जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है। ईश्वर कहलाने वाले कर्मरहित भगवान किसी को सुख-दु:ख देने वाले कर्ता नहीं होते हैं। यहाँ पर ईश्वर की सत्ता में पूर्णतया आस्था रखने वाले एवं उसकी उपासना करने वाले जैन सिद्धान्त के अनुसार यह बतलाया जा रहा है कि जैनधर्म पूर्णतया आस्तिक धर्म है।
श्री हरबर्ट वारन नामक जैनधर्म के मर्मज्ञ विदेशी विद्वान् ने आज से लगभग ८० वर्ष पूर्व सभी दर्शनों का गूढ़ अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला था कि ‘जैनधर्म नास्तिक नहीं है।’ श्री वारेन ने ‘व्aग्हग्ेस् हदू aह Aूूाग्ेस्’-शीर्षक से एक लेख अंग्रेजी में लिखा था, जो कि भारत में तथा विदेशों में जैनधर्म की परमात्मा विषयक मान्यता को स्पष्ट करने के लिए बहुत चर्चित हुआ था। उसी लेख का हिन्दी रूपान्तर यहाँ प्रस्तुत हैं।
जो लोग इस सृष्टि का कर्ता या स्रष्टा ईश्वर को मानते हैं, वे कभी-कभी जैनधर्म को नास्तिक समझने लगते हैं, परन्तु जैनियों को नास्तिक कहना कदापि उचित नहीं। जैनधर्म में ‘‘गॉड’’ (परमात्मा) की सत्ता का निषेध नहीं किया गया है। जैन शास्त्रों में ईश्वर का स्वरूप बतलाया गया है, परन्तु उसमें और अन्य मतों की धर्म-संबंधी पुस्तकों में उसका जो निरूपण किया गया है, उसमें बड़ा भेद है। बड़ा भेद यह है कि अन्य मतों की पुस्तकों में ईश्वर को स्रष्टा और शास्ता माना है परन्तु जैन ग्रंथों में ऐसा नहीं माना। जैनधर्मानुसार ‘‘ईश्वर’’ सर्वज्ञ और सर्वानन्दमय है तथा अनन्त शक्तिसम्पन्न है। वह एक शुद्ध और सिद्ध आत्मा है और किसी भी भौतिक शरीर से रहित है। वह अविनाशी और अपरिवर्तनीय आत्मा है अर्थात् उसका कभी नाश नहीं होता और न वह अपने पद से च्युत होकर फिर कभी भ्रष्ट हो सकता है।
किसी वस्तु की सत्ता को न मानना और उस वस्तु में किसी विशेष गुण का न मानना-ये दोनों बातें एक नहीं है। जबकि जैनधर्म में आत्मा की सत्ता को शुद्ध और परिपूर्ण अवस्था में माना है, तो फिर जैनधर्म को उन लोगों की श्रेणी में नहीं रख सकते, जो आत्मा को पुद्गल या शरीर से भिन्न नहीं मानते। पवित्र (शुद्ध) आत्मा और परमात्मा वस्तुत: एक ही वस्तु है और प्रत्येक विशेष आत्मा का अंतिम प्रयोजन शुद्ध और सिद्ध होना है या यह कहो कि प्रत्येक आत्मा का उद्देश्य ‘‘परमात्मा’’ बन जाना है, जिसमें परमात्मत्त्व के सम्पूर्ण गुण हैं और जैनधर्म के अनुसार इन गुणों में उत्पन्न करने और शासन करने के गुण अनुगत नहीं है। सच पूछो तो नास्तिक वे हैं जो आत्मा का होना नहीं मानते और यह कहते हैं कि आत्मा पुद्गल से पृथक् कोई वस्तु नहीं है। उनकी ऐसी मान्यता है कि लोग जिसको आत्मा कहते हैं, वह केवल पुद्गल के परमाणुओं के विशेष संयोग का फल या प्रादुर्भाव है और कुछ नहीं है और जब इस विशेष संयोग का विघटन हो जाता है, तब आत्मा नष्ट हो जाता है।
जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा का अस्तित्व अनादिकाल से चला आया है और आत्माएँ अनादिकाल से ही साधारण शरीर-संबंधी सांसारिक अवस्था से निकलकर शुद्ध अवस्था में आने का प्रयत्न कर रही हैं और सदा ऐसा ही प्रयत्न करती रहेंगी परन्तु वे (मुक्त आत्माएँ) इसे परमात्मत्त्व की अवस्था से फिर साधारण शरीरी आत्माओं में परिवर्तन नहीं करती हैं।
अब हम यह देखना चाहते हैं कि परमात्मा में संसार के रचने और शासन करने के गुण आरोपण करने से उसके इतर गुणों में तो बिगाड़ या दोष नहीं आता अथवा परमात्मा में इन गुणों के मानने से कई प्रकार की विरोधोक्तियाँ और दूषण आते हैं और वे मनुष्य के सदाचारी बनने और मोक्ष प्राप्त करने में सहकारी या सहायक नहीं होते।
जो लोग ‘‘ईश्वर’’ को स्रष्टा मानते हैं वे विशेषत: दो श्रेणियों में विभक्त हो सकते हैं-
(१) वे लोग जो तीन वस्तुओं को शाश्वत व अनादि मानते हैं अर्थात् ईश्वर, आत्मा और पुद्गल और यह कहते हैं कि ‘पिछली दो वस्तुओं के द्वारा ‘ईश्वर’ जगत् को बनाता है’’।
(२) वे लोग जो यह मानते हैं कि ‘ईश्वर’ ही शाश्वत या अनादि है और अन्य कोई वस्तु अनादि नहीं। इस श्रेणी के दो भेद हो सकते हैं (क) वे लोग जो यह मानते हैं कि ‘ईश्वर’ ने जगत् को ‘नहीं’ (शून्य) से रचा अर्थात् पहले कुछ नहीं था फिर सब कुछ कर दिखाया और (ख) वे लोग जो यह मानते हैं कि ‘‘ईश्वर’’ ने जगत् को अपने भीतर से उत्पन्न कर दिया।
वे लोग जो यह मानते हैं कि ‘ईश्वर’, पुद्गल और आत्मा अनादि है और ईश्वर जगत् की पुद्गल और आत्माओं के द्वारा बनाता है, इससे यह स्पष्ट है कि हम पुद्गलों व आत्माओं और उनके गुणों व अवस्थाओं को मानते हैं तो फिर वे (गुण और अवस्थाएँ) आप ही अपने पारस्परिक सम्मेलन और समाघात से जगत् को बनाने में सर्वथा समर्र्थ है और ‘‘ईश्वर’’ के संयोग की इसमें कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।
पुन: परमात्मा मेंं सिद्ध या सम्पूर्णता और आनन्द का होना आवश्यक है और इस प्रकार जब परमात्मा सिद्ध या सम्पूर्णता और आनन्दमय ठहरा, तब उसमें संसार के रचने की इच्छा नहीं हो सकती, क्योंकि संसार के रचने की इच्छा होने से परमात्मा में एक प्रकार की कमी पाई जाती है और कमी परिपूर्णता (सिद्धि) में परस्पर विरोध है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा को स्रष्टा मानने में परमात्मा में परिपूर्णता (सिद्धि) और आनन्द के गुण नष्ट हो जाते हैं अर्थात् उन्ा गुणों का अभाव मानना पड़ता है।
लोग यह मानते हैं कि साधारण जीवित प्राणी दु:ख और कष्ट भोगते हैं और संसार को दिये हुए परमात्मा के धर्मोपदेशों पर चलने से ही जीव इन सांसारिक दु:खों से मुक्त हो सकता है परन्तु पहले जीवों को रचना या बनाना और फिर उनको संसार के दु:खों और कष्टों में फंसाना और फिर उन्हें ऐसा उपदेश देना जिस पर चलकर वे अपने आपको इन दु:खों और कष्टों से मुक्त कर सकें, भला इसमें क्या चतुराई या बुद्धिमत्ता है। एक सर्वज्ञ और सर्व-शक्तिमान जो पहले तो एक वस्तु को असमर्थ या अपर्याप्त अवस्था में रखे और फिर उसके सुधारने या उन्नति करने के नियम बतावे, उसे बुद्धिमान और हितकारी नहीं कहा जा सकता।
पुन: सर्वज्ञ को यह परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है कि वह किसी व्यक्ति या वस्तु को देखे कि वह क्या करता है और यदि यह कहा जाये कि ‘ईश्वर’ ने जीवों को संसार में यह देखने के लिए रचा था कि उसमें कौन से जीव मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और कौन-कौन से नहीं, तो इससे परमात्मा सर्वज्ञ नहीं ठहरता।
परमात्मा को स्रष्टा मानना साधुता या श्रेष्ठता के विरुद्ध है, क्योंकि जब एक सम्पूर्णतया श्रेष्ठ साधु को स्रष्टा माना जाये तो उसकी रची हुई सृष्टि में कोई दोष या दूषण या मलिनता नहीं होनी चाहिए। कोई सांसारिक शास्ता यह नहीं चाहता है कि उसके देश में बुरे कार्य किये जायें, परन्तु सांसारिक शास्ता सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान नहीं है और इसलिए वे ऐसे कार्यों को अपने देशों में होने से रोक नहीं सकते अर्थात् ऐसा उचित प्रबंध नहीं कर सकते कि ये कार्य उनके देश में होने ही न पावे, परन्तु परमात्मा को सम्पूर्णतया शक्तिमान हितकारी और सर्वज्ञ भी माना गया है, इसलिए यदि जगत् का कर्ता परमात्मा होता तो कोई दुष्ट कर्म न किये जा सकते, क्योंकि वह अपने रचे हुए जीवों को ऐसे कर्म करने की शक्ति न देता।
यही दशा शोक, दु:ख, रोग और दरिद्रता की है। यदि यह कहें कि दु:ख और रोग उन प्राणियों के ही बुरे कर्मों के फल हैं और यदि परमात्मा को कर्ता समझा जाये जिसने लोगों को दुष्कर्म करने की शक्ति दी और फिर उन्हें उस शक्ति को काम में लाने के कारण दण्ड दिया, तो ऐसे परमात्मा में साधुता का अभाव है क्योंकि कोई मनुष्य ऐसे सांसारिक पिता के विषय में क्या विचार करेगा, जिसने अपने पुत्र को कोई बुरा कार्य करने में प्रवृत्त देखकर और उसे उस कार्य से रोकने में समर्थ होकर भी इस विषय में पहले से कोई प्रबंध नहीं किया, वरन् पीछे से (जब वह कार्य कर चुका) उस दुष्कर्म के बदले पुत्र को दण्ड दिया।
अब हम दूसरी बात पर विचार करते हैं कि ‘ईश्वर’ ही शाश्वत है और उसी ने संसार को ‘नहीं’ (शून्य) से रचा या अपने भीतर से बनाया।
जो लोग यह मानते हैं कि ‘ईश्वर’ ने संसार को ‘नहीं’ (शून्य) से रचा, क्या इस मत के समर्थन के लिए कोई प्रमाण या हेतु है, कोई प्रमाण या हेतु दिखाई नहीं देता, क्योंकि प्रकृति से ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता कि यह संसार शून्य से अस्तित्व में आया अर्थात् पहले कुछ भी नहीं था और ईश्वर ने उसे बना दिया। प्रकृति में कोई एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता या दीख पड़ता जहाँ ‘नहीं’ (शून्य) या अभाव या असत् से कोई वस्तु उत्पन्न हुई हो। प्रत्येक वस्तु जो हम देखते हैं उसकी कोई न कोई पूर्व अवस्था थी और हम ऐसी वस्तु नहीं देखते जिसका अभाव हो जाये। पदार्थ विज्ञान द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि शून्य से कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती और किसी वस्तु का सर्वथा अभाव भी नहीं हो सकता। यदि ‘ईश्वर’ ने संसार को ‘नहीं’ (शून्य) से रचा तो वह उसका सर्वथा नाश भी कर सकता है और इसका यह अर्थ होता है कि अस्तित्व-नास्तित्व में या सत्-असत् में परिवर्तित हो सकता है इसलिए जिस ‘ईश्वर’ का हम इस समय विचार कर रहे हैं, उसकी पूजा करने वाले लोग एक ऐसे जीव की पूजा या आराधना करते हैं, जिसमें अनुपस्थित या अविद्यमान होने की भावी शक्ति या संभावना है परन्तु ‘‘अस्तित्व’’ और ‘नास्तित्व’ अथवा ‘भाव’ और ‘अभाव’ परस्पर विरुद्ध शब्द है और एक दूसरे में नहीं घट सकते। अभाव (असत्) भाव (सत्) नहीं हो सकता और न भाव (सत्) अभाव (असत्) हो सकता है। यह एक सर्वसाधारण बुद्धि और सहज ज्ञान का एक सामान्य तत्व है। इस प्रकार यह मत या सिद्धान्त कि ‘ईश्वर’ ने संसार को ‘नहीं’ (शून्य) से रचा और वह जब चाहे उसका सर्वथा नाश कर सकता है सर्व साधारण बुद्धि, सहजोपलब्ध तत्त्व पदार्थविज्ञान प्रमाण और प्राकृतिक नियम के विरुद्ध है अर्थात् अयुक्तिसिद्ध और अप्रमाणिक है।
