कर्म शब्द के अनेक अर्थ है यथा – कर्मकारक, क्रिया तथा जीव के साथ बन्धने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कन्ध । कर्मकारक जगत, प्रसिद्ध है, क्रियाएं समवदान व अध:कर्म आदि के भेद से अनेक प्रकार है । कार्मण पुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषाय के निमित्त से आठ कर्म रूप, सातकर्मरूप और छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है । अध:कर्म में औदारिक शरीर के नोकर्मस्कन्धों की द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन्हीं शरीरों में स्थित परमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है । परन्तु तीसरे प्रकार का कर्म अप्रसिद्ध है । केवल जैन सिद्धान्त ही उसका विशेष प्रकार से निरूपण करता है । वास्तव में कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है । जीव का कर्म के साथ अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है जीव, मन, वचन, काय के द्वारा कुछ न कुछ करता है यह सब उसकी क्रिया या कर्म है और मन, वचन, व काय उसके द्वार है । इसे जीवकर्म या भावकर्म कहते हैं । यहां तक तो सबको स्वीकार है परन्तु इस भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुदगल स्कन्ध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते है और उसके साथ बंधते है यह बात केवल जैनागम ही बताता है । ये सूक्ष्म स्कन्ध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते है और रूप रसादिधारक मूर्तिक होते है जैसे -२ कर्म जीव करता है वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्यकर्म उसके साथ बंधते है और कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते है । उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोभूत हो जाते है यही उनका फलदान कहा जाता है । सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं है ।
सामान्य लक्षण में जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं ।