आर्य सभ्यता के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो एक तथ्य प्रकट होता है कि वैचारिक प्रतिद्वंद की स्थिति प्राचीन काल से है। भारत भूमि दो प्रमुख प्रतिद्वंदी विचार-धाराओं या संस्कृतियों की संगम-स्थली रही है। ये संस्कृतियाँ हैं-श्रमण (जैन) संस्कृति और वैदिक संस्कृति ।
हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की सभ्यता के अवशेषों से यह सिद्ध हो गया है कि इस सभ्यता के निर्माता लोग जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के पूजक, वीतराग धर्म के अनुयायी तथा यौगिक ध्यानादि क्रियाओं द्वारा आत्म-साधना के उपासक थे। इस संस्कृति के समानान्तर दूसरी संस्कृति थी-वैदिक संस्कृति। वेद में स्थान-स्थान पर वैदिक देवताओं के प्रति की गई प्रार्थनाओं से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इस संस्कृति के लोग भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए देव-शक्तियों पर आश्रित रहने वाले थे। इनके द्वारा यज्ञ में पशुबलि दी जाती थी, इनका जीवन संघर्षमय व असुरक्षा की भावना से ग्रस्त था, अपने दैनिक जीवन में और शत्रुओं के प्रति व्यवहार में, ये पूर्णत: अहिंसक नहीं कहे जा सकते थे। कहीं-कहीं तो इनकी क्रूरता के उदाहरण भी दृष्टिगोचर होते हैं।
ठीक इसके विपरीत, देश में पर्यटनशील ‘व्रात्य’ लोगों की परम्परा विद्यमान थी, जो व्रतनिष्ठ एवं अहिंसा धर्म के आराधक थे, जिनका विश्वास आत्म-कल्याण व आत्म-शुद्धि में था। यह परम्परा भी बहुत, सम्भवत: सिन्धु घाटी की सभ्यता के निर्माताओं की तरह, श्रमण संस्कृति की अनुयायी थी।
जैन संस्कृति के तीर्थकरों की परम्परा ने भारतीय समाज को समय-समय पर जो सद्ज्ञान दिया, उसका प्रभाव यह हुआ है कि वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा धर्म को बहुमान मिलता गया। वीतराग धर्म के प्रति वैदिक संस्कृति के अनुयायी भी आकृष्ट हुए। सम्भवत: प्रारम्भ में मन अनुयायियों के प्रति वैदिक संस्कृति के लोगों के मन में अनादर का भाव रहा है किन्तु कालान्तर में समन्वय का रास्ता अपनाकर उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया गया । दोनों ही संस्कृतियों में परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान बढ़ता रहा। फलस्वरूप व्यवहारिक जीवन के आचार-विचारों की दृष्टि से दोनों संस्कृतियों में मौलिक फर्क कर पाना प्राय: मुश्किल हो जाता है। अहिंसा परम धर्म है, राग-द्वेषादि सांसारिक दुःख के हेतु हैं, मनोविकारों पर विजय तथा शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धि से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इत्यादि बातें दोनों संस्कृतियों में लगभग समान आदर व दृढ़ता के साथ स्वीकारी गई और यही कारण है कि उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि वैदिक संस्कृति के परवर्ती आदरणीय ग्रन्थों में जैन संस्कृति के स्वर स्थल-स्थल पर ढूँढे जा सकते हैं।
अपने उच्च आदर्शों के कारण जैन (श्रमण) संस्कृति भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई । यही कारण है कि वैदिक धर्म की अपेक्षा पुरुषार्थ-कर्तव्यता के रूप में जैन धर्म को अधिक आदरणीय स्थान मिला, जिसका प्रमाण निम्नलिखित पद्य है-
श्रोतव्य: सौगतो धर्म:, कर्तव्य: पुनरार्हत:।
वैदिको व्यवहर्तव्य:, ध्यातव्य: परम: शिव:।।१।।
यहाँ तक कि भगवान् राम को भी एक वैदिक संस्कृति के ग्रन्थ में शांति-प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र की आत्म-साधना का अनुकरण करने की भावना प्रकट करते हुए वर्णित किया गया है-
नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मन:।
