यह प्राणी संसार सागर में परिभ्रमण करता हुआ अनेक कष्ट झेल रहा है, कुछ प्राणी हैं जो इस संसार-सागर से पार होकर स्थायी सुख की खोज में हैं। धर्मों और दर्शनों का उदय यहीं से माना जाना चाहिए। आज संसार में जितने धर्म और दर्शन हैं कुछेक को छोड़कर प्राय: सभी का उद्देश्य/लक्ष्य दु:खों की निवृत्ति कराकर स्थायी सुख की प्राप्ति कराना है। भारत में प्राय: नौ दर्शन पल्लवित-पुष्पित हुए। वेद प्रामाण्य और वेद अप्रामाण्य को बिन्दु बनाकर इन्हें आस्तिक और नास्तिक इन दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। चार्वाक, जैन और बौद्ध जहाँ नास्तिकों में परिगणित हैं वहीं सांख्य—योग, न्याय वैशेषिक, मीमांसा—वेदांत आस्तिकों में गिने जाते हैं। बाद के काल में यह परिभाषा असमीचीन हो गई और ईश्वर में आस्था और अनास्था आस्तिक और नास्तिक के विभाजक तत्त्व बने। इस दृष्टि से चार्वाक को छोड़कर बाकी आठ आस्तिक और चार्वाक नास्तिक दर्शन के रूप में जाना गया है।
जैन दर्शन/ धर्म सभी में इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसने जीवमात्र की स्वतंत्रता का द्वार खोला है यहाँ प्रत्येक जीव या आत्मा किसी के अधीन नहीं है, अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता वह स्वयं है। सृष्टि को बनाने वाला या सुख-दुख देने वाला कोई ईश्वर नहीं है। सृष्टि अनादि और अनन्त है, जीव अपने कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख प्राप्त करता है। यह आत्मा ही अपने गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता है।
अनादिनिधन जैन धर्म में निश्चयनय से चौबीस तीर्थंकर या मोक्षगामी सिद्ध पूज्य हैं किन्तु व्यवहार से अन्य देवी-देवता या महापुरुष भी सम्मान के पात्र हैं तथापि उनकी पूजा तीर्थंकरों के समकक्ष नहीं है।
जैन धर्म/ दर्शन सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की एकरूपता को मोक्ष का मार्ग निरूपित करता है। आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र का पहला सूत्र है ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’। सिद्धान्तानुसार सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं किन्तु सम्यक्चारित्र के संबंध में अनियम है, वह कभी दर्शन और ज्ञान के साथ उत्पन्न होता है और कभी कुछ समय बाद भी किन्तु होता दर्शन और ज्ञानपूर्वक ही है। ज्ञान और ज्ञानी की महिमा प्राकृत, संस्कृत और सभी क्षेत्रीय भाषाओं में विशद रूप से वर्णित है।
हिन्दी में पं. दौलतराम जी ने छहढ़ाला में लिखा है-
‘ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण।
इह परमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारण।।’
कोटि जन्म तप तपैं ज्ञान बिन कर्म जरें जे।
ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति ते सहज टरें जे।।
जैनदर्शन में संशय, विपर्यय आदि से रहित ज्ञान अथवा श्रुतज्ञानावरण के क्षय से होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया है। इसी से मिलता—जुलता शब्द श्रुतकेवली है। आत्मा को जानने वाले अथवा सफल श्रुत को जानने वाले अथवा अष्टप्रवचनमातृका को जानने वाले श्रुतकेवली कहलाते हैं। श्रुत के अधिष्ठाता देव (जिन वाव्â-वाणी) शास्त्र हैं। कहा भी गया है-
‘अरिहन्त भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सव्वं।
पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा।।
अरिहंत द्वारा भाषित होने से इस श्रुतज्ञान को अरिहंतवाणी, अरहन्त वाणी, जिनवाणी, सरस्वती, भारती, शारदा, श्रुतदेवी, वाग्देवी, द्वादशांगवाणी आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है। यथा-
‘प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसगामिनी ।।
पञ्चमं विदुषां माता षष्ठं वागीश्वरी तथा।
कुमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।
नवमं च जगन्माता दशमं ब्राह्मिणी तथा।
एकादशं तु ब्रह्माणी द्वादशं वरदा भवेत्।।
वाणी त्रयोदशं नाम भाषा चैव चतुर्दशम्।
पञ्चदशं श्रुतदेवी च षोडशं गौर्निगद्यते’।।
कोषकारों ने भी सरस्वती के अनेक नामों का उल्लेख किया है। यथा—
‘ब्राह्मी भाषा ब्राह्मणी गौर्गिरा गी-
र्वाणी वाक् सरस्वत्यपीड़ा।
भारत्युक्ता शारदा शब्द देवी
भेद्यधीनं वाङ्मय तद्विकारे।।’ (कोषकल्पतरु:)
‘ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती’ (अमरकोष )
‘बुद्धिर्मनीषा धिषणा: धी: प्रज्ञा शेमुषी मति:।।’ (अमरकोष )
जैन साहित्य में द्वादशांगवाणी को ‘सुददेवदा’ (श्रुतदेवता), सुददेवी (श्रुतदेवी) आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। महाबंध के मंगल स्मरण में लिखा गया है—
‘बारह अंगंगिज्झा वियलियमलमूढ़दंसणुत्तिलया।
विविह वर चरण भूसा पसियदु सुददेवदा सुचिरं।।’
आचार्य नेमिचन्द्र ने श्रुतदेवी का सुंदर रूपक द्वारा चित्रण करते हुए कहा है कि श्रुतदेवी सम्यग्दर्शन को तिलक रूप में धारण करने वाली, सम्यव्âचारित्र आदि रत्नत्रयय रूपी वस्त्र को धारण करने वाली है। सरस्वती देवी का आचारांग सिर, सूत्रकृतांग मुखमण्डल, स्थानांग सुन्दर कण्ठ, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति दो सुन्दर भुजाएं, ज्ञातृकथांग तथा उपासकाध्ययनांग दो स्तन युगल, अंत:कृतदशांग और अनुत्तरोपपादिदशांग सुन्दर नाभि, प्रश्नव्याकरणांग सुन्दर नितम्ब एवं जघन तथा दृष्टिवाद चरण हैं। कहा गया है कि सरस्वती जिनेन्द्रदेव द्वारा दृष्ट सभी द्रव्यों और पर्यायों की अधिष्ठात्री देवी हैं। यह संसार सुख और मोक्ष को देने वाली तथा सभी दर्शनों और मतों के मानने वाले लोगों, विद्याधर आदि से पूजित विश्व की माता हैं। यही जगत् माता हैं। यह हमारी रक्षा करें।
प्रतिष्ठासारोद्धार में वाग्वादिनी देवी सरस्वती को भगवती तथा मयूरवािहनी कहा गया है, यथा—
‘वाग्वादिनी भगवती सरस्वती, ह्नीं नम: इत्यनेन मूलमन्त्रेणवेष्टयेत्।
ओं ह्नीं मयूरवाहिन्यै नम:, इति वाग्देवतां स्थापयेत्।।’
जैनागम में चार प्रकार के देवों या उनकी देवियों में श्रुतदेवता या श्रुतदेवी का कोई अलग उल्लेख या स्वरूप नहीं बताया गया है क्योंकि श्रुतदेवता इन सबसे ऊपर हैं वह तो भगवान की दिव्यध्वनि है, जो साक्षात् भव पार लगाने वाली है। आचार्य वीरसेन ने ‘जयदु सुददेवदा’ कहकर श्रुतदेवता/ श्रुतदेवी को एक अलग ही रूप दिया है, आचार्य पद्मनंदी ने भी इस तथ्य का उद्घाटन किया है।
जिनवाणी/ सरस्वती/ वाव्âदेवी/ श्रुतदेवी को लेकर प्राकृत-अपभ्रंश,संस्कृत, हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में अनेक सूक्तियाँ पूजायें लिखी गई हैं। जिस प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमायें स्थापना निक्षेप से निर्मित हुईं, उसी प्रकार तीर्थंकर देवों के परिकर रूप में यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों का भी विपुल मात्रा में निर्माण हुआ। वाग्देवी सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण अल्प मात्रा में ही हुआ। इसका कारण यह हो सकता है कि सरस्वती किसी तीर्थंकर की परिकर देवी के रूप में चित्रित नहीं की गई हैं अपितु उसे जिनवाणी/ द्वादशांगवाणी के रूप में अलग सम्मान दिया गया है। संभवत: इसी कारण कुछ मूर्तियोें में सरस्वती की मूर्ति के दोनों ओर उसकी भी परिकर देवियों और ऊपर जिनबिम्ब का अंकन हुआ है। जैन सरस्वती की सबसे बड़ी पहचान है कि उसके हाथ में कमण्डलु, अक्षमाला, कमल आदि के साथ सिर पर जिनबिम्ब का और एक हाथ में शास्त्र लेने का अंकन हुआ है। ये दोनों चिह्न या पहचान ही जैन सरस्वती को अन्य सरस्वती बिम्बों से अलग करते हैं।