अब दूसरी बात यह रही कि ईश्वर ही शाश्वत है और उसने संसार को अपने भीतर से रचा है अर्थात् उसने अपने आप ही संसार की आकृति या रूप ग्रहण कर लिया है। इस सिद्धान्त के मानने पर यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर तो शुद्ध और परिपूर्ण जीव है, फिर उसने अपने आपको इस अशुद्ध और अपूर्ण संसार में किस प्रकार परिवर्तित किया ? इसलिए या तो हम संसार के रचने का कार्य उस पर आरोपित नहीं कर सकते या यह मानना पड़ेगा कि अपवित्रता या अशुद्धता का अंकुर जो संसार में विद्यमान रहा है, वह सदा से ईश्वर में भी होना चाहिए। एक कठिनाई तो यह है। एक और दूसरी कठिनाई (दु:साध्यता) यह है कि एक चेतन द्रव्य का अचेतन हो जाना असंभव है। संसार में जड़ अचेतन द्रव्य और ज्ञानमय चेतन द्रव्य दोनों हैं। परन्तु संसार में ज्ञानमय चेतन द्रव्य किसी जड़ अचेतन द्रव्य के कार्य को नहीं कर सकते और न ही उस रूप हो सकते हैं इसलिए यह सिद्धान्त कि ईश्वर-एक ज्ञानमय चेतन द्रव्य ने बुद्धिरहित या जड़ भागों से मिले हुए संसार की आकृति ग्रहण करके संसार को रचा, मानने योग्य नहीं है।
जो लोग यह मानते हैं कि ‘ईश्वर’ ही शाश्वत है और वह आप ही संसार की आकृति ग्रहण कर लेता है उनमें एक वेदान्ती भी है। इनका यह मत है कि ‘‘ईश्वर’’ शुद्ध या ज्ञानरूप है और जब उसने संसार को रचा तो उसने अपना ऐसी वस्तु से संयोग किया जो जड़ अचेतन भासती है और जिसे अचेतन या जड़ कहते हैं परन्तु यहाँ पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह अचेतन या जड़ वस्तु जिससे कि ज्ञानमय चेतन द्रव्य का संसर्ग हुआ वह (जड़ अचेतन वस्तु) ईश्वर से पृथक् और भिन्न वस्तु है या यह ईश्वर का ही एक गुण है। यदि यह कोई भिन्न (अलग) वस्तु है तो इस मान्यता में कि ईश्वर एक ही शाश्वत वस्तु है, विरोध आता है या दूषण लगता है और अद्वैतवाद के स्थान में द्वैतवाद मानना पड़ता है। इसके विपरीत यदि वह जड़ वस्तु सदा से उसके (ईश्वर के) साथ रहती तो उसे (ईश्वर को) हम शुद्ध या ज्ञानरूप नहीं मान सकते। उसमें अचेतनता या जड़ता और अपवित्रता या अशुद्धता के भाग सदा ही से मिले हुए होने चाहिए। जैनधर्म में भी शुद्ध और परिपूर्ण ज्ञान का अचेतन और अशुद्धता से संयोग माना है परन्तु भेद यह है कि वेदान्ती तो यह मानते हैं कि ईश्वर ने किसी विशेष समय में इस अचेतन या जड़ वस्तु से अपना संयोग किया और इस प्रकार यह दृश्य संसार बन गया और जैनधर्म की मान्यता है कि यह शुद्ध चेतन और जड़ वस्तु जैसे अब मिले हुए हैं, ऐसे ही मिले हुए चले आ रहे हैं और इस प्रकार ये यह दृश्य संसार के कारण हैं। आत्मा और पुद्गल सामान्य जीवित प्राणी में वस्तुत: परस्पर संयुक्त हैं परन्तु वे कभी अर्थात् किसी विशेष समय में संयुक्त नहीं हुए वरन् सदा से ही या अनादिकाल से ही संयुक्त हो रहे हैं इसलिए उनके संयुक्त होने का क्या कारण है-यह प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता क्योंकि कोई ऐसा समय नहीं था, जिसमें वे आत्मा जो अब संयुक्त है, संयुक्त ही नहीं थे अर्थात् सदा से ही संयुक्त थे आत्मा का वास्तविक स्वरूप एक ही है, चाहे वह पुद्गल से मिला हुआ हो, चाहे शुद्ध हो परन्तु आत्मा जड़ वस्तु से सूक्ष्म भौतिक शक्तियों के रूप में मिला हुआ है इसलिए इनसे आत्मा में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न होते हैं और ये विकारी कषायभाव भले और बुरे कृत्रिम कर्मों के निमित्त-कारण बनकर एक प्रकार के हेतु या साधन हैं जिनके द्वारा इसी प्रकार के नये पदार्थ या कर्मों के परमाणु आत्मा में आकर मिल जाते हैं। यह जड़ वस्तु जो आत्मा में आकर मिल जाती है, एक प्रकार की संचित या एकत्रित शक्ति बन जाती है, जो किसी न किसी समय कर्मोयुक्त या उदय के सन्मुख होकर आत्मा में किसी प्रकार का सुख या दु:ख उत्पन्न करेगी। इस प्रकार अपनी सारी शक्ति व्यय करने के अनन्तर यह जड़ वस्तु (कर्म) आत्मा से अलग हो जाती है परन्तु जैसा पहले वर्णन किया गया है, जब तक इसका उदय रहता है, यह एक साधन है, जिसके द्वारा इसी प्रकार की नई वस्तुएँ (कर्म) आत्मा में आकर मिलती रहती हैं और निरन्तर ऐसा ही होता रहता है। फिर अन्त में जब आत्मा अपने स्वरूप को पहचान लेता है तो इन विदेशी या बाह्य शक्तियों (कर्मों) की निर्जरा होती जाती है और उसी प्रकार की और नई शक्तियाँ (कर्म) उत्पन्न नहीं होतीं। जब एक बार ये बाह्य शक्तियाँ (कर्म) आत्मा से अलग हो जातीं हैं तब आत्मा शुद्ध हो जाता है और फिर अपवित्र नहीं होता, वह अपनी दैवीय सम्पत्ति या परमात्मत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार अब हमने देख लिया है कि परमात्मा में कर्ता और शास्ता का गुण आरोपण करने से उसके इतर वास्तविक या नैसर्गिक गुणों में हानि आये बिना नहीं रही। इसके सिवाय और भी कुछ बातें विचार योग्य हैं।
