‘तीर्थ’ शब्द की व्याख्या करते हुए जैनाचार्यों ने लिखा है-
‘‘तीर्यते संसार सागरो येनासौ तीर्थः’’ अर्थात् जिसके द्वारा संसाररूपी महासमुद्र को तिरा जावे-पार किया जावे उसे तीर्थ कहा जाता है। उस तीर्थ के प्रथमतः दो भेद किये हैं-भावतीर्थ और द्रव्यतीर्थ। आत्मा के परमशुद्ध परिणाम को भावतीर्थ कहते हैं, क्योंकि शुद्ध भावों से ही जीव परमात्मपद को प्राप्त करता है।
महापुरूषों की चरणरज से पवित्र भूमियाँ द्रव्यतीर्थ के रूप में मानी जाती हैं। इनकी यात्रा को समाप्त करने की भावना भाते हैं।
इस प्रकार से तीर्थों की महिमा को बतलाते जो पुण्यस्थल हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं। उन तीर्थों को तीन भागों में विभक्त किया गया है-१. तीर्थक्षेत्र २. सिद्धक्षेत्र, ३. अतिशयक्षेत्र।
तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवलज्ञान कल्याणकों से पवित्र स्थल वास्तविक तीर्थक्षेत्र की श्रेणी में आते हैं तथा अन्य महापुरुषों के भी जन्म अथवा दीक्षा आदि से पावन भूमि को भी तीर्थ की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। जैसे-अयोध्या, पावापुर, गिरनार, सोनागिरि, मांगीतुंगी, कुंथलगिरि आदि।
जहाँ से तीर्थंकर भगवान अथवा कोई महामुनि आदि मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे स्थान सिद्धक्षेत्र कहे जाते हैं। जैसे-सम्मेद शिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, सोनागिरि, मांगीतुंगी, गजपंथा इत्यादि।
जिस ग्राम-नगर या स्थान पर भूगर्भ से प्राचीन प्रतिमाएं निकलती हैं अथवा वहाँ कोई चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। उन्हें अतिशयक्षेत्र के रूप में माना जाता है। जैसे-श्री महावीरजी, तिजाराजी, चमत्कारजी, चांदखेड़ी आदि।
इस प्रकार के तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र वर्तमान में भारत की धरती पर सैकड़ों की संख्या में हैं। उनमें से अयोध्या और सम्मेदशिखरजी ये दो तीर्थ शाश्वततीर्थ के रूप में जैन आगम ग्रंथों में माने गये हैं, क्योंकि अनादिकाल से हमेशा इस धरती पर चतुर्थकाल में होने वाले २४-२४ तीर्थंकर अयोध्या में ही जन्मे हैं और आगे अनन्तकाल तक अयोध्या में ही जन्मेंगे।
इसी प्रकार से सभी तीर्थंकरों ने सम्मेदशिखर पर्वत से ही निर्वाणधाम को प्राप्त किया है और आगे भी वहीं से निर्वाण प्राप्त करेंगे।
परन्तु यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि वर्तमान युग हुण्डावसर्पिणी काल के नाम से जाना जाता है। यह असंख्यातों कल्पकालों के बाद एक बार आता है और इसमें कई प्रकार के अनहोने कार्य होते हैं। जैसे-
१. हमेशा तो चतुर्थकाल में तीर्थंकर जन्म लेते थे किन्तु इस बार तीसरे काल में ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) का जन्म हो गया और तृतीयकाल के अन्त में ही उनका निर्वाण भी हो गया। पुनः चतुर्थ काल में भगवान अजितनाथ से महावीर तक २३ तीर्थंकर हुए।
२. चौबीस तीर्थंकर में से पाँच तीर्थंकर (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ) भगवान ही अयोध्या में जन्मे हैं तथा अन्य १९ तीर्थंकरों ने अन्यत्र स्थानों पर जन्म ले लिया। इसलिए वर्तमान में
२४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियाँ हैं।
३. इसी प्रकार शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र से वर्तमान चौबीसों के २० तीर्थंकर भगवान मोक्ष गये हैं, शेष ४ तीर्थंकर कैलाशपर्वत, चम्पापुर, गिरनार और पावापुर से मोक्ष चले गये। इसलिए आज २४ भगवान की ५ निर्वाण भूमियाँ मानी जाती हैं।
४. प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के १०१ पुत्रों में से भरत प्रथम चक्रवर्ती बने, बाहुबली प्रथम कामदेव बने, वृषभसेन प्रथम गणधर मुनिराज बने, अनंतवीर्य मोक्षगामी हुए, ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याएँ प्रथम आर्यिका बनीं।
किन्तु बाहुबली के द्वारा चक्रवर्ती भरत का पराभव-अपमान हुआ यह हुण्डावसार्पिणी काल का दोष समझना चाहिए।
इसी प्रकार के कुछ दोष इस युग में उत्पन्न हो गये हैं, फिर भी अनेकानेक धर्म तीर्थों एवं धर्मगुरुओं के कारण जिनधर्म की प्रभावना आज भी निर्बाधरूप से हो रही है और आगे पंचमकाल के अन्त तक होती रहेगी।