वैदिक/जैनेतर परम्परा में सरस्वती को वीणा हाथ में लिए हुए तथा हंस पर बैठे हुए दर्शाया गया है इसीलिए उसे हंसासना, हंसवाहिनी कहा गया है। शारदा आदि नाम तो उसके हैं ही। ऊपर जो भारती आदि नामों का उल्लेख किया गया है प्राय: दो-चार को छोड़कर वही नाम वैदिक सरस्वती के भी मिलते हैं। उसे श्वेत हंसवाहना, श्वेत पद्मासना, वीणावादिनी तो कहा ही गया है, मयूरवाहिनी भी कहा गया है। यद्यपि मयूरवाहिनी सरस्वती का कोई प्राचीन मूर्ति शिल्प उपलब्ध नहीं हो सका है।
सरस्वती शब्द का प्रयोग ऋग्देव में भी हुआ है। उसे वाजिनीवली (अन्नोत्पादन वाली देवी) कहा गया है। सरस्वती शब्द की-‘सर्वविषयेषु सरणं गतिरस्या अस्तीति वागधिष्ठात्री देवता’ ऐसी व्युत्पत्ति प्राप्त होती है। आप्टे के अनुसार सरस् शब्द से मतुप् प्रत्यय से सरस्वत् शब्द बनता है। सरस्वत् शब्द में ङीप् प्रत्यय लगाकर सरस्वती शब्द बना है जिसका अर्थ है वाणी और ज्ञान के अधिष्ठाता देवता। सरस्वती का वर्णन ब्रह्मा की पत्नी के रूप में भी किया गया है।
सरस्वती एक नदी के रूप में भी उल्लिखित है जो अब लुप्त हो गई है। सरस्वती शब्द के अन्य अर्थों में गाय, श्रेष्ठ स्त्री, दुर्गा का एक नाम, बौद्धों की एक देवी, सोमलता, ज्योतिष्मती नामक पौधा आदि अर्थ भी हैं। जैन साहित्य के अनुसार भी व्यन्तरेन्द्र गीतरति की वल्लभिका नं. १ का नाम सरस्वती है। इसी प्रकार विदेहक्षेत्रस्थ तीर्थंकर वङ्काधर की माता सरस्वती हैं।
जैन साहित्य की तरह संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में सरस्वती के शरीर की कल्पना एक रूपक के द्वारा की गई है। काव्यमीमांसा में काव्यपुरुष का निरूपण किया गया है। यहाँ प्राकृत भाषा का भी उल्लेख हुआ है।
जैन मूर्त्यांकन परम्परा में सरस्वती के विभिन्न रूप प्राप्त होते हैं। जैन साहित्य विशेषत: श्वेताम्बर साहित्य में विद्या की सोलह देवियों का निरूपण किया गया है। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को ‘श्रुत पंचमी’ कहा गया है। इस दिन दिगम्बर परम्परा में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा श्रुतलेखन का कार्य प्रारम्भ किया गया था इस दिन सरस्वती की विशेष रूप से पूजा होती है किन्तु जिनवाणी को या अन्य किसी आगम ग्रन्थ को उच्चासन पर रखकर उसकी पूजा होती है। सरस्वती की मूर्ति की पूजा दिगम्बर परम्परा में प्राय: नहीं देखी जाती, न ही मंदिरों में सरस्वती की मूर्ति रखने का विधान है। सरस्वती की जो प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं कुछेक को छोड़कर वे मंदिरों के बाह्य भाग में प्राप्त हुई हैं। मन्दिरों के अन्दर भी वेदी पर उनकी स्थिति नहीं दिखाई गई है। प्राचीन जैन मूर्ति परम्परा में वीणा हाथ में लिए हुए सरस्वती का अंकन प्राय: नहीं हुआ है। हाथ में शास्त्र और सिर पर जिनप्रतिमा जैन सरस्वती की मूल पहचान है। जैन सरस्वती की मूर्तियाँ खड्गासन और पद्मासन दोनों आसनोें में मिली हैं। कुछ मूर्तियां त्रिभंग खड्गासन में अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं। सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी के अनुसार ‘सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति’ जैन परम्परा की है, जो मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई और सम्प्रति राज्य संग्रहालय लखनऊ में संग्रहीत है। इसका समय १३२ ई. है। सरस्वती का लाक्षणिक स्वरूप आठवीं शती ई. के बाद के जैन ग्रन्थों में विवेचित है। जैन शिल्प में यक्षी, अम्बिका एवं चक्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय देवी रही हैं।’
कंकाली टीले से प्राप्त सरस्वती का सिर खंडित है, चौकोर आसन पर बैठी इस मूर्ति के बांये हाथ में बंधी पुस्तक है, दायां हाथ खंडित है, जिसमें अक्षमाला थी, अक्षमाला के कुछ मोती स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, दोनों कलाइयों पर एक-एक चूड़ी है। दोनों ओर केशसज्जा से युक्त्ा दो उपासक खड़े हैं। लाल पत्थर से निर्मित मूर्ति के नीचे पादपीठ पर ब्राह्मी लिपि में लेख स्पष्ट पढ़ा जा रहा है जिसमें तिथि (१३२) ई. अंकित है। यह समय मथुरा के कुषाण शासक कुविष्क का रहा है।
देवगढ़ (ललितपुर-उ.प्र.) के १९वें मंदिर के बाह्य बरामदे के सरदल में सरस्वती की एक प्रतिमा का अंकन है, जिसकी चार भुजायें हैं। इसका समय ग्यारहवीं शताब्दी है। सरस्वती की एक अत्यन्त आकर्षक प्रतिमा लाडनूं (राजस्थान) के दि.जैन बड़ा मंदिर में विराजमान है जो अपनी भाव-भंगिमा के कारण अलग ही छटा बिखेरती है। इसका समय बारहवीं शताब्दी है। श्वेत संगमरमर से बनी यह प्रतिमा एक फलक पर उत्कीर्ण की गई है। खड्गासन इस प्रतिमा की ऊँचाई लगभग ३.५ फुट है। त्रिभंग मुद्रा में खड़ी मूर्ति के पीछे किरणों से युक्त एक आभामण्डल दिखाई दे रहा है। सिर पर एक मुकुट है। जिसमें हीरा, मोती आदि जड़े हुए प्रतीत होते हैं। पाषाण फलक के बीचों-बीच एक छोटी सी जिनप्रतिमा है, जो इस मूर्ति को सरस्वती की मूर्ति घोषित करती है। कान, गले तथा कटि भाग में अलंकारों से अलंकृत देवी के ऊपरी दोनों हाथों के पास दोनों ओर उड़ते हुए दो मालाधर उत्कीर्ण हैं। हाथ में माला, कमण्डलु, पुस्तक व कमल हैं। जैनागम के अनुसार उसके चार हाथ प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोग इन चार अनुयोगों के प्रतीक हैं। नीचे पादपीठ पर लेख है, जिसमें सरस्वती शब्द आया है, लेख इस प्रकार है-
‘संवत् १२१९ वैशाख सुदी ३, शुक्रे श्रीमाथुरसंघे आचार्य श्री अनन्तकीर्ति भक्त श्रेष्ठी बहुदेव पत्नी आशादेवी सकुटुम्ब सरस्वतीम् प्रणमति।।’’ शुभमस्तु’।।
राजस्थान के पल्लू (बीकानेर) से दो सरस्वती प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिनमें एक राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है। त्रिभंगयुक्त अत्यन्त कलात्मक इस सरस्वती के हाथ में कमण्डलु, शास्त्र, अक्षमाला और कमल हैं। मुकुट के ऊपर छोटी सी जिनप्रतिमा विराजमान है। चेहरे पर सौम्यता एवं नवयौवन की आभा से युक्त यह मूर्ति आभूषणों एवं वस्त्रोें से सुसज्जित है। पल्लू से ही प्राप्त दूसरी सुन्दर मूर्ति राजकीय संग्रहालय, बीकानेर में प्रदर्शित है। त्रिभंग मुद्रा में खड़ी सरस्वती के हाथों में कमल, शास्त्र, अक्षमाला और कमण्डलु हैं। दोनों ओर चार-चार अन्य देवियाँ बनी हुई हैं। ऊपर शिरोभाग के दोनों ओर तथा सिर पर तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान हैं।
उमता, जिला-मेहसाणा (गुजरात) से तथा फतेहपुर सीकरी (आगरा) उ.प्र. से दो खड्गासन सरस्वती देवी की सुन्दर मूर्तियां हाल ही में खुदाई में प्राप्त हुई हैं। इनका समय भी लगभग ११-१२वीं शती है। धार (म.प्र.) की भोजकालीन एक सरस्वती प्रतिमा ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन में है। इस प्रकार अनेक जैन सरस्वती मूर्तियों का निर्माण हुआ। ये पाषाण तथा धातु दोनों में ही निर्मित हैं। दक्षिण में कुछ काष्ठ की मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की जैन सरस्वती पर विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर १० जनवरी, १९७५ को तथा विश्व तेलुगु सम्मेलन के अवसर पर १२ अप्रैल १९७५ को भारत सरकार द्वारा डाक टिकट भी जारी किये गये थे। इससे संबंधित ब्रोशर में लिखा है-
…इस डाक टिकट में वाणी और विद्याओं की अधिष्ठात्री सरस्वती का चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय,दिल्ली द्वारा बीकानेर से प्राप्त बारहवीं शताब्दी की चौहानकालीन शिल्पकृति का है।…’
ग्रंथों में द्वादशांग जिनवाणी को सुयदेवदा (श्रुतदेवता) और ‘सुयदेवी’ (श्रुतदेवी) दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है अत: इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैन सरस्वती की मूर्ति के निर्माण की परम्परा प्रचीनतम है। यह बात मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त कुषाणकालीन (दूसरी शती ई.) मूर्ति से सिद्ध होती है। ११- १२ वीं शती के बाद की अनेक जैन सरस्वती की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। आज भी जैन सरस्वती की मूर्तियों के निर्माण और स्थापना की परम्परा विद्यमान है। हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप तथा कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली में स्थापित मूर्तियां इसका प्रमाण हैं।
जैनधर्म की संस्कृति एवं कला बहुत प्राचीन है-ऐसा सभी साहित्यकार, शास्त्रकार एवं विद्वत्गण स्वीकार करते हैं। जैनदर्शन की प्राचीनता का सर्वप्रमुख कारण है उसकी कला, सिद्धान्तों की प्रामाणिकता, वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण, जैनाचार्यों के विचारोें की एकरूपता, अरिहंतों से गणधर तथा गणधरों से मुनियों की अविच्छिन्न उपदेश परम्परा।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव सरस्वती देवी की आराधना करते हुए कहते हैं कि उस श्रुतज्ञान रूपी महासमुद्र को भक्ति से युक्त होकर सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ, जो अरिहन्त द्वारा कहा गया है एवं गणधरों द्वारा सम्यव्â प्रकार से रचा गया है। यथा-
अरिहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं।
पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा।। (श्रीश्रुतभक्ति, २)
जैनदर्शन में अरिहंतों की वाणी को जिनवाणी, सरस्वती, भारती, शारदा एवं श्रुतदेवी आदि सोलह नामों से पुकारा जाता है।
कोशकारों ने भी सरस्वती के अनेक नाम व उनकी स्पष्ट विवेचना की है-ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग् वाणी सरस्वती।
(अमरकोश, (१/६/१)
(व्याख्या- ब्राह्मी द्वारा लोक में प्रचारित होने से ब्राह्मी, भारत में बोली जाने से ‘भारती’, मुख से उच्चार्यमाण होने से ‘भाषा’, शब्दार्थों का निगरण करने से ‘गी:’ अथवा ‘गिरा’ उच्चारित होने से वाक शब्दार्थ के … से ‘वाणी’ तथा गतिशील होने (सरकने) से ‘सरस्वती’ कहलाती है।)
ब्राह्मी भाषा ब्राह्मणी गौर्गिरा गी-र्वाणी वाचा वाव्â सरस्वत्यपीड़ा।
भारत्युक्ता शारदा शब्ददेवी। भेद्यधीनं वाङ्मयं तद्विकारे।।
(कोषकल्पतरु:,धी.५५)
अर्थ—ब्राह्मी, भाषा, ब्राह्मणी , गौ:, गिरा, गी:, वाणी, वाचा, वाक , सरस्वती, इडा, भारती, शारदा आदि नामों से शब्ददेवी कही जाती हैं, उनके ही विभिन्न रूप वाङ्मय की सृष्टि करते हैं।
वाग्देवी शारदा ब्राह्मी भारती गी: सरस्वती।
हंसयाना ब्रह्मपुत्री सा सदा वरदास्तु व:।।
(हर्षकीर्ति : शारदीय नाममाला १/२)
अर्थ:—वाग्देवी, शारदा, ब्राह्मी, भारती, गी, सरस्वती, हंसयाना, ब्रह्मपुत्री नाम वाली (देवी) सदा आप लोगों को वर प्रदान करने वाली हो।
यहाँ यह स्पष्ट करना उचित है कि जो यहाँ सरस्वती आदि के नाम हैं ये जिनवाणी के पर्यायवाची नाम हैं। ये सरस्वती आदि नाम चार प्रकार के (देवाश्चतुर्णिकाया:-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) देव-देवियों में किसी भी देव-देवी का नाम नहीं हैै, यहाँ पर जो सरस्वती शब्द का सम्बोधन है, वह एकमात्र भगवान की वाणी का आकार-प्रकार व रूप देने के लिए एक प्रतीकात्मक चित्र अंकित किया गया है। प्रतिमा, मूर्ति, चित्र के माध्यम से अरिहंतों की वाणी द्वादशांग को स्पष्ट किया गया है। यथा-
बारह-अंगंगिज्झा वियलियमलमूढदंसणुत्तिलया।
विविह वर चरण भूसा, पसियदु सुददेवदा सुचिरं।।
(महाबन्ध मंगलस्मरण, ज्ञानपीठ, भाग-१)
अर्थ—बारह प्रकार के अंग (द्वादशांग) जिससे ग्रहण होते हैं, जिससे समस्त प्रकार के कर्ममल और मूढताएँ दूर होती हैं—इस प्रकार के सम्यग्दर्शन की जो तिलकस्वरूप है, विविध प्रकार के श्रेष्ठ सदाचरणरूपी भाषा से युक्त है, जिसके चरण विविध प्रकार के आभूषणों से मण्डित हैं—ऐसी श्रुतदेवी दीर्घकाल तक के लिए मेरे ऊपर प्रसन्न हो।
इसी बात को आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक (पृष्ठ ३६१) में स्पष्ट किया है-
बारह अंगंगिज्जा दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।
चोद्दसपुव्वाहरणा ठावे दव्वाय सुददेवी।।१।।
अर्थ—बारह अंगों (द्वादशांग) को ग्रहण करने वाली, सम्यव्âदर्शन को तिलकस्वरूप धारण करने वाली, सम्यक्चारित्रादि रत्नत्रय रूपी वस्त्र को धारण करने वाली एवं चौदह पूर्वों को धारण करने वाली सरस्वती देवी का ध्यान करना चाहिए।
आचारशिरसं सूत्रकृतवक्त्रां सुकंठिकाम्।
स्थानेन समवायांगव्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम्।।२।।
अर्थ:— आचार ही जिनका सिर है, सूत्रकृत जिनका मुखमण्डल है, जो स्थानांग रूपी सुन्दर कण्ठ वाली है, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति जिनकी दो सुन्दर भुजाएँ हैं।
वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनीम्।
अंतकृद्दशसन्नाभिमनुत्तरदशांगत:।।३।।
अर्थ:— प्रश्नव्याकरणांग ही जिनके सुन्दर नितम्ब एवं सुन्दर जघन (जंघा) हैं, विपाकसूत्रांग तथा दृग्वाद (दृष्टिवाद) जिनके चरण हैं और जो चरणरूपी अम्बर-वस्त्र धारण करने वाली हैं।
सम्यक्त्वतिलकां पूर्वचतुर्दशविभूषणाम्।
तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।।
अर्थ:— सम्यक्त्व का तिलक धारण करने वाली, चौदह पूर्वों का आभूषण धारण करने वाली, प्रकीर्ण एवं कोदीर्ण रूपी सुन्दर पत्रांकुर जिनकी शोभा है।
आप्तदृष्टप्रवाहौघद्रव्यभावाधिदेवताम् ।
परब्रह्मपथादृप्तां स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम्।।६।।
अर्थ:— जिनेश्वर देव ने जिन सभी द्रव्यों को, सभी पर्यायों को देखा है उन सभी पर्यायों की अधिष्ठात्री देवता सरस्वती देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से भी पदार्थों की सभी अवस्थाओं का ज्ञान होता है। यह परब्रह्म अर्थात् मोक्षमार्ग का अवलोकन करने तथा लोगों को स्याद्वाद का रहस्य बताने वाली सांसारिक सुख एवं मोक्ष को देने वाली हैं।
सर्वदर्शनपाखंडदेवदैत्यखगार्चिताम्।
जगन्मातरमुद्धर्तुं जगदत्रावतारयेत्।।७।।
अर्थ:— आप सभी दर्शनों अर्थात् मतान्तरों के लोगों, पाखण्डी, देव, दैत्य, विद्याधर आदि से पूजित विश्व की माता हैं। हमें जगन्माता की स्तुति करनी चाहिए।
जिनवाणी के साथ देवता और भगवती शब्दों का प्रयोग मात्र आदरसूचक है, सरस्वती (स ± रस ± वती) पद का प्रयोग मात्र जिनवाणी के रूप में हुआ है और उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण दिया गया है।
मथुरा से उपलब्ध जैन स्तूप की पुरातात्विक सामग्री में विश्व की अभिलेखयुक्त प्राचीनतम जैन श्रुतदेवी सरस्वती की प्राप्ति हुई है। जैन परम्परा में बहुत ही सुन्दर सरस्वती प्रतिमाएँ पल्लू (बीकानेर) और लाडनूँ आदि से उपलब्ध हैं, जो ९वीं, १०वीं शती के बाद की हैं।
जैनागम में जैनाचार्यों ने सरस्वती देवी के स्वरूप की भगवान की वाणी से तुलना की है। यथार्थत: सरस्वती देवी की प्रतिमा द्वादशांग का ही प्रतीकात्मक चिह्न है। ग्रन्थ प्रतिष्ठासारोद्धार में जैन सरस्वती देवी के संबंध में निम्न श्लोक उपलब्ध हैं-
वाग्वादिनी भगवति सरस्वती, ह्रीं नम: इत्यनेन मूलमन्त्रेणवेष्टयेत्।
ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नम:, इति वाग्देवतां स्थापयेत्।।
जैनाचार्य वीरसेन ने भी सरस्वती देवी को जयदु सुददेवता से सम्बोधन कर यह प्रमाणित कर दिया कि जो जैनागम में चार प्रकार के देव-देवियों वर्णन है, उसमें श्रुतदेवी कोई देवी नहीं हैं वरन् जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि स्वरूप श्रुतदेवी सरस्वती हैं। कहा भी है-
जिनेश्वरस्वच्छसर:सरोजिनी, त्वमंगपूर्वादिसरोजराजिता।
गणेशहंसव्रजसेविता सदा, करोषि केषां न मुदं परामिह।।
– (श्री पद्मनन्दि पंचविंशतिका, आचार्य पद्मनंदी, १५/२१)
अर्थ:—हे माता! हे सरस्वती! तुम जिनेश्वर रूपी निर्मल सरोवर की तो कमलिनी हो और ग्यारह अंग-चौदह पूर्व रूपी कमल से शोभित हो तथा गणधर रूपी हंसों के समूह से सेवित हो इसलिए तुम इस संसार में किसको उत्तम हर्ष की करने वाली नहीं हो ?
