हमारे देश का नाम भारतवर्ष कब,क्यों एवं वैâसे पड़ा ? इस संदर्भ में विद्वानों में किंचित भ्रम है। अधिकांश विद्वान प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र एवं बाहुबली के भाई भरत के नाम पर इसे भारत मानते हैं किन्तु कतिपय विद्वान दुष्यन्त एवं शकुन्तला के पुत्र भरत को इसका श्रेय देते हैं। लेखक ने अनेक पौराणिक, साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों का विश्लेषण कर सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि इस देश का नाम भारत ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा।
अपने देश का नाम भारत है यह तो सब जानते हैं पर बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जो यह जानते हों कि अपने देश का नाम भारत कब, क्यों और वैâसे पड़ा ? अपने देश का सांविधानिक नाम क्या है ? वैदिक परंपरा में भागवत पुराण को एक प्रामाणिक ग्रंथ माना है। उसकी एक प्राचीन निर्युक्ति के अनुसार-‘अजनाभं नामैतद् वर्ष भारतमिति यत् आरभ्य व्यपदिशन्ति’ सृष्टि के आदि में आदि मनु स्वायम्भुवमनु के पौत्र नाभिराय थे। उन्हीं के नाम से इस देश का नाम अजनाभवर्ष कहलाता था। इनके पुत्र ऋषभ थे जो कि आदिराजा, आदिक्षत्रिय और आदियोगी भी थे। ऋषभदेव को जैनियों ने आदि तीर्थंकर और वैदिक परम्परा में इनको ब्रह्मा, विष्णु और शिव का अवतार माना गया है। इन सबका विस्तृत विवरण वेदों और पुराणों में देखा जा सकता है। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में ऋषभदेव बुलगॉड, राकशव, आग्रिव, रेशेफ और आदम आदि नामों से स्मृत एवं पूज्य हैं। कई विद्वानों का विश्वास है कि ऋषभदेव ने लिपि विद्या का आविष्कार किया है और सर्वप्रथम बड़ी पुत्री को लिपि विद्या का अभ्यास कराया जिससे उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हो गया।
इन्हीं ऋषभ के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ भरत थे। भरत ने सभी छ: खण्ड पृथ्वी जीतकर प्रथम चक्रवर्ती का विरुद धारण किया और अपने बाबा नाभि से ज्यादा प्रतापवान हुये। तभी से इस देश का नाम इन्हीं के नाम से भारत कहा जाने लगा। इस बात के प्रभूत प्रमाण वैदिक साहित्य में और जैन साहित्य में प्राप्त होते हैं। बौद्ध साहित्य में भी ऋषभ और भरत को आदि राजाओं में माना गया है। पुरातात्त्विक दृष्टि से सम्राट खारवेल का हाथी गुम्फा शिलालेख , जो कि २००० साल से भी ज्यादा प्राचीन है और भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर है इसमें भी भारतवर्ष का उल्लेख मिलता है। भारत की आजादी के बाद देश का संविधान बनाते समय संविधानिक दृष्टि से भी विद्वतजनों और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी प्राचीन परम्पराओं के अनुसार इस देश का नाम भारत ही स्वीकार किया था।
