३.१
‘देव-पूजा, गुरु-पास्ति:, स्वाध्याय: संयमस्तप:।
दानं चेति गृहस्थानां, षट्-कर्माणि दिने दिने।।’’
देव-पूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान गृहस्थों के प्रतिदिन के छ: कार्य हैं अर्थात् गृहस्थों को इन छ: कार्यों को प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।
जो पुरुष देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट्कर्मों के करने में तल्लीन रहता है, जिसका कुल उत्तम है, वह चूली, उखली, चक्की, बुहारी आदि गृहस्थ की नित्य षट् आरंभ क्रियाओं से होने वाले पाप से मुक्त हो जाता है तथा वही उत्तम श्रावक कहलाता है।
जो भव्य बिंबाफल के समान वेदी बनवाकर उसमें जौ प्रमाण प्रतिमा विराजमान करता है, वह मुक्ति को समीप कर लेता है।
पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ मुख करके और तिलक लगाकर जिनपूजन करना चाहिए।
पूजन से पूर्व भाव भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्र का अभिषेक करना चाहिए।
खण्डित वस्त्र, गला हुआ, फटा और मैला वस्त्र पहनकर दान-पूजन, होम और स्वाध्याय नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे खंडित आदि वस्त्रों को पहनकर पूजन करने से उसका फल नहीं मिलता है।
पुष्प, धूप, दीप, फल आदि सचित्त द्रव्यों से भगवान की पूजा करने से पाप की संभावना कदापि नहीं रहती है, क्योंकि जो जिनपूजा असंख्य भवों के पापों को नष्ट करने में समर्थ है, उस पूजा से क्या यत् किंचित् पूजन के निमित्त से होने वाले सावद्य पाप नष्ट नहीं होंगे? अवश्य हो जायेंगे। हाँ! इतना अवश्य है कि प्रत्येक कार्यों में यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति होनी चाहिए।
‘कुटुम्ब पोषण और भोगोपभोग के लिए किया गया आरंभ पाप उत्पन्न करने वाला होता है परन्तु दान, पूजा आदि धर्म कार्यों में किया गया आरंभ पाप बंध के लिए नहीं होता है।
’जो मनुष्य धनिया के पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिन प्रतिमा की स्थापना करता है, वह तीर्थंकर पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है?
पूजन के समय जिन भगवान के आगे जलधारा को छोड़ने से पापरूपी मैल का क्षालन होता है।
चन्दन के चर्चन से मनुष्य सौभाग्य से सम्पन्न होता है।
अक्षतों से पूजा करने वाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है। अक्षीण लब्धि से सम्पन्न होकर अंत में मोक्ष सुख को पाता है।
पुष्पों से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुख वाला, पुष्पों की सुन्दर मालाओं से समर्चित देह वाला कामदेव होता है।
नैवेद्य के चढ़ाने से शक्तिमान, कान्ति और तेज से सम्पन्न, अति सुन्दर होता है।
दीपों से पूजा करने वाला मनुष्य, केवलज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीवादि तत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करने वाला केवली होता है।
धूप से पूजा करने वाला मनुष्य त्रैलोक्यव्यापी यश वाला होता है।
फलों से पूजा करने वाला परम निर्वाणरूप फल को प्राप्त कर लेता है।
जिनमंदिर में घण्टा समर्पण करने से घण्टाओं के शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ सुरविमानों में जन्म लेता है।
मंदिर में छत्र प्रदान करने से पृथ्वी को एकछत्र भोगता है।
चमरों के प्रदान से उस पर चमर ढोरे जाते हैं।
जिन भगवान का अभिषेक करने से मनुष्य सुदर्शनमेरु पर क्षीरसागर के जल से इन्द्रों द्वारा अभिषेक को प्राप्त करता है।
जिनमंदिर में विजय पताकाओं के देने से सर्वत्र विजयी षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती होता है।
अधिक कहने से क्या? जिन पूजन के फल से संसार के सभी अभ्युदय प्राप्त हो जाते हैं और परम्परा से मुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार से संक्षेप में ‘देवपूजा’ नाम की आवश्यक क्रिया का वर्णन हुआ।
