इस जम्बूद्वीप के अतिशय प्रसिद्ध पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर ‘वत्स’ नाम का विशाल देश है। उसके सुसीमा नामक नगर में विमलवाहन राजा राज्य करते थे। किसी समय राज्यलक्ष्मी से निस्पृह होकर राजा विमलवाहन ने अनेकों राजाओं के साथ गुरू के समीप में दीक्षा धारण कर ली। ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त कर दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करके तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। आयु के अन्त में समाधिमरण करके विजय नामक अनुत्तर विमान में तेतीस सागर आयु के धारक अहमिंद्र हो गये।
पंचकल्याणक वैभव-इन महाभाग के स्वर्ग से पृथ्वीतल पर अवतार लेने के छह माह पूर्व से ही प्रतिदिन जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी के अधिपति इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्रीय राजा जितशत्रु के घर में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। ज्येष्ठ मास की अमावस के दिन विजयसेना ने सोलह स्वप्नपूर्वक भगवान को गर्भ में धारण किया और माघ शुक्ल दशमी के दिन अजितनाथ तीर्थंकर को जन्म दिया। देवों ने ऋषभदेव के समान इनके भी गर्भ, जन्मकल्याणक महोत्सव मनाये। अजितनाथ की आयु बहत्तर लाख पूर्व की, शरीर की ऊँचाई चार सौ पचास धनुष की और वर्ण सुवर्ण सदृश था। एक लाख पूर्व कम अपनी आयु के तीन भाग तथा एक पूर्वांग तक उन्होंने राज्य किया। किसी समय भगवान महल की छत पर सुख से विराजमान थे, तब उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य हो गया पुन: देवों द्वारा आनीत ‘सुप्रभा’ पालकी पर आरूढ़ होकर माघ शुक्ल नवमी के दिन सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे एक हजार राजाओं के साथ बेला का नियम लेकर दीक्षित हो गये।
प्रथम पारणा में साकेत नगरी के ब्रह्म राजा ने पायस (खीर) का आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये।
बारह वर्ष की छद्मस्थ अवस्था के बाद पौष शुक्ल एकादशी के दिन सायं के समय रोहिणी नक्षत्र में सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ हो गये। इनके समवसरण में सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे। एक लाख मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियाँ थीं। भगवान बहुत काल तक आर्यखंड में विहार करके भव्यों को उपदेश देकर अंत में सम्मेदाचल पर पहुँचे और एक मास का योग निरोध कर चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन प्रात:काल के समय सर्व कर्म से छूटकर सिद्ध पद प्राप्त किया।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर एक ‘कच्छ’ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में राजा विमलवाहन राज्य करते थे। एक दिन उन्होंने किसी कारण से विरक्त होकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों को पढ़कर उन्हीं भगवान के चरण सान्निध्य में सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। संन्यासविधि से मरण कर प्रथम ग्रैवेयक के सुदर्शन विमान में तेतीस सागर आयु वाले अहमिन्द्र देव हो गए।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की ‘श्रावस्ती’ नगरी के राजा दृढ़राज इक्ष्वाकुवंशीय, काश्यपगोत्रीय थे। उनकी रानी का नाम सुषेणा था। फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन, मृगशिरा नक्षत्र में रानी ने पूर्वोक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया और कार्तिक शुक्ला पौर्णमासी के दिन मृगशिरा नक्षत्र में तीन ज्ञानधारी पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र ने पूर्वोक्त विधि से गर्भकल्याणक मनाया था, उस समय जन्मोत्सव करके ‘संभवनाथ’ यह नाम रखा। इनकी आयु साठ लाख पूर्व की तथा ऊँचाई चार सौ धनुष थी। भगवान को राज्यसुख का अनुभव करते हुए जब चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वांग व्यतीत हो चुके, तब किसी दिन मेघों का विभ्रम देखने से उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया। तब भगवान देवों द्वारा लाई गई ‘सिद्धार्था’ पालकी में बैठकर सहेतुक वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे जाकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। भगवान की प्रथम पारणा का लाभ श्रावस्ती के राजा सुरेन्द्रदत्त ने प्राप्त किया था। संभवनाथ भगवान चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मौन से तपश्चरण करते हुए दीक्षा वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्णा चतुर्थी के दिन मृगशिर नक्षत्र में अनन्तचतुष्टय को प्राप्त कर केवली हो गये। इनके समवसरण में चारुषेण आदि एक सौ पाँच गणधर थे, दो लाख मुनि, धर्मार्या आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अन्त में जब आयु का एक माह अवशिष्ट रहा तब उन्होंने सम्मेदाचल पर जाकर एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया तथा चैत्रमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन सूर्यास्त के समय मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया। देवों द्वारा किए गए पंचकल्याणक महोत्सव को पूर्ववत् समझना चाहिए।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक मंगलावती देश है उसके रत्नसंचय नगर में महाबल राजा रहता था। किसी दिन विरक्त होकर विमलवाहन गुरू के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंग का पठन करके सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन किया, तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके अन्त में समाधिमरणपूर्वक विजय नाम के अनुत्तर विमान में तेतीस सागर आयु वाला अहमिन्द्र देव हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अयोध्या नगरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्रीय ‘स्वयंवर’ नाम के राजा थे, उनकी ‘सिद्धार्था’ महारानी थीं। माता ने वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन उस अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया और माघ शुक्ला द्वादशी के दिन उत्तम पुत्र को उत्पन्न किया। सौधर्म इन्द्र ने देवों सहित मेरू पर्वत पर जन्ममहोत्सव मनाया और भगवान का ‘अभिनन्दननाथ’ नाम प्रसिद्ध करके वापस माता-पिता को सौंप गये। उनकी आयु पचास लाख पूर्व और ऊँचाई साढ़े तीन सौ धनुष की थी। कुमार काल के साढ़े बारह लाख पूर्व वर्ष बीत जाने पर राज्य पद को प्राप्त हुए, राज्य काल के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हो गये और आठ पूर्वांग शेष रहे तब वे एक दिन आकाश में मेघों का महल नष्ट होता देखकर विरक्त हो गये और देवनिर्मित ‘हस्तचित्रा’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर माघ शुक्ला द्वादशी के दिन बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण कर ली, उसी समय उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। पारणा के दिन साकेत नगरी के राजा इन्द्रदत्त ने भगवान को क्षीरान्न का आहार कराया और पंचाश्चर्य को प्राप्त किया।
छद्मस्थ अवस्था के अठारह वर्ष बीत जाने पर दीक्षा वन में असन वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए। पौष शुक्ल चतुर्दशी के दिन शाम के समय पुनर्वसु नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इनके समवसरण में वङ्कानाभि आदि एक सौ तीन गणधर, तीन लाख मुनि, मेरुषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच बारह सभा में बैठकर धर्मोपदेश श्रवण करते थे।
इन अभिनन्दननाथ भगवान ने अन्त में सम्मेदशिखर पर पहुँचकर एक महीने का प्रतिमायोग लेकर वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन प्रात:काल के समय अनेक मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया। इन्द्रों के द्वारा किये गये सारे वैभव यहाँ भी समझना चाहिए।
धातकीखंडद्वीप में मेरूपर्वत से पूर्व की ओर स्थित विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावती नाम का देश है। उसकी पुंडरीकिणी नगरी में रतिषेण नाम का राजा था। किसी दिन राजा ने विरक्त होकर अपना राज्य पुत्र को देकर अर्हन्नन्दन जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
पंचकल्याणक वैभव-वैजयन्त विमान से च्युत होकर वह अहमिन्द्र इसी भरतक्षेत्र के अयोध्यापति मेघरथ की रानी मंगलावती के गर्भ में आया, वह दिन श्रावण शुक्ला द्वितीया का था। तदनन्तर चैत्र माह की शुक्ला एकादशी के दिन माता ने सुमतिनाथ तीर्थंकर को जन्म दिया। वैशाख सुदी नवमी के दिन प्रात:काल सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। छद्मस्थ अवस्था में बीस वर्ष बिताकर सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त किया। इनकी सभा में एक सौ सोलह गणधर, तीन लाख बीस हजार मुनि, अनन्तमती आदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। अन्त में भगवान ने सम्मेदाचल पर पहुँचकर एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्त किया। सारे पंचकल्याणक महोत्सव आदि पूर्ववत् समझना ।
धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतानदी के दक्षिण तट पर वत्सदेश है। उसके सुसीमा नगर के अधिपति अपराजित थे। किसी दिन भोगों से विरक्त होकर पिहितास्रव जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर ली, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में धरण महाराज की सुसीमा रानी ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन उक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद उनका नाम ‘पद्मप्रभ’ रखा। किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया जिससे भगवान को वैराग्य हो गया। वे देवों द्वारा लाई गई ‘निवृत्ति’ नाम की पालकी पर बैठ मनोहर नाम के वन में गये और कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली। छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्यान्ह में केवलज्ञान प्रकट हो गया। बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त कर लिया।
धातकीखंड के पूर्व विदेह में सीतानदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का देश है, उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिषेण राजा राज्य करते थे। कदाचित् भोगों से विरक्त होकर नन्दिषेण राजा ने अर्हन्नन्दन गुरू के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन कर दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृित का बन्ध कर लिया। सन्यास से मरण कर मध्यम गै्रवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिन्द्र हो गये।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष सम्बन्धी काशीदेश में बनारस नाम की नगरी थी उसमें सुप्रतिष्ठित महाराज राज्य करते थे। उनकी पृथ्वीषेणा रानी के गर्भ में भगवान भाद्रपद शुक्ला षष्ठी के दिन आ गये। अनन्तर ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन उस अहमिन्द्र पुत्र को उत्पन्न किया। इन्द्र ने जन्मोत्सव के बाद सुपार्श्वनाथ नाम रखा। सभी तीर्थंकरों को अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देशसंयम हो जाता है। किसी समय भगवान ऋतु का परिवर्तन देखकर वैराग्य को प्राप्त हो गये। तत्क्षण देवों द्वारा लाई गई ‘मनोगति’ पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में जाकर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। सोमखेट नगर के महेन्द्रदत्त राजा ने भगवान को प्रथम आहारदान दिया। छद्मस्थ अवस्था के नौ वर्ष व्यतीत कर फाल्गुन कृष्णा षष्ठी के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। आयु अन्त के एक माह पहले सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का प्रतिमायोग लेकर फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्योदय के समय मोक्ष को चले गये।