‘भारत: भरतानां देश:’ ऐसी विद्वानों की मान्यता है। ऋग्वेद के अनुसार ‘भारत’ जाति भारतवर्ष की प्राचीनतम व प्रसिद्ध जाति है और वह अपने में किसी महत्त्वपूर्ण इतिहास व वंश परंपरा को समेटे हुए है। निरुक्तिकार लिखते हैं कि ‘‘भरत आदित्यस्तस्य या भारती’’ अर्थात् भरत सूर्य है और उसकी शोभा भारती है। इसका तात्पर्य है कि सूर्यवंशी भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा न कि चन्द्रवंशी भरत के नाम पर। एक बात और उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद तथा यजुर्वेद की ऋचाओं और मंत्रों में भारती का स्पष्ट संबंध आदित्य सूर्यवंशी भारत से बतलाया गया है। ईसा पू. ११५० में दशराज्ञ युद्ध हुआ था। यह युद्ध आर्य और भारत जातियों के बीच हुआ था। भारतों का नेतृत्व विश्वामित्र ने किया था ऋग्वेद में ऐसा उल्लेख है। महाभारत भारतीय संस्कृति तथा परम्पराओं का महाग्रंथ है। यह प्रश्न होता है कि इसे महाभारत क्यों कहा गया ? इस प्रश्न का निरसन करते हुए महर्षि व्यास स्वयं कहते हैं-‘‘इस ग्रन्थ में भारतवंशी क्षत्रियों के महान् वंश का वर्णन किया गया है; अत: वह भारत कहा जाता है।’’ जातियों की परम्परा पर प्रकाश डालते हुए महाभारत में आगे कहा गया है-‘‘मनु के दो पुत्र हुए-देवभ्राट् और सुभ्राट्। सुभ्राट् के तीन पुत्र हुए-दशज्योति, शतज्योति और सहस्रज्योति। ये तीनों ही प्रज्ञावान् और विद्वान थे। दशज्योति के दस हजार, शतज्योति के एक लाख और सहस्रज्योति के दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए। इन्हीं से कुरू, यदु, भरत, ययाति और इक्ष्वाकु आदि राजर्षियों के वंश चले।’’ दुष्यंत पुत्र भरत पुरु की वंश परंपरा का वाहक है, यह सर्वसम्मत है। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ऋग्वेदकालीन भारतवर्ष का भौगोलिक वर्णन करने के अनन्तर लिखते हैं-‘‘यह प्रदेश कई वैदिक जनों में बंटा हुआ था, जिसमें से कुछ प्रधान जनों के नाम मिलते हैं-जैसे, गांधारी, मूबवन्त, अनुद्रुहा और तुरवश पुरु और भरत। यहां पुरू और भरत दोनों का पृथक-पृथक उल्लेख यह भलीभांति प्रमाणित करता है कि भारत जाति दुष्यंत पुत्र भरत से कई शताब्दियों पूर्व भी यहां विद्यमान थी। डॉ. मुखर्जी आगे और स्पष्ट लिखते हैं-‘‘ऋग्वेदकालीन जनों में भरतों के अतिरिक्त पुरु भी महत्वपूर्ण थे। वे दोनों आगे चलकर कुरुओं में मिल गये। ऋग्वेद में पुरु से पूर्व तथा उनके समय में भी इस देश का नाम भारतवर्ष था। शतपथ ब्राह्मण में सूर्यवंशी भरत के नाम पर भारतवर्ष की स्थापना का उल्लेख मिलता है। शकुन्तला पुत्र भरत चन्द्रवंशी राजा थे। इस संदर्भ ने समस्त भ्रमों, संदेहों और मतांतरोें को समाप्त कर इस तथ्य की पुष्टि की है कि देश का नाम भारत ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा। प्रजापति ऋषभदेव में अथर्वन् शब्द भरत के पर्याय शब्द के रूप में देखने में आया कि मोहन-जोदड़ो की संस्कृति पर अथर्ववेद का प्रभाव माना जाता है, हमें देखना है कि क्या इस शब्द-साम्य में गहरे कहीं कोई सांस्कृतिक साम्य पाँव दबाये बैठा है ? गीता में भी श्रीकृष्ण ने ऋषभ और भरत का स्मरण किया है। ‘‘चतुर्विद्या भजन्ते माजना: सुकृतिनोर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरथार्थी ज्ञानी व भरतैषभ।’’
