चैत्र, भादों तथा माघ महीनों में पूरे ३० दिन तक यह पर्व मनाया जाता है और सोलहकारण की पूजा तथा व्रत किये जाते हैं। यह अनादिनिधन पर्व है जिसमें जैनधर्म में बतलाई गई दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप आदि सोलह प्रकार की तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली सोलहकारण भावनाओं की आराधना की जाती है।
पर्यूषण पर्व का अर्थ है वह काल जिसमें हर प्रकार से, सब ओर से कर्मों का नाश कर आत्मा पवित्र की जाये और कर्मों से मुक्त आत्मा मोक्षगामी बने। पर्यूषण:-परि±ऊषण अर्थात् पर भाव से विरत होकर स्वभाव में रमण करना। धर्म का अर्थ भी स्व-स्वभाव में लौटना है इसलिए यह पर्व हमें विकारी भावों के त्याग एवं उदात्त भावों के ग्रहण करने, कर्मादि विकारों का दहन कर अपनी आत्मा में ही निवास करने की प्रेरणा देता है। इस पर्व को दशलक्षण पर्व भी कहते हैं। इसके माध्यम से हम अपनी भूलें सुधार सकते हैं।
दशलक्षण पर्व के प्रथम दिन उत्तम क्षमा को स्थान दिया गया है और अंतिम दिन क्षमावाणी पर्व मनाया जाता है क्योंकि क्षमा धर्म से ही क्रोध पर काबू पाया जा सकता है। भूल होना मानव का स्वभाव है पर जानकर भूल करना नादानी है। दशलक्षण पर्व को मनाना हमारा तभी सार्थक होगा जब हिंसात्मक प्रवृत्तियों से बचने के साथ परिणामों में निर्मलता लाकर अपनी कषायों को कम करें व संयम की डगर पर चलें। क्षमा वीरों का आभूषण है। यह अंतरंग का विषय है। क्षमा के अभाव में त्याग, तपस्या, नियम सब व्यर्थ हैं। यह पर्यूषण पर्व वर्ष में तीन बार आता है-
१. माघ शुक्ला ५ से माघ शुक्ला १४ तक
२. चैत्र शुक्ला ५ से चैत्र शुक्ला १४ तक
३. भादों शुक्ला ५ से भादों शुक्ला १४ तक
श्वेतांबर जैन लोग भाद्रपद कृष्णा द्वादशी से भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी तक आठ दिन एवं दिगंबर जैन लोग भाद्रपद शुक्ला पंचमी से भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी तक दस दिन यह पर्व मनाते हैं।
पर्यूषण पर्व को आठ अथवा दस दिन तक सीमित करने के पीछे एक कारण है। जैन मतानुसार दुख से सुख की ओर बढ़ने वाला कालचक्र का पहिया उत्सर्पिणी काल और सुख से दुख की ओर का काल अवसर्पिणी काल माना गया है। वर्तमान अवसर्पिणी काल है। इस अवनति काल में मनुष्य के पास न तो दृष्टि का भाव रहता है और न ही समय, इसीलिए धर्माचार्यों ने आत्मशुद्धि की नित्य चलने वाली प्रक्रिया के लिए आठ और दस दिन का सीमित काल निश्चित कर दिया ताकि आत्मशुद्धि की दिशा में वर्ष भर न सही इतने ही समय के लिए प्राण-प्रण से सत्प्रयास कर सकें।
वर्षाकाल में पर्यूषण पर्व के कुछ अन्य पहलू भी हैं। चातुर्मास का समय होने से साधुओं का आवागमन स्थगित रहता है अत: उनका सतत् सानिध्य एक ही स्थान पर मिल जाता है। वर्षाकाल में वाणिज्यिक गतिविधियां भी शिथिल सी हो जाती हैं। वर्षा ऋतु में ऊर्जा का क्षय कम हो जाता है। पेट की अग्नि भी मंद हो जाने से पाचन शक्ति प्रभावित होती है अतएव इस काल में उपवास तथा अन्य तपश्चर्या तुलनात्मकरूप से सरलता से संभव है।
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन एवं उत्तम ब्रह्मचर्य ये दश प्रकार के धर्म कहे गये हैं। आत्मकल्याण के लिये एक ही धर्म पर्याप्त है तब ये दश धर्म क्यों ? वास्तव में धर्म तो एक ही है उसे समझाने की विधि भिन्न-भिन्न हैं। जैसे मकान तो एक ही है पर उसमें दरवाजे और खिड़कियां अनेक हैं। किसी भी दरवाजे से प्रवेश करें, प्रवेश मकान के अंदर ही होगा। इसी प्रकार इन दश धर्मों में से किसी एक का भी पालन कर लें तो समस्त धर्मों का पालन स्वयमेव हो जाता है।