तीन प्रकार के भेदों में विभक्त तीर्थ वर्तमान में लगभग ३५० की संख्या में पाये जा रहे हैं।
जैन इनसाइक्लोपीडिया (www.encyclopediaofjainism.com) में इन तीर्थों के सचित्र वर्णन भी आप प्राप्त कर सकते हैं।
दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों के अनुसार जिनमंदिर और मूर्तियों के निर्माण की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, क्योंकि जब-जब तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म होने से पूर्व स्वर्ग से इन्द्र धरती पर आते थे तब वे अयोध्या नगरी में सर्वप्रथम चारों दिशाओं में और नगर के मध्यभाग में इस प्रकार पाँच जिनालयों की स्थापना करके ही महल की रचना करते थे एवं उसमें होने वाले तीर्थंकर के माता-पिता का मंगल प्रवेश कराते थे तथा समय-समय पर आकर तीर्थंकर के कल्याणक मनाना, रत्नवृष्टि करना आदि अपने कर्तव्य की पूर्ति करते थे।
श्रीजिनसेनाचार्य रचित महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण में भी वर्णन आया है-
इन्द्र ने अयोध्या का निर्माण करते समय नगर की चारों दिशाओं में और नगर के मध्य में पाँच देवालयों या जिनायतनों की रचना करके जिनायतनों का निर्माण करने और उसमें मूर्ति-स्थापना करने का मार्ग प्ा्रशस्त कर दिया था।
एक बार जब सम्राट भरत कैलाश गिरि पर भगवान ऋषभदेव के दर्शन करके अयोध्या लौटे तो उनका मन भगवान की भक्ति से ओतप्रोत था। उन्होंने भगवान के दर्शन की उस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए कैलाश शिखर के आकार के घण्टे बनवाये और उन पर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का अंकन कराया। ये घण्टे नगर के चतुष्पथों, गोपुरों, राजप्रासाद के द्वारों और ड्यौढ़ियों में लटकवाये।
किन्तु इतने से सम्राट भरत के मन को सन्तुष्टि नहीं हुई। इससे भगवान की पूजा का उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता था तब उन्होंने इन्द्र द्वारा बनाये गए जिनायतनों से प्रेरणा प्राप्त करके कैलाशगिरि पर ७२ जिनायतनों का निर्माण कराया और उनमें अनर्घ्य रत्नों की प्रतिमायें विराजमान कराई अतः साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर यह स्वीकार करना असंगत न होगा कि नागरिक सभ्यता के विकास-काल की उषा-बेला में ही मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था।
पौराणिक जैन साहित्य में मन्दिरों और मूर्तियों के उल्लेख विभिन्न स्थलों पर प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये हुए इन मन्दिरों की रक्षा के लिए भारी उद्योग किया था और उनके चारों ओर परिखा खोदकर भागीरथी के जल से उसे पूर्ण कर दिया था। लंकाधिपति रावण इन मन्दिरों के दर्शनों के लिए कई बार आया था। लंका में एक शान्तिनाथ जिनालय था, जिसमें रावण पूजन किया करता था और लंका विजय के पश्चात् रामचन्द्र, लक्ष्मण आदि ने भी उसके दर्शन किये थे।
पं. श्री बलभद्र जी ने ‘‘जैनधर्म का प्राचीन इतिहास’’(भाग १) में उल्लेख किया है कि-
साहित्य में ईसा पूर्व ६०० से पहले के मन्दिरों के उल्लेख मिलते हैं। भगवान पार्श्वनाथ के काल में किसी कुवेरा देवी ने एक मन्दिर बनवाया था, जो बाद में देवनिर्मित बौद्ध स्तूप कहा जाने लगा। यह सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के काल में सोने का बना था। जब लोग इसका सोना निकाल कर ले जाने लगे, तब कुवेरा देवी ने इस प्रस्तर को खण्डों और ईंटों से बनवा दिया। विविध तीर्थ कल्प-मथुरापुरी कल्प की। इस अनुपम कलाकृति का उल्लेख कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त भगवान मुनिसुव्रत की द्वितीय सदी की प्रतिमा की चरण-चौकी पर अंकित मिलता है।
भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् दन्तिपुर (उड़ीसा) नरेश करकण्डु ने तेरापुर गुफाओं में गुहा-मन्दिर (लयण) बनवाये और उनमें पार्श्वनाथ की पाषाण प्रतिमा विराजमान कराई। ये लयण और प्रतिमा अब तक विद्यमान है। ‘करकण्डु चरित्त’ आदि ग्रन्थों के अनुसार तो ये लयण और पार्श्वनाथ-प्रतिमा करकण्डु नरेश से भी पूर्ववर्ती थे।
पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत में लोहानीपुर (पटना का एक मुहल्ला) में नाला खोदते समय जो तीर्थंकर-प्रतिमा उपलब्ध हुई है, वह भारत की मूर्तियों में प्राचीनतम है। यह आजकल पटना म्यूजियम में सुरक्षित है। इसका सिर नहीं है। कुहनियों और घुटनों से भी खण्डित है। किन्तु कन्धों और बाहों की मुद्रा से यह खड्गासन सिद्ध होती है तथा इसकी चमकीली पालिश से इसे मौर्यकाल (३२०-१८५ ई० पू०) की माना गया है। हड़प्पा में जो खण्डित जिनप्रतिमा मिली है, उससे लोहानीपुर की इस जिन-प्रतिमा में एक अद्भुत सादृश्य परिलक्षित होता है और इसी सादृश्य के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय मूर्ति-कला का इतिहास वर्तमान मान्यता से कहीं अधिक प्राचीन है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि देव-मूर्तियों के निर्माण का प्रारम्भ जैनों ने किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम तीर्थकर-मूर्तियों का निर्माण करके धार्मिक जगत को एक आदर्श प्रस्तुत किया।
एक अन्य मूर्ति के सम्बन्ध में उदयगिरि की हाथीगुफा में एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख के अनुसार कंिलंग नरेश खारवेल मगध नरेश वहसतिमित्र को परास्त करके छत्र-भृगांरादि के साथ ‘कलिंग जिन ऋषभदेव’ की मूर्ति वापिस कलिंग लाये थे जिसे नन्द सम्राट कलिंग से पाटलिपुत्र ले गये थे। सम्राट् खारवेल ने इस प्राचीन मूर्ति को कुमारी पर्वत पर अर्हत्प्रासाद बनवाकर विराजमान किया था। इस ऐतिहासिक शिलालेख की इस सूचना को अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। इसके अनुसार मौर्य-काल से पूर्व में भी एक मूर्ति थी, जिसे ‘कलिंगजिन’ कहा जाता था।
मन्दिरों का निर्माण कब प्रारम्भ हुआ, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार जैन मन्दिरों का निर्माण काल जैन प्रतिमाओं के निर्माणकाल से प्राचीन प्रतीत नहीं होता। लोहानीपुर, श्रावस्ती, मथुरा आदि में जैन मन्दिरों के अवशेष उपलब्ध हुए हैं किन्तु अब तक सम्पूर्ण मन्दिर कहीं पर भी नहीं मिला इसलिये प्राचीन जैन मन्दिरों का रूप क्या था, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।
किन्तु गुहा-मन्दिर और लयण ईसा पूर्व सातवीं-आठवीं शताब्दी तक के मिलते हैं। तेरापुर के लयण, उदयगिरि-खण्डगिरि के गुहामन्दिर, अजन्ता-एलोरा और बादामी की गुफाओं में उत्कीर्ण जैन मूर्तियाँ इस बात के प्रमाण हैं कि गुफाओं को मन्दिरों का रूप प्रदान कर उनका धार्मिक उपयोग ईसा पूर्व से होने लगा था। इन गुहामन्दिरों का विकास भी हुआ। विकास का यह रूप मात्र इतना ही था कि कहीं-कहीं गुफाओं में भित्ित-चित्रों का अंकन किया गया। ऐसे कलापूर्ण भित्ति चित्र सित्तन्नवासन आदि गुफाओं में अब भी मिलते हैं।
गुहा मन्दिरों का सामान्य मन्दिरों की अपेक्षा स्थायित्व अधिक रहा इसीलिये हम देखते हैं कि ईसा पूर्व का कोई मन्दिर आज विद्यमान नहीं है, जबकि गुहा-मन्दिर अब भी मिलते हैं।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्यिक साक्ष्य के अनुसार कर्मभूमि के प्रारम्भिक काल में इन्द्र ने अयोध्या में पाँच मन्दिरों का निर्माण किया भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय बनवाये। शत्रुघ्न ने मथुरा में अनेक जिन-मन्दिरों का निर्माण कराया। जैन मान्यतानुसार तो तीन लोकों की रचना में कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयों का पूजा-विधान जैन परम्परा में अब तक सुरक्षित है इसलिये यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में जिन चैत्यालयों की कल्पना बहुत प्राचीन है।
किन्तु पुरातत्व को ज्ञात जैन मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप-विधान कैसा था, इसमें अवश्य मतभेद दृष्टिगोचर होता है। लगता है, प्रारम्भ में मन्दिर सादे बनाये जाते थे। उन पर शिखर का विधान पश्चात्काल में विकसित हुआ। शिखर सुमेरु और कैलाश के अनुकरण पर बने। अनेक प्राचीन सिक्कों पर मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप माना है। ई० पू० द्वितीय और प्रथम शताब्दी के मथुरा-जिनालयों में दो विशषतायें दिखाई देती हैं-प्रथम वेदिका और द्वितीय शिखर। इस सम्बन्ध में प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी का अभिमत है कि मन्दिर के चारों ओर वृक्षों की वेष्टनी बनाई जाती थी। इसे ही वेदिका कहा जाता था। बाद में यह वेष्टनों प्रस्तरनिर्मित होने लगी।
