संसार के दुःखों से छुड़ाकर जो उत्तम सुख प्राप्त कराने में कारण हो, उसे धर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- मुनिधर्म और श्रावक (गृहस्थ) धर्म। मुनिधर्म तो पापों के सर्व त्यागरूप होता है और गृहस्थ धर्म पापों के एकदेश त्याग रूप होता है। मुनिधर्म मोक्ष प्राप्त करने का रास्ता है और श्रावक-धर्म मुनिधर्म प्राप्त करने का रास्ता है।
अनादिकाल से ग्रहण किये गये मिथ्यात्व आदि को एकदम त्याग कर मुनिधर्म अपनाने की शक्ति आज के सामान्य मनुष्य में नहीं है। अतः उसे प्रारम्भ में श्रावक-धर्म धारण करने का उपदेश दिया गया है ताकि वह श्रावक के व्रत, प्रतिमा आदि ग्रहण करके अपना अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाते हुए मुनिधर्म अंगीकार करने की शक्ति प्राप्त कर सके। जैसे शराब, अफीम आदि के दीर्घ काल तक सेवन करने वाला व्यक्ति इन व्यसनों को एकदम छोड़ने में अशक्त होता है और प्रारम्भ में धीरे-धीरे क्रम से उससे व्यसन में कमी करवाई जाती है ताकि उसमें आत्मबल उत्पन्न हो सके और वह व्यसन को पूर्णरूपेण छोड़ सके। इसी प्रकार श्रावक-धर्म अपनाकर व्यक्ति अपने आत्मबल को विकसित कर लेता है और मुनिधर्म को ग्रहण करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
गृहस्थ धर्म के पालन से सुख, शांति, यश व धन की प्राप्ति आदि होती है और यह परम्परा से मोक्ष का कारण है। यदि धन पाकर दान नहीं दिया, शास्त्र पढ़कर कषायों को कम नहीं किया और मानव शरीर पाकर व्रत आदि नहीं किये तो जीवन व्यर्थ है, संसार को बढ़ाने वाला ही है। अतः हमारे द्वारा गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्रत, प्रतिमा आदि धारण करके श्रावक-धर्म की पालना करना आवश्यक है।
सच्चे देव, शास्त्र व गुरु पर श्रद्धा करने वाला सद्गृहस्थ ‘श्रावक’ कहलाता है। ‘श्रावक’ शब्द तीन अक्षरों से बना है। इन तीनों अक्षरों का अर्थ क्रमशः होता है – श्रद्धावान, विवेकवान और क्रियावान। इस प्रकार श्रावक श्रद्धावान, विवेकवान और सदाचारी होता है।
श्रावक के तीन भेद-
‘‘श्रावक के तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। पक्ष, चर्या और साधन के द्वारा ये तीन भेद हुए हैं।’’
अभ्यासरूप से अष्टमूलगुण आदि का पालन करना, देव, धर्म, गुरु का पक्ष रखना पक्ष है। कृष्यादि आरंभजन्यपापों को दूर करने के लिए पुत्रादि के ऊपर घर का भार छोड़कर प्रतिमारूप व्रतों का धारण करना चर्या है और ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन करते हुए अन्त समय में समाधिमरण करना साधन है।
पाक्षिक-जिसके हिंसादि पांचों पापों का त्यागरूप व्रत है तथा जो अभ्यासरूप से श्रावक धर्म का पालन करता है, उसको पाक्षिक श्रावक या प्रारंभ देशसंयमी कहते हैं।
नैष्ठिक-जो देशसंयम को वृद्धिंगत करते हुए क्रम से ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करता है।
साधक-जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है और जो आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करता है, उसको साधक श्रावक या निष्पन्न देशसंयमी कहते हैं।
जिनमंदिर जाकर के जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना प्रत्येक श्रावक का प्रथम कर्त्तव्य है। बचपन से ही देव दर्शन के संस्कार डाले जाने चाहिए। ताकि दूरदर्शन की विकृति से दूर होकर देव दर्शन की संस्कृति में बच्चे ढल सकें। वीतराग प्रभु भक्त को कुछ देते नहीं, ऐसी मान्यता है। किन्तु उनके दर्शन-पूजन से अर्जित पुण्य से सांसरिक सम्पत्ति के साथ-साथ उनके मार्ग का अनुसरण करने से शाश्वत मोक्ष सुख की भी प्राप्ति हो जाती है। अत: प्रात:काल देव दर्शन का संकल्प करना चाहिए।