इस मध्यलोक के पूर्व धातकीखंड द्वीप में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक मंगलावती नाम का देश है। इसके रत्नसंचय नगर में कनकप्रभ राजा राज्य करते थे, उनकी कनकमाला रानी थी। वह अच्युतेन्द्र वहाँ से आकर इन दोनों के पद्मनाभ नाम का पुण्यशाली पुत्र हुआ। किसी समय पद्मनाभ राजा श्रीधर मुनि के समीप धर्मोपदेश श्रवण कर दीक्षित हो गये, सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन कर ग्यारह अंग में पारंगत होकर सिंहनिष्क्रीडित आदि कठिन-कठिन तप करने लगे। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके आयु के अन्त में विधिवत् मरण करके वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हो गये। इनके श्रीवर्मा, श्रीधरदेव, अजितसेन चक्रवर्ती, अच्युतेन्द्र, पद्मनाभ, अहमिन्द्र, चन्द्रप्रभ भगवान ये सात भव प्रसिद्ध हैं।
पंचकल्याणक वैभव-अनन्तर जब इनकी छह माह की आयु बाकी रह गई, तब जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चन्द्रपुर नगर के महासेन राजा की लक्ष्मणा महादेवी के यहाँ रत्नों की वर्षा होने लगी। चैत्र कृष्णा पंचमी के दिन गर्भकल्याणक महोत्सव हुआ एवं पौष कृष्ण एकादशी के दिन भगवान चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ। किसी समय दर्पण में अपना मुख देख रहे थे कि भोगों से विरक्त होकर देवों द्वारा लाई गई ‘विमला’ नाम की पालकी पर बैठकर सर्वर्तुक वन में गये। वहाँ पौष कृष्णा एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। पारणा के दिन नलिन नामक नगर में सोमदत्त के यहाँ आहार हुआ था। तीन माह का छद्मस्थ काल व्यतीत कर भगवान दीक्षावन में नागवृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। ये चन्द्रप्रभ भगवान समस्त आर्य देशों में विहार कर धर्म की प्रवृत्ति करते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचे। एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय शुक्लध्यान के द्वारा सर्वकर्म को नष्ट कर सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व दिग्भाग में जो मेरू पर्वत है उसके पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावती नाम का एक देश है उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में महापद्म नाम का राजा राज्य करता था। किसी दिन भूतहित जिनराज की वंदना करके धर्मोपदेश सुनकर विरक्तमना राजा दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगरूपी समुद्र का पारगामी होकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया और समाधिमरण के प्रभाव से प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की काकन्दी नगरी में इक्ष्वाकुवंशीय काश्यप गोत्रीय सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा था, उनकी जयरामा नाम की पट्टरानी थी। उन्होंने फाल्गुन कृष्णा नवमी के दिन ‘प्राणतेन्द्र’ को गर्भ में धारण किया और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र ने बालक का नाम ‘पुष्पदन्त’ रखा। पुष्पदन्तनाथ राज्य करते हुए एक दिन उल्कापात से विरक्ति को प्राप्त हुए तभी लौकान्तिक देवों से स्तुत्य भगवान इन्द्र के द्वारा लाई गई ‘सूर्यप्रभा’ पालकी में बैठकर मगसिर सुदी प्रतिपदा को दीक्षित हो गये। शैलपुर नगर के पुष्पमित्र राजा ने भगवान को प्रथम आहारदान दिया था। छद्मस्थ अवस्था के चार वर्ष के बाद नागवृक्ष के नीचे विराजमान भगवान को कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन केवलज्ञान प्राप्त हो गया। आर्यदेश में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए भगवान अन्त में सम्मेदशिखर पहुँचकर भाद्रपद शुक्ला अष्टमी के दिन सर्व कर्म से मुक्ति को प्राप्त हो गए।
पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध भाग में मेरू पर्वत के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर ‘वत्स’ नाम का एक देश है, उसके सुसीमा नगर में पद्मगुल्म नाम का राजा रहता था। किसी समय बसन्त ऋतु की शोभा समाप्त होने के बाद राजा को वैराग्य हो गया और आनन्द नामक मुनिराज के पास दीक्षा लेकर विपाकसूत्र तक अंगों का अध्ययन किया, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके आरण नामक स्वर्ग में इन्द्र हो गया।
पंंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मलयदेश के भद्रपुर नगर का स्वामी दृढ़रथ राज्य करता था, उसकी महारानी का नाम सुनन्दा था। रानी सुनन्दा ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उस आरणेन्द्र को गर्भ में धारण किया एवं माघ शुक्ला द्वादशी के दिन भगवान शीतलनाथ को जन्म दिया। भगवान किसी समय वन विहार करते हुए क्षण भर में पाले के समूह (कुहरा) को नष्ट हुआ देखकर राज्यभार अपने पुत्र को सौंपकर देवों द्वारा लाई गई ‘शुक्रप्रभा’ नाम की पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में पहुँचे और माघ कृष्णा द्वादशी के दिन स्वयं दीक्षित हो गये। अरिष्ट नगर के पुनर्वसु राजा ने उन्हें प्रथम खीर का आहार दिया था। अनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन बेल वृक्ष के नीचे केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। अन्त में सम्मेदशिखर पहुँचकर एक माह का योग निरोध कर आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन कर्म शत्रुओं को नष्ट कर मुक्तिपद को प्राप्त हो गये।
पुष्करार्धद्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के सुकच्छा देश में सीता नदी के उत्तर तट पर क्षेमपुर नाम का नगर है। उसमें नलिनप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। एक समय सहस्राम्रवन में श्री अनन्त जिनेन्द्र पधारे। उनके धर्मोपदेश से विरक्तमना राजा बहुत से राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके समाधिमरणपूर्वक अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में अच्युत नाम का इन्द्र हुआ।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सिंहपुर नगर के स्वामी इक्ष्वाकुवंश से प्रसिद्ध ‘विष्णु’ नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी वल्लभा का नाम सुनन्दा था। ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में उस अच्युतेन्द्र ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। सुनन्दा ने नौ मास बिताकर फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन तीन ज्ञानधारी भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने जिन बालक का नाम ‘श्रेयांसनाथ’ रखा। किसी समय बसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर भगवान को वैराग्य हो गया, तदनन्तर देवों द्वारा उठाई जाने योग्य ‘विमलप्रभा’ पालकी पर विराजमान होकर मनोहर नामक उद्यान में पहुँचे और फाल्गुन शुक्ला एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। दूसरे दिन सिद्धार्थ नगर के नन्द राजा ने भगवान को खीर का आहार दिया। छद्मस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर मनोहर नामक उद्यान में तुंबुरू वृक्ष के नीचे माघ कृष्णा अमावस्या के दिन सायंकाल के समय भगवान को केवलज्ञान प्रगट हो गया। धर्म का उपदेश देते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचकर एक माह तक योग का निरोध करके श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन भगवान श्रेयांसनाथ नि:श्रेयस पद को प्राप्त हो गये।
पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरू की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती नाम का देश है। उसके अतिशय प्रसिद्ध रत्नपुर नगर में पद्मोत्तर नाम का राजा राज्य करता था। किसी दिन मनोहर नाम के पर्वत पर युगन्धर जिनेन्द्र विराजमान थे। पद्मोत्तर राजा वहाँ जाकर भक्ति, स्तोत्र, पूजा आदि करके अनुपे्रक्षाओं का चिन्तवन करते हुए दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं की सम्पत्ति से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर लिया जिससे महाशुक्र विमान में महाशुक्र नाम का इन्द्र हुआ।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चम्पानगर में ‘अंग’ नाम का देश है जिसका राजा वसुपूज्य था और रानी जयावती थी। आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन रानी ने पूर्वोक्त इन्द्र को गर्भ में धारण किया और फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी के दिन पुण्यशाली पुत्र को उत्पन्न किया। इन्द्र ने जन्म उत्सव करके पुत्र का ‘वासुपूज्य’ नाम रखा। जब कुमार काल के अठारह लाख वर्ष बीत गये, तब संसार से विरक्त होकर भगवान जगत के यथार्थस्वरूप का विचार करने लगे। तत्क्षण ही देवों का आगमन हो जाने पर देवों द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक उद्यान में गये और फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी के दिन छह सौ छिहत्तर राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर भगवान ने कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठकर माघ शुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। भगवान बहुत समय तक आर्यखंड में विहार कर चम्पानगरी में आकर एक वर्ष तक रहे। जब आयु में एक माह शेष रह गया, तब योग निरोध कर रजतमालिका नामक नदी के किनारे की भूमि पर वर्तमान चम्पापुरी नगरी में स्थित मन्दारगिरि के शिखर को सुशोभित करने वाले मनोहर उद्यान में पर्यंकासन से स्थित होकर भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन चौरानवे मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए।
पश्चिम धातकीखंड द्वीप में मेरू पर्वत से पश्चिम की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर रम्यकावती नाम का एक देश है। उसके महानगर में पद्मसेन राजा राज्य करता था। किसी एक दिन राजा पद्मसेन ने प्रीतिंकर वन में स्वर्गगुप्त केवली के समीप धर्म का स्वरूप जाना और यह भी जाना कि ‘मैं तीसरे भव में तीर्थंकर होऊँगा।’ उस समय उसने ऐसा उत्सव मनाया कि मानो मैं तीर्थंकर ही हो गया हूँ। अनन्तर सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। अन्त में सहस्रार स्वर्ग में सहस्रार इन्द्र हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी भरतक्षेत्र के कांपिल्य नगर में भगवान ऋषभदेव का वंशज कृतवर्मा नाम का राजा राज्य करता था। जयश्यामा उसकी प्रसिद्ध महादेवी थी। उसने ज्येष्ठ कृष्णा दशमी के दिन उस इन्द्र को गर्भ में धारण किया, माघ कृष्णा चतुर्थी के दिन जयश्यामा ने तीन लोक के गुरू भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने उनका नाम ‘विमलनाथ’ रखा।
एक दिन भगवान ने हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण में विलीन होते हुए देखा, जिससे उन्हें पूर्वजन्म का स्मरण हो गया। तत्क्षण ही भगवान विरक्त हो गये। तदनन्तर देवों द्वारा लाई गई ‘देवदत्ता’ पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में गये और स्वयं दीक्षित हो गये, उस दिन माघ शुक्ला चतुर्थी थी। जब तपश्चर्या करते हुए तीन वर्ष बीत गये, तब भगवान दीक्षावन में जामुन वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ होकर घातिया कर्मों का नाशकर माघ शुक्ला षष्ठी के दिन केवली हो गये। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का योग निरोध कर आठ हजार छह सौ मुनियों के साथ आषाढ़ कृष्णा अष्टमी के दिन सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
धातकीखंडद्वीप के पूर्व मेरू से उत्तर की ओर अरिष्टपुर नगर में पद्मरथ राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप जाकर वंदना-भक्ति आदि करके धर्मोपदेश सुना और विरक्त हो दीक्षा ले ली। ग्यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में सल्लेखना से मरण कर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्रपद प्राप्त किया।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भारत की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी सिंहसेन महाराज राज्य करते थे, उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन वह अच्युतेन्द्र रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। नव माह के बाद ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पुत्र उत्पन्न हुआ। इन्द्र ने पुत्र का नाम ‘अनन्तनाथ’ रखा। भगवान को राज्य करते हुए पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये, तब एक दिन उल्कापात देखकर भगवान विरक्त हो गये। भगवान देवों द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये तथा ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। छद्मस्थावस्था के दो वर्ष बीत जाने पर चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का योग निरोधकर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन परमपद को प्राप्त कर लिया।