अध्यात्मयोगी आत्मस्वरूप के अमर गायक आचार्य कुन्दकुन्ददेव श्रुतभक्ति/ सरस्वती की स्तुति करते हुए अपने निज भावों को शब्दाक्षर द्वारा इस प्रकार लिपिबद्ध करते हैं-
सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं।
कादूण णमोक्कारं, भत्तीए णमामि अंगादिं।।
अर्थ-जिनका अिंहसामय उत्कृष्ट जैनशासन लोक में प्रसिद्ध है तथा जो (घातिया और अघातिया रूप) अष्ट कर्मों के चक्र से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर भक्तिपूर्वक द्वादशांगरूप सरस्वती (बारह अंगों) को मैं आचार्य कुन्दकुन्द नमस्कार करता हूँ।
इच्छामि भंते! सुदभत्ति काउस्सग्गो कदो तस्स आलोचेदुं, अंगोवंगपइण्णए-पाहुड-परिकम्म-सुत्त-पढमाणुओग-पुव्वगद-चूलिया चेव सुत्तत्थवथुदि धम्मकहादियं णिच्चकालं अञ्चेमि,पूजेमि, वंदामि, णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाओ सुगदिगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होदु मज्झं।।
अर्थ:—मैंने जो श्रुतभक्ति संबंधी कायोत्सर्ग किया है, उसकी (मैं) आलोचना करना चाहता हूँ। अंग, उपांग, प्रकीर्णक, प्राभृत, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका तथा सूत्र, स्तव, स्तुति तथा धर्मकथा आदि की नित्यकाल अर्चना करता हँॅू, पूजा करता हूँ, उन्हें वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और मेरे लिए जिनेन्द्र भगवान के गुणों की संप्राप्ति हो।
इसी बात को आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक (पृष्ठ ३६१) में श्रुतदेवी सरस्वती का स्तवन करते हुए कहा है—
निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षंन्यक्षेण सर्व जगदुज्ज्वलनैकतानम्।
सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि नूनं, प्राचीमतो जयसि देवि तदल्प सूतिम्।
अर्थ:— हे जिनवाणी! निराधार मोहरूपी अंधकार के विनाश में निपुण, अंधकार से समस्त जगत को मुक्त कर प्रकाशित करने में निपुण चिन्मय (ज्ञान) को अवश्य पैâलाओ। हे देवी सरस्वती! इसीलिए अल्प प्रकाशित प्राची दिशा का (अपने ज्ञानालोक से) विजय कर रही हो।
आभवादपि दुरासदमेव, श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यं।
जायतेद्य सुलभं खलु पुंसां, त्वत्प्रसादत इहाम्ब नमस्ते।।२।।
अर्थ:— हे माँ सरस्वती! संसारी लोगों को आजन्म अत्यन्त दुर्लभ एवं अचिन्त्य अनन्त सुख आपकी प्रसन्नता से सुलभ हो जाते हैं अत: आपको नमस्कार है।
चेतश्चमत्कारकरी जनानां, महोदयाश्चाभ्युदया: समस्ता:।
हस्ते कृता: शस्तजनै प्रसादात्, तवैव लोकाम्ब नमोस्तु तुभ्यम्।।३।।
अर्थ:— हे माँ! लोगों के चित्त में चमत्कार पैदा करने वाले समस्त श्रेष्ठ अभ्युदय आपकी कृपा से भद्रपरिणामी लोग प्राप्त करते हैं, अत: आपको नमस्कार है।
सकलयुवतिसृष्टेरम्बचूडामणिस्त्वं, त्वमसि गुणसुपुष्टे धर्मसृष्टेश्च मूलं।
त्वमसि च जिनवाणि स्वेष्टमुक्त्यङ्ग मुख्या, तदिह तव पदाब्जं भूरिभक्त्या नमाम:।।४।।
अर्थ:—हे माँ! आप संसार की समस्त युवतियों में सर्वश्रेष्ठ हो, आप गुणों से परिपुष्ट हो, धर्मसृष्टि की मूल हो, आप जिनवाणी हो, वैâवल्यबोध का मुख्य साधन हो अत: आपके चरण कमलों में अतिशय भक्ति के साथ प्रणाम करता हूँ।
इति श्रुतदेवीस्तवनं पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अर्थ:—इस प्रकार देवी स्तवन का पाठ करके भगवती सरस्वती की प्रतिमा पर पुष्पांजलि समर्पित करें।
इस प्रकार द्वादशांग स्वरूप सरस्वती देवी का स्वरूप जिनागम में वर्णित है। सर्वत्र सरस्वती देवी की जो आराधना है, वह श्रुतपूजा है। पं. आशाधर सूरि विरचित पूजापाठ प्रारम्भ (पृष्ठ १५३) में सरस्वती देवी की प्रतिष्ठा की विधि में सरस्वती की
भक्ति करते हुए अपने निर्मल भावों को इस प्रकार प्रकट किया है-
स्याद्वादकल्पतरुमूलविराजमानां, रत्नत्रयांबुजसरोवरराजहंसी।
अंगप्रकीर्णकचतुर्दशपूर्वकाया-मार्हंत्यसद्गुणमयीं गिरमाह्वयामि।।
अर्थ:—स्याद्वाद रूपी कल्पवृक्ष के मूल में विराजमान रत्नत्रय रूपी कमलों के सरोवर की राजहंसी, चतुर्दश अंग प्रकीर्णक (द्वादशांग रूप सरस्वती ) शरीर वाली, अर्हद् के सद्गुणों से युक्त वाणी का मैं आह्वान करता हूँ।
अभिधानराजेन्द्र कोश में श्रुतदेवता के प्रसाद की चर्चा निम्न गाथा द्वारा उद्धृत की गई है-
सुददेवता भगवदी,णाणावरणीय कम्मसंघायं।
तेसिखवेदु सययं जेसिं सुदसायरे भत्ति।।
अर्थात् जिनकी श्रुतसागर (द्वादशांग) में भक्ति है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म के समूह को श्रुतदेवता सरस्वती सतत रूप से क्षीण करें।
उपर्युक्त विषय का आशय यह है कि प्रत्येक मंदिर में तीर्थंकरों की प्रतिमा, उनकी यक्ष-यक्षिणी एवं द्वादशांग की प्रतीकात्मक सरस्वती देवी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। यह कथन व्यक्तिवाचक नहीं वरन् आगम का कथन है जैसा कि यतिवृषभ आचार्य ने ग्रन्थराज तियोयपण्णत्ति में जिनमंदिर के स्वरूप का कथन किया है, यथा-
सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्ठविहमवि होदी।।
-(आचार्य नेमिचन्द्र, त्रिलोकसार, गाथा ९८८, पृष्ठ ७५३)
इस पर पंडितप्रवर टोडरमलजी का भावार्थ निम्नानुसार है-जिनप्रतिमा के निकट इन चारिनि (चारों) का प्रतिबिम्ब होइ है। यहाँ पर प्रश्न-‘जो श्रीदेवी तो धनादिरूप है और सरस्वती जिनवाणी है, इनका प्रतिबिम्ब वैâसे होय है ?’ ताका समाधान-‘श्री और सरस्वती-ये दोऊ लोक में उत्कृष्ट हैं, तातैं इनका देवांगना का आकार रूप प्रतिबिंब होइ है। बहुरि दोऊ यक्ष विशेष भक्त हैं। तातें तिनके आकार हो हैं। अरु आठ मंगलद्रव्य हो हैं।
(टीकानुवाद : पं. टोडरमल)
जिनमंदिर/ जैन मंदिर का स्वरूप और उसकी व्यवस्था को भी जैनाचार्यों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-
सिरिसुददेवीण तहा सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि पत्तेक्कं पडि वर रयणाइरइदाणिं।।
(आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति १८८)
प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी की, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं।
सरस्वती देवी की आराधना, पूजा, विनय आदि यथार्थ में जिनेन्द्र भगवान की आराधना ही है। कहा भी है-
ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम्।
न किञ्चदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो:।।
—(सागारधर्मामृत, पं आशाधरसूरि, ४४)
अर्थ:—जो श्रुतदेवी (सरस्वती) की पूजा करते हैं, वे जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं क्योंकि केवली भगवान ने श्रुतदेवी में और जिनेन्द्र की पूजा में कुछ अन्तर नहीं कहा है।
आचार्य मनीषियों ने शास्त्रों की रचना करते समय मंगलाचरण आदि में सरस्वती, भारती, शारदा, वाग्देवी एवं ब्राह्मी आदि के नामों से जो स्तुति, वंदना, नमस्कार आदि किया है, वह वस्तुत: जिनोपदेश, श्रुतज्ञान अथवा केवलज्ञान की प्राप्तिस्वरूप किया गया है। नमस्कार का प्रयोजन अष्टकर्मों का क्षय रूप एवं अष्ट गुणों की प्राप्ति है। जैनाचार्यों, विद्वानों और कवियों द्वारा अनेक स्थानों में सरस्वती देवी के मंगलरूप एवं प्रार्थनापरक स्तुति की है। यथा-
ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन:।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नम:।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलमलकलंका:।
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।।
अर्थ:— बिन्दु संयुक्त (ॐ) को नित्य योगी ध्यान करते हैं। यह काम (सांसारिक सुख) को एवं मोक्ष (आध्यात्मिक सुख) को देने वाला है। भगवती सरस्वती ने निरन्तर बरसने वाले शब्दरूप जलधरों से समस्त संसार के मालिन्यरूप कलंक (दुर्लाच्छन) को प्रक्षालित कर दिया है। मुनियों ने इसी वाग्देवता द्वारा तीर्थों की उपासना की है। वह सरस्वती देवी हमारे पापों का हरण करें।
अनंतधर्मणस्तत्वं पश्यंती प्रत्यगात्मन:।
अनेकान्तमयीमूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्।।
—(समयसार, आचार्य अमृतचन्द्र कलश, १/२)
अर्थ:— जो शुद्ध आत्मा के स्वरूप को झलकाती है तथा जिसमें वस्तु के अनन्त धर्मों को बतलाया गया है, वह अनेकान्तमयी सरस्वती मूर्ति नित्य प्रकाश करे।
सर्वज्ञं तमहं वन्दे परं ज्योतिस्तमोपहम्।
प्रवृत्ता यन्मुखादेवी सर्वभाषा सरस्वती।।
—(कातन्त्र रूपमाला, आचार्य शर्ववर्म कृत, पृष्ठ २२)
अर्थ:—उन सर्वज्ञ की वंदना करता हूँ कि जिनकी उत्कृष्ट ज्ञानरूपी ज्योति अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट करती है, जिनके मुख से सर्वभाषात्मक सरस्वती देवी प्रवृत्त हुई।
नमस्तस्यै सरस्वत्यै विमलज्ञानमूर्तये।
विचित्रा लोकयात्रेयं यत्प्रसादात् प्रवर्तते।।
(कातन्त्र रूपमाला, आचार्य शर्ववर्म, पृष्ठ १)
सर: प्रसरणं सर्वज्ञानमया मूर्त्तिरस्या अस्तीति सरस्वती तस्यै। विगतं मलं यस्मात्तद्विमलं। ज्ञायतेऽनेन इति ज्ञानं विमलं च तत् ज्ञानं च विमलज्ञानम्।विमलज्ञानमेव मूर्तिर्यस्या: सा विमलज्ञानमूर्ति: तस्यै।
अर्थ:— विमल (सम्यक्) ज्ञान की साक्षात् प्रतिमा उस भगवती सरस्वती को नमस्कार हो, जिसकी प्रसन्नता प्राप्त कर यह अद्भुत संसार यात्रा प्रवर्तित हो रही है।
टीकार्थ:— सर: का अर्थ है प्रसरणशीलता और सभी प्रकार के ज्ञानस्वरूपमय जो मूर्ति है वही सरस्वती है जिसका मल अर्थात अज्ञान नष्ट हो गया हो उसे विमल कहते हैं, जिससे किसी वस्तु के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, उसे ज्ञान कहते हैं और दोषरहित ज्ञान ही विमल या निर्मल ज्ञान कहा जाता है। विमलज्ञान ही जिसका स्वरूप है उसे ही विमलज्ञान मूर्ति कहा गया है और यही भगवती सरस्वती हैं, जिन्हें यहाँ नमस्कार किया गया है।
चंचच्चंद्ररुचं कलापिगमनां य: पुंडरीकासनां,
संज्ञानाभयपुस्तकाक्षवलयप्रावारराजोज्ज्वलां।
त्वामध्येति सरस्वति त्रिनय्यां ब्राह्मे मुहूर्ते मुदा।
व्याप्ताशाधरकीर्तिरस्तु च महाविद्य: सवन्द्य: सतां।।
—(सरस्वती कल्पमन्त्र, आचार्य मल्लिषेण,९, पृष्ठ ४०)
अर्थ:—जिसकी कांति प्रकाशमान चन्द्रमा के समान है, मयूर पर जिसकी सवारी है, कमल जिसका आसन है, जिसके हाथ में ज्ञानमुद्रा है, एक हाथ में शास्त्र है, एक हाथ में अक्षमाला है, एक हाथ प्राणियों को अभयदान दे रहा है, जो श्रेष्ठ उत्तरांग (दुपट्टा चादर) पहने हुए हैं, सरस्वती का जो ब्रह्म मुहूर्त में ध्यान स्मरण करता है उसकी कीर्ति दशों दिशाओं में पैâलती है। वह महान विद्वान हो जाता है और सज्जनों द्वारा अभिनन्दनीय होता है।
प्रणम्य तां जगत्पूज्यां गुरुश्च देवीसरस्वतीम्।
यस्या: प्रसादमात्रेण स्याद् रुद्रोऽपि कवीश्वर:।।
सुप्रसादं चतुष्कस्य लिखितां ढुण्ढिकामिमाम्।
करोतु मे महायोगिध्यायां परमेश्वरी।।
—(धनप्रभसूरि: चतुष्कव्यवहार ढुण्ढिका)
अर्थ:—जगत्पूज्या और सरस्वती देवी को नमस्कार कर प्रसन्नमयी चतुष्क (कातन्त्र व्याकरण) की इस ढुण्ढिका टीका को मैंने लिखा है, जिसकी कृपामात्र से रुद्र भी कवीश्वर हो गया। वह परमेश्वरी ध्यान करने पर मुझे महायोगी बनाए।
प्रणम्य शारदां देव्ाीं ज्ञाननेत्रप्रबोधिनीम्।
शार्ववर्मिकसूत्राणां प्रक्रियां च क्रमाद् ब्रुवे।।
—(मेरुतुंगसूरि: बालावबोध)
अर्थ:— ज्ञान नेत्रों को खोलने वाली शारदा देवी को प्रणाम कर मैं आचार्य शर्ववर्म के सूत्रों की प्रक्रिया क्रम से कहता हूँ।
सरस्वत्या: प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति मानवा:।
तस्मान्निश्चलभावेन पूजनीया सरस्वती।।१।।
श्रीसर्वज्ञमुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी।
अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या बहुविकासिनी।।२।।
—(नित्य पाठावलि, सरस्वतीनामस्तोत्रम् )
अर्थ:—सरस्वती देवी की कृपा से विद्वज्जन काव्यरचना में कुशल होते हैं इसलिए अटल भक्तिभाव से वह सरस्वती देवी सदा पूज्य है। जो सरस्वती देवी श्री वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के मुखकमल से उत्पन्न हुई है, जो अनेक भाषा रूप है और जिससे विद्याओं का उदय हुआ है, वह सरस्वती देवी भव्य जीवों के अज्ञान अंधकार का नाश करती है।। १-२।।
सरस्वत्या: प्रसादेन रच्यतेऽमरकीर्तिना।
भाष्यं धनञ्जयस्येवं बालानां धीविवृद्धये।।
यद्यपि धनञ्जयो (येनो) क्तो भावो वक्तुं न शक्यते।
तथाऽप्यहं प्रवक्ष्यामि वाग्देव्याश्च प्रसादत:।।
—(नाममाला, धनञ्जय कवि, अमरकीर्ति विरचित भाष्य, २-३/ १)
अर्थ:—धनञ्जय द्वारा विरचित नाममाला का भाष्य बालकों की बुद्धि के विकास हेतु भगवती सरस्वती की कृपा से अमरकीर्ति द्वारा रचा जा रहा है। यद्यपि धनञ्जय के भावों को प्रकाशित नहीं किया जा सकता है, फिर भी वाग्देवी की प्रसन्नता से मैं कहूँगा।
सर:प्रसरणमस्त्यास्या: सरस्वती। -(नाममाला, १०४)
अर्थ:—सर: का अर्थ है प्रसरणशीलता और प्रसरण से युक्त होने के कारण ज्ञान की देवी को सरस्वती कहा गया है, क्योंकि जिस तरह जलवायु का प्रवाह होता है, उसी प्रकार ज्ञान का भी प्रवाह होता है।
जहि संभव जिणवर-मुहकमल। सत्तभंग-वाणी जसु अमल।।
आगम-छंद-तक्क वर वाणि। सारद सद्द-अत्थ-पय खाणि।।१।।
गुणणिहि बहु विज्जागमसार। पुठि मराल सहइ अविचार।।