शांतिमासितुमिच्छामि, स्वात्मनीव जिनो यथा।।
वैदिक संस्कृति का प्रारम्भ में लक्ष्य जिस स्वर्ग की प्राप्ति थी, उस स्वर्ग का वातावरण भौतिक समृद्धि, कामसुख, भोग-लिप्सा का प्रतीक होते हुए भी, वासना- अतृप्ति, अशांति तथा विनश्वरता से मुक्त नहीं समझा गया और परवर्ती काल में वैदिक संस्कृति का लक्ष्य स्वर्ग के स्थान पर पुण्य-पाप से परे की मुक्त स्थिति हो गया। इसी तरह यज्ञ का स्वरूप क्रमश: अहिंसक होता गया और ‘द्रव्य यज्ञ’ की अपेक्षा ‘ज्ञान यज्ञ’ को प्रमुखता मिल गई । यह सब जैन संस्कृति का वैदिक संस्कृति पर प्रभाव ही था।
किन्तु दोनों संस्कृतियों में मूलभूत अन्तर समाप्त हो गया हो ऐसी बात नहीं, संक्षेप में वह अन्तर मूलत: दो बातों में हैं-जहाँ वैदिक संस्कृति ईश्वर या किसी अलौकिक शक्तिधारी व्यक्ति को इस जगत् का कर्ता, हर्ता व नियन्ता मानती है, वहाँ जैन संस्कृति ईश्वर का अस्तित्व मानती हुई भी, ईश्वर के सृष्टिकर्तापन का निषेध करती है और जगत् के मूलभूत दो तत्त्वों जीव व अजीव में अन्तर्निहित स्वभाव-भूत शक्ति से ही जगत् का नियमन स्वीकारती है।
भगवान महावीर ने जगत् को अनेकान्तदृष्टि दी और अहिंसा को व्यवहारिक जगत् के साथ-साथ वैचारिक जगत् में भी प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार एक ओर परस्पर मैत्री पर आधारित समाज की रचना तो प्रस्तुत हुई ही, साथ ही दूसरी ओर विविध वैचारिक दृष्टिकोणों को परस्पर अविरोधपूर्वक फलने-फूलने का वातावरण तैयार हुआ। फलस्वरूप भारतवर्ष बौद्धिक व वैचारिक उत्कर्ष लिए बंजर-भूमि न बन कर सर्वदा उर्वर-भूमि बना चला आ रहा है।
जैनधर्म ऐसा नहीं है कि जिसका व्यवहार या आचरण सम्भव न हो बल्कि वह तो आत्मा का स्वाभाविकरूप है। वह ‘धर्म’ धार्मिक बाह्य क्रियाकाण्डों की अपेक्षा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति में निहित है और वह स्वाभाविक स्थिति उसकी वीतरागता, समता भाव है। वीतराग स्थिति में पहुँच कर आत्मा स्वयं धर्म का रूप बन जाता है। संक्षेप में धर्म ‘करने’ की वस्तु नहीं, बल्कि ‘जीने’ की वस्तु है। धर्म किया नहीं जाता है, वह साधक की स्वाभाविक क्रिया बन जाए, इसी के लिए साधक प्रयत्नशील रहता है। दूसरे शब्दों में, धर्म ऊपर से या बाहर से थोपे जाने वाली चीज नहीं, वह तो स्वयं से उद्भूत होने वाली स्थिति है। चारित्र को आत्मा से जोड़ने से तात्पर्य यह भी है कि धर्म बाहर-भीतर एक है, चिन्तन, वचन और आचार में एकरूपता आवश्यक है।
जैनधर्म या साधना का आचरण स्वाभाविकरूप से ही किया जाना चाहिए अर्थात् क्षेत्र और काल को तथा साधक की शक्ति को ध्यान में रखकर धर्म-अधर्म के व्यवहार-पक्ष का मान-दण्ड नियत किया जाना उचित है। अन्यथा ‘धर्म’ किसी व्यक्ति के लिए अस्वाभाविक भी हो सकता है। बालक, वृद्ध, स्वस्थ, रोगी-इन विविध अवस्थाओं में धर्म का एक स्वरूप निर्धारित नहीं किया जा सकता। किन्तु सभी प्रकार के साधकों को अंत में पहुँचना एक ही स्थिति में है, ऐसी स्थिति जहाँ धर्म और साधक दोनों एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं इसलिए अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने से पूर्व की सारी स्थितियाँ साधन मात्र हैं, साध्य नहीं।
हिंसा का हेतु हिंसा करने वाले व्यक्ति के मन में बैठा द्वेष और अज्ञान (मोह) है। हिंसा की क्रिया द्विविध रूप से होती है। स्व-हिंसा और परहिंसा। हिंसा का विचार उठते ही हिंसक व्यक्ति की आत्मा स्वरूपच्युत हो जाती है और वह स्वयं का वध कर लेता है, इसके अनन्तर ‘पर-जीव’ के प्राणों का घात होता है। कभी-कभी हिंसा का विचार मन में उठकर रह जाता है या पर-जीव की हिंसा का प्रयास सफल नहीं हो पाता, ऐसी स्थिति में भले ही व्यवहारिक रूप में हिंसा न दिखाई पड़े पर वैचारिक दृष्टि से हिंसक व्यक्ति के आत्मा की हिंसा तो हो ही गई और हिंसा का फल उस व्यक्ति को मिलेगा ही।