ऋषभ पुत्र भरत का वर्णन ऐसे तो जैन परम्परा तथा ब्राह्मण परम्परा, दोनों में मिलता है किन्तु दोनों परम्पराओं में उनके जीवन का चित्रण अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार अलग-अलग रीति से किया गया है। इसी कारण जैन धर्मग्रंथों तथा ब्राह्मणीय धर्मग्रंथों में वर्णित उनके जीवन-चरित्रों में बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ तथ्यात्मक अन्तर भी मिलते हैं। जैन परम्परा में उनका वर्णन शलाका-पुरुषों के अंतर्गत प्रथम चक्रवर्ती के रूप में हुआ है और उनका सारा जीवन पिता से प्राप्त शिक्षा के अनुरूप है। वे निवृत्ति धर्म के अनुगामी हैं और यही स्वाभाविक निवृत्ति धर्म है।
वैदिकधारा के ग्रंथों में प्रजापति ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत को ही यद्यपि इस देश के नाम ‘‘भारतवर्ष’’ का मूलाधार माना गया है किन्तु कुछ ऐसे विरोधात्मक उल्लेख भी मिलते हैं जिनके संदर्भ से कतिपय विद्वानों ने दुष्यन्त पुत्र भरत के नाम को मूलाधार स्वीकार किया है परन्तु प्राचीन साहित्य से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती। उसके अनुसार तो ऋषभ पुत्र भरत ‘भारत’ नाम के आधार सिद्ध होते हैं। ‘अग्नि पुराण’ (१०/१०-११); ‘मार्कण्डेय पुराण’ (प०-३९-४२), ‘नारदपुराण’ (पूर्वखण्ड, अध्याय ४८); ‘लिंग पुराण’ (४७/१९-२३); ‘स्कन्द पुराण’ (माहेश्वर खंड कौमार खंड, ३७/५७); ‘शिव पुराण’ (३७/५७); ‘वायु पुराण’ (पूर्वार्ध, ३०/५०-५३); ‘ब्राह्माण्ड पुराण’ (पूर्व २/१४); ‘कूर्म पुराण’ (अध्याय ४९); ‘विष्णु पुराण’ (द्वितीयमांश, अध्याय १); ‘वाराह पुराण’ (अध्याय-७६); ‘मत्स्य पुराण’ ११४-५-६) आदि पुराणों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत महायोगी थे और उन्हीं के नाम पर यह देश ‘भारतवर्ष’ कहलाया-येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति। (५/४/९) उक्त के अतिरिक्त जैनधर्म के प्राय: सभी पुराण ग्रंथ एवं अन्य साहित्य इस तथ्य के साक्षी हैं कि ऋषभदेव के पुत्र भरत ही ‘‘भारतवर्ष’ नाम के मूलाधार हैं। इससे प्रकट है कि भरत जो शारीरिक बल एवं आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण थे, भारत के सम्राटों की मौक्तिक माला के सुमेरू थे। सम्राट होते हुए भी अपने संतुलित आचरण के कारण वे वैरागी कहलाते थे। वे रागी होते हुए भी वीतरागी थे, अनासक्त थे।
वैसे ‘भरत’ शब्द का जहां तक शाब्दिक अभिप्राय है, तो उसका अर्थ है कि जो संसार का सुचारू रूप से ‘भरण-पोषण’ करता है, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी ‘रामचरितमानस’ में भरत के नामकरण के संबंध में लिखा है-
‘विश्व भरन पोषन कर जोई। ताको नाम भरत अस होई।।
इसी संदर्भ में श्रीमद् भागवत का निम्न उद्धरण विशेष महत्वपूर्ण है-
‘तस्माद् भवन्तो हृदयेन जाता:
सर्वे महीयां सममुं सनाभम्।
अक्लिष्ट बुद्ध्या भरतं भजध्वं
शुश्रूषणं तद् भरण प्रजानाम् ।।’ (५/५/२०)
भगवान ऋषभदेव के कथन के रूप में इसका तात्पर्य यह है कि ‘यह मेरा ज्येष्ठ पुत्र प्रजाओं के भरण-षोषण रूप सेवा कार्य करने के कारण ‘भरत’ नाम से विख्यात होगा। इसी प्रकार ‘मत्स्यपुराण’ में लिखा है-