मौर्य और शुंग काल में जैन मन्दिरों का निर्माण अच्छी संख्या में होने लगा था। उस समय ऊँचे स्थान पर स्तम्भों के ऊपर छत बनाकर मन्दिर बनाये जाते थे। छत गोलाकार होती थी, पश्चात् अण्डाकार बनने लगी। शक-सातवाहन-काल (ई० पू० १०० से २०० ई०) में मन्दिरों का निर्माण और अधिक संख्या में होने लगा। इस काल में जैन मन्दिरों, उनके स्तम्भों और ध्वजाओं पर तीर्थकर की मूर्ति बनाई जाने लगी। इस काल में प्रदक्षिणा-पथ भी बनने लगे जो प्रायः काष्ठ की वेष्टनी से बनाये जाते थे। कुषाण काल में ये पाषाण के बनने लगे।
कुषाण काल में जैन मन्दिर और भी अधिक बनने लगे। इस काल में मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, कम्पिला और हस्तिनापुर प्रमुख जैन केन्द्र थे।
गुप्त काल (ई. चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों का निर्माण प्रचुरता से होने लगा। सौन्दर्य और मन्दिरों के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। इस काल में स्तम्भों को पत्रावली और मांगलिक चिन्हों से अलंकृत किया जाने लगा। तोरण और सिरदल के ऊपर तीर्थंकर मूर्ति बनाई जाने लगी। गर्भगृह के ऊपर शिखर बनने लगा। बाहर स्तम्भों पर आधारित मण्डप की रचना होने लगी। बाह्य भित्तियों पर मूर्तियों का अंकन होने लगा।
ईसवी सन् ६०० के बाद उत्तर भारत में ‘नागर शैली’ और दक्षिण भारत में ‘द्रविड़ शैली’ का विशेष रूप से विकास हुआ। शिखर के अलंकरण की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा।
इस प्रकार विभिन्न कालों में मन्दिरों के रूप और कला में विभिन्न परिवर्तन होते रहे। कला एकरूप होकर कभी स्थिर नहीं रही। समय के प्रभाव से वह अपने आपको मुक्त भी नहीं कर सकी। एक समय था, जब तीर्थंकर प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बनाई जाती थी किन्तु आज तो तीर्थंकरों के साथ अष्ट प्रातिहार्य का प्रचलन ही समाप्त सा हो गया है, जबकि शास्त्रीय दृष्टि से यह आवश्यक है।
यह प्रकरण इसलिये दिया गया है, जिससे विभिन्न शैलियों के प्राचीन मन्दिरों के काल-निर्णय करने में पाठकों को मार्गदर्शक तत्वों की जानकारी हो सके।
प्रत्येक तीर्थंकर का एक चिन्ह है, जिसे लांछन कहा जाता है। तीर्थंकर-मूर्तियॉं प्रायः समान होती हैं। केवल ऋषभदेव की कुछ मूर्तियों के सिर पर जटायें पाई जाती हैं तथा पार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर सर्प का फण होता है। सुपार्श्वनाथ की कुछ मूर्तियों के सिर के ऊपर भी सर्प का फण मिलते हैं। पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ के सर्प-फणों में साधारण सा अन्तर मिलता है। सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर पाँच फण होते हैं और पार्श्वनाथ की मूर्तियों के सिर के ऊपर सात, नौ, ग्यारह अथवा सहस्र सर्प-फण पाये जाते हैं। इन तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों में कोई अन्तर नहीं होता। उनकी पहचान चरण-चौकी पर अंकित उनके चिन्हों से ही होती है। चिन्ह न हो तो दर्शक को पहचानने में बड़ा भ्रम हो जाता है। कभी-कभी तो लांछनरहित मूर्ति को साधारण जन चतुर्थकाल की मान बैठते हैं, जबकि वस्तुतः श्रीवत्स लांछन और अष्ट प्रातिहार्य से रहित मूर्ति सिद्धों की कही जाती है इसलिये मूर्ति के द्वारा तीर्थंकर की पहचान करने का एकमात्र साधन तीर्थंकर-प्रतिमा की चरण-चौकी पर अंकित उसका चिन्ह ही है अतएव तीर्थकर-मूर्ति-विज्ञान में चिन्ह या लांछन का अपना विशेष महत्व है।
ऋषभदेव का वृषभ, अजितनाथ का हाथी, संभवनाथ का अश्व, अभिनन्दननाथ का बन्दर, सुमतिनाथ का चक्रवाक पक्षी, पद्मप्रभु का कमल, सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक, चन्द्रप्रभ का अर्धचन्द्र, पुष्पदन्त का मगर, शीतलनाथ का श्रीवृक्ष (कल्पवृक्ष), श्रेयान्सनाथ का गेंडा, वासुपूज्य का महिष (भैंसा), विमलन्ााथ का शूकर, अनन्तनाथ का सेही, धर्मनाथ का वज्रदण्ड, शान्तिनाथ का हिरण, कुन्थुनाथ का बकरा, अरनाथ का मछली, मल्लिनाथ का कलश, मुनिसुव्रतनाथ का कछुआ, नमिनाथ का नीलकमल, नेमिनाथ का शंख, पार्श्वनाथ का सर्प और महावीर का सिंह लांछन था।