इस प्रकार हिंसा के दो भेद हैं-अन्तरंग हिंसा और बहिरंग हिंसा। अशुद्धोपयोग अन्तरंग हिंसा और पर-जीव का प्राणोच्छेद बहिरंग हिंसा है किन्तु बहिरंग हिंसा के कर्म का बन्धकारक होना या न होना अन्तरंग हिंसा पर निर्भर है। अन्तरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा का कुफल व्यक्ति को नहीं भोगना पड़ेगा इसीलिए कहा गया कि यत्नपूर्वक (समिति) आचरण करने वाले साधक को व्यवहारिक हिंसा के होने पर भी बन्ध नहीं होता, जबकि यत्नपूर्वक आचरण न करने वाले को बाह्य हिंसा न होने पर भी, स्वात्म-घात का दोष लगेगा ही। अंतरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा स्वत: अप्रतिष्ठित हो जाएगी।
विश्व परिवर्तनशील है। सृष्टि में उत्पादन-अनुत्पादन, उत्थान-पतन, समता-विषमता आदि प्राकृतिक तथा बाह्य कारणों के माध्यम से सदाकाल लक्षित होते हैं। जिस प्रकार अणु-परमाणुओं के विभिन्न अवयवों के स्वाभाविक रूप से मिलने और बिछुड़ने से विभिन्न आकार देखे जाते हैं उसी प्रकार से इस दृश्यमान जगत् का चक्र चलता ही रहता है ।
जीव-जगत् की आत्माओं और परमात्माओं की विभिन्न स्थितियों को समझने के लिए समय-समय पर संसार के प्रत्येक कोने में चिन्तन, मनन, शोध और खोज होती रही है और संसार के वैज्ञानिक आज भी इसी अन्वेषण में संलग्न हैं। इस प्रकार ज्ञान-विज्ञान का न केवल जन्म हुआ अपितु इसका संशोधन व संवर्धन भी हुआ। सभ्यता के आदिम युग में मनुष्य के व्यवहार के लिए उपयोगी वस्तुओं की उपयोगिता का विचार किया गया था । जैन आगम तथा पुराणों के अनुसार मुख्य रूप से दो प्रकार की सृष्टि मानी गई है-भोगसृष्टि और कर्मसृष्टि अर्थात् भोगभूमि एवं कर्मभूमि। तीनों लोकों के प्राणियों को अपने भावों, परिणामों और कर्मों का सृजन स्वयं ही करना पड़ता है। इसी का नाम सृष्टि है। यदि ऐसा सृजन न हो तो सृष्टि की क्या आवश्यकता है ? मनुष्य या जगत् का प्राणी जैसा भाव या कर्म करता है उसी के अनुसार वह स्वयं फल प्राप्त करता है। सृष्टि की यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसमें किसी का भी कोई हस्तक्षेप नहीं है। जैनागम तो क्या, अजैनागम भी इस तथ्य को स्वीकार करता है। तेजोबिन्दूपनिषद् में स्पष्ट कहा है-‘‘ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है।” उपर्युक्त कथन के बावजूद भी उसे प्राकृतिक परिवर्तन न मानना आश्चर्य का विषय है। प्राणी अपने भावों का वेदन अपने ही मन-बुद्धि-बल के अनुसार करता है। इस भौतिक जगत् में प्राकृतिक साधनों के उपयोग और विकास में विभिन्न प्राणी किस सीमा तक और किस रूप में सहायक हैं, मुख्य रूप से इसका ही अध्ययन प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलता है।
मनुष्य के जीवन में भोग अनिवार्य है। यद्यपि मनुष्य विवेकशील प्राणी है, वह समझ सकता है कि भोग-उपभोग अपने चरम सत्य की प्राप्ति में बाधक है किन्तु संसारी जीव के सुख की भांति दुःख, ज्ञान की भांति अज्ञान और समता की भांति विषमता उसके जीवन के अनिवार्य अंग बन गये हैं। अर्थ अर्थात् धन उन सभी साधनों की प्राप्ति का माध्यम है जिनसे वह अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। यद्यपि अर्थ का तात्पर्य आत्मा भी होता है किन्तु सामान्य लोक केवल धन के रूप में ही जानता है। जैन जगत् में भी शरीर और आत्मा की पृथकता का सन्देश-निर्देश-आदेश होते हुए भी वह उस ओर से न केवल विमुख है बल्कि एकत्च की भावना के साथ अर्थोपार्जन-परिवर्धन-संरक्षण में सतत संलग्न है। अर्थ साध्य बन गया है, उसके साधन की कल्पना भी पाश्चात्य जगत् की भांति दुरूह है। यही कारण है कि वह भोग-उपभोग की वस्तुओं को प्राप्त कर, सुख और सन्तोष का अनुभव करता है।
