यह ग्रन्थ मूल सिद्धान्त ग्रन्थ है जिसे आचार्य गुणधर ने (वि़ पू़ श़ १) ज्ञान विच्छेद के भय से पहले केवल १८० गाथाओं में निबद्ध किया था । आचार्य परम्परा से उनके ज्ञान को प्राप्त करके आचार्य आर्यमंक्षु व नागहस्ति ने ई़ ९३ – १६२ में इसे २१५ गाथा प्रमाण कर दिया, उनके सानिध्य में ही ज्ञान प्राप्त करके यतिवृषभाचार्य ने ई़ १५० – १८० में इसको १५ अधिकारों में विभाजित करके इस पर ६००० चूर्ण सूत्रों की रचना की । इन्हीं चूर्णसूत्रों के आधार पर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखी । इसी उच्चारणा के आधार पर आचार्य बप्पदेव ने ई़ ८१६ में आचार्य वीरसेन स्वामी ने इस पर २०,००० श्लोक प्रमाण जलधवला नामकी अपूर्ण टीका लिखी जिसे उनके पश्चात् उनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य ने ई़ ८३७ में ४०,००० श्लोक प्रमाण और भी रचना करके पूर्ण की । पुन: इस ग्रन्थ पर अनेकों टीकाएं लिखी गई ।