इस संसार का एक कर्ता और एक शास्ता अवश्य होना चाहिए इस विश्वास के समर्थन में एक बड़ा हेतु यह दिया जाता है कि देखो सृष्टि की रचना में रचनात्मक क्रम, कौशल और व्यवस्था पाई जाती है उसमें सौंदर्य या चारुता भी विद्यमान है और इन दोनों बातों से यह पाया जाता है कि इस जगत् का निर्माता कोई बुद्धिमान पुरुष है अर्थात् ऐसी सुन्दर और यथाक्रम सृष्टि की रचना के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। प्रथम तो यह कहना ठीक नहीं है कि संसार में केवल सौंदर्य और क्रम ही दिख पड़ते हैं, उसमें अक्रम और कुरूपताएँ भी हैं। यदि यह कहा जाये कि परमात्मा किसी लाभदायक या हितकारी उद्देश्य से ही आँधियाँ, भूकम्प और रोगों को भेजता है तो फिर यह स्पष्ट है कि इस बात के मानने से दयालुता या सर्वशक्तिमत्ता के गुण में हानि आती है क्योंकि यदि परमात्मा दयालु और सर्वशक्तिमान होता तो इस प्रकार की पीड़ायें और क्लेश होने ही न देता ।
पुन: यह कहना एक बड़े साहस का कार्य है कि सारे जगत् के विस्तार या प्रपंच का कारण जिसमें भौतिक वस्तुयें कुर्सी और मेज भी शामिल है, केवलज्ञान ही है और कुछ नहीं। एक ऐसा कार्य जिसमें ज्ञान और जड़ता (अज्ञानता) दोनों मिली हुई हों, उसकी उत्पत्ति भी निरे ज्ञान से ही होनी नहीं कही जा सकती। इसके सिवाय क्रम और व्यवस्था भी निरे ज्ञान से ही उत्पन्न नहीं होती क्योंकि अचेत्ान या जड़ कुर्सी मेज की अपेक्षा ज्ञानी जीव का एक क्रम से न चलना अधिक सम्भव है अथवा जड़ वस्तुयें तो अपने स्थिर स्वभाव के अनुसार निरन्तर एक विशेष क्रम से चलती चलेंगी, जब तक कि कोई बाह्य कारण उनका क्रम न बदल दे ।
चेतन कारण एक ही प्रकार का है और अचेतन कारण पाँच प्रकार के हैं । ये छहों सत्तायें या विद्यमान वस्तुयें मिलकर अर्थात् ये छह वस्तुयें (षट् द्रव्य) इनकी अनेक पर्यायें और इनके गुण और स्वभाव जगत् के कर्ता है। चेतन का स्वभाव जानना है। पाँच अज्ञ या ज़ड़-पुद्गल, आकाश, काल और दो वस्तुयें और हैं, जिनसे ठहरने वाली वस्तु ठहरती हैं और चलने वाली वस्तुएँ चलती हैं।
जैनधर्म यह नहीं मानता कि इन छह द्रव्यों से किसी विशेष काल में जगत् की उत्पत्ति हुई थी । ये द्रव्य कारण विद्यमान हैं, सदा से विद्यमान रहे हैं और सदा विद्यमान रहेंगे। इन द्रव्यों की परिवर्तनशील दशायें या पर्यायों और परस्पर समाघात ही के कारण सृष्टि का वर्तमान रूप है । किसी घटना में सदा दो कारण होते हैं-एक उपादान कारण और दूसरा सहकारी या निमित्त कारण । यथा-‘आग’ निमित्त कारण है जिससे जल उबलने लगता है और जल उबलने की घटना का उपादान कारण है ।
ऊपर लिखे हुए छह द्रव्य या सत्ताओं (जीव या आत्मा, आकाश, काल, पुद्गल और दो जिन्हें धर्म और अधर्म कहते हैं) में प्रत्येक द्रव्य में उपादान और निमित्त कारण दोनों हैं । प्रत्येक का व्यापार औरों पर, औरों का व्यापार उस पर होता है । प्रत्येक में उत्पाद (उत्पन्न होने) व्यय (नाश होने) और ध्रौव्य (ध्रुव या स्थिर रहने की) शक्ति है । इस शक्ति को ‘‘सत्ता’’ कहते हैं। यह सत्ता कोई भिन्न अस्तित्व वाला द्रव्य नहीं है, जो इन छह द्रव्यों से बाहर हो। यह शक्ति इन्हीं छह द्रव्यों में विद्यमान या उपस्थित है और इनसे अवियोज्य है अर्थात् इनसे इस शक्ति को भिन्न नहीं किया जा सकता। इस जगत् से भिन्न कोई ऐसा एक व्यक्ति नहीं है जो जगत् की रचयिता (कर्ता) और शास्ता हो; किन्तु यह छह द्रव्यों में से प्रत्येक के गुण हैं, कोई चेतन या अचेतन सत्ता या पुरुष नहीं है । इससे यह सिद्ध हुआ कि वस्तुओं को उत्पन्न और नाश करने वाली शक्ति ऊपर लिखे हुए छह द्रव्यों से बाहर और इस जगत् से भिन्न नहीं हैं, यह शक्ति वस्तुओं के भीतर ही अनुगत या उपस्थित है और दोनों में अर्थात् चेतन और अचेतन पदार्थों में पायी जाती है। जैनधर्म में इस शक्ति को ईश्वर या परमात्मा नहीं कहते। यह जैन सिद्धान्त है और सर्वथा युक्तिसिद्ध है ।
एक बात यह भी विचारने योग्य है कि क्या कर्ता में श्रद्धा रखने से मनुष्य को धर्मशील बनने और मोक्ष प्राप्त करने में सहायता मिलती है ? वास्तव में कर्ता या स्रष्टा की पूजा करने से यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य धर्मशील बन जाये तथा मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर ले, जो इस जीवन की पराकाष्ठा या इस जीवन का परम उद्देश्य है । धर्मशील बनने या धार्मिक चारित्र प्राप्त करने के ये पाँच मूल सिद्धान्त हैं जो कि इतर धर्मों को भी मान्य हैं-
१. अहिंसा अर्थात् किसी प्राणी को न मारना, न दुःख देना, या आप जीते रहना और इतर जीवों को भी जीता रहने देना।
२. झूठ न बोलना अर्थात् सत्य भाषण करना या सत्यवादी होना ।
३. अस्तेय या चोरी न करना अपितु अर्थशुचि या ऋजुतापरायण रहना ।
४. व्यभिचार न करना अपितु जितेन्द्रिय रहना और कामवासना को दमन करना ।
५. अपरिग्रह अर्थात् सांसारिक विषयों का त्याग कर विरक्त रहना ।
