‘‘जिस दिन भगवान महावीर सिद्ध हुए उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञान को प्राप्त हुए। ये बारह वर्षों तक केवलीपद में रहकर सिद्धपद को प्राप्त हुए उसी दिन सुधर्मास्वामी केवली हुए, ये भी बारह वर्षों तक केवली रहकर मुक्त हुए तब जम्बूस्वामी केवली हुए, ये अड़तीस वर्षों तक केवली रहे, अनंतर मुक्त हो गये। पुन: कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुए। यह १२+१२+३८=६२ वर्ष का काल अनुबद्ध केवलियों के धर्मप्रवर्तन का माना गया है।
केवलियों में अंतिम केवली ‘श्रीधर’ कुण्डलगिरी से सिद्ध हुए हैं और चारण ऋषियों में अंतिम ऋषि सुपार्श्व नामक हुए हैं। प्रज्ञाश्रमणों में अंतिम वङ्कायश नामक प्रज्ञाश्रमण मुनि और अवधिज्ञानियों में अंतिम श्री नामक ऋषि हुए हैं। मुकुटधरों में अंतिम चंद्रगुप्त ने जिनदीक्षा धारण की। इससे पश्चात् मुकुटधारी राजाओं ने जैनेश्वरी दीक्षा नहीं ली है।’
अनुबद्ध केवली के अनंतर नंदी, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए हैं। इनका काल ‘सौ वर्ष’ प्रमाण है, पुन: विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य दशपूर्व के धारी हुए हैं। इन सबका काल ‘एक सौ तिरासी’ वर्ष है। अनंतर नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच आचार्य ग्यारह अंग के धारी हुए हैं। इनका काल ‘दो सौ बीस’ वर्ष है, पुन: सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए हैं। ये चारों आचार्य ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोें के एकदेश के भी ज्ञाता थे। इनका काल ‘एक सौ अठारह’ वर्ष है।
इस प्रकार गौतमस्वामी से लेकर आचारांगधारी आचार्यों तक का काल ६२+१००+१८३+२२०+११८=६८३ छह सौ तिरासी वर्ष प्रमाण है। इसके अनंतर २०३१७ वर्षों तक धर्मप्रवर्तन के लिए कारणभूत ऐसा श्रुततीर्थ चलता रहेगा, पुन: काल दोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा। इतने मात्र समय में अर्थात् ६८३+२०३१७=२१००० इक्कीस हजार वर्षों के समय में चातुर्वर्ण्य संघ जन्म लेता रहेगा किन्तु लोग प्राय: अविनीत, दुर्बुद्धि, असूचक, सात भय व आठ मदों से संयुक्त, शल्य एवं गारवों से सहित, कलहप्रिय, रागिष्ठ, क्रूर एवं क्रोधी होंगे।’’
शक राजा की उत्पत्ति-‘‘वीर भगवान के मोक्ष चले जाने के बाद छह सौ पाँच वर्ष, पाँच मास के अनन्तर शक राजा उत्पन्न हुए।’’
अन्यत्र भी कहा है-‘‘श्री वीरप्रभु के मोक्ष जाने के बाद छह सौ पाँच वर्ष पाँच माह बीत जाने पर विक्रम नाम का शक राजा उत्पन्न हुआ और इसके बाद ३९४ वर्ष ७ माह बीत जाने पर प्रथम कल्की उत्पन्न हुआ है’’ अर्थात् (६०५,५+३९४=७) १००० वर्ष बाद कल्की की उत्पत्ति हुई है।
अन्य ग्रंथों में भी यही है-‘‘भगवान महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् छह सौ पाँच वर्ष, पाँच मास बीत जाने पर शक राजा होगा और हजार-हजार वर्ष बाद एक-एक कल्की राजा होता रहेगा, जो जैनधर्म का विरोधी होगा।’’
चूँकि भगवान वीर के निर्वाण के पश्चात् ६०५ वर्ष ५ माह बीत जाने पर शक राजा हुआ है और इस समय (सन् २०१४ में) शक संवत् १९३६ चल रहा है अत: इस मतानुसार वीर प्रभु को मोक्ष गये आज (६०५+१९३६) २५४१ (पच्चीस सौ इकतालिस) वर्ष और ५ माह व्यतीत हुए हैं।
अभी वीर प्रभु के धर्मतीर्थकाल में कुल २५४० वर्ष व्यतीत हुए हैं और लगभग साढ़े अठारह हजार वर्ष बाकी है। तब तक यह धर्मतीर्थ चलता ही रहेगा।
राज्य परम्परा-‘‘जिस काल में वीर भगवान ने नि:श्रेयस सम्पत्ति को प्राप्त किया उसी समय ‘पालक’ नामक अवन्तिसुत का राज्याभिषेक हुआ। ६० वर्ष तक पालक का, १५५ वर्ष विजयवंशियों का, ४० वर्ष मुरुंडवंशियों का और ३० वर्ष तक पुष्यमित्र का राज्य रहा। पुन: ६० वर्ष तक वसुमित्र-अग्निमित्र, १०० वर्ष गंधर्व, ४० वर्ष नरवाहन, २४२ वर्ष भृत्य-आंध्र और २३१ वर्ष तक गुप्तवंशियों ने राज्य किया। अनन्तर इन्द्र नामक राजा का पुत्र कल्की उत्पन्न हुआ। इसका नाम चतुर्मुख आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४२ वर्ष प्रमाण रहा है। ये सब ६०+१५५+४०+३०+६०+१००+४०+ २४२+२३१+४२=१००० वर्ष हो जाते हैं।’’
आचारांगज्ञानियों के पश्चात् (६८३ वर्ष पश्चात्) २७५ वर्षों के व्यतीत होने पर कल्की नरपति को पट्ट बांधा गया था और इसका राज्यकाल ४२ वर्ष प्रमाण था। ६८३+२७५+४२=१००० वर्ष।
यह कल्की अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके लोभ को प्राप्त हुआ मुनियों के आहार में से भी अग्रपिंड को शुल्करूप में मांगता है। तब श्रमण अग्रपिंड को देकर ‘यह अन्तरायों का काल है’ ऐसा समझकर निराहार चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है। पश्चात् कोई असुरदेव अवधिज्ञान से मुनिगणों के उपसर्ग को जानकर उस धर्मद्रोही कल्की को मार डालता है। तब अजितंजय नामक पुत्र ‘रक्षा करो’ ऐसा कहकर देव की शरण लेता है और देव ‘धर्मपूर्वक राज्य करो’ इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है। इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगों में समीचीन धर्म की प्रवृत्ति रही है पुन: काल के माहात्म्य से दिन-प्रतिदिन हीन होती चली गई है।
इस प्रकार एक-एक हजार वर्षों के पश्चात् एक-एक कल्की तथा पाँच सौ वर्षों के पश्चात् एक-एक उपकल्की होते हैं। प्रत्येक कल्की के समय एक-एक दु:षमकालवर्ती साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उस समय चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाते हैं। अनंतर अंत में अंतिम कल्की के समय वीरांगज मुनि होंगे। उनके हाथ के आहार को शुल्क में मांगने पर वे चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर लेंगे और उसी दिन से धर्म का, राजा का और अग्नि का अभाव हो जावेगा। पुन: छठा काल प्रवेश करेगा।
विशेष-जब भगवान महावीर स्वामी मोक्ष पधारे हैं, तब इस चतुर्थ काल के अंत में तीन वर्ष, आठ महीने और पंद्रह दिन बाकी थे। उसी दिन गौतमस्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, वे बारह वर्ष तक केवली रहे, अर्थात् आठ वर्ष और साढ़े तीन महीने तक वे पंचम काल में केवलीपद में विहार करते हैं। ‘‘वास्तव में चतुर्थ काल के जन्मे हुए पंचमकाल में मोक्ष जा सकते हैं किन्तु पंचमकाल के जन्मे हुए पंचम काल में मोक्ष नहीं जा सकते हैं।’’
‘‘समस्त राजाओं से जिनके पादकमल पूजित हैं, जो मुनिवर भद्रबाहु के पदकमल को विकसित करने में सूर्य हैं, ऐसे ‘श्री गुप्तिगुप्त’ इस नाम से प्रसिद्ध श्रीमान् महामुनि आप लोगों के निर्मल संघ की वृद्धि को करें।
श्री मूलसंघ में नंदिसंघ हुआ है उसमें अतिरमणीय बलात्कारगण प्रसिद्ध है। उस गण में पूर्वों के अंश को जानने वाले मनुष्य और देवों से वंदनीय ऐसे ‘श्रीमाघनंदी’ स्वामी हुए हैं। उनके पट्ट पर श्रेष्ठ मुनि ‘जिनचंद्र’ हुए हैं और इनके पट्ट पर पाँच नाम के धारक मुनियों में चक्रवर्ती ऐसे ‘श्री पद्मनंदी’ स्वामी हुए। कुंदकुंद, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनंदि ये पाँच नाम उनके प्रसिद्ध हैं। उनके पट्टधर ‘उमास्वाति’-उमास्वामी आचार्य हुए, जो कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता हैं और मिथ्यात्वरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान हैं। उनके पट्ट पर देवों से पूज्य जातरूपधारी ‘लोहाचार्य’ हुए जो कि समस्त अर्थ का बोध करने में विशारद थे।