भरणात् प्रजानाच्चैव मनुर्भरत उच्यते।
निरुक्त वचनैश्चैव वर्ष तद् भारतं स्मृतम्।। (५०/५-६)
उक्त कथन से प्रतीत होता है कि इस पुराण में ‘मनु’ को ही प्रजाओं के भरण-रक्षण के कारण ‘भरत’ संज्ञा से अभिहित होने से यह देश ‘भारत’ कहलाया। यहां ‘भरत’ से ‘भारत’ बना, यह तो प्रकट है किन्तु ऋषभ पुत्र भरत का उल्लेख नहीं है। यहां ‘मनु’ को ‘भरत’ कहा गया है, जिससे यह अन्य पुराणोल्लेख से विपरीत सा जान पड़ता है किन्तु ऐसा नहीं है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि उक्त कथन भी सापेक्ष है। वस्तुत: उस काल में भारत के शासक को ‘मनु’ कहते थे और भरत भी मनु थे इसलिए ‘मनु’ एवं ‘भरत’ अलग नहीं हैं। जैसा कि महापुराण से प्रकट है-नाभिराय को अंतिम मनु माना गया है किन्तु ऋषभदेव और उनके बाद भरत ने भी वही कार्यप्रतिभा, मनस्विता और सुदृढ़ता से सम्पन्न किया अत: उन्हें भी ‘मनु’ कहा गया। जिनसेन आचार्य के ‘महापुराण’ में उल्लेख है- ‘सोऽजीजनत्तं वृषभं महात्मा, सोऽप्यग्रसूनुं मनुमादि राजम्।।’ (३/२३७) अर्थात् उन्होंने (नाभिराय) वृषभ जैसे महात्मा को जन्म दिया और वृषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र आदिराजा भरत चक्रवर्ती भी ‘मनु’ हुए। इसी बात को एक अन्य स्थान पर महापुराणकार ने ‘वृषभो भरतेश्च तीर्थचक्रभृतौ मनु:’ (३/२३२) कहा है। इसका तात्पर्य है कि वृषभदेव (ऋषभ), मनु एवं तीर्थंकर थे और भरत चक्रवर्ती भी ‘मनु’ संज्ञा से अभिहित होते थे। गुणभद्राचार्य ने ‘उत्तरपुराण’ (७/४९) में भरत को सोलहवां मनु लिखा है। भरत को प्रजा के भरण-पोषण का कर्तव्य निर्वाह मन से किये जाने के कारण सोलहवां मनु कहा गया है और इस प्रकार उनकी ‘मनु’ संज्ञा सार्थक है अत: इसमें कोई संशय नहीं है। भरत से भारत का नामकरण सर्वप्रथम ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से मिलता है। दूसरे जड़ भरत हुए जो ऋषभ पुत्र भरत के ही पुनर्जन्म माने जाते हैं। इनकी ज्ञानज्योति से देश प्रकाशित हो उठा। गर्व की अग्नि को शान्त करने के लिए जिसने शीतल जल का काम किया। तीसरे दुष्यन्त पुत्र भरत हुए जिन्होंने शत्रुओं का दमन करके ‘सर्वदमन’ नाम पाया तथा उनकी वीरता से प्रसन्न होकर ऋषि मरीचि ने ‘पुनर्यास्यत्याख्यं भरत: इति लोकस्य भरणात्’ कहकर भरत नामकरण किया। चतुर्थ दशरथ पुत्र भरत हुए जिन्होंने अपने त्याग और भ्रातृ स्नेह के आदर्श से भारत के इतिहास को पावन किया, जिनके गुणों को देखते हुए कुलगुरू वशिष्ठ ने नामकरण करते हुए कहा-‘विश्व भरण पोषणकर जोई, ताको नाम भरत अस होई।’ पंचम भरत महान कलाकार, नाट्यवेद (नाट्य-शास्त्र) के रचयिता और विश्व में सर्वप्रथम नाटक, नाटक मंचन करने वाले भरत मुनि हुए जिन्होंने वेद-शास्त्रादि से वंचित अनपढ़ तथा व्यस्त जनसमुदाय को ज्ञान एवं व्यवहार प्राप्ति की नई राह बताई।