जिस युग में मुद्रा का प्रचलन नहीं था उस युग में विनिमय के जितने साधन थे या हो सकते थे वे सभी अदल-बदल की पद्धति में समाहित थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुद्रा के प्रचलन के साथ ही लेन-देन करने में बहुत सरलता हो गई और तब से दिनोंदिन आर्थिक विकास के साधन बढ़ते ही गये किन्तु भोगसृष्टि के समय मनुष्य जितना सुखी था उसकी आज हम कल्पना नहीं कर सकते। सभ्यता के आदिम युग में भोगों की प्रधानता थी किन्तु उनका उत्पादन-विनिमय-वितरण आदि नहीं था किन्तु कर्मयुग का प्रारम्भ होते ही विभिन्न सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक आदि व्यवस्थायें पनपती गईं। समय के साथ-साथ उस युग में समस्यायें भी उद्भूत हुईं और उनके समाधान तत्कालीन महापुरुषों ने प्रदान किये। जैनागमों में उन्हें तीर्थंकर, मनु और कुलकरों के नाम से जाना जाता है।
जैनधर्म में तीर्थंकरों की परम्परा अत्यधिक प्राचीन है। अनादिनिधन दृश्यमान इस जगत् का स्वाभाविकरूपेण गतिशील कालचक्र पतन से अभ्युदय की ओर उत्सर्पिणी युग और अभ्युदय से पतन की ओर अवसर्पिणी युग में घूमता रहता है। प्रत्येक कर्मयुग में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं। इस प्रकार अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं और आगे भी होंगे।
जिस मार्ग द्वारा संसार सागर पार किया जाता है, वह तीर्थ है अत: जो मार्गरूप तीर्थ का निर्दोष प्रवर्तन करे वह तीर्थंकर कहलाता है। ये ईर्ष्या-पक्षपात से रहित, सर्वज्ञ, हितोपदेशी और मोक्षमार्ग के नेता होते हैं। जगत् में फैली भ्रान्तियों, रूढ़ियों और विकृतियों को दूरकर शाश्वत सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रतिपादित करते हैं। वर्तमान युग पतनशीलयुग अर्थात् अवसर्पिणी युग है और वह भी हुण्डावसर्पिणी, जिसमें अनेक असामान्य बातें भी घटित होती हैं; जैसे तीर्थंकर के पुत्री जन्म, चक्रवर्ती का मानभंग आदि। इस हुण्डावसर्पिणी की वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थंकर की परम्परा में आदि अर्थात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर महावीर हुए। तीर्थंकर ऋषभदेव ने काल परिवर्तन से उत्पन्न अनेकों समस्याओं का समाधान किया, षट्कर्म की शिक्षा देकर आर्थिक क्रियाओं को बढ़ावा दिया और अन्त में आत्मविद्या का नेतृत्त्व भी किया । इस प्रकार जैनधर्म की स्थापना अनादिकालीन होते हुए भी इस कर्मयुग में महावीर से न होकर ऋषभदेव से हुई-ऐसा जानना चाहिए। डॉ. एस. राधाकृष्णन ने लिखा है-‘‘जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है जो अनेक शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं कि ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी । यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख है। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे। डॉ. यदुनाथ सिन्हा का कथन है-‘‘जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।” श्री देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय के अनुसार भी महावीर जैनधर्म के प्रवर्तक न थे बल्कि एक के बाद दूसरे आने वाले चौबीस उपदेष्टाओं में जिन्हें तीर्थंकर नाम दिया गया, अन्तिम थे।” इस प्रकार नई खोजों ने प्रमाणित कर दिया कि जैनधर्म एक स्वतंत्र एवं अत्यन्त प्राचीन धर्म है।