पूर्व धातकीखंडद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है, उसमें सुसीमा नाम का महानगर है। वहाँ पर राजा दशरथ राज्य करता था। एक बार वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन सब लोग उत्सव मना रहे थे उसी समय चन्द्रग्रहण पड़ा देखकर राजा दशरथ का मन भोगों से विरक्त हो गया। उसने दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके अन्त में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर था उसमें कुरूवंशीय काश्यपगोत्रीय महाविभव सम्पन्न भानु महाराज राज्य करते थे उनकी रानी का नाम सुप्रभा था। रानी सुप्रभा के गर्भ में वह अहमिन्द्र वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन अवतीर्ण हुए और माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी ने भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने धर्मतीर्थ प्रवर्तक भगवान को ‘धर्मनाथ’ कहकर सम्बोधित किया था। किसी एक दिन उल्का के देखने से भगवान विरक्त हो गये और नागदत्ता नाम की पालकी में बैठकर शालवन के उद्यान में पहुँचे। माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर दीक्षावन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। आर्यखण्ड में सर्वत्र धर्मोपदेश देकर भगवान अन्त में सम्मेदशिखर पधारे और एक माह का योग निरोध कर आठ सौ नौ मुनियों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी के दिन मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त हुए।
इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है उसकी पुंडरीकिणी नगरी में राजा घनरथ राज्य करते थे, उनकी मनोहरा नाम की सुन्दर रानी थी। वङ्काायुध का जीव ग्रैवेयक से च्युत होकर उन्हीं दोनों के मेघरथ नाम का पुत्र हुआ। उसके जन्म के पहले गर्भाधान आदि क्रियाएँ हुई थीं। उन्हीं घनरथ राजा की मनोरमा नाम की दूसरी रानी से सहस्रायुध का जीव (अहमिन्द्र) दृढ़रथ नाम का पुत्र हो गया। राजा घनरथ ने तरुण होने पर मेघरथ का विवाह प्रियमित्रा और मनोरमा के साथ किया था और दृढ़रथ का विवाह सुमतिदेवी से किया था। इस प्रकार पुत्र-पौत्र आदि सुख के समस्त साधनों से युक्त राजा घनरथ सिंहासन पर बैठकर इन्द्र की लीला धारण कर रहे थे।
शान्तिनाथ का जन्म-कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर राजधानी में काश्यप गोत्रीय राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ऐरावती था। भगवान शान्तिनाथ के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही इन्द्र की आज्ञा से हस्तिनापुर नगर में माता के आँगन में रत्नों की वर्षा होने लगी और श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा में तत्पर हो गईं। भादों वदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रानी ने गर्भ धारण किया। उस समय स्वर्ग से देवों ने आकर तीर्थंकर महापुरुष का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की।
नव मास व्यतीत होने के बाद रानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन याम्ययोग में प्रात:काल के समय तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय चार प्रकार के देवों के यहाँ स्वयं ही बिना बजाये शंखनाद, भेरीनाद, सिंहनाद और घंटानाद होने लगे। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्राणी और असंख्य देवगणों सहित नगर में आया तथा भगवान को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक मनाया। अभिषेक के अनन्तर भगवान को अनेकों वस्त्रालंकारों से विभूषित करके उनका ‘शान्तिनाथ’ यह नाम रखा, इस प्रकार भगवान को हस्तिनापुर वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर पुनरपि आनन्द नामक नाटक करके अपने-अपने स्थान पर चले गये।
भगवान की आयु एक लाख वर्ष की थी। शरीर चालीस धनुष ऊँचा था। सुवर्ण के समान कांति थी। ध्वजा, तोरण, शंख, चक्र आदि एक हजार आठ शुभ चिन्ह उनके शरीर में थे। उन्हीं विश्वसेन की यशस्वती रानी के चक्रायुध नाम का एक पुत्र हुआ। देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान शान्तिनाथ अपने छोटे भाई चक्रायुध के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कान्ति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया।
इस तरह भगवान के जब कुमार काल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये, तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया। इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गईं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, सेनापति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और कन्या, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गईं थीं।
चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत् दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शान्तिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे, वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है ? इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चामरों को ढुराया करते थे। चक्रवर्तियों के साढ़े तीन करोड़ बन्धु कुल होते हैं। अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, तीन करोड़ उत्तम वीर, अनेकों करोड़ विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। छ्यानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौबीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब और अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं, इत्यादि अनेकों वैभव होते हैं।
चौदह रत्नों के नाम-अश्व, गज, गृहपति, स्थपति, सेनापति, स्त्री और पुरोहित ये सात जीवित रत्न हैं एवं छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं।
नवनिधियों के नाम-काल, महाकाल, पाण्डु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न ये नौ निधियाँ हैं। ये क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्यों, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हर्म्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हंै।
दशांग भोग-दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भोजन, भाजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं।
इस प्रकार संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियों से वेष्टित भगवान शान्तिनाथ चक्रवर्ती के साम्राज्य को प्राप्त कर दस प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए सुख से काल व्यतीत कर रहे थे। भगवान तीर्थंकर और चक्रवर्ती होने के साथ-साथ कामदेव पद के धारक भी थे।
भगवान का वैराग्य-जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष साम्राज्य पद में व्यतीत हो गये, तब एक समय अलंकारगृह के भीतर अलंकार धारण करते हुए उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिये। उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और पूर्वजन्म का स्मरण भी हो गया, तब भगवान संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप का विचार करते हुए विरक्त हो गये। उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर अनेकों स्तुतियों से पूजा-स्तुति की। अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्र सभी देवगणों के साथ उपस्थित हो गये। भगवान ने नारायण नाम के पुत्र का राज्याभिषेक करके सभी कुटुम्बियों को यथायोग्य उपदेश दिया।
भगवान का दीक्षा ग्रहण-अनन्तर इन्द्र ने भगवान का दीक्षाभिषेक करके ‘सर्वार्थसिद्धि’ नाम की पालकी में विराजमान करके हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्र वन में प्रवेश किया। उसी समय ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दाी के दिन भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर भगवान ने पंचमुष्टि लोंच करके ‘नम: सिद्धेभ्य:’ कहते हुए जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके ध्यान में स्थिर होते ही मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया।
भगवान का आहार-मन्दिरपुर के राजा सुमित्र ने भगवान शान्तिनाथ को खीर का आहार देकर पंचाश्चर्य वैभव को प्राप्त किया। इस प्रकार अनुक्रम से तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष व्यतीत हो गये।
भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-भगवान शान्तिनाथ सहस्राम्र वन में नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे पर्यंकासन से स्थित हो गये और पौष कृष्ण दशमी के दिन अन्तर्मुहूर्त में दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का नाश कर बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का सर्वथा अभाव करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञान से विभूषित हो गये और उन्हें एक समय में ही सम्पूर्ण लोकालोक स्पष्ट दीखने लगा। पहले भगवान ने चक्ररत्न से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर साम्राज्य पद प्राप्त किया था, अब भगवान ने ध्यानचक्र से विश्व में एकछत्र राज्य करने वाले मोहराज को जीतकर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी।
समवसरण में भव्यजीवों का प्रमाण-भगवान के समवसरण में चक्रायुध को आदि लेकर छत्तीस गणधर थे। बासठ हजार मुनिगण और साठ हजार तीन सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्र्यंच थे। इस प्रकार बारहगणों के साथ-साथ भगवान ने बहुत काल तक धर्म का उपदेश दिया।
भगवान का मोक्षगमन-जब भगवान की आयु एक माह शेष रह गई, तब वे सम्मेदशिखर पर आए और विहार बंदकर अचलयोग से विराजमान हो गये। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भगवान चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा चारों अघातिया कर्मों का नाश कर एक समय में लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो गये। वे नित्य, निरंजन, कृतकत्य सिद्ध हो गये। उसी समय इन्द्रादि चार प्रकार के देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक की पूजा की और अन्तिम संस्कार करके भस्म से अपने ललाट आदि उत्तमांगों को पवित्र कर स्व-स्वस्थान को चले गये।
ये शान्तिनाथ भगवान तीर्थंकर होने से बारहवें भव पूर्व राजा श्रीषेण थे और मुनि को आहारदान देने के प्रभाव से भोगभूमि में गये थे। फिर देव हुये, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वङ्काायुध चक्रवर्ती हुए। उस भव में इन्होंने दीक्षा ली थी और एक वर्ष का योग धारण कर खड़े हो गये थे, तब इनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई थीं, सर्पों ने वामी बना ली थीं, पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे और ये वङ्काायुध मुनिराज ध्यान में लीन रहे थे। अनन्तर अहमिन्द्र हुए, फिर मेघरथ राजा हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करते हुए सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन किया था और उसके प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था। फिर वहाँ से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, फिर वहाँ से आकर जगत् को शांति प्रदान करने वाले सोलहवें तीर्थंकर और पंचम चक्रवर्ती ऐसे शान्तिनाथ भगवान हुए।
उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि इस संसार में अन्य लोगों की बात जाने दीजिए,
श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र को छोड़कर भगवान तीर्थंकरों में ऐसा कौन है जिसने पूर्व के बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो!