ऐसे ईश्वर में जो इस सृष्टि का कर्ता माना गया है श्रद्धा रखने से लोग यह सोचने लगते हैं कि ‘ईश्वर’ ने सारी वस्तुओं को मनुष्य के उपयोग के लिए उत्पन्न किया है और यह सोचकर मनुष्य मांस खाने और मदिरापान करने में निरर्गलता से रुचि करने लगता है। ऐसे मनुष्य ऊपर लिखे हुए पहले, चौथे और पाँचवें सिद्धान्त पर प्राय: नहीं चलते और इन तीन सिद्धान्तों का उल्लंघन करने से वह बहुधा शेष दो सिद्धान्त अर्थात् सत्य और अस्तेय का भी उल्लंघन करते हैं । पुन: बहुत से धर्मों में यह माना है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए कषायों और कामनाओं का दमन करना और संसार से सम्बन्ध दूर करना अर्थात् विरक्त या निर्मोही होना आवश्यक है और जो लोग ईश्वर को स्रष्टा मानतें हैं वे इस प्रकार वाद-विवाद करते हैं कि जब ईश्वर ने मनुष्य को ये कषाय या कामनायें दी हैं, तो मनुष्य को इनके दमन करने का क्यों यत्न करना चाहिए ? और जब ईश्वर ने ही मनुष्यों को संसार में भेजा है तो फिर मनुष्य को संसार से क्यों सम्बन्ध तोड़ना चाहिए या विरक्ति और निर्मोही जीवन क्यों व्यतीत करना चाहिए ? इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि ईश्वर को कर्त्ता मानकर उसकी पूजा करने से यह आवश्यक नहीं कि धार्मिक जीवन या मोक्ष प्राप्त हो। इस प्रकार यह एक और युक्ति है जिसके कारण जैनधर्मानुयायी ईश्वर में कर्ता होने का गुण नहीं मानते अपितु ईश्वर को एक शुद्ध और सम्पूर्ण आत्मा, सर्वज्ञ, आनन्दमय, सर्वशक्तिमान और शाश्वत (अनादि और अनन्त) मानते हैं। वह ऐसा आत्मा है जो इतर वस्तुओं या प्राणियों को न तो उत्पन्न करता है और न उन्हें उनके कर्मों का बुरा या भला फल देता है ।
कर्तावादी कभी-कभी एक और हेतु देते हैं। वह हेतु दण्ड और पारितोषिक के विषय में है। वे कहते हैं कि इस संसार में जहाँ न्यायाधीश या मज्िास्ट्रेट नहीं है, वहाँ अपराधियों और पापाचारियों को दण्ड नहीं मिलता। इसी प्रकार जब तक इस जगत् का कोई शास्ता या नियन्ता न हो तो आत्मा को उसके भले और बुरे कर्मों का शरीर छोड़ने के पीछे दण्ड नहीं मिल सकता। इसके उत्तर में पहले तो यह स्मरण रखना चाहिए कि अपराधियों को सदा न्यायाधीश दण्ड नहीं देता अपितु किसी और प्रकार से भी उन्हें दण्ड मिल जाता है। वे किसी आकस्मिक दुर्घटना के कारण मर जाते हैं, यथा-सेंध लगाते समय खिड़की से गिर कर या रोगग्रस्त होकर इत्यादि। दूसरे यह भी याद रखना चाहिए कि न्यायाधीश कभी-कभी निरपराधी मनुष्यों को कारागार में भेज देते हैं और जो सचमुच अपराधी है वह छूट जाता है इसलिए यह नहीं कह सकते कि न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट ही प्रत्येक को पारितोषिक और दण्ड देने वाले हैं, इसके अतिरिक्त किसी और कारण का होना भी आवश्यक है । जैनधर्म के अनुसार इस पारितोषिक और दण्ड देने का कारण कर्म है। कर्म में यह शक्ति है कि अपने उचित समय में कर्म करने वाले पुरुष या प्राणी के शरीर में एक कार्य उत्पन्न करे और ये सारी बातें जिन्हें दुर्घटना और रोग कहते हैं। न्यायकारियों के व्यापार, व्यवहार आदि केवल निमित्तकारण हैं जिनके द्वारा कार्य उत्पन्न होता या किया जाता है इसलिए परमात्मा के यत्न करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्योंकि पारितोषिक या दण्ड कार्य की आकृति में कारण-कार्यभाव से आप ही आप मिलते रहते हैं। वह कारण जैसा कि ऊपर बताया गया है कर्म है। कर्म एक सर्वथा सत्य वस्तु है परन्तु वह जड़ वस्तु है। वह एक सूक्ष्म पुद्गल है जिसे शरीर कई बाह्य विकारों के हेतु से अपनी ओर खींच लेता है। बाह्य विकार काम, क्रोध, माया, लोभ, मोह, अहंकार और मिथ्यात्वरूप हैं जो एक प्रकार के अन्य कर्म हैं।
फिर यदि कोई यह पूछे कि ईश्वर हमारा कर्ता नहीं है, यदि वह हमें अच्छे और बुरे कर्मों का फल नहीं देता, यदि वह मानवजाति के लिए कोई लाभदायक कार्य नहीं करता और न मनुष्य के व्यापारों में व्यापार करता है (अर्थात् न मनुष्य के कामों में दखल देता है) तो फिर ऐसे देव या परमात्मा के पूजन से क्या लाभ हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि ऐसे सच्चिदानन्द देव के पूजन करने से जैसे कोई मनुष्य पराक्रम शूरवीरों की पूजा करता है और उनके गुणों पर ध्यान देने से वे ही गुण हम में आ जाते हैं या यह कहो कि उन्हीं गुणों का हममें प्रकट होना सम्भव हो जाता है, यदि हम उसका शुद्ध हृदय और सच्चे भाव से मनन करें। यह एक नियम है कि जैसी वस्तुओं का मनुष्य विचार करता है उसके विचार वैसे ही हो जाते हैं या उन्हीं वस्तुओं का सा रूप ग्रहण कर लेते हैं। परमात्मा के गुणों पर विचार करने से मनुष्य की दशा सुधर जाती है। उसकी आध्यात्मिक प्रकृति उन्नति करने लगती है और अन्त में वह उस पदवी को पहुँच जाता है जहाँ वह यह यथार्थतया समझने लगता है कि परमात्मा के गुण उसके गुण भी हैं। जो गुण मनुष्य के भीतर छुपे हुए हैं परन्तु सांसारिक राग और द्वेष से ये दैवीय गुण मनुष्य में अव्यक्त हैं अर्थात् इन गुणों पर राग और द्वेष का आवरण (परदा) पड़ा हुआ है। इससे सिद्ध है कि यद्यपि बाह्य देव या परमात्मा किसी मनुष्य को कोई वस्तु नहीं देता और न किसी से कुछ लेता है; तथापि परमात्मा की पूजा एक निमित्त है, जिससे मनुष्य की आध्यात्मिक प्रकृति उत्पन्न हो सकती है और इसलिए इस उद्देश्य से परमात्मा का पूजन अतीव लाभदायक है।