उत्तम क्षमा-
सामान्यत: किन्हीं अप्रिय और अनचाही घटना पर क्रोध न करना क्षमा है। क्षमा आत्मा का स्वाभाविक गुण है। जब आत्मा अपने स्वभाव से च्युत होकर विभाव में पहुंच जाती है तब रागी, द्वेषी, क्रोधी आदि कहलाती है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है। क्रोध के वशीभूत होकर मनुष्य कुछ से कुछ कर डालता है। उचित-अनुचित, सत्य-असत्य, भले-बुरे का अंतर नहीं समझ पाता। क्रोध को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थिर होना क्षमा है। क्षमा दुर्घटनाओं से बचाती है, सबको मार्ग देती है। क्षमा की भावना मानसिकरूप से संतुलित करती है।
क्रोधो हि शत्रु: प्रथमो नराणां देहस्थितो देहविनाशनाय।
यथा स्थित: काष्ठगतो हि वन्हि:, स एव वन्हिर्दहते च काष्ठम्।।
मनुष्य के शरीर में छिपा हुआ क्रोध ऐसे ही देह के नाश का हेतु बन जाता है जैसे काष्ठ के भीतर छिपी हुई आग उसी को नष्ट कर देती है। क्रोध, क्रोधकर्ता को मार डालता है। क्षमा जीवन है।
मृदोर्भाव: कर्म वा मार्दव:
मानसिक कोमलता का नाम मार्दव है। चित्त में कोमलता और व्यवहार में नम्रता होना मार्दव धर्म है। मार्दव का अर्थ है मान का नाश करना। मार्दव की आधारशिला विनय है। यह आत्मा का स्वाभाविक परिणाम है। जब तक ये मार्दव धर्म मन में निवास करता है तब तक प्राणी अपने मारने वाले का भी घात नहीं करता। जब यह धर्म मन से निकल जाता है तब पिता और पुत्र का भी परस्पर में घात देखा जाता है। दया धर्म का मूल ये मार्दव धर्म निर्मलता का कारण है, सब का हितकारक है।
‘ऋजोर्भाव: आर्जवम्’
सरल भाव को आर्जव कहते हैं। इसका विलोम मायाचार है। मायाचार को त्यागना ही उत्तम आर्जव भाव कहा है। अपने मन में जैसा विचार हो वैसा ही दूसरों से वचन कहो, उसी प्रकार के कार्य की चेष्टा करो, यही सुख देने वाला आर्जव धर्म है। मन, वचन, काय इन योगों का वक्र न होना ही आर्जव धर्म है।
जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्व-पर अहिंसा की प्रधानता होने से हित, मित व प्रिय वचनों को सत्य कहा जाता है, भले ही किंचित् असत्य क्यों न हो। राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन न बोलना तथा दूसरों को संताप देने वाले सत्य वचन को छोड़ना सत्यव्रत है। हास्य, क्रोध अथवा लोभ से प्रेरित होकर मन, वचन, काय से किसी भी समय विश्वासघातक एवं पीड़ाकारक वचन न बोलना सत्यव्रत का पालन करना है। व्यवहारिक जीवन में प्रामाणिक, सत्य, स्व-परहितकारी मीठे वचन बोलना चाहिए। अपने सेवक, दीन, दरिद्र व्यक्तियों से भी पीड़ाकारक कठोर वचन नहीं कहने चाहिए।
धन, पत्नी आदि वस्तुएँ मेरी हैं, ऐसी अभिलाषा बुद्धि ही सर्व संकटों में मनुष्य को गिराती है। इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही शौच धर्म है। जो समभाव और संतोषभावरूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को धोता है तथा भोग का लोभ नहीं करता वह शौच धर्म का पालन करता है। शौच का अर्थ है पवित्रता, स्वच्छ होना, शुद्ध होना, निर्मल होना, निर्लोभ होना। पवित्र स्वभाव को छूकर जो पर्याय स्वयं पवित्र हो जाए उस पर्याय का नाम ही शौच धर्म है। शौच धर्म की विरोधी लोभ कषाय बताई गयी है।
संयम जीवन का कर्णधार है। जैसे कर्णधार के बिना नौका एक तट से दूसरे तट तक सुरक्षित एवं समयानुसार नहीं पहुंच सकती है उसी प्रकार संयम के बिना प्राणी सुखी जीवन नहीं जी सकता है।
संयमेन विना प्राणी, पशुरेव न संशय:।
योग्यायोग्यं न जानाति, भेदस्तत्र कुतो भवेत्।।
संयम के बिना मनुष्य को पशु बताया गया है। संयम ही योग्य और अयोग्य में अन्तर करना सिखाता है। मन इन्द्रियप्रदत्त विषयों का भोग करता है। बाह्य जगत् के साथ संबंध स्थापित करने का काम इन्द्रियों का है। इन्द्रियों की उच्छ्रंखलता बड़े-बड़े गम्भीर संकटों को निमंत्रण दे सकती है। इन्द्रियों पर अंकुश का अभाव युद्ध तक को जन्म देता है। इन्द्रियों को कसने वाले यह व्रत रूपी बांध विषम परिस्थितियों से जूझते हुये मानव को उबार लेते हैं और अपार धन, जन की हानि होने से बच जाती है।
कर्म शत्रुओं का नाश करना तप कहलाता है। कर्मों को शान्तिपूर्वक भोगना, जीव हिंसा न करना तप कहलाता है। चारित्र में जो उद्यम एवं उपयोग किया जाता है उसको तप की संज्ञा दी गई है। तप को संयम का एक अंग माना गया है। जो चारित्र अर्थात् संयम की आराधना करते हैं उनके अवश्य ही नियम से तप की भी आराधना हो जाती है और जो तप की आराधना करते हैं उनको चारित्र की आराधना होती है। ध्यान करना तथा कषायों का त्याग करना तप है।
संसार में हम जो कुछ प्राप्त करते हैं वह नहीं बल्कि जो कुछ हम त्यागते हैं वह हमें धनी बनाता है। दुनिया को प्रेम, मैत्री, त्याग भावना से ही जीता जा सकता है। शस्त्र से हम किसी को हरा सकते हैं जीत नहीं सकते। जैसे-जैसे परिग्रह का त्याग होता है वैसे-वैसे हृदय में आनन्द की तरंगें उठती जाती हैं।
त्याग विश्व की समस्त संस्कृतियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शब्द है। त्याग की प्रवृत्ति ग्रहण की निवृत्ति पर ही निर्भर करती है। ग्रहण अर्थात् प्राप्ति की अभिलाषा के कारण ही वासना में वृद्धि होती है तथा तृप्ति में कमी हो जाती है। असंतोष उपजता है। असंतोष के कारण राग, द्वेष मन को निर्बल बनाते हैं। प्रतिक्षण ग्रहण की इच्छा मन को विराम नहीं देती और तनाव को जन्म देती है। जिससे तन व मन दोनों निर्बल होते हैं। त्याग की प्रवृत्ति मनुष्य के मन को इच्छापूर्ति के जाल में उलझने से रोक कर अद्भुत संतुष्टि को जन्म देती है।
सूर्य अपनी प्रज्वलित अनन्त किरणें प्रतिक्षण त्याग कर लोक को प्रकाशित करता है। यदि यह त्याग न हो तब पेड़-पौधों से लेकर जीव-जन्तु मानव कोई भी जीवित न रहें। ऐसे ही मनुष्य यदि स्वार्थवश संग्रह प्रवृत्ति को ही अपनाये और त्याग या विसर्जन न करे तो जैसा कि आज हो रहा है, विश्व में आर्थिक विषमता बढ़ने के साथ-साथ आर्थिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाये। राग और क्रोध की निवृत्ति अपने अधिकार के त्याग से ही संभव है। संसार की दासता मन से निकाल देना ही त्याग है। त्याग के अभिमान का त्याग ही वास्तविक त्याग है।
आकिंचन्य एवं अपरिग्रह परस्पर पूरक हैं। अपरिग्रह व्रत है और आकिंचन्य आत्मा का धर्म है, स्वभाव है। अपरिग्रह परिग्रह का निषेध है। आकिंचन्य का अर्थ परिग्रहशून्यता मात्र नहीं है, परिग्रहशून्यता के मनोभावों की सहज स्वीकृति भी है। मनुष्य की आशायें जैसे-जैसे पूर्ण होती जाती हैं वैसे-वैसे उसकी इच्छायें बढ़ती जाती हैं, कभी विराम नहीं लेती हैं। संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जिसे सुख नहीं चाहिए। सबके मन में सुख की चाहत है। प्रत्येक प्ा्राणी की तृष्णा इतनी अधिक बढ़ी हुई है कि समस्त विश्व की सम्पत्ति भी उसे प्राप्त हो जाये तो भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं होगी। आशाओं की कोई सीमा नहीं होती, परिग्रह का कोई अन्त नहीं है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वो अपनी आकांक्षाओं की सीमा बनाकर आकिंचन्य धर्म का पालन करे।