इसलिये हे विद्वान लोगों! यदि तुम शान्ति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले
श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र का निरन्तर ध्यान करते रहो। यही कारण है कि आज भी भव्यजीव शांति प्राप्ति के लिए श्री शान्तिनाथ की आराधना करते हैं।
पुष्पदन्त तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौन पल्य अन्तर पाव पल्य काल तक इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पावपल्यप्रमाण काल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, उस समय शान्तिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्मपरम्परा अविछिन्नरूप से चली आ रही है इसलिए उत्तरपुराण में भी गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि-
‘भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन:-पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रकट किया, वही आज तक अखण्डरूप से बाधारहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्यगुरू श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो १५ तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था, वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।’
जिनके शरीर की ऊँचाई एक सौ आठ हाथ है, जो पंचम चक्रवर्ती हैं और कामदेव पद के धारी है, जिनके हरिण का चिन्ह है, जो भादों वदी सप्तमी को माता के गर्भ में आये, ज्येष्ठ वदी चौदस को जन्म लिया और ज्येष्ठ वदी चौदस को ही दीक्षा ग्रहण किया, पौष शुक्ला दशमी के दिन केवलज्ञानी हुए पुन: ज्येष्ठ वदी चौदस को ही मुक्तिधाम को प्राप्त हुए, ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें।
इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है। उसके सुसीमा नगर में सिंहरथ राजा राज्य करता था। वह राजा किसी समय उल्कापात देखकर विरक्त हो गया और विरक्त होकर संयम धारण कर लिया। उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया तथा सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में समाधिमरण करके सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।
पंचकल्याणक वैभव-कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कौरववंशी काश्यप गोत्रीय महाराज सूरसेन राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम श्रीकान्ता था। उस पतिव्रता देवी ने देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त की थी। श्रावण कृष्णा दशमी के दिन रानी ने सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। उस समय इन्द्रों ने आकर भगवान का गर्भमहोत्सव मनाया और माता की पूजा करके स्वस्थान को चले गये। क्रम से नव मास व्यतीत हो जाने पर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय इन्द्रादि देवगण आये और बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर महामहिम जन्माभिषेक महोत्सव करके अलंकारों से अलंकृत किया एवं बालक का नाम ‘कुन्थुनाथ’ रखा। वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर देवगण स्वस्थान को चले गये। पंचानवे हजार वर्ष की उनकी आयु थी। पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाए हुए स्वर्ण के समान शरीर की कान्ति थी।
तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और इतना ही काल बीत जाने पर उन्हें वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिली। इस प्रकार वे बाधारहित, निरन्तर दस प्रकार के भोगों का उपभोग करते थे। सारा वैभव शान्तिनाथ के समान ही था। किसी समय भगवान षडंग सेना से संयुक्त होकर क्रीड़ा से वहाँ वापस लौट रहे थे कि मार्ग में उन्होंने किसी मुनि को आतपयोग से स्थित देखा। देखते ही मंत्री के प्रति तर्जनी अंगुली से इशारा किया कि देखो-देखो! मंत्री उन मुनिराज को देखकर नतमस्तक हो गया और पूछने लगा कि हे देव! इस तरह कठिन तप कर ये क्या फल प्राप्त करेंगे ? चक्रवर्ती कुंथुनाथ हँसकर कहने लगे कि ये मुनि या तो इसी भव से कर्म काटकर निर्वाण प्राप्त करेंगे या तप के प्रभाव से शाश्वत धाम प्राप्त करेंगे। जो परिग्रह का त्याग नहीं करते, वे संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं, इत्यादि रूप से भगवान ने मंत्री को मोक्ष तथा संसार के कारणों का निरूपण किया। चक्रवर्ती पद के साम्राज्य का उपभोग करते हुए भगवान के तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत हो गये।
किसी समय भगवान को पूर्वभव का स्मरण हो जाने से आत्मज्ञान प्राप्त हो गया और वे भोगों से विरक्त हो गये, उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर प्रभु का स्तवन-पूजन किया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्यभार देकर इन्द्रों द्वारा किया हुआ दीक्षाकल्याणक उत्सव प्राप्त किया। देवों द्वारा लाई गई विजया नाम की पालकी में सवार होकर भगवान सहेतुक वन में पहुँचे। वहाँ तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन कृतिका नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी समय प्रभु को मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन हस्तिनापुर के धर्ममित्र राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इसी प्रकार घोर तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष बीत गये। किसी दिन भगवान तेला का नियम लेकर तप करने के लिए वन में तिलक वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहाँ चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर पैंतीस गणधर, साठ हजार मुनिराज, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवी और संख्यातों तिर्यंच थे। भगवान दिव्यध्वनि के द्वारा चिरकाल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते रहे। भगवान का केवली काल तेईस हजार सात सौ चौंतीस वर्ष का था।
जब भगवान की आयु एक मास की शेष रह गयी, तब वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे और प्रतिमायोग धारण कर लिया। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्व भाग में समस्त कर्मों से रहित, नित्य, निरंजन, सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये कुंथुनाथ भगवान तीर्थंकर होने के तीसरे भव पहले सिंहरथ राजा थे, मुनि अवस्था में सोलहकारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया पुन: सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर कुंथुनाथ नाम के १७वें तीर्थंकर, छठे चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारक हुए हैं।
तिलोयपण्णत्ति और उत्तरपुराण के अनुसार इन भगवान के भी गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर में ही हुए हैं। भगवान का गर्भकल्याणक श्रावण कृष्णा दशमी को हुआ, दीक्षाकल्याणक चैत्र शुक्ला तृतीया को हुआ तथा जन्म, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को हुआ है। भगवान के शरीर की ऊँचाई १४० हाथ प्रमाण थी, बकरे का चिन्ह था, ऐसे सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ भगवान हम और आप सबको शाश्वत सुख प्रदान करें।
इस जम्बूद्वीप में सीता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में धनपति राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने अर्हन्नन्दन तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से धर्मामृत का पान किया, जिससे विरक्त होकर शीघ्र ही जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। ग्यारहअंगरूपी महासागर का पारगामी होकर सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में प्रायोपगमन संन्यास के द्वारा मरण करके जयंतविमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में हिस्तनापुर नगरी है। यहाँ सोमवंश में उत्पन्न हुए काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी मित्रसेना नाम की रानी थी। रानी ने रत्नवृष्टि आदि देवसत्कार पाकर फाल्गुन कृष्णा तृतीया के दिन गर्भ में अहमिन्द्र के जीव को धारण किया। उसी समय देवों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। रानी मित्रसेना ने नव मास के बाद मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्यनक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरूपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करके भगवान का ‘अरनाथ’ नाम रखा। भगवान की आयु ८४ हजार वर्ष की थी। तीस धनुष ऊँचा अर्थात् १२० हाथ ऊँचा शरीर था। सुवर्ण के समान शरीर की कांति थी।
भगवान के कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मंडलेश्वर के योग्य राज्यपद प्राप्त हुआ, इसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया, तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय होना देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुत्य भगवान अपने अरविन्द कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई ‘वैजयंती’ नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुँचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।
जब भगवान के छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बीत गये, तब वे दीक्षावन में कार्तिक शुक्ल दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में आम्रवन के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए और घातिया कर्मों का नाशकर केवली बन गये। देवों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। भगवान के समवसरण में तीस गणधर, पचास हजार मुनि, साठ हजार आर्यिकाएँ, एक लाख साठ हजार श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान अरनाथ ने बीस हजार नौ सौ चौरासी वर्ष केवली अवस्था में व्यतीत किये।
जब एक माह की आयु शेष रही, तब भगवान सम्मेदशिखर पर जाकर प्रतिमायोग से स्थित हो गये। चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्व भाग में सम्पूर्ण कर्मों से रहित अशरीरी होकर सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ सातवें चक्रवर्ती थे। तीर्थंकर से पूर्व तीसरे भव में ये भगवान अरनाथ धनपति नाम के राजा थे, दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया था पुन: जयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। इनका मत्स्य का चिन्ह है।