यहाँ से इस नंदीसंघ में पूर्व और उत्तर के भेद से दो पट्ट हो गये हैं। उन यतीश्वरों के नाम को अनुक्रम से कहता हूँ- यश:कीर्ति, यशोनंदी, देवनंदी अपरनाम पूज्यपाद और गुणनंदी। तार्किकशिरोमणि और वङ्का के सदृश कठोर चर्या के धारक ऐसे वङ्कानंदी, कुमारनंदी, लोकचन्द्र, वचनोें की निधि ऐसे प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र, भानुनंदी, सिंहनंदी, जटाधर, वसुनंदी, वीरनंदी, कामदेव के भेदन करने वाले ऐसे रत्ननंदी, माणिक्यनंदी, मेघचन्द्र, महायशस्वी, शांतिकीर्ति, मेरुकीर्ति, महाकीर्ति, विद्वानों में श्रेष्ठ विष्णुनंदी, श्रीभूषण, शीलचन्द्र, श्रीनंदी, देशभूषण, अनंतकीर्ति और शासन को वृद्धिंगत करने वाले ऐसे धर्मनंदी हुए।
विद्यानंदी रामचन्द्र, निर्दोषभावी ऐसे रामकीर्ति, अभयचन्द्र, नरचंद्र, स्थिरव्रती नागचन्द्र, नयनन्दी, हरिश्चन्द्र, मलदोषों से रहित महीचन्द्र, माधवचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, गुणों के आश्रयभूत ऐसे गुणकीर्ति, गुणचन्द्र, वासवचन्द्र, सुतत्त्वों के वेत्ता लोकचन्द्र, त्रैविद्य और वैयाकरण भास्कर ऐसे श्रुतकीर्ति, भावचन्द्र, महाचन्द्र, क्रियाओं में अग्रणी माघचन्द्र, विश्वनन्दी, शिवनन्दी, तपोधन के धारक विश्वचन्द्र, सिद्धांतवेत्ता हरिनन्दी, भावनन्दी, सुरकीर्ति, विद्याचन्द्र (विद्यानंद) और लक्ष्मी के भंडार ऐसे सूरचन्द्र आचार्य हुए।
माघनन्दी, ज्ञाननन्दी, गंगनन्दी, सिंहकीर्ति, हेमकीर्ति, मनोज्ञ बुद्धि वाले चारुनन्दी, नेमिनन्दी, नाभिकीर्ति, नरेन्द्रकीर्ति, श्रीचन्द्र, पद्मकीर्ति, वर्धमानमुनीश्वर, अकलंकचन्द्र, ललितकीर्ति, त्रैविद्यज्ञानी केशवचन्द्र, चारुकीर्ति, महातपस्वी अभयकीर्ति और सिद्धांतपारंगत वनवासी, व्याघ्र, सर्प आदि से सेवित शील के सागर ऐसे बसंतकीर्ति आचार्य हुए।
वनवासी इन बसंतकीर्ति सूरि के शिष्य विशालकीर्ति हुए जिनकी कीर्ति भुवन में विख्यात हो गई, ये अनेक गुणों के आलय थे, शम-दम, ध्यानरूपी नदियों के सागर, परवादी रूपी हाथियों के मदवारण करने में सिंहतुल्य, त्रैविद्यविद्या के आस्पद अतिप्रसिद्ध हुए हैं। इनके पट्ट पर शुभकीर्ति आचार्य हुए जो चारित्रमूर्ति थे, एकान्तर आदि उग्र तपश्चरण के विधाता थे और सन्मार्गविधि के विधान में ब्रह्मा के समान थे। इनके पट्ट पर हमीर राजा से पूजित श्री धर्मचन्द्र हुए, जो कि संयम समुद्र की वृद्धि में चन्द्रमा के समान, सैद्धान्तिक और प्रख्यात माहात्म्य के अवतारस्वरूप थे।
इनके पट्ट पर ‘‘रत्नकीर्ति’’ आचार्य हुए जो स्याद्वादविद्या के समुद्र थे, जिनके शिष्य अनेक देशों में फैले हुए थे, धर्म कथाओं में आसक्त मति वाले, पाप समूह के बाधक बाल ब्रह्मचारी थे। तपस्या के प्रभावपूजित और कारुण्य के पूर्ण आशय वाले थे। समस्त संघों में तिलक श्री नंदिसंघ है उसमें विशाल कीर्ति वाला सरस्वतीगच्छ है। उसमें जिनकी शुभ कीर्ति के बखान से आकाशतल व्याप्त हो रहा है, चन्द्रमा के समान निर्मल कीर्ति के धारक ऐसे ये रत्नकीर्ति आचार्य जयवंत रहें।
इनके पट्ट पर प्रभाचंद्र आचार्य हुए। इनके पट्ट पर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराने वाले श्री ‘पद्मनंदी’ हुए। ये निर्ग्रन्थ महामुनि अनेकों गुणों से विभूषित थे।
उनके पट्ट पर शुभचंद्रसूरि हुए, उनके पट्ट पर पद्मनंदी पुन: उनके पट्ट पर जिनचंद्र सूरि हुए, पुन: उनके पट्ट पर प्रभाचंद्राचार्य हुए।
‘श्री पद्मनंदी’ गुरु बलात्कारगण में अग्रणी हुए हैं। इन्होंने ऊर्जयंतगिरि पर पाषाण से बनी हुई सरस्वती की मूर्ति को बुलवा दिया था। इसी हेतु से सारस्वतगच्छ (सरस्वती गच्छ) प्रसिद्ध हुआ है इसलिए मैं श्री पद्मनंदी मुनीन्द्र को नमस्कार करता हूँ।’’
और भी अनेक गुर्वावलियों में और प्रशस्तियों में परम्परागत अनेकों आचार्यों के नाम हैं। इनके अतिरिक्त न जाने कितने मुनि हुए हैं। जिनकी संख्या को जानने के लिए अपने पास कोई साधन नहीं है। तमाम आचार्यों के ग्रंथों से, उनमें लिखी हुई प्रशस्तियों से और शिलालेखों से बहुत से साधुओं के नाम और परिचय जानने को भी मिल रहे हैं।
गुणधर, धरसेन और कुंदकुंद आदि आचार्यों ने ताड़पत्रों पर कितने श्रम से ग्रंथ लिखे हैंं। अपने ध्यान से समय निकालकर महान् परोपकार की भावना को हृदय में धारण करते हुए ही इन आचार्यों ने परम करुणा बुद्धि से हम लोगों के लिए तमाम ग्रंथों का सृजन किया है।
श्री इंद्रनंदि आचार्य के श्रुतावतार में ‘लोहार्य’ तक की गुरु परम्परा के पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्यों का उल्लेख किया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वों के एकदेश ज्ञाता थे। इनके पश्चात् ‘अर्हद्बलि आचार्य’ का उल्लेख किया है।
अर्हद्बलि आचार्य बहुत बड़े संघ के नायक थे। इन्होंने भिन्न-भिन्न रूप से संघ व्यवस्था की थी। यथा-
‘‘पूर्व देश के श्री पुंड्रवर्धनपुर में श्री अर्हद्बलि नाम के मुनि हुए, ये आचार्य प्रसारणा, धारणा आदि सत्क्रियाओं में उद्युक्त, अष्टांग महानिमित्तज्ञानी, संघ के अनुग्रह और निग्रह में समर्थ थे। ये पाँच वर्ष के अनन्तर युगप्रतिक्रमण करते थे। इसमें सौ योजन के अंतर्गत सभी मुनि सम्मिलित होते थे। एक समय इस युगप्रतिक्रमण के समय भगवान अर्हद्बलि ने मुनिसमुदाय को पूछा कि क्या सभी साधु आ गये ? उन साधुओं ने भी कहा-‘हाँ, भगवन्! हम लोग अपने-अपने संघ सहित आ गये।’ इस उत्तर को सुनकर आचार्यदेव ने विचार किया कि इस पंचमकाल में अब से लेकर यह जैनधर्म गण के पक्षपात रूप भेदों से ही रह सकेगा, उदासीनभाव से नहीं।
ऐसा सोचकर गुरुदेव ने ‘गुफा’ से आये हुए यतीश्वरों में से कुछ को ‘नंदि’ और कुछ को ‘वीर’ ऐसा नाम किया। ‘अशोकवाटिका’ से जो मुनीश्वर आये थे, उनमें से कुछ को ‘अपराजित’ और कुछ को ‘देव’ यह नाम दिया। जो पंचस्तूप्य निवास से आये हुए अनगारी थे, उनमें से किन्हीं का ‘सेन’ और किन्हीं का ‘भद्र’ यह नाम रखा। जो यति शाल्मली महावृक्ष के नीचे से आए हुए थे उनमें से किन्हीं को ‘गुणधर’ और किन्हीं को ‘गुप्त’ ऐसा नाम दिया तथा जो मुनि खंडकेशर वृक्षों के तले से आये थे, उनमें से किन्हीं का ‘चंद्र’ ऐसा नाम किया। इस प्रकार से ये अर्हद्बलि आचार्य मुनिसंघ के प्रवर्तक हुए हैं।
इसके बाद श्रीमाघनंदि आचार्य भी अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता हुए हैं। अनंतर सौराष्ट्र देश में गिरिनगर पुर के निकट ऊर्जयंतगिरि की चंद्रगुफा में रहते थे। ये परमतपस्वी और महामुनियों में मुख्य थे। ये अग्रायणीय पूर्व के अंतर्गत पंचम वस्तु के चतुर्थ महाकर्म प्राभृत के ज्ञाता थे, किसी समय अपनी आयु अल्प जानकर और श्रुतविच्छेद की चिंता से चिंतित हुए। उस समय वेणाकतटीपुर में महामहिम महोत्सव के प्रसंग पर बहुत यति सम्मिलित हुए थे उनके पास ब्रह्मचारी के द्वारा एक पत्र भेजकर दो शिष्य बुलाए। विधिवत् उनकी परीक्षा करके योग्य जानकर शुभ मुहूर्त में अध्ययन प्रारंभ करके आषाढ़ सुदी एकादशी के दिन अध्ययन पूर्ण किया पुन: इन शिष्यों को अन्यत्र चातुर्मास हेतु भेज दिया। जिनके नाम पुष्पदंत और भूतबलि थे।