वैदिक वाङ्मय में भी ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है। ऋग्देव की एक ऋचा ‘‘ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्’’ में ऋषभदेव का उल्लेख है और उसमें केशी एवं वातरशना मुनियों की स्तुति से सम्बन्धित ऋचाएँ भी हैं। भागवतपुराण में ऋषभदेव की वृत्ति से भी सिद्ध होता है कि वे केशी अर्थात् अवधूत के रूप में विचरण करते थे। पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण में भी ऋषभदेव की जटाओं का उल्लेख है अत: उनका केशी नाम सार्थक है।
डॉ. हीरालाल जैन ने लिखा है-‘‘इस प्रकार ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों का निर्ग्रन्थ साधु तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनि का ऋषभदेव के साथ एकीकरण हो जाने से जैनधर्म की प्राचीन परम्परा पर बड़ा महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।” यजुर्वेद की ‘‘स्तोकानामिन्दुं प्रतिशुर इन्द्रो वृषायमाष्टो वृषभस्तुरावाट्’’ तथा ‘‘महत्वन्तं वृषभं..” ‘‘एवं मरुत्वां इन्द्र वृषभो रणाय…” ऋचाओं में भी ऋषभदेव का उल्लेख है। उनका चिन्ह वृषभ होने से कहीं-कहीं पर उन्हें वृषभदेव शब्द से भी सम्बोधित किया गया है। अथर्ववेद में आया है कि सम्पूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसक वृत्तियों के प्रथम राजा आदित्य स्वरूप ऋषभदेव हैं। श्रीमद्भागवत में विष्णु के चौबीस अवतारों में एक ऋषभावतार भी बतलाया गया है। मार्कण्डेयपुराण में लिखा है कि आग्नीध्र के पुत्र से ऋषभ और उनसे भरत का जन्म हुआ जो अपने सौ भाइयों में अग्रज थे। कर्मपुराण में महात्मा नाभि एवं मरुदेवी के पुत्र को क्रान्तिकारी बतलाया गया है। वायुपुराण एवं वाराहपुराण में ऋषभदेव का वर्णन अनेक स्थलों पर पाया जाता है। विष्णुपुराण में नाभिपुत्र ऋषभ के प्रताप का वर्णन है। लिंगपुराण में नाभिपुत्र ऋषभ को नग्न, जटारहित, निराकार तथा मलिन बताया गया है। शिवपुराण में भी नाभिपुत्र ऋषभ तथा इनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का ‘‘भारत” नामकरण करने का उल्लेख है। इस प्रकार वैदिक वाङ्मय से भी ऋषभदेव की ऐतिहासिकता सिद्ध है जिन्होंने अपने राज्यकाल में अनेक आर्थिक सिद्धान्तोें का प्रतिपादन किया था।
सिन्धुघाटी में प्राप्त मोहरों पर अंकित देवमूर्तियों के साथ बैल तथा कायोत्सर्ग मुद्रा जैनधर्म के साथ ऋषभदेव की ऐतिहासिकता को प्रगट करती है क्योंकि कायोत्सर्ग ध्यानमुद्रा विशिष्टतया जैनों की देन है। प्रो. एस. श्रीकण्ठशास्त्री का कहना है-‘‘दिगम्बर धर्म, योगमार्ग, वृषभ आदि लांछनों की पूजा आदि बातों के कारण प्राचीन सिन्धु-सभ्यता जैनधर्म के साथ अद्भुत सादृश्य रखती है।’’ डॉ. एन. एन. वसु का मत है कि ‘‘लेखनकला का प्रथम आविष्कार कदाचित् ऋषभदेव ने किया था। प्रतीत होता है कि ब्रह्मविद्या के प्रचार के लिए उन्होंने ब्राह्मीलिपि का आविष्कार किया था।’’
इस प्रकार पुरातत्त्व की दृष्टि से भी प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्राचीनता व ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। उन्हें हुए करोड़ों वर्ष हो गये हैं। उस युग के प्रमाण तो अब अनुपलब्ध हैं क्योंकि अर्वाचीन इतिहास अभी पाँच हजार साल पीछे तक ही पहुँच पाया है किन्तु उपर्युक्त प्रमाणों से तीर्थंकर परम्परा सिद्ध होती है। जैनागमों के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम ऋषभदेव इस अवसर्पिणी युग के तृतीय भाग के अन्त में हुए तथा उन्होंने ही षट्कर्मों की व्यवहारिक शिक्षा देकर आधुनिक मानव सभ्यता का निर्माण किया था।