इन अरनाथ के भी गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर नगर में ही हुए हैं। इनको मुक्त हुए लगभग सौ अरब, पंैसठ लाख, छ्यासी हजार, पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ भगवान सदा हम सबकी रक्षा करें।
इसी जम्बूद्वीप में मेरूपर्वत से पूर्व की ओर कच्छकावती नाम के देश में एक वीतशोक नाम का नगर है। उसमें ‘वैश्रवण’ नाम का उच्चकुलीन राजा राज्य करता था। किसी समय वह राजा वर्षा के प्रारम्भ में बढ़ती हुई वनावली को देखने के लिये नगर के बाहर गया। वहाँ किसी एक महान राजा के सदृश, अपनी शाखाओं और उपशाखाओं को पैâलाकर तथा पृथ्वी को व्याप्त कर स्थित एक विशाल वटवृक्ष को देखा। उसको देख राजा ने समीपवर्ती लोगों से कहा कि देखो-देखो! इसका विस्तार तो देखो! यह ऊँचाई और बद्धमूलता को धारण करता हुआ मानो मेरा ही अनुकरण कर रहा है। इस प्रकार आश्चर्य के साथ बातचीत करता हुआ वह राजा दूसरे वन में चला गया। अनन्तर घूमकर वापस उसी मार्ग से आते हुए देखा कि वही वटवृक्ष वङ्का गिरने के कारण तत्क्षण ही जड़ तक भस्म हो गया है। उसे देखकर यह विचार करने लगा कि इस जगत में मजबूत जड़ किसकी है ? विस्तार किसका है ? और ऊँचाई किसकी है ? इत्यादि वटवृक्ष की स्थिति का विचार करते हुए विरक्त हुआ वह राजा नगर में वापस आकर अपने पुत्र को राज्य देकर श्रीनाग पर्वत पर विराजमान श्रीनाग मुनिराज के पास जाकर धर्मामृत का पान करके जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है।
अनेक प्रकार से तपश्चरण करते हुए ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। सोलहकारण भावनाओं के चिन्तवन से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। अन्त में संन्यास विधि से प्राण विसर्जन करके अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त कर लिया। वहाँ पर एक हाथ का ऊँचा शरीर था और तेतीस सागर प्रमाण आयु थी।
पंचकल्याणक वैभव-इसी भरतक्षेत्र के बंगदेश में मिथिला नगरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्रीय ‘कुम्भ’ नाम के महाराज धर्मनीतिपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे। उनकी रानी का नाम ‘प्रजावती’ था।
अहमिन्द्र की आयु छह मास की अवशिष्ट रहने पर ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नवर्षा प्रारम्भ कर दी थी।
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के दिन सोलहस्वप्नविलोकनपूर्वक रानी प्रजावती ने अहमिन्द्र देव को गर्भ में धारण किया और मगशिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में पूर्ण चन्द्र सदृश पुत्ररत्न को जन्म दिया। सौधर्म इन्द्र ने समस्त देवों सहित महावैभव के साथ सुमेरू पर्वत पर तीर्थंकर बालक का जन्माभिषेक किया। अनन्तर ‘मल्लिनाथ’ नामकरण करके मिथिला नगरी में जाकर महामहोत्सवपूर्वक माता-पिता को सौंप दिया।
अरहनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर भगवान मल्लिनाथ हुए हैं। उनकी आयु भी इसी में शामिल थी। पचपन हजार वर्ष की उनकी आयु थी एवं पच्चीस धनुष ऊँचा सुवर्ण वर्णमय शरीर था। कुमार काल के सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाह के लिए सजाया गया है। सर्वत्र मनोहर वाद्य बज रहे हैं। उसे देखते ही उन्हें पूर्वजन्म के सुन्दर अपराजित विमान का स्मरण आ गया। वे विचार करने लगे कि कहाँ तो वीतरागता से उत्पन्न हुआ प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा और कहाँ सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करने वाला यह विवाह! उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर भगवान की स्तुति की। अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्रों ने देवों सहित आकर ‘जयन्त’ नामक पालकी पर भगवान को विराजमान किया और श्वेतवन के उद्यान में पहुँचे।
वहांँ पर भगवान ने मगसिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय सिद्ध साक्षीपूर्वक बेला का नियम लेकर तीन सौ राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया एवं अन्तर्मुहूर्त में ही मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया। तीसरे दिन पारणा के लिये आये, तब मिथिलानगरी के नंदिषेण राजा ने आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये।
छद्मस्थ अवस्था के छह दिन व्यतीत हो जाने पर भगवान ने बेला का नियम लेकर उसी श्वेतवन में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया। पौष वदी दूज के दिन अश्विनी नक्षत्र में प्रात:काल चार घातिया कर्मों का नाश करके भगवान केवलज्ञानी हो गये। उनके समवसरण में विशाख आदि को लेकर अट्ठाईस गणधर थे। चालीस हजार महामुनिराज, बन्धुसेना आदि पचपन हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। भगवान ने बहुत काल तक आर्यखंड में विहार किया।
एक मास की आयु के अवशेष रह जाने पर वे भगवान सम्मेदाचल पर पहुँचे। वहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ योग निरोध किया और फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो गये। उसी समय देवों ने आकर भगवान का निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया।
इसी भरतक्षेत्र के अंग देश के चम्पापुर नगर में हरिवर्मा नाम के राजा थे। किसी एक दिन वहाँ के उद्यान में ‘अनन्तवीर्य’ नाम के निर्ग्रन्थ मुनिराज पधारे। उनकी वन्दना करके राजा ने धर्मोपदेश श्रवण किया और तत्क्षण विरक्त होकर अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। उन्होंने गुरू के समागम से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। चिरकाल तक तपश्चरण करते हुए अन्त में समाधिपूर्वक मरण करके प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हो गये। वहाँ बीस सागर की आयु थी और उनका साढ़े तीन हाथ का ऊँचा शरीर था।
पंचकल्याणक वैभव-इसी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृह नाम का नगर है। उसमें हरिवंशशिरोमणि, काश्यपगोत्रीय, सुमित्र महाराज राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सोमा था। श्रावण कृष्णा द्वितीया के दिन श्रवण नक्षत्र में रानी ने उन प्राणत इन्द्र को गर्भ में धारण किया, अनुक्रम से नव मास के बाद रानी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने भगवान का जन्मोत्सव मनाकर ‘मुनिसुव्रत’ नाम प्रकट किया। मल्लिनाथ के बाद चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर इनका जन्म हुआ। इनकी आयु तीस हजार वर्ष एवं ऊँचाई बीस धनुष की थी।
कुमार काल के सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर भगवान का राज्याभिषेक हुआ। राज्य अवस्था में प्रभु के पन्द्रह हजार वर्ष बीत जाने पर किसी दिन गर्जती हुई घन-घटा के समय उनके यागहस्ती ने वन का स्मरण कर खाना-पीना बन्द कर दिया। उस समय महाराज मुनिसुव्रतनाथ अपने अवधिज्ञान से उस हाथी के मन की सारी बातें जान गये। वे कुतूहल से भरे मनुष्यों के सामने हाथी का पूर्वभव कहने लगे कि यह हाथी पूर्वभव में तालपुर नगर का नरपति राजा था। अपने उच्चकुल के अभिमान सहित इसने अशुभ लेश्याओं से सहित, मिथ्याज्ञानी, पात्र-अपात्र की परीक्षा से रहित किमिच्छक दान दिया था, उसके फलस्वरूप यह हाथी हुआ है। इस समय भी यह अपने अज्ञान आदि का स्मरण न करता हुआ वन का स्मरण कर रहा है। इतना सुनते ही उस हाथी को अपने पूर्वभव का स्मरण हो गया और उसने प्रभु से संयमासंयम ग्रहण कर लिया।
इसी निमित्त से प्रभु को वैराग्य हो गया और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त भगवान अपराजित नामक पालकी पर बैठकर नीलवन में पहुँचे। वहाँ बेला के उपवास का नियम लेकर वैशाख कृष्णा दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उनकी प्रथम पारणा का लाभ राजगृह नगर के राजा वृषभसेन को प्राप्त हुआ था।
प्रभु के छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह मास व्यतीत हो गये, तब वे उसी नीलवन में पहुँचे और बेला के नियम से सहित ध्यानारूढ़ हो गये। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में शाम के समय प्रभु को केवलज्ञान प्रकट हो गया। भगवान् के समवसरण में मल्लि को आदि लेकर अठारह गणधर थे, तीस हजार मुनिराज, पुष्पदन्ता को आदि लेकर पचास हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। भगवान एक मास की आयु अवशेष रहने पर विहार बन्द करके सम्मेदशिखर पर जा पहुँचे तथा एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग में लीन हो गये। फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले भाग में शरीर से रहित अशरीरी सिद्ध हो गये। इन मुनिसुव्रत भगवान को मेरा नमस्कार होवे।
इसी जम्बूद्वीपसम्बन्धी भरतक्षेत्र के वत्स देश में एक कौशाम्बी नाम की नगरी है। उसमें इक्ष्वाकुवंशी ‘पार्थिव’ नाम के राजा रहते थे और उनकी सुंदरी नाम की रानी थी। इन दोनों के सिद्धार्थ नाम का श्रेष्ठ पुत्र था। राजा ने किसी समय सिद्धार्थ पुत्र को राज्यभार देकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और आयु के अन्त में समाधिमरणपूर्वक स्वर्गस्थ हो गये। पिता के समाधिमरण का समाचार सुनकर राजा सिद्धार्थ विरक्त हो गये। मनोहर नाम के उद्यान में जाकर महाबल नामक केवलीभगवान से धर्म का स्वरूप सुनकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया और शान्त संयमी मुनि हो गये। उन्होंने ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त करके सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। तपश्चरणपूर्वक कर्म की निर्जरा करते हुए अन्त में समाधिमरण करके अपराजित नाम के श्रेष्ठ अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हो गये। वहाँ तेतीस सागर की आयु थी और एक हाथ ऊँचा शरीर था।