अनन्तर पुष्पदंत महामुनि ने जिनपालित नाम के अपने भानजे को मुनिदीक्षा देकर उसे पढ़ाने हेतु षट्खण्डागम के कुछ सूत्र बनाए और जिनपालित मुनि को देकर श्री भूतबलि मुनिराज को अभिप्राय जानने हेतु भेज दिया। भूतबलि ने भी पुष्पदंत मुनि की आयु थोड़ी जानकर आगे के सूत्रों की रचना करके षट्खण्डागम ग्रंथ तैयार किया पुन: ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन इस महान ग्रंथराज की चातुर्वर्ण्य संघ के समक्ष महापूजा की गई। तभी से आज भी श्रुतपंचमी के दिन श्रुत की पूजा की जाती है।’’
‘‘इस प्रकार षट्खण्डागम की उत्पत्ति का निरूपण करके अनन्तर इन्द्रनन्दि आचार्य ने कषायप्राभृत ग्रंथ की उत्पत्ति का विस्तार किया है। पुन: एक श्लोक दिया है कि ‘‘कषायप्राभृत के कर्ता श्री गुणधर आचार्य और श्रीधरसेनाचार्य की गुरु परम्परा की हमें जानकारी नहीं है।’’
यतिवृषभाचार्य ने इस ‘कषायप्राभृत’ ग्रंथ की गाथा पर चूर्णिसूत्र रचे हैं।
अनन्तर इस श्रुतावतार में बताया है कि कुंदकुन्दपुर में श्री पद्मनंदि मुनि ने गुरु परम्परा से इन सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करके षट्खण्डागम सूत्र पर बारह हजार श्लोक प्रमाण में परिकर्म नाम की टीका रची है। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इन ग्रंथों का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पाँच खंडों पर अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण में विस्तृत टीका लिखी है। इस श्रुतावतार में इन दोनों सिद्धान्त ग्रंथों के विषय में और भी टीकाकारों के नाम आये हुए हैं। पुन: श्री एलाचार्य गुरु के निकट सकल सिद्धान्त का अध्ययन करके श्री वीरसेन आचार्य ने षट्खण्डागम सिद्धान्त पर धवला टीका रची और चूर्णिसूत्रसमन्वित कषायप्राभृत ग्रंथ पर जयधवला टीका रची है।’’
वर्तमान में कतिपय विद्वान आचार्य परम्परा के विषय में अन्वेषण करते हुए ऐसा लिखते हैं कि ‘‘कसायपाहुड’’ ग्रंथ के प्रणेता श्री गुणधर आचार्य ‘अर्हद्बलि’ आचार्य से पूर्व हुए हैं तथा षट्खण्डागम के व्याख्याता श्रीधरसेनाचार्य से भी दो सौ वर्ष पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस तरह आचार्य गुणधर का समय वि.पू. प्रथम शताब्दी सिद्ध हो जाता है इसलिए सूत्ररूप से ग्रंथ के रचयिता ये आच्ाार्य इस युग में सबसे प्रथम माने जाते हैं।
नीतिसार में आचार्य श्री इंद्रनंदि ने चार संघ के नामों का उल्लेख किया है। यथा-‘‘अर्हद्बलि गुरु ने सिंहसंघ, नंदिसंघ, सेनसंघ और देवसंघ इस प्रकार से चार संघ व्यवस्थापित किये। स्थान-स्थिति की विशेषता से उनमें से गण, गच्छादि भेद हो गये जो कि स्व पर को सौख्यदायी थे। इनमें दीक्षा आदि क्रियाओं, प्रतिक्रमण विधि आदि में किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं है। कुछ काल के बाद श्वेताम्बर मत उत्पन्न हुआ। द्राविड, यापनीय और काष्ठासंघ भी हुए।
गोपुच्छिक, श्वेताम्बर, द्राविड, यापनीय और नि:पिच्छिक ये पाँच जैनाभास माने गये हैं। इन लोगों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार गलत सिद्धान्त रच करके जिनेन्द्रदेव के मार्ग में भेद डाल दिया है।
उपर्युक्त सिंह, नंदि आदि चार प्रकार के संघों में जो भेद भावना करते हैं, वे सम्यग्दर्शन से रहित हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं।’’
मूलसंघ के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि यह कब कायम हुआ। ऐसा मालूम पड़ता है कि भगवान महावीर का संघ, जो उनके समय और उनके बाद में निर्र्ग्रन्थ महाश्रमण के रूप में प्रसिद्ध था। वही निर्र्ग्रन्थ संघ ही अनेक भेद-प्रभेदों के हो जाने पर स्वयं ‘मूलसंघ’ इस नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ।
उपर्युक्त चारों संघ मूलसंघ के अन्तर्गत हैं। ‘‘इस संघ के अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं-देवगण, सेनगण, देशोगण, सूरस्थगण, बलात्कारगण, क्राणूरगण और निगमान्वय। इन गणों के नामकरण मुनियों के नामान्त शब्दों से तथा प्रान्त और स्थान विशेष के कारण हुए हैं।
नीतिसार में कहा है कि-
श्री भद्रबाहु, श्रीचन्द्र, जिनचन्द्र, गृद्धपिच्छाचार्य, लोहाचार्य, एलाचार्य, पूज्यपाद, सिंहनंदी, जिनसेन, वीरसेन, गुणनंदी, समंतभद्र, श्रीकुंभ शिवकोटि, शिवायन, विष्णुसेन, गुणभद्र, अकलंकदेव, सोमदेव, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र इत्यादि मुनिपुंगवों के द्वारा रचित शास्त्र ही ग्रंथ करने योग्य हैं और इनके अतिरिक्त (उपर्युक्त चार संघ के आचार्यों से अतिरिक्त) विसंघ्य-परम्परा विरुद्धजनों के द्वारा रचित ग्रंथ साधु-अच्छे होकर भी प्रमाण नहीं हैं।
क्योंकि परम्परागत पूर्वाचार्यों के वचन सर्वज्ञ भगवान के वचनों के सदृश हैं। उन्हीं से ज्ञान प्राप्त करता हुआ अनगार साधु अखिल जनों में पूज्य होता है।
वृन्दावन कवि ने गुर्वावली वंदना में कुछ गुरुओं के नाम और उनके बनाये हुए ग्रंथों का वर्णन बहुत ही मधुर ढंग से किया है। उसमें भी उन्होंने ‘‘भगवान महावीर के निर्वाण के बाद से लेकर हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन स्वामी तक अनेकों आचार्यों के ग्रंथों का नामोल्लेख किया है और उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया है।’’
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने दिगम्बर आरातीय आचार्यों की परम्परा को निम्नलिखित पाँच भागों में विभक्त करके विवेचन किया है-
१. श्रुतधराचार्य।
२. सारस्वताचार्य।
३. प्रबुद्धाचार्य।
४. परम्परापोषकाचार्य।
५. कवि और लेखक-आचार्यतुल्य।
१. जिन्होंने दिगम्बर मुनि अवस्था में केवली और श्रुतकेवलियों की परम्परा को प्राप्त कर अंग या पूर्वों का एकदेश ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हीं आचार्यों को इन्होंने श्रुतधर आचार्य की परम्परा में लिया है। ये आचार्य मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्परा को जीवित रखने की दृष्टि से ग्रंथ प्रणयन में संलग्न रहते थे। श्रुत की यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुत के रूप में ईसवी सन् पूर्व की शताब्दियों से आरंभ होकर ई. सन् की चतुर्थ-पंचम शताब्दी तक चलती रही है। इन आचार्यों में क्रम से ‘‘आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, आर्यमंक्षु, नागहस्ति, वङ्कायश, चिरंतनाचार्य, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, वप्पदेव, कुंदकुंद, वट्टकेर, शिवार्य, स्वामिकुमार (कार्तिकेय), गृद्धपिच्छाचार्य, समंतभद्र, सिद्धसेन, देवनंदि-पूज्यपाद, पात्रकेसरी, जोइन्दु-योगीन्द्रदेव, विमलसूरि, ऋषिपुत्र, मानतुंग, रविषेण, जटासिंहनंदि, अकलंकदेव, एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, विद्यानंद, देवसेन, अमितगति प्रथम, अमितगति द्वितीय, अमृतचंद्रसूरि, नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्ती, नरेन्द्रसेन और नेमिचंद्र मुनि’’। इतने आचार्यों का परिचय, संवत् और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का वर्णन किया है।
२. जिन्होंने श्रुतपरम्परा का मौलिक ग्रंथप्रणयन और टीका साहित्य द्वारा प्रचार और प्रसार किया, उन्हें सारस्वताचार्य की संज्ञा दी गई है। इन आचार्यों में आचार्य सिंहनंदि, सुमति, कुमारनंदि, श्रीदत्त, कुमारसेन गुरु, वङ्कासूरि, यशोभद्र आदि का वर्णन किया है।
३. प्रबुद्धाचार्यों में जिनसेन, गुणभद्र, वादीभसिंह, वीरनंदि, इन्द्रनंदि आदि लगभग ४० आचार्यों का वर्णन किया है।