छंद बहत्तरि-कला-भावती। सुकइ ‘रल्ह’ पणवइ सरसुती।।२।।
(महाकवि रल्ह)
अर्थ:— जो शारदा जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी कमल से प्रकट हुई है, जिसकी सप्तभंगमयी वाणी है, जो आगम, छंद एवं तक्र से युक्त है, -ऐसी शारदा शब्द, अर्थ एवं पद की खान है। जो गुणों की निधि एवं विद्या तथा आगम की सार-स्वरूपा है, जो स्वभावत: हंस की पीठ पर सुशोभित है, जिसे छंद एवं बहत्तर कलाएँ प्रिय हैं—ऐसी सरस्वती को ‘रल्ह’ कवि नमस्कार करता है।। १।।
यस्या: संस्मृतिमात्राद् भवन्ति मतय: सुदृष्टपरमार्था:।
वाचश्च बोधिविकला: सा जयतु सरस्वती देवी।।
(अभिधान राजेन्द्र कोश, ७/३३)
अर्थ:— जिस सरस्वती के स्मरण मात्र से बुद्धि परमार्थ का दर्शन करने में समर्थ होती है और वाणी ज्ञानधारा से परिपूर्ण होती है, ऐसी उस सरस्वती देवी की जय हो।
नम: श्री वर्द्धमानाय, श्री पार्श्वप्रभवे नम:।
नम: श्रीमत्सरस्वत्यै सहायेभ्यो नमो नम:।।
—(अभिधान राजेन्द्र कोश, ७/३३)
अर्थ:—श्री वर्द्धमान भगवान की जय हो, श्री पार्श्वनाथ भगवान की जय हो। श्री सरस्वती देवी को नमस्कार है, अन्य सहायकों (आचार्यों, मुनियों, साधु-संतों) को बार-बार नमस्कार है।
जैनेतर मनीषियों ने भी सरस्वती देवी का वर्णन किया है। वह ऐसी सरस्वती देवी को नमस्कार करते हैं जो अज्ञान-तिमिरनाशक, ज्ञानसंवर्धिनी एवं दिव्य गुणों से पूर्ण है। यथा-
भारतीले सरस्वति या व: सर्वा उपब्रुवे।
न नश्चोदयत श्रिये।।
-( १/२४/ १८८/८, (द्वि. अष्टक)
सायण:- हे भारति!भरत: आदित्य तस्य संबंधिनी भारती। तादृशि द्युलोक-देवते! हे इले!भू देवि! हे सरस्वति! सर: वाव्â उदकं वा।तद्वत्यंतरिक्षदेवते तादृशि देवि। एता: क्षित्यादिदेवता:। एतास्तिस्र: आदित्य प्रभावविशेषरूपा इत्याहु:। यास्तिस्र: सर्वा: वो युष्मान् उपब्रुवे उपेत्य स्तौमि ता यूयं नोऽस्माञ्छ्रिये संपदे चोदयत, प्रेरयत।
अर्थ:—भरत अर्थात् अंतरिक्ष लोक के देव! भरत से सम्बद्ध होने के कारण इसे भारती कहा गया है अर्थात् हे अंतरिक्ष लोक में निवास करने वाली देवीरूपा सरस्वती! इला अर्थात् पृथ्वीदेवी, (सर: अर्थात् वाणी अथवा जल और उससे सम्बद्ध देवी अर्थात् वाग्देवी सरस्वती) मैं आप सबको बुलाता हूँ। तुम सब हमें ज्ञान-सम्पदा की ओर पे्ररित करो।
नत्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम्।
पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम्।।
—(लघुसिद्धान्तकौमुदी, १/१)
अर्थ:— मैं वरदराजाचार्य स्फटिकमणि सदृश निर्मल प्रशस्त गुणों से युक्त देदीप्यमान अथवा दिव्य गुणों से युक्त, सरस्वती देवी को नमन अथवा वंदना करके पाणिनि मुनि विरचित व्याकरण शास्त्र में प्रवेश के लिए लघुसिद्धान्त कौमुदी नामक ग्रन्थ की रचना करता हूँ।
वर्णाश्चत्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभादज्ञानतां गता:।।
—(महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म १२/११/ १५)
अर्थ:— पूर्व में (पहले) ब्रह्मा के द्वारा चार वर्णों की स्थापना की गई थी और जिनके लिए ब्राह्मी लिपि तथा सरस्वती (विद्या) की रचना की थी, वे लोभ के कारण अज्ञानता को प्राप्त हो गये।
—(महाभारत, पूना, १९५४, पृष्ठ १०२५)
सरस्वती धृतिर्मेधा ह्री: श्रीर्लक्ष्मीस्मृतिर्मति:।
पान्तु वो मातर: सौम्या: सिद्धिदाश्च भवन्तु व:।।
—(भरतनाट्यशास्त्र, ३/८७)
अर्थ:—सरस्वती, धृति, मेधा, ह्री, श्री, लक्ष्मी, स्मृति एवं मति रूप सौम्य भाव रखने वाली माताएँ हमारी रक्षा करें और हमें सिद्धियाँ प्रदान करें।
वाग्देवी शारदा ब्राह्मी भारती गी: सरस्वती।
हंसयाना ब्रह्मपुत्री सा सदा वरदास्तु व:।।
—(हर्षकीर्ति : शारदीय नाममाला १/२)
अर्थ:—वाग्देवी, शारदा, ब्राह्मी, भारती, गी, सरस्वती, हंसयाना ब्रह्मपुत्री नाम वाली (देवी) सदा आप लोगों को वर प्रदान करने वाली हों।
जनयति मदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणां। हरति तिमिरराशिं या प्रभा भानवीया।।
कृतनिखिलपदार्थ द्योतना भारतीया। वितरतु धुतदोषा सार्हती भारती व:।।
—(सुभाषित रत्नसन्दोह, १)
अर्थ:—जो भगवान भास्कर की किरणें मार्ग के वृक्षों में अन्तर्निहित होकर विशेष आनन्द पैदा करती हैं और अन्धकार समूह का विनाश करती हैं। वही सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करने वाली प्रकाशित भारती जिनेश्वरों की वाणी हमारे दोषों को दूर करने वाली हमें ज्ञान प्रदान करे।
नारायणं नमस्कृत्य, नरञ्चैव नरोत्तमम्।।
देवीं सरस्वतीञ्चैव, ततो जयमुदीरयेत्।।
—(देवी पुराण, १/१)
अर्थ:—स्वयं नारायण और अन्य उत्तम मनुष्य भी देवी सरस्वती को नमस्कार करते हैं अत: उसकी जय बोलनी चाहिए।
दधतीं दक्षिणे हस्ते कमलं सुमनोहरम्।
अक्षमालां तथान्यस्मिञ्जिततारकं वर्चसम्।।८।।
कमण्डलुं तथान्यस्मिन्दिव्यवारिप्रपूरितम्।
पुस्तकं च तथा वामे सर्वविद्यासमुद्भवम्।।९।।
—(स्कन्दपुराण,४६)
अर्थ:— दाएँ हाथ में सुन्दर मनोहर कमल धारण करती हुई तथा दूसरे हाथ में अक्षमाला तथा बाएँ हाथ में ताराओं से अधिक तेजस्वी कमण्डलु और दूसरे बाएँ हाथ में सर्वविद्या के उद्गमभूत पुस्तक को धारण करती हुई सरस्वती का ध्यान करना चाहिए।
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा त्वं पवित्रं मतं महत्।
सन्ध्या रात्रि प्रभा: भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती।।७।।
—(पद्मपुराण, ५/२७)
अर्थ:—हे सरस्वती, तुम ही सिद्धि, स्वधा, स्वाहा हो। तुम ही पवित्र महान मत हो। तुम ही संध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा हो।
पुष्टिर्धृतिस्तथा कीर्ति: कान्ति क्षमा तथा।
स्वधा स्वाहा तथा वाणी तवायत्तमिदं जगत् ।।५।।
त्वमेव सर्वभूतेषु वाणीरूपेण संस्थिता।
एवं सरस्वती तेन स्तुता भगवती तदा।।६।।
—(वामनपुराण, अध्याय ४०)
अर्थ:— तुम पुष्टि, धृति, कीर्ति, कांति, क्षमा, स्वधा, स्वाहा और वाणी हो। तुमने ही इस जगत को अपने वश में किया है। तुम ही सभी प्राणियों में वाणी रूप से विराजमान हो। इस प्रकार से भगवती सरस्वती की स्तुति की गई।
वागधिष्ठातृदेवी सा कवीनामिष्टदेवता।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा च शान्तरूपा सरस्वती।।५७।।
—(संस्कृत साहित्य में सरस्वती, पृष्ठ ११९)
अर्थ:—शान्तरूप सरस्वती ही वाणी की अधिदेवता, कवियों की इष्ट देवता, शुद्ध सत्त्व वाली है।
भारती भारतं गत्वा ब्राह्मी च ब्रह्मण: प्रिया।
वागधिष्ठातृदेवी सा तेन वाणी च कीर्त्तिता।।२।।
सर्वविश्वं परिव्याप्य स्रोतस्येव हि दृश्यते।
हरि: सर: सु तस्येयं तेन नाम्ना सरस्वती।।३।।