‘भरत’ शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से की है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक में ‘लोकस्य भरणात्’ तथा शब्दकोशों के अनुसार भृ (भरण) धातु से अतच् प्रत्यय लगाकर भरत शब्द की व्युत्पत्ति होती है जिसका अर्थ है-‘विभर्ति लोकान् इति’ अथवा ‘विभर्ति स्वांगानि इति।’ इस प्रकार भरत शब्द भरना, सहारा देना, पोषण करना, अधिकार करना, धारणा करना आदि अर्थ वाली भृ धातु से अतच् प्रत्यय लगकर व्युत्पन्न हुआ। ऊपर बताई गई सभी व्युत्पत्तियों से स्पष्ट है कि भरत भरण-पोषण-पालन करने वाले, लोक के उत्तरदायित्व को धारण करने वाले, सभी को सहारा देने वाले, ज्ञानी, लोकोद्धारक, लोकरंजक तथा अधिकार करने वाले हुए हैं।
संस्कृत-हिन्दी शब्दकोशों में ‘भरत’ शब्द के यद्यपि कई अर्थ दिए गए हैं किन्तु उनमें प्रसंग प्राप्त अर्थ ही विचारापेक्ष हैं। संस्कृत के ‘हलायुधकोश’ में ‘भरत’ शब्द का समबद्ध अर्थ-विवेचन इस प्रकार दिया है जो मननीय है-‘भरत: पुं. (विभर्ति स्वांगमिति, विभर्ति लोग निति वा। भृ+भृमृदृशियजीति’ अत च् ) नाट्य शास्त्रकृन्मुनि विशेष:, दौष्यन्ति: (शाकुन्तलेय) आदि अर्थ के बाद लिखा है ‘ऋषभदेवात् इन्द्र इत्त जयन्त्यां कन्यायां जात शत पुत्रान्तर्गत ज्येष्ठपुत्र:’ और यही अर्थ हमें अभिप्रेत है। ‘हिन्दी विश्वकोश’ (नागेन्द्रनाथ वसु) में भी लगभग ऐसा ही व्युत्पत्ति सूत्र दिया गया है, जिसमें उण् (३/११०) अधिक है और अर्थ लिखा है-‘ऋषभदेव के पुत्र’, इसके आगे कुछ विवरण दिया है। साथ ही जड़ भरत का उल्लेख कर लिखा है-ये लोक संग विवर्जित रहने के अभिप्राय से जड़वत् रहते थे। जैन मतानुसार आदितीर्थंकर ऋषभनाथ भगवान् के पुत्र छ: खंड के अधिपति चक्रवर्ती थे। संसार से परम विरक्त रहते थे। भारतवर्षीय ‘प्राचीन चरित्रकोश’ (सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव) तथा अन्य हिन्दी कोशों में ‘भरत’ का अर्थोल्लेखान्तर्गत दुष्यन्त-पुत्र, नाटयशास्त्रकर्ता, नट आदि के साथ ही ऋषभ पुत्र भरत को ‘जड़भरत’ के रूप में उल्लिखित किया गया है।
सहज ही प्रश्न पैदा होता है कि जब पुराण साहित्य में दोनों ही भरतों की वंश परम्पराओं का सविस्तार उल्लेख मिलता है तब भारत जाति का नामकरण कौन से भरत के आधार पर हुआ ? दुष्यन्त पुत्र भरत, ऋषभ पुत्र भरत का उत्तरवर्ती है अत: इतिहासकारों का प्रथम दृष्टिपात सहसा दुष्यन्त पुत्र भरत पर ही होगा किन्तु पक्ष-विपक्ष के प्रमाणों का जब निष्पक्ष रूप से मूल्यांकन किया जायेगा, तो अन्वेषण की पैनी दृष्टि ऋषभ पुत्र भरत पर भी केन्द्रित हुए बिना नहीं रहेगी। पुराणों में ऋषभ पुत्र अधिक प्रशस्त, प्रसिद्ध अनासक्त, भगवद्भक्त व विशेष लोकप्रिय माने गये हैं।
एक वर्ग ऐसे विद्वानों का भी है जो सिंधु घाटी सभ्यता के नग्न रूप को और ऋषभ, भरत, ब्राह्मी और अरिष्टनेमि को वेदों और पुराणों से जोड़ता है। भारतीय इतिहास और संस्कृति से जुड़ी ऐसी कई परम्पराएं हैं, जिनका मूल उद्देश्य हमें किसी न किसी रूप से जैन संस्कृति से जोड़ता है। जैसा कि प्रसिद्ध पुरातत्वशास्त्री मुनीश चन्द्र जोशी ‘‘ऋषभ तथा श्रमण परम्परा के वैदिक मूल’’ में लिखते हैं कि ऐसे कई अपरोक्ष किन्तु सार्थक साक्ष्य हमें वैदिक साहित्य में मिलते हैं जिनकी जैन परम्परा से किसी न किसी रूप से पुष्टि हो जाती है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल अपने प्रसिद्ध गं्रथ ‘मार्कण्डेय पुराण-सांस्कृतिक अध्ययन’ में भरत और भारत के विषय में लिखते हैं कि न जाने वैâसे इतनी मूल्यवान ऐतिहासिक परम्परा पुराणोंं में सुरक्षित रह गयी। महामहोपध्याय पं. बलदेव उपाध्याय लिखते हैं कि आदि तीर्थंकर ऋषभ और चक्रवर्ती भरत की परम्परा को सिद्ध करने के लिए पुराणों के आधार पर संशय नहीं किया जा सकता है।