४. परम्परापोषकाचार्यों के नाम से बृहत्प्रभाचंद्र, भास्करनंदि आदि लगभग ५० आचार्यों का वर्णन है।
५. कवि और लेखकों में महाकवि धनंजय, चामुंडराय, आशाधर आदि लगभग १५० कवि और लेखकों का वर्णन किया है।’’
पं. परमानंद शास्त्री ने ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी से लेकर ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक के विद्वान् आचार्यों में आचार्य दौलामस (धृतिसेन), मुनिकल्याण, आचार्य गुणधर, अर्हद्बली, धरसेन, माघनन्दी सैद्धांतिक, पुष्पदंत, भूतबली, भद्रबाहु (द्वितीय), कुन्दकुन्दाचार्य, गुणवीर पंडित, उमास्वाति, समंतभद्र, शिवार्य और सिद्धसेन इन पन्द्रह आचार्यों को लिया है।
पुन: पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक आचार्यों में गुहनन्दि तुंबुलूराचार्य, वीरदेव, चन्द्रनन्दि, श्रीदत्त, यशोभद्र, देवनन्दि (पूज्यपाद) आदि लगभग ५८ आचार्यों का इतिवृत्त कहा है।
नवमीं शताब्दी और दशवीं शताब्दी के आचार्यों में विजयदेव, महासेन, सर्वनंदि आदि ८९ आचार्यों का परिचय दिया है।
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान् आचार्यों में अर्हनन्दि, धर्मसेनाचार्य, वादिराज, दिवाकरनन्दि आदि १४७ मुनियों के जीवन पर और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डाला है।
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्यों, विद्वानों एवं कवियों के परिचय में कनकचंद्र मुनीन्द्र आदि ९१ विद्वानों का वर्णन किया है और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डाला है।
पुन: १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक तथा कवियों का परिचय देते हुए कवि रइधू, भट्टारक पद्मनन्दी आदि ९० विद्वानों का इतिहास बताया है और उनके द्वारा रचित रचनाओं का वर्णन किया है।
भट्टारकों की परम्परा को बतलाते हुए सेनगण के कालानुक्रम से प्रारंभ किया है। उसमें चन्द्रसेन, आर्यनंदि, वीरसेन आदि से प्रारंभ किया है। ये वीरसेनाचार्य सं. ८७३ में हुए हैं। इन्होंने शक सं. ७३८ में धवला टीका को पूर्ण किया है।
अत: सं. ८७३ से भट्टारकों की परम्परा प्रारंभ करके सं. १९९५ तक ५२ आचार्यों का उल्लेख किया है।
पुन: बलात्कारगण को प्राचीन सिद्ध करते हुए श्रीनन्दि, श्रीचन्द्र आदि को लेकर धर्मभूषण पर्यन्त २७ भट्टारकों (आचार्यों) का वर्णन किया है।
७. इनको सं. १०७० से १४४२ तक में घटित किया है। आगे चलकर अमरकीर्ति आदि को लेकर देवेन्द्रकीर्ति तक भट्टारकों का वर्णन किया है। इनको सं. १५९८ से लेकर सं. १९७३ तक में घटित किया है। आगे और भी तमाम भट्टारकों का वर्णन किया है।’’
भट्टारकों के नाम से आप यह न समझिये कि ये सभी वस्त्रधारी ही थे। ये परम्परागत गुरु के पट्ट पर आसीन आचार्यशिरोमणि थे। हाँ, आगे कुछ वस्त्रधारी भट्टारक भी हुए हैं।
प्रवचनसार आदि ग्रंथों में भगवान को भट्टारक कहा है। श्री वीरसेन स्वामी कषायप्राभृत के कर्ता ‘गुणधर’ आचार्य को भट्टारक कहते हैं। ‘‘जिन्होंने इस आर्यावर्त में अनेक नयों से युक्त, उज्ज्वल और अनन्त अर्थों से व्याप्त कषायप्राभृत का गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है, उन गुणधर भट्टारक को मैं वीरसेन आचार्य नमस्कार करता हूँ।’’ और भी अनेकों उदाहरण आगम में भरे हुए हैं।
‘‘सं. १२६४ में बसंतकीर्ति आचार्य हुए हैं। शायद इन्होंने वस्त्र धारण की प्रथा डाली है, ऐसा कथन भट्टारक संप्रदाय पुस्तक में आया है।’’
‘‘पुन: आगे स्पष्टतया कहा है कि सं. १५७२ में पद्मनंदी के शिष्य यश:कीर्ति हुए हैं, जो कि नैर्ग्रन्थ्य रूप आर्हत मुद्रा को धारण करने वाले थे।’’
कहने का अभिप्राय यही है कि अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु के अनंतर आचार्य गुणधर आदि से लेकर आज तक दिगम्बर मुनि होते आये हैं और पंचम काल के अंत तक वीरांगज नाम के मुनि होंगे। श्री गौतम स्वामी भी पंचमकाल में ही मोक्ष गये हैं। ऐसा नियम है कि पंचमकाल में जन्म लेने वाले जीव पंचमकाल में मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं किन्तु चतुर्थकाल में जन्मे हुए पुरुष पंचमकाल में मोक्ष जा सकते हैं क्योंकि पंचम काल के प्रारंभ होने में जब तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष मात्र काल बाकी रह गया था, तब भगवान महावीर मोक्ष गये हैं और उसी दिन गौतम स्वामी को केवलज्ञान हुआ था। अनंतर बारह वर्ष बाद वे मोक्ष गये हैं।
वर्तमान में कुन्दकुन्दान्वय का अतीव महत्त्व है। प्रशस्ति या गुरुपरम्परा में ‘‘कुन्दकुन्दाम्नाये मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे’’ इत्यादि रूप से ही मूर्तियों में या ग्रंथों में प्रशस्तियाँ रहती हैं। वे कौन हैं ? पढ़िए-
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी मूलसंघ के अग्रणी आचार्य हैं, यही कारण है कि वर्तमान में मंगलहेतु कुंदकुंद का नाम गौतमस्वामी के अनंतर लिया जाता है। विद्वानों के निर्णयानुसार इनका जन्म दक्षिण भारत में माना गया है। ‘कौण्डकुन्दपुर’ नामक ग्राम में कर्मण्डु की पत्नी श्रीमती के गर्भ से इनका जन्म हुआ है। इनके समय के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है।
‘‘नंदीसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि. सं. ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक उस पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ९५ वर्ष १० महीने १५ दिन की थी।’’
‘‘कुन्दकुन्द स्वामी की परम्परा वाले मूलसंघ को अर्हद्बलि आचार्य ने चार संघ में विभक्त किया है, ऐसा भी एक शिलालेख में कथन है।’’
तथा कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने बोधपाहुड़ में स्वयं को भद्रबाहु का शिष्य कहकर उनका जयघोष किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये भद्रबाहु श्रुतकेवली के अनन्तर ही हुए हैं। यथा-
‘‘जिनेन्द्रदेव-भगवान महावीर ने अर्थरूप से जो कथन किया है वह भाषा सूत्रों में शब्दविकार को प्राप्त हुआ-शब्दों में ग्रथित हुआ। भद्रबाहु के मुझ शिष्य ने उन भाषासूत्रों को उसी रूप से जाना है और उसी रूप से कहा है जो द्वादश अंग के ज्ञानी हैं, चौदह पूर्वों का विपुल विस्तार करने वाले हैं। ऐसे श्रुतकेवली भद्रबाहु गमकगुरु भगवान् जयवंत होवें।’’
‘‘नंदीसंघ की पट्टावली में भी-१. भद्रबाहु द्वितीय (४), २. गुप्तिगुप्त (२६), ३. माघनंदी (३६), ४. जिनचंद्र (४०), ५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९), ६. उमास्वामी (१०१), इत्यादि। इसमें भी भद्रबाहु का परम्परा शिष्य कुन्दकुन्द को कहा है।’’
इनके विषय में विदेहक्षेत्र में गमन, चारण्ाऋद्धि प्राप्ति, पाषाण की देवी को बुलवाना आदि कई बातें प्रसिद्ध हैं और पट्टावली में इनके पाँच नाम माने हैं, उनका भी कई जगह समर्थन है। पाँच नाम-
आचार्य: कुंदकुंदाख्यो वक्रग्रीवो महामति:।
एलाचार्यो गृध्रपिच्छ: पद्मनंदीति तन्नुति:।।
कुंदकुंद, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृध्रपिच्छ और पद्मनंदि ये पाँच नाम हैं।
वि. सं. ९९० में विद्यमान देवसेन आचार्य ने दर्शनसार में इनके विदेहगमन की बात कही है। यथा-
‘‘यदि पद्मनंदि स्वामी सीमंधर स्वामी के दिव्यज्ञान से सम्बोधन न प्राप्त करते तो श्रमण सुमार्ग को वैâसे जानते ?’’