—(ब्रह्मवै. पु. प्रकृतिखण्ड, अध्याय ७)
अर्थ:— भारत में होने के कारण भारती, परब्रह्म अर्थात् परमात्मा को प्रिय होने के कारण ब्राह्मी, वाग् की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण वाणी नामों से कही जाती हैं। सरस्वती देवी ने सम्पूर्ण विश्व को स्रोत के समान व्याप्त किया है। ‘हरि’ भगवान ही मूल स्वर हैं, उनसे निकलने के कारण इन्हें सरस्वती नाम से जाना जाता है।
आदौ सरस्वती पूजा श्रीकृष्णेन विनिर्मिता।
यत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मूर्खो भवति पण्डित:।।१।।
—(ब्रह्मवै. पु. अध्याय ३)
अर्थ:—हे मुनिराज, जिनकी कृपा से मूर्ख पंडित हो जाते हैं, ऐसी सरस्वती की पूजा नारायण श्रीकृष्ण ने की।
धातुश्चतुर्मुखीकण्ठश्रृङ्गटकविहारिणीम्।
नित्यं प्रगल्भवाचालामुपतिष्ठे सरस्वतीम्।।
अर्थ:—ब्रह्मा के चारोें मुखों के कण्ठरूपी पर्वत पर विहार करने वाली प्रगल्भ वाणी से परिपूर्ण सरस्वती की मैं नित्यप्रति उपासना करता हूँ।
शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात्।।५।।
अर्थ:—शरत्कालीन कमल के समान मुख वाली शारदा, सभी कामनाओं को पूरा करने वाली मेरे मुखरूपी कमल में सर्वदा श्रेष्ठनिधि का सन्निधान करें।
करबदरसदृशमखिलं भुवनतलं यत्प्रसादत: कवय:।
पश्चन्ति सूक्ष्मतय: सा जयति सरस्वती देवी।।६।।
-(श्रीसुभाषितरत्न भाण्डागारम्, पृष्ठ ३)
अर्थ:—सूक्ष्म मति वाले कविगण जिनकी कृपा से हाथ में रखे हुए बेर के फल के समान सम्पूर्ण विश्व को देखते हैं, ऐसी देवी सरस्वती की जय हो रही है।
वचांसि वाचस्पतिमत्सरेण साराणि लब्धुं ग्रहमण्डलीव।
मुक्ताक्षरसूत्रमुपैति यस्या: सा सप्रसादास्तु सरस्वती व:।।९।।
—(श्रीसुभाषितरत्न भाण्डागारम्, पृष्ठ ३)
अर्थ:— वाणी के सार को प्राप्त करने की कामना से मानो सम्पूर्ण ग्रहमण्डली मुक्ताक्षर की माला का रूप धारण करता है। ऐसी वह सरस्वती आपके ऊपर कृपा करे।
जैन संस्कृति इतिहास में ही नहीं वरन् ऐतिहासिक भी है, पुस्तकों में ही नहीं वरन् प्राणों में भी दिखाई देती है। हमारी संस्कृति एवं कला का संरक्षण, संवर्द्धन न होने के कारण यह ऐतिहासिक धरोहर विलुप्त होती जा रही है। समय-समय पर ऐसे अनेक जैन राजा या जैनधर्म से प्रभावित राजाओं ने जैन संस्कृति एवं उसकी कला का संरक्षण-संवर्द्धन किया है।
भारत के इतिहास में अनेक प्रसिद्ध राजाओं ने जिनभक्ति और वाग्देवी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है। मध्ययुग के विद्याप्रेमी और काव्यरसिक शासक राजा भोज भी जिनभक्त थे।‘भूपालस्तोत्र’ में उन्होंने कहा है कि जो व्यक्ति श्री तीर्थंकर जिनेन्द्र के चरणयुगल की प्रतिदिन प्रात:काल स्तुति करता है, जिनदर्शन करता है उसे मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, वह इस पृथ्वी का राजा होता है और उसे प्रत्येक कार्य में विजय प्राप्त होती है। उसकी सब जगह कीर्ति पैâल जाती है, वह सदा आनन्द में मग्न रहता है, उसे वाग्देवी प्रणीत सभी विद्याएँ प्राप्त होती हैं तथा अन्त में उस धर्मात्मा के भी पंचकल्याणक आदि महोत्सव होते हैं। यथा-
श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदम्।
वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत्।।
स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं य: प्रार्थितार्थप्रदम्।
प्रात: पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांघ्रिद्वयम्।।
—(भूपाल स्तोत्र, जिनचतुर्विंशतिका)
कविवर भूधरदास ने ‘चतुर्विंशतिका’ में भी जिनदेव के दर्शन का माहात्म्य प्रकट करते हुए इसी भावना को व्यक्त किया है कि जिनदर्शन में लक्ष्मी-सुख का वास, सरस्वती का निवास और विजय की आधारभूमि है। यथा-
श्री सुख-वास-महीकुल धाम, कीरति-हर्षण-थल अभिराम।
सुरसुति के रतिमहल महान, जय-जुवती को खेलन थान।।
अरुण वरण वांछित वरदाय, जगतपूज्य ऐसे जिन पाय।
दर्शन प्राप्त करै जो कोय, सब शिवनाथन को जन होय।।
—(भूपाल चतुर्विंशतिका, कविवर भूधरदास, पृष्ठ ४ १६)
भ-पाहुड़ की संस्कृत टीका में उक्तं च श्री भोजराजमहाराजेन (आचार्य कुन्दकुन्द, गाथा १५ १) में उल्लेख मिलता है। श्री श्रुतसागरसूरि ने भोजराज महाराज के ‘‘भूपाल चतुर्विंशति जिनस्तवनम्’’ के एक श्लोक को उद्धृत करते हुए ‘जिनदर्शन’ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है-
सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय, द्रष्टव्यमस्ति यदि मंगलमेव वस्तु।
अन्येन किं तदिह नाथ! तवैव वक्त्रम्। त्रैलोक्यमंगलनिकेतनमीक्षणीयम्।।१९।।
सुप्तोत्थितेन-हे वृषभनाथ! प्रात: सोकर उठे हुए सत्पुरुष श्रावक और श्राविका को यदि सुमंगल के लिए कोई मांगलिक वस्तु दर्शन करने योग्य है, तो वह दूसरी वस्तु क्या हो सकती है ? उसे तीन लोक के मंगलों का घर स्वरूप आपके श्रीमुख का ही दर्शन (पूजन) करना चाहिए। यथा-
सोकर जागै जो धीमान, पंडित सुधी सुमुख गुणगान।
आपन मंगलहेत प्रशस्त, अवलोकन चाहैं कछु वस्तु।।
और वस्तु देखें किस काज, जो तुम मुख राजै जिनराज।
तीन लोक को मंगलथान, प्रेक्षणीय तिहुं जग कल्याण।।
—(भूपाल चतुर्विंशतिका, कविवर भूधरदास, १८)
जिनदर्शन और सरस्वती आराधना के इस घनिष्ठ संबंध की साक्षी है-धारा नगरी से प्राप्त वाग्देवी की मनोज्ञ प्रतिमा। इस सरस्वती प्रतिमा में जिनेन्द्रबिम्ब, विद्याधर, ज्ञानांकुश, आगम-ताड़पत्र अक्षमाला, कमण्डलु, भक्त, भोजराजा एवं श्रीफल लिये हुए महाकुमार अंकित है। आचार्य सोमदेवसूरि ने सरस्वती और श्रमणमुनि के हाथ में सुशोभित कमण्डलु को अर्थशास्त्र का निदर्शन करने वाला कहा है; क्योंकि इसमें जल आने का द्वार बड़ा और खर्च करने का छिद्र छोटा होता है। आय अधिक और व्यय थोड़ा, यही सुखी जीवन का रहस्य है-
आय-व्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलुर्निदर्शनम्।
—(नीतिवाक्यामृत, सोमदेवसूरि, १८-६१)
जिनमुख दर्शन और सरस्वती-आराधना के भक्त राजा भोज ने सदैव विद्वत्ता का सम्मान किया है। उनकी घोषणा थी कि-
चाण्डालोऽपि भवेद् विद्वान्, य: स तिष्ठतु मे पुरि।
विप्रोऽपि यो भवेन्मूर्ख:, स पुराद् बहिरस्तु मे।।
—(भोजप्रबंध, बल्लभदेव कृत, ७४)
चाण्डाल भी यदि विद्वान हो तो वह मेरे धारानगर में प्रतिष्ठित हो और यदि ब्राह्मण होते हुए भी वह मूर्ख हो तो मेरे धारानगर से वह बाहर हो जाये।
सरस्वती ज्ञान की मूर्ति है,उसके अंग तथा वस्त्राभूषण अपने में प्रतीकात्मक अर्थ को छिपाए हुए हैं, इनका किंचित् विवेचन प्रस्तुत है-
निर्मल शुभ्रमुख-
