(कल्पद्रुम का तात्पर्य है इच्छित वस्तु का प्रदायक)
जैनागम में श्रावक के षटआवश्यक कत्र्तव्यों का वर्णन करते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा कि ‘दाणं पूजा मुक्खो सावय धम्मो ण सावया तेण विणा अर्थात् श्रावक के धर्म में दान और पूजा ये दो क्रियाएं मुख्य है इनके बिना श्रावक नहीं हो सकता । इसमें पूजा के पांच भेद है – नित्यमह, आष्टान्हिक, इन्द्रध्वज, चतुर्मुख और कल्पद्रुम । अपनी शक्ति के अनुसार जिनप्रतिमा-जिनमंदिर आदि का निर्माण कराना, मंदिर की पूजा व्यवस्था के लिए जमीन देना, धन आदि दान मंदिर में देना, त्रिकाल में जिनदेव की आराधना करना, अपने घर के चैत्यालय में पूजा करना और भक्तिपूर्वक प्रतिदिन मुनियों को दान देना नित्यहमह पूजा है । नन्दीश्वर पर्व में की गयी पूजा आष्टान्हिक पूजा है । इन्द्र आदिको के द्वारा विशेष रूप से की गयी पूजा इन्द्रध्वज है । मुकुटबद्ध मण्डलेश्वर राजाओं द्वारा की गयी पूजा चतुर्मुख या सर्वतोभद्र पूजा है तथा कल्पद्रुम पूजा वह पांचवी पूजा है जिसमें चक्रवर्ती किमिच्छक दान देकर सभी की इच्छा पूर्ण कर देते हैं अर्थात् तुम्हें क्या इच्छा है, तुम्हें क्या इच्छा है ऐसा सभी की इच्छा को पूर्ण करते हुए दान देकर जो जिनेन्द्र देव की महान पूजा करते हैं जो कि अपने कल्पद्रुम नाम को सार्थक करती है ।
२ जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माता जी द्वारा रचित २०० से अधिक ग्रन्थों की शृंखला में पूजा विधान की एक अनुपम कृति ।