‘‘अपने मनोवांछित पदार्थ सिद्ध करने के लिए तथा इस लोकसंबंधी समस्त संशयरूप अंधकार का नाश करने के लिए एवं परलोक में सुख प्राप्त करने के लिए गुरु की सेवा सदा करते रहना चाहिए।’’
उत्तम, मध्यम, जघन्य वैâसे ही मनुष्य हों परन्तु बिना गुरु के वे मनुष्य नहीं कहलाते, इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सर्वोत्कृष्ट गुरु की सेवा अवश्य करते रहना चाहिए।
‘‘गुरु भक्तिरूपी संयम से श्रावक घोर संसार समुद्र को पार कर लेते हैं और अष्ट कर्मों का छेदन कर देते हैं पुन: जन्म-मरण के दुःखों से छूट जाते हैं।’’
निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनियों के पास जाकर उन्हें भक्ति से नमोस्तु करके उनकी स्तुति करके अष्टद्रव्य से पूर्ववत् पूजा करनी चाहिए। उनके मुख से धर्मोपदेश सुनना चाहिए। यदि अष्टद्रव्य से पूजा न कर सकें तो अक्षत, फलादि चढ़ाकर नमस्कार करना चाहिए।
स्वाध्याय भव्य जीवों को ज्ञान देने वाला है, उसके पाँच भेद हैं-
वाचना-पढ़ना-पढ़ाना।
पृच्छना-प्रश्न करना।
अनुप्रेक्षा-पढ़े हुए का बार-बार चिंतवन करना।
आम्नाय-शुद्ध पाठ रटना और
धर्मोपदेश-धर्म का उपदेश देना।
इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण करना और जीवदया पालना संयम है। संयम के दो भेद हैं-इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम।
पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग करना और मन को वश में रखना इन्द्रिय संयम है। पाँच स्थावर और त्रसकाय ऐसे षट्काय के जीवों की दया पालना प्राणिसंयम है।
कर्म निर्जरा के लिए किया गया तपश्चरण ‘तप’ कहलाता है। तप के दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर।
बाह्य तप के छह भेद हैं-
अनशन-उपवास करना,
अवमौदर्य-भूख से कम खाना,
व्रत्तपरिसंख्यान-घर, गली अथवा अन्य पदार्थों का नियम करके आहार ग्रहण करना,
रसपरित्याग-घी, दूध आदि रसों में एक, दो या सभी रसों का त्याग करना।
विविक्त शय्यासन-एकान्त स्थान में या गुरु के सानिध्य में शयन आसन करना।
कायक्लेश-कुक्कुट आसन, पद्मासन, खड्गासन, प्रतिमायोग आदि से ध्यान करना।
अभ्यन्तर तप के छह भेद हैं-
प्रायश्चित्त-व्रत आदि में दोष लग जाने से गुरु से उसका दण्ड लेना।
विनय-रत्नत्रयधारकों की विनय करना,
वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि व्रतीजनों की सेवा करना,
स्वाध्याय-शास्त्रों का पठन-पाठन आदि करना,
व्युत्सर्ग-पापों के कारणरूप उपधि-परिग्र्रह का त्याग करना,
ध्यान-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि प्रकार से ध्यान करना।
इन बारह प्रकार के तपों का एकदेशरूप से शक्ति के अनुसार श्रावकों को भी अनुष्ठान करना चाहिए। मुख्यतया इसका अनुष्ठान मुनियों में ही होता है।
स्वपर के अनुग्रह के लिए धन का त्याग करना दान है।
दान के चार भेद हैं-आहारदान, शास्त्र दान (ज्ञानदान), औषधिदान, अभयदान।
उत्तम आदि पात्रों में इन चारों दानों को देना उत्तम दान है।
इस प्रकार से जो गृहस्थ श्रावक नित्यप्रति षट् आवश्यक क्रियाओं को आदरपूर्वक करता है, वह चक्की, उखली, चूल्ही, बुहारी और जल भरना, गृहारम्भ के इन पाँच पापों से और द्रव्य कमाना इस छठे पाप से अर्थात् षट् आरंभजनित पापों से छूट जाता है।
इस तरह उमास्वामी श्रावकाचार के अनुसार इन छट् आवश्यक क्रियाओं का वर्णन किया है।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी रयणसार में कहते हैं कि-
सुपात्र को चार प्रकार का दान देना और श्री देवशास्त्रगुरु की पूजा करना श्रावकधर्म में श्रावक के ये दो कर्त्तव्य प्रमुख हैं, इन दो कर्त्तव्यों के बिना श्रावक नहीं हो सकता है, वेैसे ही मुनियों के कर्त्तव्यों में ध्यान और अध्ययन ये दो कर्त्तव्य मुख्य हैं, इन दो कार्यों के बिना मुनि, मुनि नहीं हो सकता है।
पूजा के फल से यह मनुष्य तीनों लोकों में पूज्य हो जाता है और सुपात्र दान के फल से तीनों लोकों में सारभूत उत्तम सुखों को भोगता है।