समस्त विषय वासना का निरोधकर निज आत्मा में चरना, रमना उत्तम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के दो मार्ग बताये गये हैं-एक साधु मार्ग और दूसरा गृहस्थ मार्ग। साधु का धर्म निवृत्तिमूलक धर्म है। गृहस्थ को अपने सभी प्रकार के दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। उसकी अपनी एक सीमा है। गृहस्थ त्याग के मार्ग में पूरी तरह नहीं बढ़ सकता। गृहस्थ के लिए ब्रह्मचर्य की साधना स्वदार संतोष व्रत धारण करना बताया है अर्थात् एक पत्नीव्रत का पालन करते हुये सामाजिक मर्यादाओं का पालन करे।
पहले चार धर्म-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच क्रमश: हमारे अंदर के क्रोध, मान, माया, एवं लोभ को शमन करते हैं। इसी तरह उत्तम सत्य धर्म आत्मबल में वृद्धि एवं उत्तम संयम धर्म अनुशासित बने रहने के लिये अनिवार्य है। उत्तम तप धर्म से इंद्रिय एवं मन पर नियंत्रण रहता है।
उत्तम त्याग धर्म जीवन में संवेदनशीलता, सहिष्णुता एवं उदारता में वृद्धि करने में सहायक होता है। उत्तम आकिंचन अर्थात् अपरिग्रह धर्म परिग्रह के अभाव के साथ-साथ क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि विकारों, ‘‘जो पदार्थ में आसक्ति के कारण उत्पन्न होते हैं’’ को शमन करता है। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म आत्मलीनतापूर्वक पाँचों इंद्रियों के विषयों का त्याग, आत्मविश्वास, आत्मबल एवं गृहस्थाचार को नियमित करने का धर्म है।
यह दश धर्म चारित्र सुधार की निर्मल पर्याय हैं। इनके साथ लगा उत्तम शब्द सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की अनिवार्य सत्ता का सूचक है अर्थात् ये चारित्र की निर्मल दशायें सम्यग्ज्ञानी को ही प्रकट होती हैं। दश धर्मों की भावना भाते हुए, उनको आत्मसात करते हुए हम अपनी निर्मलता को प्राप्त होते हैं। हमारे अंतर में समस्त प्राणीमात्र के प्रति क्षमा भाव उत्पन्न होते हैं। पर्यूषण पर्व ही ऐसा पर्व है जो अपनी क्षमादि दश धर्मरूपी तरंगों से जीवन को शीतल एवं साफ-सुथरा बनाता है। विकारी भावों का परित्याग एवं उदात्त भावों का ग्रहण इस पर्व का आधार है।
पर्यूषण पर्व के समापन पर क्षमावाणी का कार्यक्रम सामूहिक रूप से मैत्री दिवस के रूप में मनाया जाता है। क्षमा पर्व हमें सहनशीलता से रहने की प्रेरणा देता है। क्रोध को उत्पन्न न होने देना और अगर हो भी जाये तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना। अपने भीतर आने वाले क्रोध के कारण को ढूंढ कर, क्रोध से होने वाले अनर्थों के बारे में सोचना और अपने क्रोध को क्षमारूपी अमृत पिला कर अपने आपको और दूसरों को भी क्षमा की दृष्टि से देखना। अपने से अनजाने में हुई गलतियों के लिये स्वयं को क्षमा करना और दूसरों के प्रति भी उसी भाव को रखना इस पर्व का महत्व है।
इस दिन स्वयं के पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। समस्त जीवों से क्षमा मांगते हुए उन्हें यह सूचित करते हंैं कि उनका किसी से कोई वैर नहीं है। उन्होंने समस्त जीवों को क्षमा कर दिया है। उन जीवों को उनसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मन, वचन और काय से जाने या अनजाने में वे किसी भी हिंसा की गतिविधि में भाग न तो स्वयं लेंगे, न दूसरों को लेने को कहेंगे और न लेने वालों का अनुमोदन करेंगे। क्षमा मांगकर जहां हम खुद का बोझ उतारते हैं, वहीं किसी को क्षमा करके दोनों का मन निर्मल करते हैं।
खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेषु वेर मज्झं ण केण वि।।
