आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहते है यद्यपि क्रोध ये चार ही कषाय जगप्रसिद्ध है पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकार की कषायों का निर्देश आगम में मिलता है । हास्य, रति, अरति, शोक, भय,ग्लानि व मैथुन भाव से नोकषाय कही जाती है क्योंकि कषयवत् व्यक्त नहीं होती । इन सबको ही राग व द्वेष में गर्भित किया जाता है । आत्मा स्वरूप का घात करने के कारण कषाय ही िंहसा है और मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है ।
एक दूसरी दृष्टि से कषायों का निर्देश मिलता है वह चार प्रकार है – अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन । ये भेद विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा से किये गये है और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है इसलिए इन चारों के क्रोधादि के भेद से चार चार भेद करके कुल १६ भेद कर दिये हैं यहां क्रोधादि की तीव्रता मन्दता से इनका सम्बन्ध न होकर आसक्ति की तीव्रता मन्दता से है । कषायों की शक्ति अचिन्त्य है कभी -२ तीव्र कषायवश आत्मा के प्रदेश शरीर से निकलकर अपने वैरी का घात तक कर आते हैं इसे कषाय समुद्घात कहते है । अत: इनका त्याग करना श्रेयस्कर है अनन्तानुबन्धी आदि चार कषायों के कार्य का वर्णन करते हुए गोम्मटसार कर्मकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कहा –
पढमादिया कसाया सम्मतं देससयलचारित्तं ।
जहरवादं घाटंति य गुणणामा होंति सेवावि ।।
अर्थात् – पहली अनन्तानुबन्धी आदिक अर्थात् अनन्तानुबन्धी,अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये चार कषाय क्रम से सम्यक्तव को , देशचारित्र को, सकलचारित्र को और यथाख्यात चारित्र को घावती है उन्हें प्रगट नहीं होने देती । इसी कारण इनके नाम भी वैसे ही है जैसे कि इनमें गुण है ।