एक और प्रश्न यह पूछा जा सकता है कि यदि ईश्वर जगत् का कर्ता और शास्ता नहीं है और न वह जगत् के कामों में दखल देता है तो उसे सर्वशक्तिमान कैसे कह सकते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें विचारने योग्य हैं-प्रथम यह कि जिस राजा ने अपने शत्रुओं को लड़ाई में जीत लिया है और उसमें इतनी सामर्थ्य है कि फिर शत्रु उसे सता नहीं सकते, उस राजा को शक्तिमान कहते हैं । मनुष्य के लिए उसके कषायों या विषयों से बढ़कर और कोई प्रबल शत्रु नहीं है। जिसने अपने कषायों या इन्द्रियों को सर्वथा वश में कर लिया कि फिर वे कषाय या इन्द्रियाँ उसे दुख न दे सकें तो वह मनुष्य अतीव शक्तिमान है और उसे सर्वशक्तिमान कह सकते हैं। दूसरी बात विचारने योग्य यह है कि वस्तुत: शक्ति क्या है ? सच पूछो तो किसी वस्तु का स्वभाव ही इसकी शक्ति है। आत्मा का अति आवश्यक स्वभाव जानना और अनन्त ज्ञान है और यही उसकी शक्ति है और जब ज्ञान शक्ति है तो अनन्त ज्ञान रहने से उसमें अनन्त शक्ति आ जाती है।
इस प्रकार हमने देख लिया है कि यद्यपि जैनधर्म में परमात्मा को जगत् का कर्ता और शास्ता नहीं मानते तथापि जैनधर्म में परमात्मा को मानते हैं और यह भी कहते हैं कि उसकी पूजा करनी योग्य है। यह सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर को कर्ता मानने से उसे मूर्ख या दुर्बल मानना पड़ता है। जगत् में प्रबन्ध और क्रम के होने से जैनधर्म के अनुसार जो सर्वोत्तम देव या ईश्वर माना गया है उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं आता और यह भी सिद्ध हो गया है कि ईश्वर को कर्त्ता मानना धार्मिक और दैवीय जीवन व्यतीत करने के लिए अनावश्यक ही नहीं है अपितु इस प्रकार की श्रद्धा रखने से अवश्य कई प्रकार के नीचभाव या कषायभाव मन में उत्पन्न होते और बढ़ते हैं। यथा-मांसभक्षण, सुरापान और काम-भोग इस हेतु से कि व्ाâर्त्ता ने इन पदार्थों को अपने जीवों के उपकार के लिए भेजा या बनाया है । इस प्रकार परमात्मा का लक्षण वर्णन करने में जैन मतानुयायी जगत् के कर्त्ता और शास्ता के गुण उसमें नहीं मानते ।
आत्मा के पर्यायगत विकास की परिपूर्णता को ही जैनदर्शन में परमात्मा या ईश्वर माना गया है तथा इस विकास की चौदह श्रेणियाँ मानी हैं, जिन्हें जैनदर्शन में ‘चौदह गुणस्थान’ कहा गया है। इतना स्पष्ट एवं वैज्ञानिक चिन्तन व निरूपण होने के बाद भी यह भ्रामक कथन क्यों प्रसारित किया जाता है कि जैनधर्म नास्तिक है ?
वस्तुत: बात यह है कि जैनदर्शन में परमात्मा या ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ परमपूज्य ‘सत्ता’ तो मानी गयी है किन्तु उसे सांसारिक किसी भी पदार्थ या कार्य का कर्त्ता नहीं माना गया प्रत्युत निस्पृह एवं तटस्थ ज्ञाता (सर्वज्ञ) माना गया है। अब जो लोग ईश्वर का अर्थ ‘सांसारिक कार्यों एवं समस्त चराचर पदार्थों के कर्त्ता’ के रूप में लेते हैं, उनके प्रâेम में जैनाभिमत ईश्वर का स्वरूप फिट नहीं बैठता है अत: वे कहते हैं कि जैनदर्शन ईश्वर को नहीं मानता है, किसी भी प्रपंच में रुचि न लेकर तटस्थ ज्ञाता-दृष्टामात्र स्वरूप वाला ईश्वर शायद उन्हें पसन्द नहीं आया होगा। उन्होंने सोचा कि भला जो न हमारा कुछ भला कर सके, न हमारे शत्रु का कुछ बिगाड़ सके, न पूजा से प्रसन्न हो और न निंदा से खेदखिन्न या कुपित-भला ऐसे ईश्वर से हमें क्या फायदा ? उन्हें तो ऐसा ही ईश्वर चाहिए था, जो भक्तों की पुकार पर दौड़ा चला आये और उनके कष्टों का निवारण करें। यह सब कुछ जैनाभिमत ईश्वर में था नहीं अत: उन्होंने उसे ईश्वर मानने से ही इंकार कर दिया और जैनों को ‘अनीश्वरवादी नास्तिक’ कह दिया। अस्तु, ईश्वर के वास्तविक आदर्श स्वरूप एवं जैनदर्शन की ईश्वरविषयक दृष्टि का संक्षेपत: अनुशीलन यहाँ प्रस्तुत है।
वैदिक दर्शनों में समस्त सांसारिक सुख-दु:ख का हेतु ईश्वर को माना गया है-
काल स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनि: पुरुषै इति चिन्त्या।
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीश: सुख-दु:ख-हेतो:।।
अर्थ-काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा (कर्म) और पुरुषार्थ-ये पाँचों महाभूत जीवों के सुख-दु:ख के कारण हैं-ऐसा विज्ञपुरुषों के द्वारा विचार किया गया (तो स्पष्ट हुआ कि) इन ‘काल’ आदि का समुदाय भी इस जगत् का कारण नहीं हो सकता है और न ही अनीश (संसारी) आत्मा को इस सुख-दु:ख का कारण कहा जा सकता है। केवल ‘ईश्वर’ ही इस सुख-दु:ख का हेतु है।
इससे ठीक विपरीत जैन मान्यता है-
‘‘कालो-सहाव-णियई-पुव्वकयं-पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेव दु समाओ होंति सम्मत्तं।।’’
अर्थ-(प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में) काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म) एवं पुरुषार्थ ये पाँच (समवाय) कारण नियम से होते हैं। इन्हें जो पृथक्-पृथक् रूप से स्वतंत्र कारण मानता है, तो वह मान्यता मिथ्यात्व है और समग्ररूप से कार्य के प्रति इनकी जैनदर्शन सांसारिक कार्यों एवं सुख-दु:ख आदि में उपर्युक्त पाँच समवायों की समग्रता को कारण मानना सम्यक्त्व है। जैनदर्शन में इन ‘काल’ आदि पाँच समवायों की कारणता अनेकत्र स्वीकार की गई है। यथा-