यहाँ पर यह थोड़ा सा प्राचीन परिचय जिनमंदिर और मूर्तियों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रदान किया गया है। वर्तमान में भी पूरे देश के अन्दर अतिशय सुन्दर शिल्पकलायुक्त मंदिरों के निर्माण हो रहे हैं और जिनमूर्तियों का शिल्प भी अब पूर्व काल की अपेक्षा काफी अच्छे रूप में निखर कर आया है।
मूर्ति निर्माण के संदर्भ में जयपुर की मूलचन्द रामचन्द्र नाठा फर्म भी अति प्रसिद्ध हुई है। इनके द्वारा बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं निर्मित करवाकर अनेक स्थान पर विराजमान की गई हैं। उनमें से हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में सूरजनारायण नाठा की देखरेख में एक इंच की अष्ट धातु प्रतिमा से लेकर (तेरहद्वीप एवं तीनलोक रचना में विराजमान) ३१-३१ फुट उत्तुंग (भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरनाथ की) खड्गासन प्रतिमाएं विशेष दर्शनीय हैं।
मंदिर एवं मूर्तियों की संख्या-अकृत्रिम जिनमंदिरों की गणना जो तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों में कही है वह तीनों लोकों की अपेक्षा आठ करोड़ छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी (८,५६,९७,४८१) है तथा उन सबमें १०८-१०८ प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं अतः सब मिलाकर कुल नौ सौ पच्चीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार, नौ सौ अड़तालिस (९२५ ५३, २७, ९४८) प्रतिमाओं की संख्या मानी है। इसके अलावा भवन-व्यंतर और ज्योतिर्वासी देवों के भवनों की अपेक्षा असंख्यातों जिनमंदिर तथा असंख्यातों जिनप्रतिमाएँ जानना चाहिए।
वर्तमान में हम सभी को इन अकृत्रिम मंदिरों के दर्शन उपलब्ध नहीं हैं किन्तु कृत्रिम मंदिर बनाने की परम्परा भी जो प्राचीन काल से धरती पर चली आ रही है उन्हीं के विषय में यहाँ आप सभी को जानना है। भारतदेश की सीमा जो आज उपलब्ध हो रही है उसमें विभिन्न प्रदेशों के अन्दर दिगम्बर जैन तीर्थों की संख्या लगभग ३०० है और दिगम्बर जैन मंदिर लगभग १२००० की संख्या में है।
भवनं यस्तु जैनेन्द्रं, निर्मापयति मानवः।
तस्य भोगोत्सवः शक्यः केन वक्तुं सुचेतसः।।१७२।।
प्रतिमां यो जिनेन्द्राणां, कारयत्यचिरादसौ।
सुरासुरोत्तमसुखं, प्राप्य याति परं पदम्।।१७३।।
व्रतज्ञान तपोदानैर्यन्युपात्तानि देहिनः।
सर्वैस्त्रिष्वपिकालेषु, पुण्यानि भुवनत्रये।।१७४।।
एकस्मादपि जैनेन्द्र बिम्बान् भावेन कारितान्।
यत्पुण्यं जायते तस्य न संमान्त्यतिमात्रतः।।१७५।।
अर्थ-जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस शुद्ध चित्तवाले मनुष्य के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है अर्थात् उसको संसार के इतने भोगोपभोग के साधन प्राप्त होते हैं जिनका वर्णन करना भी अशक्य है।।१७२।।
जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होता है अर्थात् वह कुछ भवों में ही मोक्षसुख को प्राप्त कर लेता है।।१७३।।
तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत-ज्ञान-तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक जिनेन्द्र प्रतिमा बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं।।१७४-१७५।।
इसी प्रकार से आचार्य श्रीवसुनंदि स्वामी (बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं) ने अपने श्रावकाचार ग्रंथ में कहा है-
कुत्थुंभरिदलमत्तं जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं।
सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं।।४८१।।
जो पुण जिणिंदभवणं समुणणयं परिहि-तोरणसमग्गं।
णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कइ वणिणउं सयलं।।४८२।।(१)
जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा को स्थापन करता है, वह तीर्थंकर पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है।।४८१-४८२।।
तीर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैं : शास्त्र, उपाध्याय, उपाय, पुण्य कर्म, पवित्र स्थान आदि। लोक में इस शब्द का अर्थ ‘पवित्र स्थान’ के रूप में रूढ़ हो गया है। जैन तीर्थों से अभिप्राय है : वे पवित्र स्थान जिनको जैन पूजते और मानते हैं।