पुरावशेषों के आधार से विश्व में मानव सभ्यता के विकास का इतिहास प्राय: दस हजार वर्ष का अनुमान किया जाता है। सभ्यता के ज्ञात केन्द्र उत्तरी अप्रâीका में नील नदी की घाटी, पूर्व एशिया के भारत प्रायद्वीप में सिन्धु नदी, गंगा नदी और गोदावरी नदी की उपत्यकायें रही हैं। सिन्धु नदी की उपत्यका से मोहनजोदड़ो नामक स्थान पर खुदाई से लगभग ६००० वर्ष प्राचीन मिट्टी की मुद्रायें मिली हैं। एक मुद्रा पर एक पुरुष एक अन्य पुरुष की वंदना कर रहा है। वंदना करते पुरुष के पीछे सुसज्जित बैल है जो उसका वाहन प्रतीत होता है और यह उसके राजस्व को भी सूचित करता है। नीचे सात मानव आकृतियां हैं जो सभी वस्त्रधारण िकये हुए हैं और नारी रूप प्रतीत होती हैं। एक के सिर पर मुकुट सा भी है जो उसके अग्रमहिषी होने का सूचक हो सकता है। शेष के शिरस्त्राण कुछ-कुछ वैभिन्य लिये हैं जो कदाचित् उनकी वरिष्ठता क्रम या प्रास्थिति को सूचित करते हैं। यह चित्र इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय प्रायद्वीप में राजकीय वैभव का यह अधुनाज्ञात प्राचीनतम अंकन है। उस काल की अन्य प्राचीन सभ्यताओं में प्रचलित राजसत्ता के चित्रांकनों से यह चित्र अद्भुत साम्य रखता है।
मुसलमानों के मदीनुत्तुल औलिया ग्रंथ के अनुसार अयोध्या में ‘हजरत आदम’ के समय से वर्तमानपर्यन्त अनेक औलिया और पीर होते आये हैं। अबुलफजल ‘आइने अकबरी’ में लिखता है कि हंसनगर में एक ६ गज लम्बी और दूसरी ७ गज लम्बी दो बड़ी कब्रें हैं जिसे वे हजरत नूह की कब्र बताते हैं। हजरत आदम ओर उसके दो बेटे अयूब और शीस की जो मुसलमानी अनुश्रुतियां प्रचलित हुईं वे जैन अनुश्रुति के अयोध्या निवासी आदिपुरुष भगवान ऋषभदेव एवं उनके पुत्रद्वय भरत-बाहुबली पर ही आधारित प्रतीत होती हैं। जैन पुराणों में इन महापुरुषों के विशालकाय शरीर के जो वर्णन हैं उनसे लगता है कि संभवत: उनकी विशाल कायास्वरूप प्रतिमाएं तब तक वहां विद्यमान रही होंगी।
सम्राट भरत की परम्परा को प्रदर्शित करने वाली एक सील मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई।
इस विषय पर एक सारगर्भित लेख देखने में आया जिसमें भारत सरकार ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की सील क्रमांक ६२०/१९२८-२९ में अंकित मृण्मयमुद्रा (टैराकोटा) की जैनविषयक व्याख्या की है। ‘यदि यह अनुमान सत्य है तो यह मृण्मयमुद्रा भरत राजा के सर्वप्रथम मूर्ति निर्माण की सूचना देने वाली पुरातात्त्विक सामग्री है। ‘‘इसमें दांयी ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है जो रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) का