घर में स्नानादि के समय या जब से जिनेन्द्र देव के दर्शन की भावना प्रारंभ होती है, तभी से उस देव दर्शन का फल एवं महत्त्व हो जाता है, ऐसा हमारे पूर्व आचार्य कहते हैं कि-
जब चिन्तो तब सहस्र फल, लक्खा फल गमणेय।
कोड़ा कोड़ी अनंत फल, जब जिनवर दिट्ठेय।।
अर्थात् जब हमें भगवान के दर्शन करने का विचार-संकल्प मन में आता है कि अरे! अभी हमें मंदिर जी जाना है, भगवान के दर्शन करना है। ऐसा चिन्तन आते ही हजार गुणा फल प्रारंभ हो जाता है। जब आप सामग्री आदि लेकर भक्ति-स्तुति आदि पढ़ते हुए मंदिर की ओर ईर्यापथपूर्वक चल देते हैं, तक आपको लाख गुणफल होता है। लेकिन जब आप मंदिर जी में पहुँचकर साक्षात् जिनमूर्ति के दर्शन करते हैं, तब अवश्य ही अनंत कोड़ा कोड़ी फल होता है।
मंदिर जी में प्रवेश करते समय शुद्ध छने जल से पैर धोने चाहिए। यदि आप जूते, मोजे, चप्पल आदि पहनकर आये हैं तो उन्हें यथास्थान ही उतार देना चाहिए।
मंदिर के दरवाजे में प्रवेश करते ही बोलें-ॐ जय जय जय, नि:सही नि:सही नि:सही। नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।
भगवान के सामने खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर बोलें-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
भगवान की तीन प्रदक्षिणा देवें। बँधी मुट्ठी से अँगूठा भीतर करके चावल के पुँज चढ़ावें।
भगवान के सामने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ऐसे पाँचों पद बोलते हुए क्रम से बीच में, ऊपर, दाहिनी तरफ, नीचे और बाईं तरफ ऐसे पाँच पुँज चढ़ावें।
सरस्वती के सामने प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: ऐसे बोलकर क्रम से चार पँुज लाइन से चढ़ावें।
गुरू के सामने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ऐसे बोलकर क्रम से तीन पुँज लाइन से चढ़ावें।
पुन: हाथ जोड़कर निम्न स्तोत्र बोलें-
हे भगवन्! नेत्रद्वय मेरे, सफल हुये हैं आज अहो।
तव चरणांबुज का दर्शन कर, जन्म सफल है आज अहो।।
हे त्रिभुवन के नाथ! आपके, दर्शन से मालुम होता।
यह संसार जलधि चुल्लू जल, सम हो गया अहो ऐसा।।१।।
अर्हत्सिद्धाचार्य औ, पाठक साधु महान्।
पंच परम गुरू को नमूँ, भवभव में सुखदान।।२।।
पुन: विधिवत् पृथ्वी तल पर मस्तक टेककर नमस्कार करें।
अर्थ-हे भगवन्! आपके चरण कमलों का दर्शन करके आज मेरे दोनों नेत्र सफल हो गये हैं और मेरा जन्म भी सफल हो गया है। हे तीन लोक के नाथ! आपके दर्शन करने से ऐसा मालूम होता है कि जो मेरा संसार-समुद्र अपार था सो आज चुल्लू भर पानी के समान थोड़ा रह गया है।
अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पंच परम गुरू भव-भव में सुख देने वाले हैं। मैं इनको नमस्कार करता हूँ।
विभिन्न प्रकार के दर्शन पाठ, स्तुति पाठ पढ़ने के उपरांत जिनबिम्ब को ध्यान से अवलोकन कर उन जैसे ही बनने की भावना मन में भानी चाहिए।
जिनाभिषेक करना जैन श्रावक का कर्त्तव्य है, अत: आगम में वर्णित आर्षपरम्परा के अनुसार सम्पूर्ण अभिषेक विधि सम्पन्न कर पुण्यार्जन करें। अभिषेक के उपरांत निम्न मंत्र पूर्वक गंधोदक को श्रद्धा से धारण करें-
निर्मल से निर्मल अति, अघ नाशक सुखसीर।
वंदूं जिन अभिषेक कृत, यह गंधोदक नीर।।