पंचकल्याणक वैभव-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत बंग देश में मिथिलानगरी है। वहाँ पर ऋषभदेव के वंशज काश्यपगोत्रीय विजय महाराज की रानी का नाम ‘वप्पिला’ था। आश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन अश्विनी नक्षत्र में वप्पिला महादेवी के गर्भ में उपर्युक्त अहमिन्द्र का जीव आ गया। आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन स्वाति नक्षत्र में रानी ने तीन ज्ञानधारी पुत्र को जन्म दिया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद पुत्र का नाम ‘नमिनाथ’ रखा। मुनिसुव्रतनाथ के बाद साठ लाख वर्ष के बीत जाने पर ये तीर्थंकर हुए हैं। प्रभु की आयु दस हजार वर्ष की थी और शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा था।
जब कुमार काल के ढाई हजार वर्ष बीत गये, तब उनका राज्याभिषेक हुआ। राज्य करते हुए पाँच हजार वर्ष के बीत जाने पर एक दिन प्रभु वर्षा ऋतु से बादलों के व्याप्त होने पर उत्तम हाथी पर बैठकर वन विहार को गये थे। उसी समय आकाशमार्ग से दो देवों ने आकर विनयपूर्वक नमस्कार करके कहना शुरू किया कि हे देव! इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वत्सकावती देश है, उसकी सुसीमा नगरी में अपराजित नाम के तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। उस केवलज्ञान की पूजा महोत्सव में हम लोग आये थे। उनकी सभा में प्रश्न हुआ कि क्या इस समय भरतक्षेत्र में कोई तीर्थंकर हैं ? सर्वदर्शी भगवान ने कहा कि हाँ! बंग देश की मिथिला नगरी के राजा नमिनाथ तीर्थंकर होने वाले हैं। इस समय वे देवों द्वारा लाये गये भोगोपभोग का अनुभव करते हुए गृहस्थावस्था में विद्यमान हैं।
उन देवों की बात सुनते ही प्रभु नगर में वापस आ गये। विदेहक्षेत्रस्थ अपराजित तीर्थंकर तथा उनके साथ अपने पूर्व भव के सम्बन्ध का स्मरण कर भगवान संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो गये। तत्क्षण ही लौकांतिक देवों ने उन महामना की पूजा की। देवों द्वारा आनीत ‘उत्तरकुरू’ नामक पालकी पर आरुढ़ होकर ‘चैत्रवन’ नामक उद्यान में पहुँचे। वहाँ बेला का नियम लेकर आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायं के समय एक हजार राजाओं के साथ ‘ नम: सिद्धेभ्य:’ मंत्र का उच्चारण करते हुए दीक्षित हो गये।
वीरपुर नगर के राजा दत्त ने प्रभु की प्रथम पारणा का लाभ लिया था। छद्मस्थ अवस्था के नव वर्ष बीत जाने पर वे प्रभु एक दीक्षावन में पहुँचकर बेला के नियमपूर्वक वकुल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये। मगसिर शुक्ला एकादशी के दिन सायंकाल में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त हो गये।
उनके समवसरण में सुप्रभार्य आदि सत्रह गणधर थे। बीस हजार मुनि, मंगिनी आदि पैंतालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ थीं। विहार करते हुए एक मास की आयु अवशेष रहने पर भगवान नमिनाथ सम्मेदशिखर पर पहुँच गये। वहाँ एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग में लीन हुए। प्रभु को वैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम अश्विनी नक्षत्र में सिद्धपद प्राप्त हो गया। देवों ने आकर निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया। ऐसे वे नमिनाथ तीर्थंकर सदा हमारी रक्षा करें।
इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रसंबंधी कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र की श्रीमती रानी से सुप्रतिष्ठ नाम का यशस्वी पुत्र हुआ। कालांतर में पिता द्वारा प्रदत्त राज्य का निष्कंटक उपभोग करते हुये किसी दिन यशोधर नाम के मुनिराज को आहारदान देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया। किसी दूसरे दिन वह राजा रानियों के साथ राजमहल की छत पर बैठे हुए दिशाओं की शोभा का अवलोकन कर रहे थे कि इसी बीच अकस्मात् उल्कापात को देखकर विरक्त हो गए और सुमंदर नामक जिनेन्द्र भगवान के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।
‘
मुनिराज सुप्रतिष्ठ ने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों का अध्ययन किया और सर्वतोभद्र को आदि लेकर सिंहनिष्क्रीडितपर्यन्त अनेकों व्रतों का अनुष्ठान किया। यहाँ इन व्रतों के कुछ नाममात्र दिये जा रहे हैं। विशेष जिज्ञासुओं को हरिवंश पुराण में देखना चाहिए।
‘सर्वतोभद्र, वसंतभद्र, महासर्वतोभद्र, त्रिलोकसार, वङ्कामध्य, मृदंगमध्य, मुरजमध्य, एकावली, द्विकावली, मुक्तावली, रत्नावली, रत्नमुक्तावली, कनकावली, द्वितीय रत्नावली, सिंहनिष्क्रीडित, मध्यम सिंहनिष्क्रीडित तथा उत्तम और जघन्य सिंहनिष्क्रीडित, नंदीश्वरपंक्ति, मेरूपंक्ति, विमानपंक्ति, शातकुंभ, चान्द्रायण, सप्तसप्तमतपोविधि, अष्टअष्टम, नवनवमादि, आचाम्लवर्धन, श्रुतविधि, दर्शनशुद्धि, तप:शुद्धि, चारित्रशुद्धि, एककल्याण, पंचकल्याण, शीलकल्याण विधि, भावनाविधि, पंचविंशति-कल्याण भावनाव्रत, दु:खहरण कर्मक्षय, जिनेंद्रगुणसंपत्ति, दिव्यलक्षणपंक्ति, धर्मचक्रविधि, परस्पर कल्याण, परिनिर्वाण, प्रातिहार्य प्रसिद्धि, विमानपंक्ति आदि व्रत।
इस प्रकार विधिवत् इन व्रतों के कर्ता सुप्रतिष्ठ मुनिराज ने उस समय निर्मल सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया।
जब आयु का अंत आया, तब समाधि धारण कर एक महीने का संन्यास लेकर प्राणों का त्याग किया और जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र पद प्राप्त कर लिया। वहाँ पर तेतीस सागर की आयु थी और एक हाथ ऊँचा शरीर था। उनको साढ़े सोलह माह के अंत में एक बार श्वांस का ग्रहण होता है। तेतीस हजार वर्ष बीत जाने पर एक बार मानसिक आहार था। इस प्रकार सुखसागर में निमग्न उन अहमिंद्र ने वहाँ की आयु को समाप्त कर दिया।
नेमिनाथ का जन्म-कुशार्थ देश के शौरीपुर नगर में हरिवंशी राजा शूरसेन रहते थे। उनके वीर नाम के पुत्र की धारिणी रानी से अंधकवृष्टि और नरवृष्टि नाम के दो पुत्र हुए। अंधकवृष्टि की रानी का नाम सुभद्रा था। इन दोनों के समुद्रविजय, स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण, पूरण, पूरितार्थीच्छ, अभिनंदन और वासुदेव ये दस पुत्र थे तथा कुन्ती और माद्री नाम की दो पुत्रियाँ थीं।
समुद्रविजय की रानी का नाम शिवादेवी था। पिता के द्वारा प्रदत्त राज्य का श्रीसमुद्रविजय महाराज धर्मनीति से संचालन करते थे। छोटे भाई वसुदेव की रोहिणी रानी से बलभद्र एवं देवकी रानी से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
जब जयंत विमान के इन्द्र की आयु छह मास की शेष रह गई, तब काश्यपगोत्री, हरिवंश शिखामणि राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के आंगन में देवोें द्वारा की गई रत्नों की वर्षा होने लगी। कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वह अहमिंद्र का जीव रानी के गर्भ में आ गया।
अनंतर नव मास के बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में ब्रह्मयोग के समय तीन ज्ञान के धारक भगवान का जन्म हुआ। इंद्रादि देवोें ने जन्मोत्सव मनाकर तीर्थंकर शिशु का ‘नेमिनाथ’ नामकरण किया। भगवान नमिनाथ के बाद पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमिजिनेन्द्र उत्पन्न हुये हैं। उनकी आयु एक हजार वर्ष की थी, शरीर दश धनुष ऊँचा था। प्रभु के शरीर का वर्ण नीलकमल के सदृश होते हुये भी इतना सुन्दर था कि इंद्र ने एक हजार नेत्र बना लिये, फिर भी रूप को देखते हुये तृप्त नहीं हुआ था।
हरिवंशपुराण में नेमिनाथ तीर्थंकर का जन्म सौर्यपुर में ही माना है। पश्चात् देवों द्वारा रची गई द्वारावती नगरी में श्रीकृष्ण आदि के जाने की बात कही है।
कारणवश श्रीकृष्ण तथा होनहार श्री नेमिनाथ तीर्थंकर के पुण्य प्रभाव से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर ‘द्वारावती’ नामक नगरी की रचना की।
भगवान देवों द्वारा आनीत दिव्य भोगसामग्री का अनुभव करते हुये चिरकाल तक द्वारावती में रहे। किसी एक दिन मगध देश के कुछ व्यापारी उस नगरी में आ गये और वहाँ से श्रेष्ठ रत्न खरीद कर अपने देश में ले गये तथा अर्धचक्री (प्रतिनारायण) राजा जरासंध को रत्न भेंट किये। राजा ने उन रत्नों को देखकर महान आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछा कि आप ये रत्न कहाँ से लाये हो ? उत्तर में उन लोगों ने श्रीकृष्ण और भगवान नेमिनाथ के वैभव का वर्णन कर दिया। यह सुनते ही जरासंध कुपित होकर युद्ध करने को तैयार हो गया।
‘शत्रु चढ़कर आ गया है’ यह समाचार सुनकर श्रीकृष्ण को जरा भी चिंता नहीं हुई। वे भगवान नेमिनाथ के पास गये और बोले कि आप इस नगर की रक्षा कीजिये। सुना है कि राजा जरासंध हम लोगों को जीतना चाहता है सो मैं उसे आपके प्रभाव से घुने हुये जीर्णवृक्ष के समान शीघ्र ही नष्ट किये देता हूँ। श्रीकृष्ण के वचन सुनकर प्रभु ने अपने आप अवधिज्ञान से विजय को निश्चित जानकर मुस्कुराते हुये ‘ओम्’ शब्द कह दिया अर्थात् अपनी स्वीकृति दे दी। श्रीकृष्ण भी प्रभु की मुस्कान से अपनी विजय को निश्चित समझकर समस्त यदुवंशी और पांडव आदिकों के साथ कुरुक्षेत्र में आ गये।
इस भयंकर युद्ध में राजा जरासंध ने कुपित होकर चक्र श्रीकृष्ण पर चला दिया। वह चक्ररत्न भी श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा देकर उनकी दाहिनी भुजा पर ठहर गया। बस क्या था, श्रीकृष्ण ने उसी चक्र से जरासंध का काम समाप्त कर दिया और तत्क्षण ही देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए और अर्धचक्री (नारायण) हो गये। अनंतर बड़े हर्ष से इन लोगों ने द्वारावती में प्रवेश किया और वहाँ पर राज्याभिषेक को प्राप्त हुए।
‘किसी एक दिन कुबेर द्वारा भेजे हुए वस्त्राभरणों से अलंकृत युवा श्री नोfमकुमार, बलदेव तथा नारायण आदि कोटि-कोटि यादवों से भरी हुई कुसुमचित्रा नाम की सभा में गये। राजाओं ने अपने-अपने आसन छोड़ प्रभु के सन्मुख आकर उन्हें नमस्कार किया। श्रीकृष्ण ने भी आकर उनकी अगवानी की। तदनंतर श्रीकृष्ण के साथ वे उनके आसन को अलंकृत करने लगे।
वहाँ वार्तालाप के प्रसंग में बलवानों की गणना छिड़ने पर किसी ने अर्जुन को, किसी ने युधिष्ठिर को इत्यादि रूप से किसी ने श्रीकृष्ण को अत्यधिक बलशाली कहा। तरह-तरह की वाणी सुनकर बलदेव ने लीलापूर्ण दृष्टि से भगवान की ओर देखकर कहा कि तीनों जगत में इनके समान दूसरा बलवान् नहीं है, ये गिरिराज को अनायास ही कंपायमान कर सकते हैं, यथार्थ में ये जिनेंद्र हैं इनसे उत्कृष्ट दूसरा कौन हो सकता है ?