प्रतीक है। निकट ही नतशीश हैं उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत, जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। वे भगवान के चरणों में अंजलिबद्ध भक्तिपूर्वक नतमस्तक हैं। भरत के पीछे ऋषभ (बैल) हैं कि जो ऋषभनाथ का चिन्ह है। अधोभाग में सात प्रधान अमात्य हैं। इसमें चक्रवर्ती भरत सोच रहे हैं कि ऋषभनाथ का आध्यामिक वैभव और मेरा पार्थिव वैभव । कहां हैं दोनों में कोई साम्य ? वे ऐसी ऊंचाइयों पर हैं जहां तक मुझ अकिंचन की कोई पहुंच नहीं है। भरत की यह निष्काम भक्ति उन्हें कमल दल पर पड़े ओसबिंदु की भांति निर्लिप्त बनाये हुए हैं। भरत इस अकिंचन भाव से धन्य हो उठे हैं। विमलसूरि रचित पउमचरिय में जो भरत चक्रवर्ती का वर्णन है उसके अनुरूप एक मिट्टी की मोहर में भी अंकन है कि चक्रवर्ती भरत भगवान ऋषभ के चरणों में अंजलिबद्ध प्रणाम मुद्रा में नतनीश हैं। प्राय: ऐसा ही विवरण भरत के लिये कहे गये अन्य पुराणों में भी है। चक्रवर्ती भरत की मूर्ति प्रकल्पना लगभग साढ़े चार से पांच हजार ईसा पूर्व वर्ष तक साहित्य का विषय रही, उसने पुरातत्व की सामग्री में ढलकर अपना स्वरूप व्यक्त नहीं किया। भारतीय मूर्तिशिल्प में भरत चक्रवर्ती का अंकन कई स्थानों पर हुआ है, जैसे-देवगढ़, कटक के जैन मंदिर, कुम्हारिया में शांतिनाथ मंदिर की छत में मूर्ति रूप में, बनासकांठा गुजरात व महाराष्ट्र में स्थित एलोरा गुफा समूह में जैन गुफा में सर्वाधिक विख्यात इन्द्र के रंगमहल में द्वार के पार्श्व में एक वृहदाकार दीवार पर मूर्तिकलायें चित्रित भरत व बाहुबली की प्रतिमा में हुआ है। स्वतंत्र रूप से मालवा से प्राप्त कुछ भरत चक्रवर्ती प्रतिमाओं में, जिनका प्राप्ति स्थान ऊन, गंधर्वपुरी, सखेड़ी, शाजापुर व बदनावर है इनमें खड्गासन में भरत चक्रवर्ती राजसी वेश में अंकित हैं। भरत राजा का मूर्ति रूप में अंकन ऋषभनाथ की मूर्त्तियों में ९वीं से १२वीं शताब्दी के बीच में अनेक स्थानों पर हुआ है, जैसे-देवगढ़ खजुराहो (मध्यप्रदेश के महत्वपूर्ण कला केन्द्र) व गंधर्वपुरी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के दोनों ओर दो पुत्रों के रूप में भरत व बाहुबली की मूर्तियां मिली हैं। भरत की ऐतिहासिकता को सिद्ध करने वाला एक प्राचीन मंदिर राजमल जैन जी को केरल के इरिंगालकुडा में मिला है, जिसके कुछ मत निम्नलिखित हैंं।
आधुनिक इतिहासकारों, पुरातत्वविदों का इस मंदिर के संबंध में क्या अभिमत है यह जान लेना उचित होगा। केरल के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री ए. श्रीधर मेनन ने ‘ए सर्वे ऑफ केरल हिस्ट्री मे लिखा है-“Accoding to some Scholars, teh kudalmanikkam temple at Irinjalakuda, dedicated, to Bharata, the brother of shri Rama was once a jain, shrine the decline of jainism. It is argued that deity originaly installed in the kudalmanikkam temple is jain Digambara, with all probability, Bharateswar, the same sainy whose statuate exists at Sravanbelgola in Mysore.”