यह वाक्य परम्परागत अवश्य है मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा मांगने से अधिक आवश्यक है क्षमा करना। क्षमा देने से हम अन्य समस्त जीवों को अभयदान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। ऐसा करने से आत्मिक शांति का अनुभव होता है और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्री भाव उत्पन्न होता है। आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित न हों। क्षमा भाव इसका मूलमंत्र है। इस तरह पर्यूषण पर्व आत्मशुद्धि के साथ-साथ मनोमालिन्य दूर करने का सुअवसर प्रदान करने वाला महापर्व है। यह पर्व सबका है। भले ही इसे जैन समुदाय के लोग ही मनाते हैं। जब क्रोध ही नहीं रखा तो क्षमा करें और अच्छा सोचें। छोटी-छोटी बातों के लिए मन में वैर क्यों रखें ? क्षमा करना चाहे जितना भी मुश्किल होता हो लेकिन यह दुख के पहाड़ को ढोने से ज्यादा आसान होता है।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी, भगवान महावीर की जन्मकल्याणक तिथि है। इस दिन भारतवर्ष के सभी जैन अपना कारोबार बंद रखकर अपने-अपने स्थानों पर बड़ी धूमधाम से महावीर जयंती मनाते हैं। प्रात:काल जुलूस निकालते हैं और रात्रि में सार्वजनिक सभा का आयोजन होता है। भारत भर में बहुत सी प्रान्तीय सरकारों ने अपने प्रान्त में महावीर जयंती की छुट्टी घोषित कर दी है। केन्द्रीय सरकार से भी जैनों की यही मांग है।
भगवान आदिनाथ ने दीक्षा के समय छः मास का उपवास लिया था। उपवासोपरान्त उन्होंने आहार हेतु विहार किया किन्तु उन्हें छह माह उन्तालिस दिन आहार प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि दान की विधि किसी को मालूम नहीं थी। एक दिन भगवान आदिनाथ को देखकर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को अपने पूर्व भव का स्मरण हो जाने से दान की विधि मालूम हो गई थी और उन्होंने भगवान को प्रथम बार विधिवत् पड़गाहन कर इक्षुरस (गन्ने का रस) का आहार दिया था। उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दान के निमित्त से उस दिन राजा की रसोई में भोजन अक्षीण (जो कभी क्षीण नहीं होता है) हो गया था अतः आज भी वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन जैन समाज ही नहीं अपितु समस्त समाज में अत्यन्त शुभ माना जाता है, जिसे सभी अक्षय तृतीया पर्व के नाम से मनाते हैं।
दिगम्बर परम्परा में धीरे-धीरे जब अंगज्ञान लुप्त हो गया, तो अंगों और पूर्वोें के एकदेश के ज्ञाता आचार्य धरसेन हुए। वे सोरठ देश के गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे। उन्हें इस बात की चिंता हुई कि उनके बाद श्रुतज्ञान का लोप हो जायेगा अत: उन्होंने महिमा नगरी में होने वाले मुनि सम्मेलन को पत्र लिखा, जिसके फलस्वरूप वहाँ से दो मुनि उनके पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी बुद्धि की परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्त पढ़ाया और उनका अलग विहार करा दिया। उन दोनों मुनियों का नाम पुष्पदन्त और भूतबलि रखा गया। उन्होंने वहाँ से आकर षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रंथ की रचना की। रचना हो जाने पर भूतबलि आचार्य ने उसे पुस्तकारूढ़ करके ‘‘ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी’’ के दिन चतुर्विध संघ के साथ उसकी पूजा कराई, जिससे श्रुतपंचमी तिथि दिगम्बर जैनियों में प्रख्यात हो गयी। उस तिथि को वे शास्त्रों की पूजा करते हैं। उनकी देखभाल करते हैं, धूल तथा जीव-जन्तु से उनकी सफाई करते हैं।
उक्त पर्वों के अतिरिक्त प्रत्येक तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण के दिन कल्याणक दिन कहे जाते हैं। उन दिनों में भी जगह-जगह उत्सव मनाये जाते हैं। अनेक नगरों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की, पार्श्वनाथ की जन्मजयंती एवं निर्वाण तिथि मनायी जाती है।
दिगम्बर परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण पर्व अष्टान्हिका पर्व है। यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के अंत के आठ दिनों में मनाया जाता है। जैन मान्यता के अनुसार मध्यलोक की अकृत्रिम रचना में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्दर आठवां नंदीश्वरद्वीप है। उस द्वीप में ५२ जिनालय बने हुए हैं। उनकी पूजा करने के लिए स्वर्ग से चारों प्रकार के देवगण उक्त दिनों में जाते हैं। चूँकि मनुष्य वहाँ तक जा नहीं सकते इसलिए उक्त दिनों में आष्टान्हिका पर्व मनाकर यहीं पर नंदीश्वर द्वीप के मंदिरों की पूजा कर लेते हैं। इन दिनों में सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज, नंदीश्वर आदि पूजा विधान का आयोजन किया जाता है। यह पूजा महोत्सव दर्शनीय होता है।
जैनों के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को वैशाख शु. दशमी को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर ६६ दिन के बाद उनकी सबसे पहली धर्मदेशना मगध की राजगृही नगरी के विपुलाचल पर्वत पर प्रात:काल के समय खिरी थी। उसी के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को वीरशासन जयंती मनायी जाती है।
दूसरा उल्लेखनीय सार्वजनिक त्योहार, जिसे जैन लोग भी बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं, सलूनो या रक्षाबंधन पर्व है। साधारणत: इस त्योहार के दिन घरों में सेमई की खीर बनती है।
साथ ही साथ उत्तर भारत में एक प्रथा और है। उस दिन हिन्दू मात्र के द्वार पर दोनों ओर मनुष्य के चित्र बनाये जाते हैं उन्हें ‘सौन’ कहते हैं। पहले उन्हें जिमाकर उनके राखी बांधी जाती है, तब घर के लोग भोजन करते हैं।
जैन पुराणों में रक्षाबंधन की कथा मिलती है, जो संक्षेप में इस प्रकार है-
किसी समय उज्जैनी नगरी में श्रीधर्म नाम का राजा राज्य करता था। उसके चार मंत्री थे-बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद। एक बार दिगम्बर जैन मुनि अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों के संघ के साथ उज्जैनी में पधारे। मंत्रियों के मना करने पर भी राजा मुनियों के दर्शन के लिए गया। उस समय सब मुनि ध्यानस्थ थे। लौटते हुए मार्ग में एक मुनि से मंत्रियों का शास्त्रार्थ हो गया। मंत्री पराजित हो गये। क्रुद्ध मंत्री रात्रि में तलवार लेकर मुनियों को मारने के लिए निकले। मार्ग में गुरु की आज्ञा से उसी शास्त्रार्थ के स्थान पर ध्यान में मग्न अपने प्रतिद्वन्द्वी मुनि को देखकर मंत्रियों ने उन पर वार करने के लिए जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, उनके हाथ ज्यों के त्यों कीलित हो गये। दिन निकलने पर राजा ने मंत्रियों को देश से निकाल दिया। चारों मंत्री अपमानित होकर हस्तिनापुर के राजा पद्म की शरण में आये। वहाँ बलि ने अपने रण- कौशल से पद्म राजा के एक शत्रु को पकड़कर उसके सुपुर्द कर दिया। राजा पद्म ने प्रसन्न होकर उसे मुंहमांगा वरदान दिया। समय आने पर बलि ने वरदान मांगने के लिए कह दिया।