श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय प्राभृत के प्रारंभ में कहा है-
‘‘जो श्री कुमारनंदि सैद्धांतिक देव के शिष्य हैं, प्रसिद्ध कथा के न्याय से पूर्वविदेह में जाकर वीतराग, सर्वज्ञ, सीमंधरस्वामी तीर्थंकर परमदेव का दर्शन करके और उनके मुखकमल से विनिर्गत दिव्यध्वनि के श्रवण से अवधारित पदार्थ समूहों से ज्ञान को प्राप्त कर आत्मतत्त्व आदि सारभूत अर्थ को ग्रहण करके पुन: यहाँ आये हुए श्रीमान् कुन्दकुन्दाचार्य देव, जिनका अपरनाम पद्मनंदी है………..।’’
यहाँ इनके गुरु का नाम कुमारनंदी दिया है। नंदिसंघ की पट्टावली में इनके गुरु का नाम ‘जिनचन्द्र’ कहा है। यथा-‘‘मूलसंघ में नंदिसंघ हुआ, उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्व पदों के अंश के ज्ञाता माघनंदी आचार्य के पट्ट पर जिनचन्द्र हुए, पुन: उनके पद पर पाँच नाम को धारण करने वाले पद्मनंदी मुनि हुए।’’
श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभृत की टीका में प्रत्येक प्राभृत की समाप्ति में विदेहगमन की बात कही है। यथा-‘‘श्री पद्मनंदी कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामों से विराजित चतुरंगुल आकाशगामी ऋद्धिधारी, पूर्वविदेह की पुंडरीकिणी नगरी में सीमंधर स्वामी अपरनाम स्वयंप्रभ जिनदेव की वंदना करने वाले, उनके द्वारा श्रुतज्ञान से भारतवर्ष के भव्यजनोें को सम्बोधित करने वाले श्री जिनचन्द्र सूरि भट्टारक के पट्ट के आभरणस्वरूप और कलिकाल सर्वज्ञ’’………इत्यादि।
इस प्रकार देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य और श्रुतसागरसूरि इन तीन आचार्यों ने श्री कुन्दकुन्ददेव के विदेहगमन की बात कही है।
चारणऋद्धि के विषय में देखिए-
तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनंदी प्रथमाभिधान:।
श्री कुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्य: सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।५।।
श्री श्रुतसागर सूरि ने षट्प्राभृत ग्रंथ के प्रत्येक पाहुड़ की टीका की समाप्ति में कहा ही है-
ऐसा प्रसिद्ध है कि ‘‘श्री कुन्दकुन्दस्वामी संघ सहित यात्रा हेतु गिरनार पहुँचे। वहाँ पर श्वेताम्बर साधुओं का भी संघ पहुँचा। पहले वंदना कौन करे इस पर विवाद होने पर कुन्दकुन्ददेव ने वहाँ पर स्थित सरस्वतीदेवी की मूर्ति को मंत्र के बल पर बुलवा दिया।’’
यथा-‘‘बलात्कारगण के अग्रणी श्री पद्मनंदिगुरु हुए हैं, जिन्होंने पाषाण से निर्मित श्री सरस्वती को बुलवा दिया।’’
‘‘जिन्होंने इस कलिकाल में ऊर्जयंतगिरि के ऊपर पाषाण से घटित ब्राह्मी देवी को बुलवा दिया। वे कुंदकुंदगणी हमारी रक्षा करें।’’
बहुत सी प्रशस्तियों में भी श्री कुन्दकुन्द देव की ऋद्धि आदि का वर्णन आता है। यथा-
‘‘श्रीपद्मनंदीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द:।
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चारित्रसंजातसुचारणर्द्धि:।।४।।’’
‘‘वंद्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्द: कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्तिविभूषिताश:।।
यश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम्।।५।।’’
‘‘श्री कोण्डकुंदादिमुनीश्वराख्यस्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।४।।’’
‘तद्वंशाकाशदिनमणिसीमंधरवचनामृत- संतुष्टचित्तश्रीकुन्दकुन्दाचार्याणाम्।।५।।’’
‘‘तत्पट्टोदयाद्रिदिवाकरश्रीएलाचार्यगृध्रपिच्छ- वक्रग्रीवपद्मनंदिकुन्दकुन्दाचार्यवर्याणाम्।।२।।
इस सब प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि कुन्दकुन्द स्वामी महान् तपस्वी, गणनायक और मंत्रों के विशेष ज्ञाता थे तथा विदेहक्षेत्र में जाकर सीमंधर भगवान का साक्षात् दर्शन करके आये थे।
शंका-चन्द्रगुप्त के स्वप्न के फल में पंचमकाल में ऋद्धिधारी के आने का निषेध है। यथा-
‘‘देवताओं के विमान को वापस जाता हुआ देखने से पंचमकाल में देवता, विद्याधर तथा चारणमुनि नहीं आवेंगे।’’
समाधान-इस कथन से ऋद्धि होने का सर्वथा निषेध नहीं है अत: पंचमकाल के प्रारंभ में श्री कुन्दकुन्ददेव को चारण ऋद्धि मानना बाधित नहीं है।
इन महिमाशाली आचार्य की अनेकों रचनाएँ आज हमें सर्वज्ञ भगवान के वचनों का अमृतपान करा रही हैं। चूँकि वीरसेन, विद्यानंद आदि आचार्यों ने सूत्रकारों को सर्वज्ञवचनतुल्य प्रमाणीक कहा है।
श्री कुन्दकुन्द की रचनाएँ-चौरासी पाहुड़, षट्खण्डागम टीका, दशभक्ति , अष्टपाहुड़, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, बारसअणुपेक्खा, समयसार, मूलाचार और कुरलकाव्य।
मूलाचार को कुछ विद्वान् कुन्दकुन्द की कृति नहीं मानते हैं किन्तु कुछ विद्वानों ने इसके बारे में प्रमाण प्रस्तुत किये हैं-
‘‘मूलाचार की एक टीका श्री मेघचन्द्राचार्य कृत ‘‘मुनिजनचिन्तामणि’’ नाम की है जो कि कर्नाटक भाषा में है। जिसमें प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में इसे ‘‘श्री कुंदकुंदाचार्य कृत’ लिखा है तथा कर्नाटक टीका के प्रारंभ में भी श्लोक के अनन्तर गद्य में ‘‘कोण्डकुन्दाचार्य’’ नाम दिया है।’’
‘‘दूसरी टीका संस्कृत में है जो कि सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि आचार्य द्वारा बनाई हुई है।’’ इसके प्रारंभ में टीकावâार ने ‘श्रीवट्टकेराचार्य:’ ऐसा कहा है और टीका के अंत में ‘‘इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्याय:। कुंदकुंदाचार्यप्रणीत-
मूलाचाराख्यविवृत्ति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्रीश्रमणस्य।’’ ऐसा उल्लेख है अत: इन्हीं कुंदकुंदाचार्य को ही ‘वट्टकेराचार्य’ नाम से वसुनन्दि आचार्य ने कहा है, ऐसा स्पष्ट है। चूँकि इन्होंने षट्खण्डागम के तीन खण्डों पर ‘परिकर्म’ नाम की वृत्ति लिखी है। मालूम होता है कि इसी हेतु से इनका ‘वृत्तिकार’-वट्टकेर नाम प्रसिद्ध हो गया है। कुछ भी हो यह मूलाचार कृति
श्रीकुन्दकुन्दाचार्य कृत ही है।
वर्तमान युग में इन आचार्यों के ये ग्रंथ ही हम लोगों के लिए मोक्षमार्गप्रदर्शक हैं। कहा भी है-
इस कलिकाल में भरतक्षेत्र में सर्वज्ञ देव नहीं हैं किन्तु उनकी वाणी मौजूद है और उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाले सच्चे दिगम्बर साधु भी मौजूद हैं जो कि मोक्षमार्ग को प्रशस्त किये हुए हैं।’’
‘यतिवृषभ कषायपाहुड़ की चूर्णिसूत्रों के कर्ता हैं और तिलोयपण्णत्ति के भी कर्ता हैं अतएव इनका समय वि.सं. ५२६ से पूर्व होना सुनिश्चित है। ये आर्यमंक्षु और नागहस्ति के अन्तेवासी कहे हैं।’’ उसमें आर्यमंक्षुक का समय ई. सन् प्रथम शताब्दी और नागहस्ति का समय ई. सन् १००-१५० तक माना गया है। यही इनका समय निश्चित होता है। कुन्दकुन्द का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी मानने वालों ने यतिवृषभ को कुन्दकुन्द से पूर्व का माना है।’’
शिवार्य (शिवकोटि आचार्य) भगवती आराधना के कर्ता हैं। इनका समय कुछ विद्वान् उमास्वामी के पूर्व का निर्णय करते हैं।
इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की है। मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामी ४० वर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे हैं। श्रवणबेलगोला के ६५वें शिलालेख में इन्हें कुन्दकुन्द के पट्ट पर माना है।
तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनन्दिप्रथमाभिधान:।
श्रीकुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्य: सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:।।५।।
अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छ:।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी।।६।।
इन्हीं का अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य भी है। अन्यत्र पट्टावली में भी कहा है-‘‘श्री कुन्दकुन्द के पवित्र आम्नाय में उमास्वाति आचार्य हुए। प्राणी रक्षा में तत्पर इन्होंने गृध्र के पंखों को धारण किया तभी से ये गृध्रपिच्छाचार्य कहलाये हैं। इनकी परम्परा में (पट्ट पर) महर्द्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए हैं। इनके शरीर के संसर्ग से विषमयी हवा भी उस समय अमृत (निर्विष) हो जाती थी।’’
समन्तभद्राचार्य-
श्री समन्तभद्र स्वामी को श्रुतमुनि की पट्टावली में उमास्वामी के शिष्य के पट्ट पर माना है। इसके बाद श्री समंतभद्र स्वामी हुए हैं।
श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से भी ज्ञात होता है कि-‘‘भद्रबाहु श्रुतकेवली के शिष्य चन्द्रगुप्त, इनके वंशज पद्मनंदि अपरनाम कुन्दकुन्द मुनिराज, इनके वंशज गृद्धपिच्छाचार्य, इनके शिष्य बलाकपिच्छाचार्य और उनके समन्तभद्र हुए।’’
‘‘बहुत कुछ विद्वानों ने ऊहापोह करके ईसवी सन् की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में इनके होने का अनुमान किया है।’’
दक्षिण भारत के उरगपुर (उरैपुर) में चोल राजवंश के राजा के ये पुत्र थे, ऐसा एक आप्तमीमांसा प्रति के अन्त में लिखा हुआ है-‘‘इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनो: श्रीस्वामिसमंतभद्रमुने: कृतौ आप्तमीमांसायाम्’’ इससे स्पष्ट है कि ये क्षत्रियवंशी थे।
मुनिदीक्षा के पश्चात् इन्हें भस्मक व्याधि हो जाने से गुरु से समाधिमरण की आज्ञा माँगी किन्तु गुरु ने इन्हें भविष्णु जानकर आदेश देते हुए कहा कि ‘आपसे धर्म और साहित्य को बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं अत: आप दीक्षा छोड़कर रोग शमन का उपाय करें। रोग दूर होने पर पुन: दीक्षा लेना। गुरु के आदेशानुसार समन्तभद्र नाग्न्यपद छोड़कर सन्यासी बन गये। इधर-उधर विचरण करते हुए वाराणसी में शिवकोटि राजा के भीमलिंग नामक शिवालय में जाकर शिवजी को खिलाने की बात कहते हुए कुछ दिन नैवेद्य स्वयं खाने लगे। नैवेद्य के उपभोग से रोग शमन होने लगा, फलस्वरूप नैवेद्य बचने लगा, जिससे राजा के समक्ष वास्तविकता प्रकट हो गई। भेद खुल जाने से राजा के निमित्त से उपसर्ग समझकर चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति प्रारंभ की, जब ये चन्द्रप्रभ स्वामी की स्तुति कर रहे थे कि शिवपिण्डी से चन्द्रप्रभ स्वामी की मनोज्ञ प्रतिमा प्रगट हो गई। समन्तभद्र स्वामी के इस माहात्म्य से बहुत ही धर्म की प्रभावना हुई।
श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में लिखा है-
वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटु: पद्मावती देवता-
दत्तोदात्तपदस्वमंत्रवचनव्याहूतचंद्रप्रभ:।।
आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृद्येनेह काले कलौ।
जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्तान्मुहु:।।
जो अपने भस्मक व्याधि को दूर करने में चतुर हैं, पद्मावती नामक देवी की दिव्यशक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति हुई, जिन्होंने अपने मंत्र वचनों से चन्द्रप्रभ को प्रगट किया और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग इस कलिकाल में भद्ररूप हुआ, वे गणनायक आचार्य समन्तभद्र बार-बार वन्दना किये जाने योग्य हैं। यह लेख शक संवत् १०२२ का है। कवि वृन्दावन भी कहते हैं-
स्वामी समंतभद्रमुनिवर सों शिवकोटी हठ कियो अपार।
वंदन करो शंभुपिंडी को तब गुरु रच्यो स्वयंभू भार।।
वंदन करत पिंडिका फाटी प्रगट भये जिनचंद्र उदार।
सो गुरुदेव बसो उर मेरे बिघन हरण मंगल कारतार।।२।।
समंतभद्र स्वामी की रचनाएँ-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, स्तुतिविद्या, देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, रत्नकरंडश्रावकाचार, जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृत टीका और गंधहस्तिमहाभाष्य।
इनमें बृहत्स्वयंभू स्तोत्र का चमत्कार तो प्रसिद्ध ही है। स्तुतिविद्या चित्रालंकार रूप है और देवागम तो अपने आप में एक विशेष ही महत्त्वपूर्ण कृति है। उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण-
‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये।।’
इस श्लोक के ऊपर ११४ कारिकाओं में आप्त की मीमांसा-समीक्षा करते हुए सच्चे आप्त का निर्णय किया है। इसी आप्तमीमांसा के ऊपर श्री अकलंकदेव ने ‘अष्टशती’ नाम का भाष्य बनाया है और उस भाष्य को वेष्टित करके श्री विद्यानंद आचार्य ने ‘‘अष्टसहस्री’’ नाम की टीका की है, जो कि जैनदर्शन में सर्वोपरि ग्रंथ माना जाता है। इसका हिन्दी भाषानुवाद गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है। स्याद्वादमय सप्त भंगों का जितना विस्तृत और सुन्दर विवेचन इसमें है, उतना विस्तृत विवेचन वर्तमान के उपलब्ध अन्य ग्रंथों में नहीं पाया जाता है। इस प्रकार इन आचार्यों ने अपने युग में अतीव महान् कार्य करके वर्तमान के युग को एक विशेष देन दी है।
कवि और दार्शनिक के रूप में सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में इन्हें वैâसा आदर दिया है।
देखिए-
‘‘कवय: सिद्धसेनाद्या वयं च कवयो मता:।
मणय: पद्मरागाद्या ननु काचोऽपि मेचक:।।३९।।
प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसर:।
सिद्धसेनकविर्जीयात् विकल्पनखरांकुर:।।४२।।
पूर्व में सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और मैं भी कवि हूँ। पर दोनों में इतना ही अन्तर है, जितना कि पद्ममणि और कांच में होता है। जो प्रवादी रूपी हाथियों के समूह के लिए सिंह के समान हैं। नैगम आदि नय ही जिनके केसर-अयाल तथा अस्ति-नास्ति आदि विकल्प ही जिनके तीक्ष्ण नाखून थे, ऐसे वे सिद्धसेन कवि जयवन्त होवें।
‘‘इनका समय कुछ विद्वानों ने विक्रम सं. ६२५ के लगभग माना है।’’ ‘‘सन्मति टीका के प्रारंभ में अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई.) ने भी इन्हें दिवाकर कहा है।’’
इनकी दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-सन्मतिसूत्र और कल्याणमंदिरस्तोत्र। सन्मतिसूत्र की गाथाएँ तो धवला, जयधवला टीका में भी पाई जाती हैं और कल्याणमंदिर स्तोत्र भी भक्तामर स्तोत्र जैसा प्रभावशाली चमत्कारिक है बल्कि यह भक्तामर से पूर्व की रचना है।
इन आचार्य के विषय में भी ऐसा एक अतिशय प्रसिद्ध है-सेनगण की पट्टावली में निम्न वाक्य कहा है-
‘‘(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिंगमहीधरवाग्वङ्कादण्डविष्ट्याविष्कृत
श्री पार्श्वतीर्थेश्वर प्रतिद्वंद्व श्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम्।।१४।।’’
उज्जयिनी नगरी में महाकाल मंदिर में संस्थापित महाकाल (रुद्र) के लिंगरूपी पर्वत को अपने वचनरूपी वङ्कादण्ड के द्वारा स्फोटित करके पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बिम्ब को प्रगट करने वाले श्री सिद्धसेन भट्टारक की जय होवे।
ऐसा ही लेख श्वेताम्बरों के यहाँ कई स्थल पर है-पट्टावली सारोद्धार में-‘‘तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिंगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमंदिरस्तवनेन श्री पार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृत्य श्रीविक्रमादित्य-राजापि प्रतिबोधित: श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्ट्ये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं संजातं।’’