संसार विरक्त महापुरुष प्रकृति के एकांत—शांत स्थानों में विचरते हैं। वे उच्च पर्वत मालाओं, मनोरम उपत्यकाओं, गहन गुफाओं एवं वनों में जाकर साधना में लीन होते हैं। जैनधर्म जीवमात्र को परमार्थ सिद्धि की साधना का उपदेश देता है, क्योंकि प्रत्येक जीवन सुख चाहता है। सुख संसार के प्रलोभनों में नहीं है। वह आत्मा का गुण है। संपत्ति तो छाया के समान है। छाया का पीछा करने से वह हाथ नहीं आती। उसके प्रति उदासीन हो जाइए। वह स्वत: आपके पीछे-पीछे चलेगी। महान बनने के लिए त्याग धर्म का ही अभ्यास करना कार्यकारी है। अर्थ और काम पुरुषार्थों की सफलता धर्म पुरुषार्थ पर ही निर्भर है इसलिए अन्य कार्यों के साथ तीर्थवंदना भी धर्म साधना का मुख्य कारण कहा गया है। वस्तुत: तीर्थ वह विशेष स्थान है, जहाँ पर किसी साधक ने साधना करके आत्मसिद्धि वâो प्राप्त किया है। वह स्वयं तारण—तरण हुआ है और उस क्षेत्र को भी अपनी भवतारण शक्ति से संस्कारित कर गया है। धर्ममार्ग के महान प्रयोग उस क्षेत्र में किए जाते हैं। मुमुक्षु जीव तिल—तुषमात्र परिग्रह का त्याग करके मोक्ष पुरुषार्थ के साधक बनते हैं, वे वहां पर आसन लगाकर तपश्चरण, ज्ञान और ध्यान का अभ्यास करते हैं। अंत में कर्म शत्रुओं तथा द्वेषादि का नाश करके परमार्थ को प्राप्त करते हैं। यहीं से वे मुक्त होते हैं इसलिए ही निर्वाण स्थान परम पूज्य हैं किन्तु निर्वाणस्थान के साथ ही जैनधर्म में तीर्थंकर भगवान के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक के पवित्र स्थानों को भी सिद्ध तीर्थ कहा गया है। तीर्थंकर (कर्म) प्रकृति जैन कर्म सिद्धांत में एक सर्वोपरि पुण्य प्रकृति कही गई है। जिस महानुभाव से यह पुण्य प्रकृति बंध हो प्राप्त होती है, अन्य सभी पुण्य प्रकृतियाँ उसकी अनुसारिणी हो जाती हैं। यही कारण है कि भावी तीर्थंकर के माता के गर्भ में आने के छह मास पूर्व से और गर्भावस्था के नौ मास तक, इस प्रकार १५ मास तक रत्न और स्वर्ण की वृष्टि होती है। उनका गर्भावतरण और जन्म स्वयं माता—पिता एवं अन्य जनों के लिए सुखकारी होता है। जिस समय तीर्थंकर भगवान तपस्वी बनने के लिए पुरुषार्थी होते हैं, उस समय के प्रभाव का वर्णन करना दुष्कर है। वह महान अनुष्ठान है-संसार में सर्वतोभद्र है। उस समय कर्मवीर से धर्मवीर ही नहीं बल्कि वह धर्मचक्रवर्ती की प्रतिज्ञा करते हैं। उनके द्वारा महान लोकोपकार होने का पुण्य योग इसी समय से घटित होता है। तब फिर उनका तपोवन क्यों न पतितपावन हो ? उनके दर्शन करने से क्यों न धर्ममार्ग पर अग्रसर होने का उत्साह जागृत हो ?
उस पर केवलज्ञान कल्याणक की महिमा सीमा असीम है। इसी अवसर पर तीर्थंकरत्व का पूर्ण प्रकाश होता है। इसी समय तीर्थंकर भगवान को धर्मचक्रवर्तित्व प्राप्त होता है। उनके ज्ञानपुंज रूप, दिव्य आत्मप्रकाश के सामने सहस्रों सूर्यों का प्रकाश भी लज्जित है। यही वह कल्याणक है, जिसमें लोकोपकार के बहाने तीर्थंकर भगवान द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन होता है। यही वह पुण्य स्थान है, जहां जीव मात्र को सुखकारी धर्मदेशना कर्णगोचर होती है और यहां से एक स्वर्ण बेला में तीर्थंकर भगवान का विहार होता है, जिसके आगे—आगे धर्मचक्र चलता है। सारे आर्यखंड में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिनेंद्र प्रभु का विहार और धर्मोपदेश होता है अत: आयुकर्म के निकट अवसान में वह जीवनमुक्त परमात्मा किसी पुण्य क्षेत्र पर आ विराजमान होते हैं। यहीं से लोकोत्तर ध्यान साधना में अघातिया कर्मों का भी नाश करके अशरीरी परमात्मा हो जाते हैं। वह क्षेत्र ज्ञान किरण से संस्कारित हो जाता है। देवेन्द्र वहां आकर निर्वाणकल्याणक की पूजा करता है और उस स्थान को अपने वङ्कादंड से चिन्हित कर देता है। भक्तजन ऐसे पवित्र स्थानों पर चरण—चिन्ह स्थापित करके उपर्युक्त दिव्य घटनाओं की पुनीत स्मृति को स्थायी बना देते हैं। मुमुक्षु उनकी वंदना करते हैं और उस आदर्श से शिक्षा ग्रहण करके आत्मकल्याण करते हैं।
किन्तु तीर्थंकर भगवान के कल्याणक स्थानों के अतिरिक्त सामान्य केवली महापुरुषों के निर्वाण स्थान भी तीर्थवत् पूज्य हैं। वहां निरन्तर यात्रीगण आते-जाते हैं, उस स्थान की विशेषता उन्हें वहां ले जाती है। वह एकमात्र आत्मसाधना के चमत्कार की द्योतक होती है। उस पवित्र क्षेत्र पर या तो किसी पूज्य साधु ने उपसर्ग सहन कर अपने आत्मबल का चमत्कार प्रकट किया होगा अथवा वह स्थान अगणित आराधकों की धर्माराधना और सल्लेखनाव्रत की पालना से दिव्य रूप पा लेता है। वहां पर अद्भुत और अतिशयपूर्ण दिव्य मूर्तियां और मन्दिर मुमुक्षु के हृदय पर ज्ञान—ध्यान की शांतिपूर्ण मुद्रा अंकित करने में कार्यकारी होते हैं, इन्हें अतिशय क्षेत्र कहा जाता है।
जैनसिद्धांत साक्षात् धर्म विज्ञान है। उसमें अंधेरे में निशाना लगाने का उद्योग कहीं नहीं है। वह साक्षात सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों की देन है इसलिए उनमें पद-पद पर वैज्ञानिक निरूपण मिलता है। हर कोई जानता है कि जिसने किसी मनुष्य को देखा नहीं वह उसको पहचान नहीं सकता। मोक्षमार्ग के पर्यटक का ध्येय परमात्म स्वरूप प्राप्त करना होता है। तीर्थंकर भगवान उस परमात्म स्वरूप के प्रत्यक्ष आदर्श जीवन मुक्त परमात्मा होते हैं अतएव उनका दर्शन करना एक मुमुक्षु के उपादेय है। इस काल में उनका दर्शन उसे परमात्मदर्शन कराने में कारणभूत होता है। इस काल में उनका प्रत्यक्ष दर्शन सुलभ नहीं है इसलिए ही उनकी तदाकार स्थापना करके मूर्तियों द्वारा उनका दर्शन किया जाता है। तीर्थस्थानों में उनकी उस ध्यानमयी शांत मुद्रा को धारण करने वाली मूर्तियां विराजमान हैं। वे मूर्तियां भक्तजनों के हृदय में सुख और शांति की पुनीत धारा बहा देती हैं। भक्तहृदय उन मूर्तियों के सम्मुख पहुंचते ही अपने आराध्यदेव का साक्षात अनुभव करता है। उनका गुण गाकर अलभ्य आत्मतुष्टि पाता है। पाठशाला में बच्चे भूगोल पढ़ते हैं। उन देशों का ज्ञान नक्शे के द्वारा कराया जाता है जिनको उन्होंने देखा नहीं है। उस अतदाकार स्थान अर्थात् नक्शे के द्वारा वह उन विदेशों का ठीक ज्ञान उपार्जन करते हैं। ठीक इसी तरह जिनेन्द्र की प्रतिमा भी उनका परिज्ञान कराने में कारणभूत है इसीलिए जिनमंदिरों में जिनप्रतिमाएं होती हैं। उनके आधार से एक गृहस्थ ज्ञान मार्ग में आगे बढ़ता है। तीर्थस्थानों पर भी इसीलिए अति मनोज्ञ और दर्शनीय मूर्तियों का निर्माण किया गया है।
पहले तो तीर्थस्थान स्वयं पवित्र हैं। उस पर वहां आत्मसंस्कारों को जागृत करने वाली बोलती सी जिनप्रतिमाएं होती हैं। उनके दर्शन से तीर्थयात्री को महत्ती निराकुलता का अनुभव होता है। वह साक्षात् सुख का अनुभव करता है।
तीर्थ वह स्थान है जिससे संसार सागर तरा जाए। उसके समागम में पहुंचकर मुमुक्षु संसार सागर से तिरने का उद्योग उपक्रम करता है। तीर्थस्थान योगियों की योग निष्ठा, ज्ञान—ध्यान और तप–साधना से पवित्र हो चुके होते हैं। उनमें भी निर्वाण क्षेत्र का महत्व सर्वोपरि है। वे तो महातीर्थ हैंं इन क्षेत्रों में बड़े—बड़े प्रसिद्ध पुरुष सिद्ध हुए हैं। पुराण पुरुष अर्थात् तीर्थंकरों के आश्रय स्थानों अथवा उनके निमित्त कल्याणक स्थानों में ध्यान की विशेष सिद्धि होती है। ध्यान ही वह अमोघ अस्त्र है जो पापशत्रु को नष्ट करता है। मुमुक्षु पाप से डरता है। पाप में पीड़ा है और पीड़ा से सब बचना चाहते हैं। इस पीड़ा से बचने के लिए भव्य जीव तीर्थों की शरण लेते हैं। लोकविश्वास के अनुसार तीर्थवंदन से पापमल धुल जाता है। लोगों को यह श्रद्धान सार्थक है परन्तु यह विवेकपूर्ण होना चाहिए। तीर्थ के स्वरूप, महत्व और उसकी वंदना के रहस्य को समझे बिना तीर्थदर्शन मात्र पर्याप्त नहीं होता। लोक में सागर, सरोवर, नदी आदि को तीर्थ मानकर उनमें स्नान कर लेने मात्र से बहुधा पवित्र हुआ माना जाता है। यह धारणा गलत है। बाहरी शरीर मल के धुलने से आत्मा पवित्र नहीं होती। आत्मा तब ही पवित्र होती है, जबकि क्रोधादि अंतर्मल दूर हों अतएव तीर्थ वही कहा जा सकता है और वही तीर्थ वंदना हो सकती है, जिसकी निकटता में पापमल दूर होकर अंतरंग शुद्ध हो। जिनमार्ग में वही तीर्थ वंदना है, जिसके दर्शन और पूजन करने से पवित्र उत्तम क्षमादि धर्म, विशुद्ध सम्यक् दर्शन, निर्मल संयम और यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो। जहां से मनुष्य शांतिभाव का पाठ उत्तम रीति से ग्रहण कर सकता है, वही तीर्थ है। जैनमत के माननीय तीर्थ उन महापुरुषों के पावन स्मारक हैं, जिन्होंने आत्मशुद्धि की पूर्णता प्राप्त की है। लौकिक शुद्धि विशेष कार्यकारी नहीं है। साबुन लगाकर, मल मल कर नहाने से शरीर भले ही शुद्ध सा दिखने लगे परन्तु लोकोत्तर शुचिता उससे प्राप्त नहीं हो सकती। वह तो तब ही प्राप्त हो सकती है जब अंतरंग से क्रोधादि कषाय मैल धो दिया जाए। इसको धोने के लिए धर्म उपादेय है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म की आराधना ही लोकोत्तर शुचिता की आधारशिला है। इस रत्नत्रय धर्म के धारक साधुजनों के आधार रूप निर्वाण आदि तीर्थस्थान हैं। वे तीर्थ ही इस कारण लोकोत्तर शुचित्व के योग्य उपाय हैं, प्रबल निमित्त हैं इसीलिए शास्त्रों में तीर्थों की गणना मंगलों में की गई है-वे क्षेत्रमंगल हैं। वैâलाश, सम्मेदाचल, ऊर्जयंत (गिरनार), पावापुर, चंपापुर आदि तीर्थस्थान अर्हंतादि के तप, केवलज्ञानादि गुणों के उपजने के स्थान होने के कारण क्षेत्र मंगल हैं।
इन पवित्र क्षेत्रों का स्तवन और पूजन ‘क्षेत्रस्तवन’ है। तीर्थस्थल के दर्शन होते ही हृदय में पवित्र आह्लाद की लहर दौड़ती है। हृदय भक्ति से भर जाता है। उस पुण्यभूमि को देखते ही यात्री का मस्तक झुक जाता है। वह उस तीर्थ की पवित्र प्रसिद्धि का गुणगान मधुर स्वरलहरी से करता हुआ आगे बढ़ता है। जिनमंदिरों में जाकर वह जिनदर्शन करता है, सुविधानुसार अष्ट द्रव्यों से जिनेन्द्र का और तीर्थ का पूजन करता है। तीनों समय सामायिक वंदना करता है। शास्त्र स्वाध्याय और धर्मचर्चा करने में निरत रहता है। बार—बार जाकर पर्वतादि क्षेत्र की वंदना करता है। चलते-चलते यही भावना करता है कि भव-भव में मुझे ऐसा ही पुण्य योग मिलता रहे। सारांश यह है कि यात्री अपना सारा समय धर्म पुरुषार्थ की साधना में ही लगाता है। वह तीर्थ स्थान पर रहते हुए अपने मन में बुरी भावना उठने ही नहीं देता। इन पवित्र स्थानों पर यात्रीगण कड़ी से कड़ी प्रतिज्ञाएं सहर्ष ले लेते हैं, अन्यत्र वे शायद ही उन्हें कर सकें। यह सब तीर्थ का माहात्म्य है। ऐसे पवित्र स्थान को किसी तरह अपवित्र न बनाना ही उत्तम है।
घर बैठे ही कोई अपने धार्मिक पवित्र स्थानों के महत्व और प्रभाव को नहीं जान सकता। सारे भारतवर्ष में जैन तीर्थ बिखरे हुए हैं। उनका दर्शन करके धर्म महिमा की मुहर अपने हृदय पर अंकित हो जाती है। वह उसके भावी जीवन को समुज्ज्वल बनाती है। यह तो हुआ धर्मलाभ परन्तु इसके साथ ब्याजरूपी देशाटनादि के लाभ भी होते हैं। देशाटन में बहुत सी नई बातों का अनुभव होता है और नई वस्तुओं को देखने का अवसर मिलता है। यात्री का वस्तुज्ञान और अनुभव बढ़ता है और उसमें कार्य करने की चतुरता और क्षमता आती है। घर में पड़े रहने से बहुधा मनुष्य संकुचित विचारों का कूपमंडूक बना रहता है। तीर्थयात्रा करने से हृदय से विचार—संकीर्णता दूर हो जाती है। उसकी वृत्ति उदार होती है। वह आलस्य और प्रमाद का नाश करके साहसी बन जाता है, परहित के लिए वह तत्पर रहता है।
जैन लोग अपने पूर्वजों के गौरवमय अस्तित्व का परिचय प्राचीन स्थानों का दर्शन करके ही पा सकते हैं। यह तीर्थयात्रा में सुलभ है। साथ ही जैन समाज की उपयोगी संस्थाओं : जैसे-जैन महाविद्यालय, छात्रावास, श्राविकाश्रम, अनाथाश्रम आदि देखने का अवसर मिलता है। इस दिग्दर्शन से दर्शक के हृदय में आत्मगौरव की भावना जागृत होना स्वाभाविक है। वह अपने गौरव को जैन समाज का गौरव समझेगा और ऐसा उद्योग करेगा जिसमें धर्म और संघ की प्रभावना हो। तीर्थयात्रा में मुनि-आर्यिका आदि साधु पुरुषों के दर्शन और उनकी भक्ति करने का भी सौभाग्य प्राप्त होता है। अनेक स्थानों के सामाजिक रीति—रिवाजों और भाषाओं का ज्ञान भी सुगमता से होता है। यात्रा के दौरान उसे घर—धंधे की आकुलता से छुट्टी मिल जाती है इसलिए यात्रा करते समय भाव बहुत शुद्ध रहते हैं। विशाल जैन मंदिरों और भव्य प्रतिमाओं का दर्शन करने पर बड़ा आनंद मिलता है। अनेक शिलालेखों को पढ़ने से इतिहास का ज्ञान होता है। संक्षेप में तीर्थयात्रा से मनुष्य को लाभ ही लाभ है।