केरल के स्मारकों के विशेषज्ञ श्री सरकार ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ केरल में यह मत व्यक्त किया है कि It is said that prior to 9th centurary, it was dedicated to Bharat, the son of Adinatha.
केरल हिस्ट्री एसोसिएन के बृहदाकार दो खंडों में केरल का इतिहास ‘‘केरल चरित्रम्’ मलयालम भाषा में प्रकाशित किया है। उसमें यह अभिमत है कि ‘‘इस समय भरत मंदिर के नाम से विख्यात इिंरगालकमुडा स्थित कूडमाणिक्य के संबंध में विश्वास किया जाता है कि वह पुरातन काल में जैनमंदिर था। भरतेश्वर नाम से प्रसिद्ध एक जैन दिगंबर उन दिनों इस मंदिर के देवता रहे।’’
केरल सरकार द्वारा प्रकाशित केरल गजेटियर, त्रिचूर में एक अन्य संकेत इस मंदिर के जैन होने के संबंध में मिलता है जो कि महत्वपूर्ण है। श्री मेनन अपने ऐतिहासिक अनुसंधानों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके कथन से और महिलाओं संबंधी निषेद्य से यह स्पष्ट है कि भरत की नग्न जैन मूर्ति इस मंदिर में प्रतिष्ठित है। यद्यपि इस समय उसके चार हाथ बना दिए गए हैं और उसे आभूषण पहना दिए गए हैं किन्तु उसका वास्तविक स्वरूप अभिषेक के समय प्रकट होता होगा।
प्रथम चक्रवर्ती भरत के उदात्त चरित्र को लेकर पर्याप्त साहित्य रचना हुई है। जिनसेनाचार्य कृत महापुराण से लेकर आधुनिक काल तक भरत के चरित्र पर आधारित अनेक रचनाओं का निर्माण किया गया। भरतविषयक यह साहित्य दो रूपों में है-एक त्रेसठ शलाका महापुरुषों से संबंधित रचनाओं में और दूसरा उन पर स्वतंत्र कृतियों के रूप में। ऋषभदेव एवं बाहुबली से संबंधित रचनाओं में भी भरत चरित्र वर्णित है। भरतेश्वराभ्युदय काव्य (सिद्ध्यंक महाकाव्य), जैन कुमार संभव, भरतचरित्रविषयक स्वतंत्र कृतियां हैं।
अपने लोकहित कार्यों से भरत का यश विश्व में मनु चक्रवर्तियों में प्रथम, षट्खंड भरतक्षेत्र (भारतवर्ष) के अधिपति, अधिराट्ट और सम्राट के रूप में उद्घोषित हो गया था। भरत के उदात्त चरित्र ने लोगों के हृदयों में अलौकिक भावनाओं को जन्म दिया था और उनके मन में यह धारणा जम गई थी कि अति शक्तिसम्पन्न भरत के चरित्र को सुनने मात्र से कामनाएं स्वत: पूर्ण हो जाती हैं।
ऋषभ के भरत का सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक अवदान इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि वे सुखी और समृद्ध जीवन जीने के लिए आचार संहिता का सर्वप्रथम स्थापन करते हैं। जीवन में श्रम और संयम के संस्कारों का प्रवर्तन करते हैं। जागतिक जीवन के साथ-साथ वे आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। भरत का भारत इसी दृष्टि से उनका सर्वप्रथम उपकृत और कृतज्ञ है। वे अनाचार पर सदाचार का प्रतिष्ठापन करते हैं। स्व और पर के भरण-पोषण करने के लिए अनेक विधि उपयोगी सिद्धान्त पद्धतियों के प्रवर्तन करने के उपलक्ष्य में राज्यवर्ती प्रजाजनों ने एक स्वर से अपने देश का नाम सम्राट भरत के नाम पर भारतवर्ष रख दिया, जो आज तक प्रचलित है। इस धारणा की संस्तुति प्राचीन साहित्य सभ्यता और संस्कृति से सहज ही हो जाती है।