कवि वृन्दावन इस विषय में सभा में वाद-विवाद के प्रसङ्ग में श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई कहते हैं-
‘‘श्रीमत कुमुदचन्द्र मुनिवर सों, वाद पर्यो जहँ सभा मंझार।
तबहीं श्री कल्याणधामथुति, श्रीगुरु रचना रची अपार।।
तब प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथ की, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार।
सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघनहरण मंगल करतार।।७।।’’
कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन तीनों व्यक्तियों का एकत्र समवाय देवनन्दि पूज्यपाद में पाया जाता है। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में इनके नामों के संबंध में उल्लेख मिलते हैं। यथा-
यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या च जिनेन्द्रबुद्धि:।
श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयं।।८।।
जैनेन्द्रे निजशब्दभोगमतुलं सर्वार्थसिद्धि: परा।
सिद्धांते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेक: स्वक:।।
छंदस्सूक्ष्मधियं समाधिशतकस्वास्थ्यं यदीयं विदा-
माख्यातीह स पूज्यपादमुनिप: पूज्यो मुनीनां गणै:।।९।।
अर्थात् जिनका देवनंदी यह प्रथम नाम था किन्तु बुद्धि की महत्ता के कारण जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवताओं के द्वारा इनके पादयुगल पूजित होने से पूज्यपाद इस सार्थक नाम को प्राप्त हुए हैं। इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक, छन्दग्रंथ समाधिशतक आदि ग्रंथों की रचना की है।
देवकीर्तिपट्टावली में इन श्लोकों के पूर्व ७वें श्लोक में समंतभद्र का नाम है। समंतभद्र के पट्ट पर देवनंदी को माना है अर्थात् इस पट्टावली में भद्रबाहु श्रुतकेवली, चंद्रगुप्त, कोंडुकंद, गृद्धपिच्छाचार्य, बलाकपिच्छ, समंतभद्र, पूज्यपाद-देवनंदि, अकलंक इत्यादि क्रम दिया गया है। श्रुतमुनि की पट्टावली में भी समंतभद्र के बाद पूज्यपाद पुन: अकलंकदेव ऐसा क्रम है।’’
नंदिसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्द, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश:कीर्ति, यशोनन्दी इन्ाके बाद ‘देवनंदि’ को लिया है एवं विक्रम सं. २५८ से ३०८ तक इन्हें आचार्य पट्ट पर माना है।
श्रुतमुनि की पट्टावली में इनके बारे में कहा है कि-
‘‘श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधर्द्धि:- जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्र:।
यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावा-त्कालायसं किल तदा कनकीचकार।।१८७।।
अर्थात् अप्रतिम औषधि ऋद्धि के धारी श्री पूज्यपाद मुनि जयशील होवें, विदेह क्षेत्र के जिनेन्द्र-सीमंधर भगवान के दर्शन से जिनका गात्र पवित्र हो चुका है और जिनके पाद प्रक्षालित जल के स्पर्श के प्रभाव से उस समय लोहा सोना हो गया था।
इनके बारे में बहुत अनुश्रुतियाँ हैं। जैसे-‘‘पूज्यपाद स्वामी अपने पैरों में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे, उस समय उनके शिष्य वङ्कानंदि ने अपने साथियों के साथ झगड़ा करके द्रविड़ संघ की स्थापना की।’’
पूज्यपाद स्वामी बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देवविमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी अतएव उन्होंने ‘शांत्यष्टक’ रचकर ज्यों की त्यों दृष्टि प्राप्त कर ली, यथा-
‘‘श्रीप्रभाचन्द्राचार्य’’ भी शांत्यष्टक की टीका के प्रारंभ में कहते हैं-
श्रीपूज्यपादस्वामी संजातचक्षुस्तिमिरादिव्याधिस्तद्विनाशार्थं श्रीशांतिनाथस्य न स्नेहादित्यादिस्तुतिमाह’’-जिनके नेत्रों में तिमिर आदि व्याधि उत्पन्न हो गई है ऐसे श्री पूज्यपादस्वामी उसको दूर करने के लिए श्री शांतिनाथ की ‘न स्नेहात्’ इत्यादि स्तुति करते हैं।
इस शांत्यष्टक के आठवें श्लोक में भी श्लेष अर्थ यही झलकता है।
‘‘शांतिं शांतिजिनेन्द्र! शांतमनसस्त्वत्पादपद्माश्रयात्,
संप्राप्ता: पृथिवीतलेषु बहव: शांत्यर्थिन: प्राणिन:।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु,
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गतद: शान्त्यष्टकं भक्तित:।।८।।
अर्थात् हे शांतिजिनेन्द्र! बहुत से शांत्यर्थी प्राणी शांतचित्त से आपके चरण कमलों का आश्रय लेकर इस पृथ्वीतल पर शांति को प्राप्त हो चुके हैं। हे प्रभो! आपके पादयुगलरूपी देवता के भक्तिपूर्वक शान्त्यष्टक को पढ़ते हुए मुझ भाक्तिक पर आप करुणा करके दृष्टि को प्रसन्न कीजिए अथवा मुझ भाक्तिक की दृष्टि को प्रसन्न-तिमिर आदि दोषों से रहित निर्मल कीजिए।
अनुश्रुति ऐसी भी प्रचलित है कि एक बार ऋद्धि के बल से आकाशमार्ग से आ रहे थे। मार्ग में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से अकस्मात् नेत्रज्योति चली गई। आप नीचे उतरकर शांतिनाथ के चैत्यालय में बैठकर शांतिनाथ की स्तुति करने लगे, आठवें श्लोक को बोलते ही आपकी नेत्र ज्योति ज्यों की त्यों वापस आ गई। पुन: आपने साक्षात् नेत्रों से शांतिनाथ का दर्शन करके गद्गद होकर ‘‘शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं’’ इत्यादि रूप से स्तुति की जो कि आज शांत्यष्टक के साथ सम्मिलित है।
कुछ भी हो, यह तो निश्चित ही है कि इनके नेत्र का तिमिर आदि रोग इस शांति भक्ति को करने में निमित्त अवश्य था।
इनकी रचनाएं जो कि वर्तमान में उपलब्ध हैं-
दशभक्ति, जन्माभिषेक, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धिप्रियस्तोत्र। इनमें से-
दशभक्ति का पाठ तो साधुओं की नित्य नैमित्तिक क्रियाओं में आता ही है। उनमें से जो प्राकृत दश भक्तियाँ हैं वे कुन्दकुन्दाचार्य की बनाई हुई हैं और संस्कृत की दश भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित हैं।
अन्य विद्वान् भी कहते हैं-
‘‘आपके जीवन की अनेक घटनाएं हैं-(१) विदेहगमन (२) नेत्र ज्योति का नष्ट हो जाना तथा शांत्यष्टक के निर्माण से पुन: उसकी संप्राप्ति (३) देवताओं द्वारा चरणों का पूजा जाना (४) औषधि ऋद्धि की उपलब्धि (५) पादस्पृष्ट जल से लोहे का सुवर्ण होना।
आपकी रचनाओं में वैद्यक शास्त्र और सारसंग्रह भी हैं। ‘सारसंग्रह के विषय में धवलाटीका में श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है कि-‘‘सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादै……।’’
पूज्यपादस्वामी का समय वि.सं. की पाँचवीं शताब्दी है क्योंकि आपके शिष्य वङ्कानंदी ने वि.सं. ५२६ में (४६९ ईसवी) द्रविड संघ की स्थापना की ऐसा दर्शनसार में कहा है अत: सभी विद्वान् इन्हें छठी शताब्दी का ही मानते हैं।
मान्यखेट नगर के राजा शुभतुङ्ग के पुरुषोत्तम मंत्री के दो पुत्र थे-अकलंक और निष्कलंक। एक बार आष्टान्हिक पर्व में माता-पिता के साथ मुनि के पास ब्रह्मचर्य व्रत लिया। यौवनावस्था में पिता के आग्रह से भी विवाह न कर आजन्म बाल ब्रह्मचारी रहे। अकलंक एकपाठी और निष्कलंक दो पाठी थे। बौद्धों के धर्मद्वेष से निष्कलंक ने अपना बलिदान कर दिया। आप कलिंग देश के रत्नसंचयपुर में पहुँचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने आष्टान्हिकपर्व में अपना जैन रथ निकलवाने का निर्णय किया। शर्त यह हुई कि यदि कोई जैनगुरु शास्त्रार्थ में बौद्धगुरु को पराजित कर दे, तब जैनरथ निकल सकता है।’’