कुछ समय बाद मुनि अकम्पनाचार्य का संघ विहार करता हुआ हस्तिनापुर आया और वहीं वर्षावास कर लिया। जब बलि आदि को इस बात का पता चला तो वे बहुत घबराये, पीछे उन्हें अपने अपमान का बदला चुकाने की युक्ति सूझ गयी। उन्होंने वरदान का स्मरण दिलाकर राजा पद्म से सात दिन का राज्य मांग ल्िाया। राज्य पाकर बलि ने मुनि संघ के चारोें ओर एक बाड़ा खड़ा कर दिया और उसके अन्दर हवन यज्ञ करना शुरू कर दिया।
इधर मुनियों पर यह उपसर्ग प्रारंभ हुआ, उधर मिथिला नगरी में तपस्यारत एक निमित्तज्ञानी मुनि को इस उपसर्ग का पता लग गया। उनके मुंह से ‘हा-हा’ निकला। पास में बैठे एक क्षुल्लक ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने सब हाल बतलाया और कहा कि विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है वे इस संकट को दूर कर सकते हैं। क्षुल्लक तत्काल अपनी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के पास गये और उनको सब समाचार सुनाया। विष्णुकुमार मुनि हस्तिनापुर के राजा पद्म के भाई थे। वे तुरन्त अपने भाई पद्म के पास पहुँचे और बोले, ‘पद्मराज! तुमने यह क्या कर रखा है ? अपनी कुलपरम्परा में ऐसा अनर्थ कभी नहीं हुआ। यदि राजा ही तपस्वियों पर अनर्थ करने लगे तो उसे कौन दूर कर सकेगा ? यदि जल ही आग को भड़काने लगे तो फिर उसे कौन बुझा सकेगा ?’ उत्तर में पद्म ने बलि को राज्य दे देने का सब समाचार सुनाया और कुछ कर सकने में अपनी असमर्थता प्रकट की। तब विष्णुकुमार मुनि वामनरूप धारण करके बलि के यज्ञ में पहुँचे और बलि के प्रार्थना करने पर तीन पैर धरती उससे मांगी। जब बलि ने दान का संकल्प कर दिया तो विष्णुकुमार ने विक्रियाऋद्धि के द्वारा अपने शरीर को बढ़ाया। उन्होंने अपना पहला पैर सुमेरु पर्वत पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरा पैर स्थान न होने से आकाश में डोलने लगा। तब सर्वत्र हाहाकार मच गया, देवता दौड़ पड़े और उन्होंने विष्णुकुमार मुनि से प्रार्थना की, ‘भगवन्! अपनी इस विक्रिया को समेटिये। आपके तप के प्रभाव से तीनों लोक चंचल हो उठे हैं। तब उन्होंने विक्रिया को समेटा। मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ और बलि को देश से निकाल दिया गया।
बलि के अत्याचार से सर्वत्र हाहाकार मच गया था और लोगों ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियों का संकट दूर होगा तो उन्हें आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे। संकट दूर होने पर सब लोगों ने सेमइयों की खीर का हल्का भोजन तैयार किया क्योंकि मुनि कई दिन के उपवासे थे। मुनि केवल सात सौ थे अत: वे केवल सात सौ घरों पर ही पहुँच सकते थे इसलिए शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी की गई। सबने परस्पर में रक्षा करने का बंधन बांधा, जिसकी स्मृति त्योहार के रूप में अब तक चली आ रही है। दीवारों पर जो चित्र रचना की जाती है उसे ‘सौन’ कहा जाता है, यह ‘सौन’ शब्द ‘श्रमण’ शब्द का अपभ्रंश जान पड़ता है। प्राचीनकाल में जैन साधु श्रमण कहलाते थे। इस प्रकार से सलूनो या रक्षाबंधन त्योहार जैन त्योहार के रूप में जैनों में आज भी मनाया जाता है। उस दिन विष्णुकुमार और सात सौ मुनियों की पूजा की जाती है। उसके बाद परस्पर में राखी बांधकर दीवारों पर चित्रित ‘सौन’ को आहारदान दिया जाता है। तब सब भोजन करते हैं और गरीबों को दान भी देते हैं।
ऊपर जो जैन पर्व बतलाये गये हैं वे ऐसे हैं जिन्हें केवल जैन धर्मानुयायी ही मानते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ पर्व ऐसे भी हैं जिन्हें जैनों के सिवाय हिन्दू जनता भी मानती है। ऐसे पर्वों में सबसे अधिक उल्लेखनीय दीपावली का पर्व है। यह पर्व कार्तिक मास की अमावस्या की संध्या को मनाया जाता है। साफ सुथरे मकान कार्तिकी अमावस्या की संध्या को दीपों के प्रकाश से जगमगा उठते हैं। घर-घर लक्ष्मी का पूजन होता है। सदियों से यह त्योहार मनाया जाता है, कोई इसका संबंध रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने से लगाते हैं। कोई इसे सम्राट अशोक की दिग्विजय का सूचक बतलाते हैं किन्तु रामायण में इस तरह का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, इतना ही नहीं किन्तु किसी हिन्दू पुराण वगैरह में भी इस संबंध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। बौर्द्ध धर्म में तो यह त्योहार मनाया नहीं जाता, रह जाती है जैन संस्कृति। इस समाज में शक सं. ७०५ (वि. सं. ८४०) का रचा हुआ हरिवंशपुराण है। उसमें भगवान् महावीर के निर्वाण का वर्णन करते हुए लिखा है-‘महावीर भगवान् भव्य जीवों को उपदेश देते हुए पावानगरी में पधारे और वहाँ के एक मनोहर उद्यान में चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रह जाने पर कार्तिकी अमावस्या के प्रभातकालीन बेला के समय, योग का निरोध करके कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त हुए। चारों प्रकार के देवताओं ने आकर उनकी पूजा की और दीपक जलाये। उस समय उन दीपकों के प्रकाश से पावानगरी का आकाश प्रदीप्त हो रहा था। उसी समय से भक्त लोग जिनेश्वर की पूजा करने के लिए भारतवर्ष में प्रतिवर्ष उनके निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में दीपावली मनाते हैं।
जिस दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन सायंकाल में उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को पूर्णज्ञान-केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। मुक्ति और ज्ञान को जैनधर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी माना है और प्राय: मुक्तिलक्ष्मी और ज्ञानलक्ष्मी के नाम से ही शास्त्रों में उनका उल्लेख किया गया है अत: संभव है कि आध्यात्मिक लक्ष्मी के पूजन की प्रथा ने धीरे-धीरे जनसमुदाय में बाह्य लक्ष्मी के पूजन का रूप ले लिया हो। बाह्यदृष्टिप्रधान मनुष्य समाज में ऐसा प्राय: देखा जाता है। लक्ष्मी पूजन के समय मिट्टी का घरौंदा (हटड़ी) और खेल-खिलौने भी रखे जाते हैं। इस बारे में लोग कहा करते हैं कि यह हटड़ी भगवान् महावीर अथवा उनके शिष्य गौतम गणधर की उपदेश सभा (समवसरण) की यादगार में है और चूँकि उनका उपदेश सुनने के लिए मनुष्य, पशु सभी जाते थे अत: उनकी यादगार में उनकी मूर्तियाँ (खिलौने) रखे जाते हैं। इस तरह दीपावली के प्रकाश में हम प्रतिवर्ष भगवान की निर्वाण लक्ष्मी का पूजन करते हैं और जिस रूप में उनकी उपदेश सभा लगती थी, उसका साज सजाते हैं। परम्परागत रूप से गौतम गणधर को प्राप्त केवल ज्ञानलक्ष्मी के प्रतीक में भी लक्ष्मी पूजन की जाती है।
दीपावली के प्रात:काल में सभी जैन मंदिरों में महावीर निर्वाण की स्मृति में बड़ा उत्सव मनाया जाता है और निर्वाणलाडू चढ़ाकर भगवान की विशेष पूजा की जाती है। इस ढंग की पूजा का आयोजन केवल इसी दिन होता है। इससे घर-घर में उस दिन जो मिष्ठान्न बनता है, उसका उद्देश्य भी समझ में आ जाता है।
कार्तिक कृष्णा अमावस्या सन् ५२७ बी.सी. को भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। उस तिथि से वीर निर्वाण सम्वत् प्रारम्भ हुआ है। यह विक्रम सम्वत् से ४७० वर्ष और ईसवी सन् से ५२६ वर्ष पुराना है। आजकल ईसवी सन् २०१४ और विक्रम सम्वत् २०७१ है अतः आजकल वीर निर्वाण सम्वत् २०१४±५२६ या २०७०±४७०·२५४० चल रहा है।