आहारदान में प्रसिद्ध अकृतपुण्य के उदाहरण को देखें-
भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गई और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्यहीन समझकर उसका नाम ‘अकृतपुण्य’ रख दिया और परायी मजदूरी करके उसका पालन किया। किसी समय बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने के लिए चला गया। राजा ने उसे अपने स्वामी का पुत्र समझकर बहुत कुछ दीनारें दीं किन्तु उसके हाथ में आते ही अंगारे हो गईं। तब उसको उसकी इच्छानुसार चने दे दिये। माता ने इस घटना से देश छोड़ दिया और सीमवाक गांव के बलभद्र नामक जैन श्रावक के यहाँ भोजन बनाने का काम करने लगी। सेठ के बालकों को खीर खाते देखकर वह अकृतपुण्य भी खीर मांगा करता था। तब एक दिन सेठ के लड़कों ने बालक को थप्पड़ों से मारा। सेठ ने उक्त घटना को जानकर बहन मिष्टदाना को खीर बनाने के लिए सारा सामान दे दिया। माता ने खीर बनाकर बालक से कहा-बेटा! मैं पानी भरने जाती हूँ, इसी बीच में यदि कोई मुनिराज आवें तो उन्हें रोक लेना, मैं मुनिराज को आहार देकर तुझे खीर खिलाऊँगी। भाग्य से सुव्रत मुनिराज उधर आ गये। बालक ने कहा-मुनिराज! आप रुको, मेरी माँ ने खीर बनाई है, आपको आहार देंगी। मुनिराज के न रुकने से बालक ने जाकर उनके पैर पकड़ लिये और बोला-‘देखूँ अब वैâसे जाओगे?’
उधर माता ने आकर पड़गाहन करके विधिवत् आहार दिया। बालक आहार देख-देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। मुनिराज अक्षीण ऋद्धिधारी थे। उस दिन खीर का भोजन समाप्त ही नहीं हुआ। तब मिष्टदाना ने सपरिवार सेठ जी को, अनंतर सारे गाँव को जिमा दिया, फिर भी खीर ज्यों की त्यों रही।
अगले दिन बालक वन में गाय चराने गया था। वहाँ उसने मुनि का उपदेश सुना। रात्रि में व्याघ्र ने उसे खा लिया। आहार देखने के प्रभाव से वह अकृतपुण्य मरकर स्वर्ग में देव हो गया।
पुन: उज्जयिनी नगरी के सेठ धनपाल की पत्नी प्रभावती के धन्य कुमार नाम का पुण्यशाली पुत्र हो गया। जन्म के बाद नाल गाड़ने को जमीन खोदते ही धन का घड़ा निकला। धन्यकुमार जहाँ-जहाँ हाथ लगाता, वहाँ धन ही धन हो जाता था। आगे चलकर यह धन्यकुमार नवनिधि का स्वामी हो गया और असीम धन वैभव को भोगकर पुन: दीक्षा लेकर अंत में सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद पाया। यह है आहार दान का प्रभाव! जिससे महापापी अकृतपुण्य धन्य- कुमार हो गया।
उत्तम आदि पात्रों को किसी प्रकार का रोग हो जाने पर शुद्ध प्रासुक औषधि का दान देना औषधि दान है। यह दान भव-भव में नीरोग शरीर प्रदान करके अंत में मोक्ष प्रदान करने वाला है। प्राणियों के कलेवर आदि से बनी हुई अशुद्ध औषधियों के दान से पुण्य के बजाय पाप बंध हो जाता है।
उदाहरण-
किसी समय मुनिदत्त योगिराज महल के पास एक गड्ढे में ध्यान में लीन थे। नौकरानी ने उन्हें हटाना चाहा। जब वे नहीं उठे, तब उसने सारा कचरा इकट्ठा करके मुनि पर डाल दिया। प्रात: राजा ने वहाँ से मुनि को निकालकर विनय से सेवा की। उस समय नौकरानी नागश्री ने भी पश्चात्ताप करके मुनि के कष्ट को दूर करने हेतु उनकी औषधि की और मुनि की भरपूर सेवा की। अंत में मरकर यह वृषभसेना हुई। जिसके स्नान के जल से सभाr प्रकार के रोग-विष नष्ट हो जाते थे। आगे चलकर वह राजा उग्रसेन की पट्टरानी हो गई। किसी समय रानी के शील में आशंका होने से राजा ने उसे समुद्र में गिरवा दिया किन्तु रानी के शील के माहात्म्य से देवों ने सिंहासन पर बैठाकर उसकी पूजा की।
देखो! नौकरानी ने जो मुनि पर उपसर्ग किये थे उसके फलस्वरूप उसे रानी अवस्था में भी कलंकित होना पड़ा और जो उसने मुनि की सेवा करके औषधिदान दिया था उसके प्रभाव से उसे रोगनिवारण की यह शक्ति विशेष प्राप्त हुई कि जिसके प्रभाव से उसके स्नान के जल से सभी के कुष्ट आदि भयंकर रोग और विष आदि दूर हो जाते थे। इसलिए औषधिदान अवश्य देना चाहिए।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और गणधर आदि मुनियों द्वारा रचित शास्त्र को सच्चे शास्त्र कहते हैं। ऐसे आचार्यप्रणीत निर्दोष आगम-ग्रंथों को मुद्रण कराकर उत्तम पात्रों को देना या विद्यालय खोलना, धार्मिक शिक्षण की व्यवस्था करना आदि शास्त्रदान या ज्ञानदान कहलाता है। इस ज्ञानदान के फल से निश्चित केवलज्ञान प्राप्त होता है।
उदाहरण-
कुरुमरी गाँव के एक ग्वाले ने एक बार जंगल में वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रंथ देखा। उसे ले जाकर उसकी खूब पूजा करने लगा। एक दिन मुनिराज को उसने वह ग्रंथ दान में दे दिया। वह ग्वाला मरकर उसी गाँव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देखकर जातिस्मरण हो जाने से उन्हीं से दीक्षित होकर मुनि हो गया। कालान्तर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनि दीक्षा ले ली। ग्वाले के जन्म में शास्त्र दान किया था, उसके प्रभाव से वे मुनिराज थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली हो गये। वे केवली होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। इसलिए ज्ञानदान सदा ही देना चाहिए।
उत्तम आदि पात्रों को धर्मानुकूल वसतिका में ठहराना अथवा नयी वसति बनवाकर साधुओं के लिए सुविधा कराना वसतिदान या अभयदान है। इस दान के प्रभाव से प्राणी निर्भय होकर मोक्षमार्ग के विघ्नों को दूर करके निर्भय मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं।
उदाहरण-
एक गाँव में एक कुम्हार और नाई ने मिलकर एक धर्मशाला बनवाई। कुम्हार ने एक दिन एक मुनिराज को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। तब नाई ने दूसरे दिन मुनि को निकालकर एक सन्यासी को लाकर ठहरा दिया। इस निमित्त से दोनों लड़कर मरे और कुम्हार का जीव सूकर हो गया तथा नाई का जीव व्याघ्र हो गया। एक बार जंगल की गुफा में मुनिराज विराजमान थे। पूर्व संस्कार से वह व्याघ्र उन्हें खाने को आया और सूकर ने उन्हें बचाना चाहा। दोनों लड़ते हुए मर गये। सूकर के भाव मुनिरक्षा के थे अत: वह मरकर देवगति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से मरकर नरक में चला गया।
देखो! वसतिदान के माहात्म्य से सूकर ने स्वर्ग प्राप्त कर लिया।
विशेष-समंतभद्र स्वामी ने ज्ञानदान (शास्त्रदान) की जगह उपकरण दान और अभयदान की जगह आवासदान ऐसा कहा है। अत: इस उपकरण दान में मुनि-आर्यिका आदि को पिच्छी-कमण्डलु देना, आर्यिका-क्षुल्लिका को साड़ी, ऐलक-क्षुल्लक को कोपीन-चादर आदि देना तथा लेखनी, स्याही, कागज आदि देना भी उपकरणदान कहलाता है।
अन्य ग्रंथों में दान के दानदत्ति, दयादत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ऐसे भी चार भेद किये गये हैं। उपर्युक्त विधि से पात्रों को चार प्रकार का दान देना सो दानदत्ति है।
दीन, दु:खी, अंधे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त्र औषधि आदि दान देना दयादत्ति है।
अपने समान श्रावकों को कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। अपने पुत्र को घर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना यह अन्वयदत्ति है।
यद्यपि जैन गृहस्थों के लिये छः आवश्यक क्रियाएँ बताई गई हैं जिनका पूर्व में वर्णन किया जा चुका है, फिर भी श्रावक की पहचान हेतु ३ चिन्ह बताये गये हैं, जैसा कि निम्न पद से स्पष्ट है-
‘जल-छानन, तजि निशि असन, श्रावक चिन्ह जु तीन ।
प्रतिदिन जो दर्शन करे, सो जैनी परवीन।।’
इस प्रकार जैन श्रावक के ३ चिन्ह हैं-
(१) पानी छानकर पीना।
(२) रात्रि भोजन का त्याग, और
(३) प्रतिदिन देव दर्शन। (इन तीनों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है)
मूलगुण ८, व्रत १२, तप १२, प्रतिमा ११, दान ४, रत्नत्रय ३, रात्रि-भोजन त्याग, समताभाव और पानी छानकर पीना- ये श्रावक की ५३ क्रियाएँ हैं।