रानी संकट के समय चतुराहार त्यागकर मंदिर में निश्चल बैठ गई। ध्यान के प्रभाव से अर्द्धरात्रि में पद्मावती देवी ने आकर बताया कि प्रात: ही यहाँ अकलंक देव आयेंगे और वे ही संघश्री बौद्धगुरु का दर्प चूर्ण करेंगे। रानी ने प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की और प्रात: होते ही महाभिषेक पूजन किया। प्रात: एक उद्यान में उनके दर्शन करके निवेदन किया। अकलंकदेव ने शास्त्रार्थ प्रारंभ किया। बौद्धगुरु ने अपने वश का न समझकर अपनी इष्ट तारावती को घट में स्थापित कर दिया आैर पर्दा डाल दिया। अकलंकदेव तारादेवी को बौद्धगुरु समझकर छह महीने तक शास्त्रार्थ करते रहे। अन्त में चक्रेश्वरी देवी के कहे अनुसार तारादेवी को पराजित करके जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना की।
इनकी रचनाएँ-स्वोपज्ञविवृति सहित लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय सविवृति, सिद्धिविनिश्चयसविवृति, प्रमाणसंग्रहसविवृति तथा टीका ग्रंथ तत्त्वार्थवार्तिकसभाष्य और अष्टशती हैं। इनका बनाया हुआ एक स्तोत्र भी अकलंक स्तोत्र नाम से प्रसिद्ध है।
इनके समय के बारे में भी विद्वान् एकमत नहीं हैं। जैनधर्म के प्राचीन इतिहास में परमानन्द शास्त्री ने इनका समय ईसवी सं. ७२० से ७८० सिद्ध किया है।
कई एक पट्टावलियों में अकलंक देव को पूज्यपाद का उत्तराधिकारी सिद्ध किया है। श्रुतमुनि की पट्टावली में
‘‘श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधर्द्धि:’’ इत्यादि १७वें श्लोक के बाद-
‘‘तत: परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरि:।
मिथ्यांधकारस्थगिताखिलार्था: प्रकाशिता यस्य वचोमयूखे:।।१७।।
अर्थात् पूज्यपाद स्वामी के बाद (उनके पट्ट पर) शास्त्रों के वेत्ता मुनियों में अग्रसर अकलंकदेव हुए हैं।’’
देवकीर्ति पट्टावली में भी पूज्यपाद के अनंतर-‘ततश्च’ कहकर
अजनिष्टाकलंकं यज्जिनशासनमादित:।
अकलंकं बभौ येन सोऽकलंको महामति:।।१०।।
पूज्यपाद की छठी शताब्दी निर्णीत हो जाने से इनकी भी छठी या सातवीं शताब्दी मानना ही उपयुक्त प्रतीत होता है।
‘‘भट्टारक सकलचंद्र के शिष्य ब्रह्मचारी ‘पायमल्ल’ कृत भक्तामरवृत्ति में जो कि वि.सं. १६६७ में समाप्त हुई है लिखा है कि धाराधीश भोज की राजसभा में कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। मानतुंग ने ४८ सांकलोें को तोड़कर जैनधर्म की प्रभावना की तथा राजा भोज को जैनधर्म का उपासक बनाया। दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत भक्तामर चरित में भी इसी प्रकार बताई है कि ‘आचार्य मानतुंग’ ने भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से अड़तालीस कोठरियों के ताले तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया।’’
इनके समय के बारे में भी विद्वानों की अनेक विचारधाराएं हैं। एक विद्वान् इन्हें ईसवीं सन् ७वीं शताब्दी का कहते हैं तो एक विद्वान् इन्हें ११वीं शताब्दी का कहते हैं। परमानन्द शास्त्री ने अपने जैनधर्म के प्राचीन इतिहास में इन्हें ११वीं शताब्दी का ही निश्चित किया है।
भक्तामर स्तोत्र और भयहर स्तोत्र ये दो रचनाएँ इनकी मानी गई है। भक्तामर स्तोत्र तो इतना प्रसिद्ध और अतिशयपूर्ण है कि शायद ही कोई ऐसा दिगम्बर या श्वेताम्बर जैन होगा जो कि इसे न जानता हो।
इसी प्रकार से ‘‘आचार्य श्री वीरसेन ने षट्खण्डागम और कषायपाहुड़ ग्रंथराज पर धवला और जयधवला नाम की टीकाएँ रची हैं। इनकी जयधवला टीका को पूर्ण करने का श्रेय आचार्य जिनसेन को रहा है। जिनसेन ने जयधवला टीका को शक संवत् ७५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमी को पूर्ण किया है। इससे वीरसेन का समय ई. सन् की नवमी शताब्दी ही है।’’
जिनसेन स्वामी ने अविद्धकर्ण (कर्ण संस्कार के पूर्व) ही जैनेश्वरी दीक्षा ले ली थी, ऐसा जयधवला टीका के अंत में दी गई दो पद्य रचनाओं से स्पष्ट होता है। इनकी बनाई हुई तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-पार्श्वाभ्युदय, आदिपुराण और जयधवला टीका।
जिनसेन स्वामी महापुराण के ४२ पर्व तक लिखते हैं। अनंतर उनके पश्चात् उनके इस पुराण को श्री गुणभद्रसूरि पूर्ण करते हुए उत्तरपुराण की रचना करते हैं अर्थात् महापुराण में ५ पर्व की और रचना करके अनन्तर उत्तरपुराण की रचना की है अत: गुणभद्रसूरि का समय भी ईसवी सन् की दशवीं शताब्दी है। इनकी रचनाएं महापुराण का शेष और उत्तरपुराण, आत्मानुशासन और जिनदत्त चरित काव्य ये तीन हैं।’’
एक पंचामृताभिषेक पाठ भी इनका बनाया हुआ मुद्रित हो चुका है। पं. पन्नालाल जी सोनी ने अनेकों प्रमाणों से स्पष्ट कर दिया है कि पंचामृत अभिषेक के कर्ता ‘गुणभद्रभदंत’ ये ही हैं, भिन्न नहीं हैं।
चूँकि जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय में एक श्लोक है-
‘‘वीराचार्यसुपूज्यपाद जिनसेनाचार्यसंभाषितो।
य: पूर्वं गुणभद्रसूरि वसुनन्दीन्द्रादिनंद्यूर्जित:।।
यश्चाशाधरहस्तिमल्लकथितो यश्चैकसंधीरित:।
तेभ्य: स्वाहृतसारमार्यरचित: स्याज्जैनपूजाक्रम:।।१९।।’’
पूजासार में भी कहते हैं-
‘‘वीरसेन जिनसेनसूरिणा पूज्यपादगुणभद्रसूरिणा।
इंद्रनंदिगुरुणैकसंधिना जैनपूजनविधि: प्रभाषित:।।
जिनसंहिता में एक संधि लिखते हैं-
‘‘पूज्यपादगुणभद्रसूरिभिर्वङ्कापाणिभिरपि प्रपूजितै:।
मंत्रबद्धमप्युदारितं शस्यतेऽत्र सकलेऽपि कर्मणि।।’’
इन सभी श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि जिनसेन के शिष्य गुणभद्रसूरि ने यह अभिषेक पाठ बनाया है।
आचार्य विद्यानंद भी एक महान तार्किक विद्वान् हो चुके हैं। विद्वानों ने इनका समय ईसवी सन् ७७५ से ८४० तक प्रमाणित किया है अत: ये ई. सं. नवमशती के आचार्य हैं।
इनकी रचनाएँ-आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञविवृतिसहित, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र विद्यानन्द महोदय की ये स्वतंत्र कृतियाँ हैं और अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, युक्त्यनुशासन ये टीका ग्रंथ हैं।
ये आचार्य वि. सं. ९९० में हुए हैं। दर्शनसार, भावसंग्रह, आलापपद्धति, लघुनयचक्र, आराधनासार और तत्त्वसार ये इनकी रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। दर्शनसार में जैनधर्म में अनेकों मत-मतान्तर कब और वैâसे उत्पन्न हुए-इस पर प्रकाश डाला है। भावसंग्रह में भावों के माध्यम से गुणस्थानों का वर्णन करते हुए पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकों की क्रियाओं का पर्याप्त वर्णन किया है। आलपपद्धति और नयचक्र में नयों का वर्णन है। आराधनासार में चार आराधनाओं का तथा तत्त्वसार में स्वतत्त्व और परतत्त्व का विवेचन है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और तत्त्वार्थसार, समयसार कलश ग्रंथ लिखे हैं तथा समयसार टीका, प्रवचनसार टीका और पंचास्तिकाय की टीका लिखी है। इनका समय पट्टावली के अनुसार विक्रम सं. ९६२ है।
ये आचार्य षट्खण्डागम के ज्ञाता होने से ‘सिद्धान्त चक्रवर्ती’ कहे जाते हैं। इनके रचित ग्रंथ-गोम्मटसार जीवकांड, गोम्मटसार कर्मकांड, त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणासार प्रसिद्ध हैं। इनका समय वि.सं. की ११वीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है।
इसी प्रकार से और भी अगणित आचार्य हुए हैं, जिन्होंने स्वहित साधना करते हुए परहित हेतु अनेकों ग्रंथ रचे हैं। जो कि आज हमें उपलब्ध होकर जिनवाणीरूपी अमृत का पान करा रहे हैं। बहुत से ऐसे भी आचार्य और दिगम्बर मुनि हुए हैं, जिन्होंने ग्रंथ रचना नहीं की है किन्तु संघ संचालन में ही निरत रहे हैं तथा कोई-कोई मात्र स्वहित में ही तत्पर रहे ह