इस प्रकार वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने भगवान से कहा-भगवन्! यदि आपके शरीर का ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहुयुद्ध में उसकी परीक्षा क्यों न ली जाये ? भगवान ने कहा-हे अग्रज! यदि आपको मेरी भुजाओं का बल जानना ही है तो मल्लयुद्ध की क्या आवश्यकता है ? सहसा इस आसन से मेरे इस पैर को ही विचलित कर दीजिये। श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर जिनेंद्र भगवान को जीतने की इच्छा से उठ खड़े हुए परन्तु पैर का चलाना तो दूर ही रहा, वे एक अंगुली को भी नहीं हिला सके। उसी समय इन्द्र का आसन कंपित होने से देवों सहित इन्द्र ने आकर भगवान की अनेकों स्तुतियों से स्तुति और पूजा की। तदनंतर सब अपने-अपने महलों में चले गये।
नेमिनाथ का वैराग्य-किसी समय मनोहर नामक उद्यान में भगवान नेमिनाथ तथा सत्यभामा आदि जलकेलि कर रहे थे। स्नान के अनंतर श्री नेमिनाथ ने सत्यभामा से कहा-हे नीलकमल के समान नेत्रों वाली! तू मेरा यह स्नान का वस्त्र ले। सत्यभामा ने कहा, मैं इसका क्या करूँ ? नेमिनाथ ने कहा कि तू इसे धो डाल। तब सत्यभामा कहने लगी कि क्या आप श्रीकृष्ण हैं ? वह श्रीकृष्ण, जिन्होंने कि नागशय्या पर चढ़कर शार्ङ्ग नाम का धनुष अनायास ही चढ़ा दिया था और दिग्दिगंत को व्याप्त करने वाला शंख पूरा था ? क्या आपमें यह साहस है ? यदि नहीं है तो आप मुझसे वस्त्र धोने की बात क्यों करते हैं ?
नेमिनाथ ने कहा कि ‘मैं यह कार्य अच्छी तरह कर दूँगा’ इतना कहकर वे आयुधशाला में पहुँच गये। वहाँ नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशय्या पर अपनी ही शय्या के समान चढ़ गये और शार्ङ्ग धनुष चढ़ाकर समस्त दिशाओं के अंतराल को रोकने वाला शंख फूंक दिया। उस समय श्रीकृष्ण अपनी कुसुमचित्रा सभा में विराजमान थे। वे सहसा ही यह आश्चर्यपूर्ण काम सुनकर व्यग्र हो उठे। बड़े आश्चर्य से किंकरों से पूछा कि यह क्या है ? किंकरों ने भी पता लगाकर सारी बात बता दी।
उस समय अर्धचक्री श्रीकृष्ण ने विचार करते हुये कहा कि आश्चर्य है, बहुत समय बाद कुमार नेमिनाथ का चित्त राग से युक्त हुआ है। अब इनका विवाह करना चाहिए। वे शीघ्र ही राजा उग्रसेन के घर स्वयं पहुँच गये और रानी जयावती से उत्पन्न राजीमति कन्या की श्रीनेमिनाथ के लिए याचना की। राजा उग्रसेन ने कहा-हे देव! आप तीन खण्ड के स्वामी हंै अत: आपके सामने हम लोग कौन होते हैं ? शुभ मुहूर्त में विवाह निश्चित हो गया।
तदनंतर देवोें द्वारा आनीत नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से सुसज्जित भगवान नेमिनाथ, समान वय वाले अनेक मंडलेश्वर राजपुत्रों से घिरे हुये चित्रा नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिए निकले। वहाँ उन्होंने करुण स्वर से चिल्लाते हुये और इधर-उधर दौड़ते हुए, भूख-प्यास से व्याकुल हुए तथा अत्यंत भयभीत हुए, दानदृष्टि से युक्त मृगों को देख दयावश वहाँ के रक्षकों से पूछा कि यह पशुसमूह क्यों इकट्ठा किया गया है ? नौकरों ने कह दिया कि आपके विवाह में ये मारे जायेंगे। उसी समय श्री नेमिकुमार को पशुओं के अत्याचार के प्रति करुणा जाग्रत हो गई और शीघ्र ही भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया और विरक्तचित्त हुए लौटकर अपने घर वापस आ गये। अपने अनेक पूर्वभवों का स्मरण कर भयभीत हो गये। अब तक प्रभु के कुमार काल के तीन सौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे।
तत्क्षण ही लौकांतिक देवों से पूजा को प्राप्त हुए प्रभु को देवों ने देवकुरू नाम की पालकी पर बिठाया और सहस्राम्र वन में ले गये। श्रावण कृष्णा षष्ठी के दिन सायंकाल के समय तेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा से विभूषित हो गये। उसी समय उन्हें चौथा मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया।
राजीमती ने भी प्रभु के पीछे तपश्चरण करने का निश्चय कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि शरीर की बात तो दूर ही रही, वचनमात्र से भी दी हुई कुलस्त्रियों का यही न्याय है।
पारणा के दिन द्वारावती नगरी में राजा वरदत्त ने पड़गाहन करके प्रभु को आहार दिया जिसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य को प्राप्त हो गये अर्थात् देवों ने साढ़े बारह करोड़ रत्न बरसाए। पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि, मन्द सुगन्ध वायु, दुन्दुभी बाजे और अहोदानं आदि प्रशंसा वाक्य होने लगे।
इस प्रकार तपश्चर्या करते हुये प्रभु के छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन व्यतीत हो गये, तब वे रैवतक पर्वत पर पहुँचे। तेला का नियम लेकर किसी बड़े भारी बाँस वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये। आश्विन कृष्णा प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रात:काल के समय प्रभु को लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान प्रकट हो गया। उनके समवसरण में वरदत्त को आदि लेकर ग्यारह गणधर थे, अठारह हजार मुनि, राजीमती आदि चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। भगवान की सभा में बलभद्र और श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष आये, धर्म का स्वरूप सुना और अपने सभी भव-भवांतर पूछे।
किसी समय भगवान की दिव्यध्वनि से यह बात मालूम हुई कि ‘द्वीपायन मुनि के क्रोध के निमित्त से इस द्वारावती नगरी का विनाश होगा’ इस भावी दुर्घटना को सुनकर कितने ही महापुरुषों ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इस प्रकार प्रभु नेमिनाथ ने छह सौ निन्यानवे वर्ष, नौ महीना और चार दिन तक विहार किया था।
अनन्तर गिरनार पर्वत पर आकर विहार छोड़कर पाँच सौ तेतीस मुनियों के साथ एक महीने का योग निरोध करके आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारम्भ में ही प्रभु ने अघातिया कर्मों का नाशकर मोक्षपद प्राप्त कर लिया। उसी समय इंद्रादि देवों ने आकर बड़ी भक्ति से प्रभु का परिनिर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया। वे श्री नेमिनाथ भगवान हमारे अंत:करण को पूर्णशांति प्रदान करें।
गर्भावतार-इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रसम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें काश्यपगोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब उन सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास की अवशेष रह गई थी, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की धारा बरसाना शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलहस्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था।
नव मास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पार्श्वनाथ’ यह नामकरण किया था। श्री नेमिनाथ के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष की थी जोकि इसी अंतराल में सम्मिलित है। प्रभु की कांति हरितवर्ण की एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे।
सोलह वर्ष बाद नवयौवन से युक्त भगवान किसी समय क्रीड़ा के लिये अपनी सेना के साथ नगर के बाहर गये। कमठ का जीव, जो कि सिंह पर्याय से नरक गया था, वह वहाँ से आकर महीपाल नगर का महीपाल नाम का राजा हुआ था। उसी की पुत्री ब्राह्मी (वामा देवी) भगवान पार्श्वनाथ की माता थीं। यह राजा (भगवान के नाना) किसी समय अपनी पत्नी के वियोग में तपस्वी होकर वहीं आश्रम के पास वन में पंचाग्नियों के बीच में बैठा तपश्चरण कर रहा था। देवों द्वारा पूज्य भगवान उसके पास जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही खड़े हो गये। यह देखकर वह खोटा साधु क्रोध से युक्त हो गया और सोचने लगा ‘‘मैं कुलीन हूँ, तपोवृद्ध हूँ और इसका नाना हूँ’’ फिर भी इस अज्ञानी कुमार ने अहंकारवश मुझे नमस्कार नहीं किया है, क्षुभित हो उसने अग्नि में लकड़ियों को डालने के लिए पड़ी हुई लकड़ी को काटने हेतु अपना फरसा उठाया, इतने में ही अवधिज्ञानी भगवान पार्श्वनाथ ने कहा, ‘‘इसे मत काटो’’ इसमें जीव हैं किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे।
यह देखकर प्रभु के साथ स्थित सुभौमकुमार ने कहा कि तू अहंकारवश यह कुतप करके पाप का ही आस्रव कर रहा है। सुभौम के वचन सुन तपस्वी क्रोधित होकर अपने तपश्चरण की महत्ता प्रकट करने लगा। तब सुभौमकुमार ने अनेक युक्तियों से उसे समझाया कि सच्चे देव, शास्त्र और गुरू के सिवाय कोई हितकारी नहीं है। जिनधर्म में प्रणीत सच्चे तपश्चरण से ही कर्म निर्जरा होती है। यह मिथ्यातप, जीव हिंसा सहित होने से कुतप ही है। यद्यपि वह तापसी समझ तो गया किन्तु पूर्व बैर का संस्कार होने से अपने पक्ष के अनुराग से अथवा दु:खमय संसार के कारण से अथवा स्वभाव से ही दुष्ट होने से उसने स्वीकार नहीं किया प्रत्युत् यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा तिरस्कार कर रहा है, ऐसा समझ वह भगवान पार्श्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। इसी शल्य से मरकर ‘शंवर’ नाम का ज्योतिषी देव हो गया।
इधर सर्प और सर्पिणी कुमार के उपदेश से शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये।
अनंतर भगवान जब तीस वर्ष के हो गये, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने उत्तम घोड़ा आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान पार्श्वनाथ के समीप भेजा। भगवान ने भेंट लेकर उस दूत से अयोध्या की विभूति पूछी। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पश्चात् अयोध्या का हाल कहा। उसी समय ऋषभदेव के सदृश अपने को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हुआ है, ऐसा सोचते हुए भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्ववन में पहुँच गये। वहाँ तेला का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात:काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये।
पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्टमंगल द्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पहुँचकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शंबर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि, भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया।
अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वीतल से बाहर निकला। धरणेन्द्र ने भगवान को सब ओर से घेरकर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उस की पत्नी वङ्कामय छत्र तान कर खड़ी हो गई। आचार्य कहते हैं कि देखो! स्वभाव से ही क्रूर प्राणी इन सर्प-सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा, सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं।
तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पार्श्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति-भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहाँ तो निष्कारण वैर और कहाँ ऐसी पार्श्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दु:खों से भयभीत प्राणियों को वैर-विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पार्श्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन्द्रों ने आकर मोक्षकल्याणक उत्सव मनाया। ऐसे पार्श्वनाथ भगवान हमें भी सम्पूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें।
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में एक छत्रपुर नाम का नगर था। वहां के राजा नंदिवर्धन की रानी वीरवती के गर्भ में उपर्युक्त सूर्यप्रभ देव का जीव आ गया। नव माह के बाद रानी ने पुत्र को जन्म दिया। पूरे राज्य में आनंद मंगल होने से राजा ने पुत्र का नाम ‘नंद’ रखा, इसे नंदन भी कहते थे। नंदन बालक माता की अंगुली पकड़कर खेलते हुये महाराजा नंदिवर्धन का मनोरंजन किया करता था।
पुत्र के यौवनावस्था को प्राप्त होने पर राजा ने अपना राज्यभार पुत्र को सौंप दिया, क्योंकि यही सनातन परंपरा है। राजा नंद ने भी चिरकाल तक राज्य संचालन करते हुये प्रजा को खूब संतुष्ट किया। इष्ट-अभिलषित राज्य का उपभोग कर राजा नंद ने ‘प्रोष्ठिल’ नाम के गुरू के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनियों के संघ में धर्मोपदेश देकर सच्चे मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराते रहते थे।
इन्होंने ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से गुरु के सान्निध्य में ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अंग और पूर्वरूप श्रुत का ज्ञान गुरु के मुख से ही प्राप्त होता है, कभी किसी को बिना गुरु के नहीं होता है।
तीर्थंकर प्रकृति का बंध-दिगम्बर मुनि पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचेन्द्रिय निरोध, षट् आवश्यक क्रिया, केशलोंच, वस्त्रों का पूर्ण त्याग, स्नान का त्याग, पृथ्वी पर शयन, दंतधावन का त्याग, खड़े होकर भोजन और एक बार भोजन इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं। सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह से रहित ज्ञान-ध्यान में रत रहते हैं। परीषह और उपसर्गों को शांति और क्षमाभाव से सहन करते हैं। उत्तम क्षमादि दस धर्मों का पालन करते हैं। नंद मुनिराज ने घोर तपश्चरण से अपनी आत्मा को निर्मल बना लिया एवं दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करने लगे।
अच्युतेन्द्र-नंद महामुनि समाधिमरण के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग में पुष्पोत्तर विमान में ‘इन्द्र’ हो गये। इस सोलहवें स्वर्ग का नाम अच्युत है अतः ये इन्द्र अच्युतेन्द्र कहलाते थे।
इन अच्युतेन्द्र की आयु बाईस सागर प्रमाण थी, तीन हाथ ऊंचा शरीर था, द्रव्य से-शरीर वर्ण से और भाव से दोनों ही शुक्ल लेश्यायें थीं, बाईस पक्ष में एक बार श्वांस लेते थे। बाईस हजार वर्ष में एक बार मानसिक अमृत का आहार था, सदा मानसिक प्रवीचार-कामसेवन था अर्थात् मन में ही देवांगनाओं का स्मरण करने से कामभोग की तृप्ति हो जाताr थी। अणिमा, महिमा आदि दिव्य ऋद्धियों से नाना प्रकार के सुखों का अनुभव करते थे। उनका अवधिज्ञान छठी पृथ्वी तक की बातों को जान लेता था, उनके विक्रिया की सीमा भी उनके अवधिज्ञान क्षेत्र के बराबर थी। अपने सामानिक आदि देवों और देवांगनाओं से घिरे हुये वे इंद्रराज अपने पुण्य कर्म के विशेष उदय से सुखरूपी सागर में सदा निमग्न रहते थे।
कभी वे अपनी इन्द्रसभा में देव अप्सराओं का नृत्य देखते थे। कभी देव-देवियों के साथ मध्यलोक में जाकर द्वीप-समुद्रों की शोभा देखकर आनंद का अनुभव किया करते थे।
मध्यलोक में अकृत्रिम जिनमंदिर तेरह द्वीपों तक ही हैं अतः कभी-कभी ये इन्द्रराज रुचकवर द्वीप आदि में पहुंचकर १००८ दिव्य क्षीरसागर के जल से भरे कलशों से जिनप्रतिमाओं का महाभिषेक करके उत्सव मनाते थे। अष्टद्रव्य से पूजा करते थे और महान पुण्य का संचय कर लिया करते थे।
इस प्रकार ये अच्युतेन्द्र सागर पर्यंत दिव्य सुखों का अनुभव करके जब मनुष्य लोक में आने वाले थे, आयु में छह माह शेष रह गये तक सौधर्मेन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी कि इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में कुंडलपुर नगर में अंतिम तीर्थंकर का जन्म होने वाला है अतः तुम जाकर जन्म से पंद्रह महिने पूर्व से ही रत्नों की वर्षा करना प्रांरभ कर दो। अच्युतेन्द्र सुरराज अपने पुष्पोत्तर विमान में ही थे और यहां कुंडलपुर का माहात्म्य बढ़ने लगा था।
पंचकल्याणक वैभव-जब अच्युतेन्द्र की आयु छह मास बाकी रह गई तब इस भरतक्षेत्र के विदेह नामक देश संबंधी कुंडपुर-कुंडलपुर नगर (निकट नालंदा-बिहार प्रदेश) के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ प्रमाण रत्नों की धारा बरसने लगी। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी प्रियकारिणी ने सोलह स्वप्न देखे और पुष्पोत्तर विमान से अच्युतेन्द्र का जीव च्युत होकर रानी के गर्भ में आ गया। प्रातःकाल राजा के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर रानी अत्यन्त संतुष्ट हुई। तदनंतर देवों ने आकर गर्भकल्याणक उत्सव मनाकर माता-पिता का अभिषेक करके उत्सव मनाया।
नव मास पूर्ण होने के बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रानी त्रिशला ने पुत्र को जन्म दिया। भगवान महावीर का जन्म तेरस की रात्रि में हुआ है, ऐसा जयधवला में वर्णित है-
‘‘आषाढजोण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुर णगराहिव -णाहवंस-सिद्धत्थणरिंदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्ख-तेरसीए रत्तीए उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाणजिणिंदो।।’’
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कुंडलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की रानी त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहां नव मास आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुये वर्द्धमान जिनेन्द्र ने जन्म लिया। उस समय देवों के स्थानों में अपने आप वाद्य बजने लगे, तीनों लोकों में सर्वत्र एक हर्ष की लहर दौड़ गई। सौधर्म इन्द्र ने बड़े वैभव के साथ सुमेरूपर्वत की पांडुकशिला पर क्षीरसागर के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। इन्द्र ने उस समय उनके ‘‘वीर’’ और ‘‘वर्धमान’’ ऐसे दो नाम रखे।
श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ पच्चास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी में शामिल है। कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु थी, सात हाथ ऊँचे, स्वर्ण वर्ण के थे। एक बार संजय और विजय नाम के चारणऋद्धिधारी मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न होने से भगवान के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आकर उनके दर्शन मात्र से ही संदेह से रहित हो गये तब उन मुनि ने उन बालक का ‘‘सन्मति’’ नाम रखा। किसी समय संगम नामक देव ने सर्प बनकर परीक्षा ली और भगवान को सफल देखकर उनका ‘‘महावीर’’ यह नाम रखा।
तीस वर्ष के बाद भगवान को पूर्वभव का स्मरण होने से वैराग्य हो गया तब लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने ज्ञातृवन में सालवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और तत्काल मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया। पारणा के दिन कूलग्राम की नगरी के कूल नामक राजा के यहाँ खीर का आहार ग्रहण किया। किसी समय उज्जयिनी के अतिमुक्तक वन में ध्यानारूढ़ भगवान पर महादेव नामक रुद्र ने भयंकर उपसर्ग करके विजयी भगवान का ‘‘महतिमहावीर’’ नाम रखकर स्तुति की। किसी दिन कौशाम्बी नगरी में सांकलों में बंधी चंदनबाला ने भगवान को पड़गाहन किया तब उसकी बेड़ी आदि टूट गई। मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन गया एवं कोदों का भात शालीचावल की खीर बन गया तभी चंदनबाला ने नवधाभक्तिपूर्वक महामुनि महावीर को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।
छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष बाद जृंभिक ग्राम की ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में सालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उस समय इन्द्र ने केवलज्ञान की पूजा की। भगवान की दिव्यध्वनि के न खिरने पर इन्द्र गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण को युक्ति से लाये, उस समय मानस्तंभ के दर्शन से उनका मान गलित होते ही वे भगवान से दीक्षित होकर मनःपर्यय ज्ञान और सप्तऋद्धि से विभूषित होकर प्रथम गणधर हो गये, तब भगवान की दिव्यध्वनि खिरी। श्राव्ाण कृष्णा एकम के दिन दिव्यध्वनि को सुनकर गौतम गणधर ने सायंकाल में द्वादशांग श्रुत की रचना की। इसके बाद वायुभूति आदि ग्यारह गणधर हुए हैं। भगवान के समवसरण में मुनीश्वरों की संख्या चौदह हजार थी, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाएं थीं, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। बारह गणों से वेष्टित भगवान ने विपुलाचल पर्वत पर और अन्यत्र भी आर्यखंड में बिहार कर सप्त तत्व आदि का उपदेश दिया।
अंत में पावापुर नगर के मनोहर नामक वन में अनेक सरोवरों के बीच शिलापट्ट पर विराजमान होकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अंतिम प्रहर में स्वाति नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। तब देवों ने मोक्षकल्याणक पूजा कर दीपमालिका जलायी थी। तब से लेकर आज तक कार्तिक कृ. अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जाता है।
भगवान के जीवनवृत्त से हमें यह समझना है कि मिथ्यात्व के फलस्वरूप जीव त्रस-स्थावर योनियों में परिभ्रमण करता है। सम्यक्त्व और व्रतों के प्रसाद से चतुर्गति के दुखों से छूटकर शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है अतः मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यग्दृष्टि बन करके व्रतों से अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिए।