, लोक में और शास्त्र में भी उसी प्रकार से वस्तु विवेचन की प्रसिद्धि है।
।। विवेक्तव्यनाममात्रकथनमुद्देश:।।
जिस वस्तु का विचार करना है उसके नाम मात्र कहने को उद्देश्य कहत्ो हैं।
।। व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्।।
वस्तु समूह में से किसी एक विवक्षित वस्तु के (निश्चय) पृथक््â कराने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं।
इसी प्रकार अकलंकदेव ने भी कहा है-
।। परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।।
परस्पर मिली हुई वस्तु में से किसी एक वस्तु की भिन्नता जिसके द्वारा समझी जाए उसको लक्षण कहते हैं।
उस लक्षण के दो भेद हैं-
१. आत्मभूत २. अनात्मभूत
जो वस्तु के स्वभाव से अभिन्न है उसको आत्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे-अग्नि का लक्षण उष्णता है क्योंकि उष्णता अग्नि का स्वरूप है और वह अग्नि को जलादि से पृथव्â करा देती है।
जो वस्तु के स्वरूप से भिन्न है उसको अनात्मभूत लक्षण कहते हैं, जैसे-पुरुष का लक्षण दण्ड। किसी ने कहा ‘‘दण्डिनम् आनय’’ अर्थात दण्डा जिसके हाथ में है उसको लाओ। दण्ड, यह पुरुष का स्वभाव न होकर भी पुरुष को अन्य पुरुषों से पृथव्â कर देता है।
।।असाधारणधर्मवचनं लक्षणम् इति केचित्।।
असाधारण धर्म के कथन को लक्षण कहते हैं, ऐसा किन्हीं-किन्हीं मत वालों का कथन है। यह ठीक नहीं है क्योंकि लक्ष्य धर्मी वचन का लक्षण धर्म वचन के साथ समानाधिकरण के अभाव का प्रसंग आ जायेगा क्योंकि दण्डादि वस्तु के धर्म न होते हुए भी लक्षण माने जाते हैं तथा अव्याप्त नाम का लक्षणाभास भी इसी प्रकार है। सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं।
लक्षणाभास-जो लक्षण के समान दिखे परंतु लक्षण नहीं हो, उसके ३ भेद हैं-
१. अव्याप्त, २. अतिव्याप्त, ३. असम्भवि।
जो लक्षण के एकदेश में रहे उसे अव्याप्त कहते हैं। जैसे गाय का लक्षण-चितकबरापना।
जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में रहे उसे अतिव्याप्त कहते हैं। जैसे-गाय का लक्षण पशुपना।
जिसके लक्ष्य में रहने में बाधा आती हो उसे असम्भवि कहते हैं, जैसे-मनुष्य का लक्षण सींग। यहां पर असाधारण धर्म लक्षण, लक्ष्य के एकदेश में रहने से अव्याप्त दोषयुक्त है। लक्ष्यभूत में पूर्णतया व्याप्त नहीं है इसलिए उपर्युक्त लक्षण ही निर्दोष है उसका कथन करना लक्षण निर्देश कहलाता है।
परीक्षा का लक्षण–विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्यदौर्बल्ययावधारणाय प्रवर्तमानो विचार: परीक्षा। सा खल्वेवं चेदेवं न स्यादेवं चेदेवं स्यादित्येवं प्रवर्त्तते।
विरोधी नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत्त हुए विचार को परीक्षा कहते हैं।
वह परीक्षा यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए, इस प्रकार से प्रवृत्त होती है।
प्रमाण और नय का भी उद्देश्य सूत्रों में ही किया गया है अब उनका लक्षण निर्देश करना चाहिए और परीक्षा यथा अवसर होगी। उद्देश्य के अनुसार लक्षण का कथन होता है। इस न्याय के अनुसार प्रधान होने के कारण प्रमाण का पहले लक्षण किया जाता है।
।। सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं।।
समीचीन ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, यहां प्रमाण लक्ष्य है तथा सम्यग्ज्ञानत्व उसका लक्षण है।
जैसे-गाय का लक्षण ‘‘सास्नादिमत्व’’ एवं अग्नि का लक्षण ‘उष्णता’। यहां सम्यव्â पद संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय के लिए किया गया है क्योंकि ये तीनों ज्ञान अप्रमाण हैं।
विरुद्ध अनेक कोटि का स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय कहलाता है। जैसे-यह स्थाणु ‘ठूंठ’ है अथवा पुरुष। स्थाणु और पुरुष दोनों में सााधरण रूप से रहने वाले ऊंचाई आदि साधारण धर्मों के देखने से और विशेष धर्म स्थाणुगत टेड़ापन कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत सिर, पैर आदि साधक प्रमाणों का अभाव होने से नाना जातियों का अवगाहन करने वाला ही संशय ज्ञान है।
विपरीत एक कोटि के निश्चय कराने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे-सीप में ‘‘यह चांदी है’’ का ज्ञान। इस ज्ञान में सदृशता आदि कारणों से सीप से विपरीत चांदी में निश्चय होता है इसलिए विपर्यय है।
क्या है ? इस प्रकार के अनिश्चयरूप सामान्य ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे-
मार्ग में चलते हुए तृण आदि के स्पर्श हो जाने पर ‘‘यह क्या है’’ ऐसा ज्ञान होता है। यह ज्ञान नाना कोटि का अवलंबन न करने से संशय भी नहीं है, विपरीत एक पक्ष का निश्चय न करने से विपर्यय भी नहीं है इसलिए दोनों ज्ञानोें से पृथक् यह ज्ञान ही अनध्यवसाय ज्ञान है।
यह तीनों ज्ञान अपने विषय में प्रमिति (सच्चे ज्ञान) को उत्पन्न नहीं कर सकते इसलिए अप्रमाणिक हैं। सम्यव्â नहीं हो सकते इसलिए सम्यव्â पद से उपरोक्त तीनों ज्ञानों का निराकरण-खण्डन किया। ज्ञान पद से प्रमाता, प्रमिति और ‘‘च’’ शब्द से जानने योग्य पदार्थ प्रमेय की व्यावृत्ति हो जाती है। यद्यपि निर्दोष होने से इनमें भी सम्यक्त्व है परंतु ज्ञानत्व नहीं है।
शंका-प्रमिति का कर्ता जो प्रमाता है वह ज्ञाता है किन्तु स्वयं ज्ञान नहीं है इसलिए यद्यपि प्रमाता की ज्ञान शब्द से व्यावृत्ति हो सकती है तथापि प्रमिति की व्यावृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि प्रमिति भी यथार्थ ज्ञान स्वरूप ही है।
समाधान-ऐसा तब हो सकता था जबकि यहां पर ज्ञान शब्द भाव साधन होता किन्तु यहां पर इस ज्ञान शब्द को माना है करण साधन। उसकी व्याकरण के अनुसार ‘‘ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्’’ ऐसी निरुक्ति भी होती है तथा ‘करणा धारे चानट्’ इस व्याकरण सूत्र से करण अर्थ में अनट् प्रत्यय होता है।
जो ज्ञान शब्द भाव साधन है वह प्रमिति का ही वाचक है किन्तु भाव साधन ज्ञान शब्द से करण साधन ज्ञान शब्द एक भिन्न ही शब्द है। इसी प्रकार प्रमाण शब्द को भी ‘‘प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्’’ ऐसी निरुक्ति के अनुसार यहां पर करण साधन ही समझना चाहिए क्योंकि यदि ऐसा नहीं मान्ाा जायेगा तो प्रमाण शब्द की सम्यक्ज्ञान शब्द के साथ एकाधिकरणता नहीं बन सकेगी। इससे यह बात सिद्ध हुई कि प्रमिति क्रिया के जाननेरूप क्रिया के प्रति जो करण है, वह प्रमाण है। प्रमाण निर्णय में भी ऐसा ही कहा है कि-‘‘प्रमाण की प्रमाणता यही है कि जो प्रमितिरूप क्रिया के प्रति साधकतमरूप से करण हो।’’
शंका-प्रमाण में प्रमाणता की उत्पत्ति और ज्ञप्ति वैâसे होती है ?
समाधान-मीमांसक मत वाले प्रमाण की उत्पत्ति स्वत: मानते हैं और यौग मत वाले प्रमाण की उत्पत्ति की तरह ज्ञप्ति भी पर से ही मानते हैं परन्तु यह ठीक नहीं है।
जैनियों ने प्रमाणता की उत्पत्ति पर से ही मानी है परन्तु प्रमाणता की ज्ञप्ति अभ्यस्त दशा में स्वत: और अनभ्यस्त दशा में पर से होती है।
पहले नहीं जाने हुए तथा यथार्थ अर्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है ऐसा भाट्टों का कहना है किन्तु यह लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है क्योंकि इन्हीं के द्वारा प्रमाण रूप से माने हुए धारावाहिक ज्ञान अपूर्व अर्थग्राही नहीं हैं।
यदि वे कहें कि धारावाहिक ज्ञान में उत्तरोत्तर क्षण विशेषों से युक्त पदार्थ का प्रतिभास होता है इसलिए वह पहले से अज्ञात पदार्थों को ही ग्रहण करता है किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि क्षण अत्यन्त सूक्ष्म है इसलिए हमारे जैसे लोगों को उसका आभास भी नहीं हो सकता है। इस कारण से भाट्टों का लक्षण सदोष है।
अनुभूति को प्रमाण का लक्षण प्रभाकर मत वाले मानते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि अनुभूति शब्द भाव साधन है और प्रमाण शब्द करण साधन है और उन्होंने करण व भाव दोनों ही को प्रमाण माना है।
सालिकानाथ ने कहा है कि-
जब प्रमाण शब्द को ।। प्रमिति प्रमाणं।। भाव साधन करते हैं तब ज्ञान ही प्रमाण है। ।।प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणं।। इस प्रकार करण साधन करने पर आत्मा और मन का सन्निकर्ष प्रमाण होता है अत: अनुभव को प्रमाण का लक्षण मानने में अव्याप्ति दोष आता है।
जानने रूप क्रिया के प्रति जो करण ‘हेतु’ है उसे प्रमाण कहते हैं किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि यह लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित है। उनके यहां उदयन आचार्य ने कहा है-कि ‘‘तन्मे प्रमाणं शिव:’’ वह महेश्वर को प्रमाण मानते हैं और महेश्वर को प्रमाज्ञान का अधिकरण मानते हैं करण नहीं मानते हैं इसीलिए महेश्वर जाननेरूप क्रिया के आधार हैं, हेतु नहीं हैं इसीलिए जब ‘‘प्रमाकरणं प्रमाणं’’ कहेंगे तब महेश्वर से अव्याप्ति आयेगी और जब महेश्वर प्रमा का अधिकरण मानकर प्रमाण कहेंगे तब उपर्युक्त लक्षण में अव्याप्ति आवेगी।
इस प्रकार पर के द्वारा माने गए प्रमाण के लक्षण सभी सदोष हैं इसलिए स्व और पर को जानने में समर्थ, सविकल्प और अग्रहीत को ग्रहण करने वाला सम्यव्â ज्ञान ही प्रमाण है ऐसा अर्हन्त भगवान का मत है।
द्वितीय प्रकाश-प्रत्यक्ष प्रकाश-प्रमाण के दो भेद हैं-१. प्रत्यक्ष २. परोक्ष।
‘‘विशदं प्रतिभासं प्रत्यक्षम्’’-स्पष्ट प्रतिभास को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। चार्वाक लोग एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं तथा बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण मानते हैं।
नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार प्रमाण मानते हैं। इन्हीं चारों में अर्थापत्ति मिलाकर प्रभाकर लोग पांच प्रमाण मानते हैं इन्हीं पांचों में सहानुपलब्धि मिलाकर भाट्ट लोग छह प्रमाण मानते हैं। पौराणिक लोग उपरोक्त छह में संभव तथा ऐतीह्य ये दो और मिलाकर आठ प्रमाण मानते हैं।
इन्द्रियों का पदार्थों को स्पर्श करके जानना सन्निकर्ष कहलाता है अत: यह सन्निकर्ष चेतन न होने से प्रमिति क्रिया के प्रति करण नहीं हो सकता इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं हो सकता।
दूसरी बात यह है कि चक्षु अप्राप्यकारी है वह पदार्थ को स्पर्श न करके भी रूप ज्ञान को कराने में कारण है इसीलिए सन्निकर्ष के अभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
नैयायिक कहता है कि चक्षु पदार्थ को स्पर्श करके ही जानती है स्पर्शन इन्द्रिय की तरह परन्तु इस कथन में चक्षु शब्द से कौन सी चक्षु को समझना ? लौकिक अर्थात् गोलकरूप अथवा अलौकिक ‘किरणरूप’। यदि गोलकरूप चक्षु पदार्थ को स्पर्श से जानती है ऐसा कहो तो प्रत्यक्ष से बाधा आती है और किरणरूप चक्षु को मानो तो यह बात भी ठीक नहीं है इसलिए सन्निकर्ष में अव्याप्ति दोष आता है।