कालवाद
‘कालो सव्वं जणयदि, कालो सव्वं विणस्सदे भूदं।
जागत्ति हि सुत्तेसु वि, ण सक्कदे वञ्चिदुं कालो।।’
अर्थ-काल ही सबको उत्पन्न करता है, काल ही सबका नाश करता है, सोते हुए प्राणियों को काल ही जगाता है, सो ऐसे काल को ठगने में कौन समर्थ हो सकता है ? इस प्रकार काल से ही सब कार्य मानना कालवाद कहलाता है।
स्वभाववाद
‘को करदि कंटयाणं, तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं।
विविहत्तं तु सहाओ, इति सव्वं पि सहाओत्ति।।’
अर्थ-काँटों को तीक्ष्ण किसने बनाया ? मृग, पशु-पक्षी नाना प्रकार के किसने बनाये ? इनका उत्तर है-स्वभाव से ही ऐसा है। उनमें अन्य कोई कारण नहीं है, ऐसा मानना ‘स्वभाववाद’ है।
नियतिवाद
‘जत्तु जदा जेण जहा, जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा।
तेण तहा तस्स हवे, इदि वादो णियदिवादो दु।।’
अर्थ-जो, जब, जिसके द्वारा, जैसे, जिसका नियम से होने वाला है, वह उसी काल में, उसी के द्वारा, उसी रूप से नियम से उसका होता है, ऐसा मानना ‘नियतिवाद’ है।
दैववाद
‘दइवमेव परं मण्णे, धिप्पउरूसमणत्थयं।
एसो साल समुत्तुंगो, कण्णो हण्णादि संगरे।।’
अर्थ-मैं दैव-भाग्य को सर्वोत्कृष्ट मानता हूँ। पौैरुष निरर्थक है, उसे धिक्कार है। देखो, सालवृक्ष की तरह ऊँचा कर्ण महाभारत के युद्ध में मारा गया, यह दैववाद है।
पुरुषार्थवाद
‘आलसड्ढो णिरुच्छाहो, फलं किंचि ण भुंजदे।
थणक्खीरादिपाणं वा, पउरूसेण विणा ण हि।।’
अर्थ-जो आलस्य से भरपूर है, जिसे कुछ भी करने का उत्साह नहीं है, वह कुछ भी फल भोगने में समर्थ नहीं है। बिना पौरुष के माता के स्तन का दूध भी नहीं पिया जा सकता है। पौरुष से ही कार्य की सिद्धि होती है, यह ‘पौरुषवाद’ है।
तथापि जो ईश्वरकर्तृत्ववादी ऐसा मानते हैं कि-
‘अण्णाणी हु अणीसो, अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च।
सग्गं णिरयं गमणं, सव्वं ईसरकदं होदि।।’
अर्थ-आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है, उस आत्मा का सुख, दु:ख, स्वर्ग तथा नरक में गमनादि सब ईश्वरकृत है-इस प्रकार ईश्वर का किया सर्व कार्य मानना ईश्वरवाद है। ईश्वर जगत् कर्त्ता है इसलिए सब प्राणियों के कर्म (पाप-पुण्य) अनुसार दण्ड देता है। कर्मों के अनुसार फल देता है, ताे ईश्वर की विशेषता क्या रही। वस्तुत:-
‘ये तु कर्तारमात्मानं पश्यंति तमसा तता:।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुताम्।।
अर्थ-जो अज्ञानान्धकार के कारण अपने को जगत् (के पदार्थों एवं कार्यों) का कर्त्ता मानते हैं, वे कितनी ही मोक्ष की इच्छा करें परन्तु सामान्य अज्ञानियों की भांति उसकी भी मुक्ति कदापि संभव नहीं है।
जैनदर्शन इन काल आदि पंच समवायों की कारणता स्वीकार करता है, न कि ईश्वर की। ईश्वर के बारे में जैनाचार्य लिखते हैं कि-
‘‘भगवान् आत्मा तु नित्यमेवानाकुलस्वभावभावेनाकार्यकारणात्वाद् दु:खस्याकारणमेव।’’
अर्थ-भगवान् आत्मा तो सदा ही निराकुल स्वभाव वाला है अत: उसके किसी का कार्य-कारणपना संभव ही नहीं है। इसलिए वह सांसारिक सुख-दु:ख का भी कारण नहीं है।
जैनों की इस मान्यता से प्रभावित होकर ईसा पूर्व के महान् दार्शनिक विद्वान् एरिस्टॉरल (अरस्तू) ने लिखा है-
God in no sense is the creator of the universe. All imperishable things are actual, Sun, Moon, while visible heaven is always active they will never stop. If we attribute these gifts to God, we shall make him either an incompetent Judge or an unjust one and it is alien to his nature. The happiness which God enjoys is as great as that which we can enjoy, sometimes it is marvellous.
अर्थ-अरस्तू कहते हैं-ईश्वर किसी भी दृष्टि से विश्व का निर्माता नहीं हैं। सब अविनाशी पदार्थ पारमार्थिक हैं। सूर्य, चन्द्र तथा दृश्यमान आकाश सब सक्रिय हैं। ऐसा कभी नहीं होगा कि उनकी गति अवरुद्ध हो जाय। यदि हम उन्हें परमात्मा के द्वारा प्रदत्त पुरस्कार मानें, तो हम उन्हें अयोग्य न्यायाधीश अथवा अन्यायी न्यायकर्त्ता बना डालेंगे। यह बात परमात्मा के स्वभाव से विरुद्ध है। जिस आनन्द की अनुभूति परमात्मा को होती है, वह इतना महान् है कि हम उसका कभी रसास्वाद कर सकते हैं। वह आनन्द आश्चर्यप्रद है।
वे आगे कहते हैं कि-ईश्वर अशरीरी है इसलिए वेदना, क्षुधा, तृष्णा, इच्छा आदि ईश्वर में नहीं हैं। ईश्वर शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान ही ईश्वर की क्रिया है (राग-द्वेष करना नहीं)।’’
इस वाक्य की जैनाभिमत ईश्वर के स्वरूप से तुलना करें-
‘‘क्षुत्पिपासाजरातज्र्-जन्मान्तक भयस्मया:।
न राग-द्वेष-मोहाश्च यस्याप्त: स प्रकीर्त्यते।।’’
अर्थ-जिसके क्षुधा-पिपासा-बुढ़ापा-आतंक-जन्म एवं मृत्यु का भय, स्मय (आश्चर्य) एवं राग-द्वेष आदि न हों, उसे ही ‘ईश्वर’ (आप्त) कहा गया है।
संभवत: इसीलिए प्रख्यात समालोचक विद्वान् बाबू गुलाबराय ने स्वीकार किया कि-‘‘अरस्तू का ईश्वर जैनों के ईश्वर से मिलता है।’’
प्रख्यात विद्वान् श्री परिपूर्णानन्द जी ने भी स्वीकार किया है कि ‘‘जैनियों का निरीश्वरवाद (जगत्सृष्टारूप ईश्वर को न मानना) इतना उदार तथा व्यापक है कि हमारे जैसे अजैनी तथा ईश्वरवादी के लिए वह ईश्वरवाद ही है।…..जैनी निरीश्वरवाद इतना तर्कपूर्ण है कि उसका सहसा खण्डन करना कठिन है और ईश्वर भक्त के लिए जैनी ‘वीतराग’ मूर्तिमान् मिलते हैं।’’
ईश्वर को क्या संज्ञा दें ?-इस बारे में जैनियों की दृष्टि कभी संकुचित नहीं रही। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-
‘‘णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्णू विण्हू चदुमुहो बुद्धो।
अप्पा वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होदि फुंड।।’’
अर्थ-ज्ञानी-शिव-परमेष्ठी-सर्वज्ञ-विष्णु-चतुर्मुख (ब्रह्मा)-बुद्ध-आत्मा और परमात्मा (कुछ भी कहो किन्तु वह ईश्वर) स्पष्ट ही-निश्चय ही कर्मों से विमुक्त होता है।
परमात्मा या ईश्वर के विषय में प्रात: स्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने जब यह कहा कि वह (परमात्मा या ईश्वर) न तो कार्य है और न कारण है तब बौद्धों के असंस्कृत परिनिर्वाण, वेदान्तियों के ब्रह्मभाव, सांख्यों के कूटस्थ नित्य पुरुषमुक्तस्वरूप की कल्पनाओं का समन्वय उन्होंने कर दिया। साथ ही तत्कालीन परस्पर विरोधी दलों का सुन्दर ढंग से वर्णन करके परमात्मा के स्वरूपवर्णन के बहाने से उनका समन्वय भी कर दिया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनों ने आत्मिक विकास की चरमावस्था को परमात्मा या ईश्वर के रूप में माना है अत: जैन निरीश्वरवादी कदापि नहीं कहे जा सकते हैं। हाँ इतना अवश्य है कि उनका ईश्वर आत्मध्यान में निरन्तर लीन रहते हुए अपने स्वपर प्रकाशक सर्वदर्शी ज्ञान के द्वारा विश्व में घटित हो रहे प्रत्येक घटनाक्रम को प्रत्यक्ष जानता हुआ भी उससे नितान्त अलिप्त रहता हुआ निजानन्द में मग्न रहता है। जैनों की इस मान्यता का प्रभावक्षेत्र महान् ग्रंथ ‘गीता’ पर भी प्रतीत होता है, जिसमें कहा गया है कि-
‘‘न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्ततं।।’’
अर्थ-ईश्वर के न तो जगत्कर्तृत्व है और न जगत् उसका कर्म है।
इससे जैनों के ‘अनीश्वरवाद’ एवं एतन्निमित्तक ‘नास्तिकता’ का भली भांति परिहार हो जाता है तथा जैनदर्शन एक ऐसे ईश्वरवादी आस्तिक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित होता है, जिसके ईश्वर पर पक्षपात, हित-अहित या अन्य किसी भी प्रकार के सांसारिक लांछन लागू नहीं होते। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होते हुए भी राग-द्वेष से रहित होने के कारण उसकी परमानन्दमयता भी अखंडित रहती है और इसीलिए जैनों ने ऐसे ईश्वर की सविनय स्तुति की है-
‘‘सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रसलीन।
सो जिनेन्द्र जयवन्त नित अरि-रज-रहस विहीन।।’’
जैन को नास्तिक भाखे कौन ?
परम धरम जो दया अहिंसा सोई आचरत जौन।
सत कर्मन को फल नित मानत अति-विवेक के भौन।
तिनके मतहि विरुद्ध कहत जो महामूढ़ है तौन।
सब पहुँचत एकहि थल चाहौ करौ जौन पथ गौन।
इन ऑखिन-सौं तो सबही थल सूझत गोपी-रौन।
कौन ठाम जहां प्यारो नाहीं भूमि-अनल-जल-पौन।
‘हरीचंद’ ए मतवारे तुम रहत न क्यों गहि मौन।।१।।
बात कोउ मूरख की यह मानो।
हाथी मारै तौहू नाहीं जिनमंदिर में जानो।
जग में तेरे बिना और है दूजो कौन ठिकानो।
जहाँ लखो तहँ रूप तुम्हारो नैनन-माँहि समानो।
एक प्रेम है एकहि प्रन है हमरो एकहि बानो।
‘हरीचंद’ तब जग में दूजो भाव कहाँ प्रगटानो।।२।।
जैनधर्म में प्रगट कियो तुम दया-धर्म सगरो।
‘हरीचंद’ तुमको बिनु पाए लरि-लरि जगत मरो।।३।।
अर्थ-श्री भारतेन्दु जी कहते हैं-जैन को नास्तिक कौन कहता है ? जो जैन अहिंसामयी परमधर्म को आचरण करते हैं, जो दयामयी है और जो सदा ही विवेक के स्थान रहे हैं तथा सत्कर्मों के फल को मानते हैं-ऐसे जैनियों के श्रेष्ठधर्म को जो विरुद्ध (नास्तिक) मानते हैं, वे लोग महामूढ़ हैं। चाहे धर्म के किसी भी अंग को अपनाये, सब एक ही स्थान पर पहुँचते हैं। इन आँखों से अर्थात् विवेक-दृष्टि से (पक्षपातरहित दृष्टि से) तो सभी स्थानों पर परम-आत्मा (गोपी-वल्लभ) दिखाई देता है। ऐसा कौन सा स्थान है-चाहे वह अग्नि-जल-पवन ही क्यों न हो, जहाँ परम-आत्मा (की दृष्टि) नहीं है ? (यदि तुम ऐसी निर्मल बुद्धि नहीं रखते) तो हे मतवालों! (अज्ञान-मोहदशा से व्याप्त) तुम सब मौन क्यों नहीं रहते ? अर्थात् तुम्हें मौन रखना चाहिए।
‘हाथी मारता हो तो भी (बचने के भाव से) जिनमंदिर की शरण में मत जाओ-यह बात किसी मूर्ख की है। जगत् में तेरे बिना मेरा और दूसरा कोई ठिकाना नहीं है। जहाँ भी देखता हूँ, इन आँखों में आपका रूप ही समाया हुआ है। एक ही प्रेम है, एक ही प्रण है और हमारा एक वेश है। हरिश्चन्द्र कहते हैं-जग में दूसरा भाव कहाँ प्रकट हुआ है, एक ही सत् प्रकट है।
हे परम आत्मा! तुमने सम्पूर्ण दया धर्म को जैनधर्म में प्रकट किया है, तुम्हें बिना प्राप्त किये अर्थात् तुम्हें बिना समझे यह संसार परस्पर में लड़-लड़कर मर रहा है।