निर्मल शुभ्रमुख ज्ञान के प्रकाशमान स्वरूप का प्रतीक है, उसके मुख को करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्यों से रचित बतलाया है। सूर्य दिन के अंधकार को दूर करता है तथा चन्द्रमा रात्रि के अंधकार को दूर करता है किन्तु ज्ञान के प्रकाश द्वारा करोड़ों जन्मों का अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है अत: सरस्वती का मुख करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्यों से रचित बतलाया गया है।
सिर पर अर्द्धचन्द्र-
चन्द्रमा की किरणें जिस प्रकार शीतलता प्रदान करती हैं उसी प्रकार संसार रूपी दावाग्नि से जलते हुए प्राणियों को ज्ञानरूपी चन्द्रिका शीतलता प्रदान करती है।
चार हाथ-
सरस्वती के चार हाथ प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों के प्रतीक हैं। इन चार अनुयोगों का स्वरूप आचार्य समन्तभद्र ने इस प्रकार बतलाया है-
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीन:।।
—(रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४३)
प्रथमानुयोग में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों, पुराण पुरुषों (त्रेसठ शलाका पुरुषों) का चरित, बोधि (सम्यग्ज्ञान) और समाधि का निधान है और पुण्य रूप है, ऐसे समीचीन ज्ञान का आगम बोध कराता है।
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च।।
—(रत्नकरण्ड श्रावकाचार,४४)
करणानुयोग लोक और अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को, चार गतियों के परिभ्रमण को ज्ञान दर्पण के समान कराता है।
गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्।
चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।
—(रत्नकरण्ड श्रावकाचार,४५)
सम्यग्ज्ञान गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा रूप चरणानुयोग के सिद्धान्त को जानता है।
जीवाजीवसुतत्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च।
द्रव्यानुयोगदीप: श्रुतविद्यालोकमातनुते।।
—(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ४६)
द्रव्यानुयोग रूपी दीपक जीव और अजीव से दो तत्व्ा, पुण्य तथा पाप, बन्ध और मोक्ष के विषय में सम्यग्ज्ञान रूपी प्रकाश का विस्तार करता है।
कमण्डलु-
सरस्वती के एक हाथ में कमण्डलु है। कमण्डलु अपरिग्रह का प्रतीक है। आचार्य सोमदेव ने कहा है-
आयव्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलुरेवनिदर्शनम्।
आय-व्यय के विषय में मुख्य रूप से मुनि का कमण्डलु ही उदाहरण है।
जिस प्रकार मुनि का कमण्डलु अधिक संगृहीत करता है किन्तु टोंटी से थोड़ा ही छोड़ता है उसी प्रकार जो आय की अपेक्षा व्यय कम करता है, वह सुखी रहता है।
अंकुश-
सरस्वती के हाथ में जो अंकुश होता है, वह स्वच्छन्दाचरण को छोड़कर आत्मानुशासन की शिक्षा देता है।
पुस्तक-
सरस्वती के हाथ में जो पुस्तक है, वह ज्ञान की प्रतीक है। यह सकलकलुषविध्वंसक, श्रेय का परिवर्द्धक, धर्म से संबंधित, भव्य जीवों के मन का प्रतिबोधक, पुण्य का प्रकाशक और पापों का प्रणाशक है।
अक्षमाला-
सरस्वती के गले में शुभ्र अक्षमाला (हार) है। माला में १०८ दाने होते हैं। प्रतिदिन हम १०८ प्रकार से पाप करते हैं। जैसा कि आलोचना पाठ में पढ़ते हैं-
समरंभ समारंभ आरंभ मन वच तन कीने प्रारम्भ।
कृत कारित मोदन करके क्रोधादि चतुष्टय धरिकैं।।
शत आठजु इन भेदनि तैं अघ कीने परिछेदन तै।
इन १०८ प्रकार के पापों के प्रायश्चितस्वरूप प्रतिदिन १०८ बार जाप करते हैं, कहा है-
पुष्पकोटि समं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमं जप:।
अर्थात् एक करोड़ पुष्प चढ़ाने के समान एक स्तोत्र का पाठ है और करोड़ों स्तोत्रों के पढ़ने के समान जप है।
इस प्रकार जप की महत्ता स्पष्ट है। जप में दो अक्षर हैं-ज और प।
जकारो जन्मविच्छेद: पकारो पापनाशन:।
ज का अर्थ जन्मविच्छेद और प का अर्थ पापनाशन है। तात्पर्य यह है कि जप करने से पापों का नाश होता है, जिससे जन्म-मरण की परम्परा का विच्छेद होता है।
वीणा-
वीणा दिव्यध्वनि का प्रतीक है। कविवर भागचन्द्र ने महावीराष्टक में कहा है-
यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला।
वृहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगतिजनतां या स्नपयति।।
इदानीमप्येषा बुधजनमरालै: परिचिता।
महावीरस्वामी नयन पथगामी भवतु मे।।
जिनकी वाणी रूपी गंगा विविध प्रकार के नय की कल्लोलों से विमल है, जो विशाल ज्ञानरूपी मेघों से संसार के जनसमूह को स्नान कराती है। इस समय भी ज्ञानी ज्ञान रूपी हंसों से परिचित है। इस प्रकार के महावीर स्वामी मेरे नयनपथगामी हों।
दिव्यध्वनि का ही कुछ अंश अवधारण कर गणधर बारह अंगों की रचना करते हैं। इन अंगों के अंतर्गत विश्व के समस्त विषयों का ज्ञान समाहित होता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी आप्तमीमांसा में कहते हैं-
तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभाषणम्।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम्।।
अर्थात् हे भगवन्! आपका तत्त्वज्ञान प्रमाण है;क्योंकि उसमें एक साथ सभी पदार्थों का प्रतिभास होता है। जो क्रमभावि ज्ञान होता है, वह स्याद्वाद नय से संस्कृत होता है।
श्री सरस्वती स्तोत्रम् में कहा है-
श्री सर्वज्ञमुखोत्पन्ना भारती बहुभाषिणी।
अज्ञानतिमिरं हन्ति विद्याबहुविकासिनी।।२।।
श्री सर्वज्ञ के मुख से उत्पन्न हुई बहुभाषिणी भारती जो कि बहुत-सी विद्याओं का विकास करने वाली है, वह अज्ञान का विनाश करती है।
केयूर-
जिस प्रकार केयूर से हाथ सुशोभित होता है, उसी प्रकार ज्ञान के उपकरण शास्त्रादि का दान करने से हाथ की शोभा होती है।
मणिकुण्डल-
जिस प्रकार मणिकुण्डल को धारण करने से कानों की शोभा बढ़ती है, उसी प्रकार श्रुत को धारण करने से कानों की शोभा अत्यधिक बढ़ती है। किसी नीतिज्ञ ने कहा है-
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन।
कान की शोभा श्रुत से ही है, कुण्डल से नहीं।
मुद्रिका-
मुद्रिका भारतीय साहित्य में प्रेम की प्रतीक है। श्रीराम ने हनुमान के हाथ सीता को स्वनामांकित अंगूठी भेजी थी।
अभिज्ञानशाकुन्तलम् में दुष्यंत प्रथम मिलन के अवसर पर शकुन्तला को अपने नाम से अंकित अँगूठी पहनाता है तथा कहता है कि प्रतिदन इस नाम का एक-एक अक्षर बाँचना। जब अंतिम अक्षर बाँचोगी तो तुम्हें ले जाने वाला व्यक्ति मैं तुम्हारे पास भेज दूँगा। राजा स्मृतिभंग के कारण शकुन्तला को पहचानने से मना कर देता हे, बाद में अँगूठी प्राप्त होने पर वह शकुन्तला को पहिचान लेता है। इसी प्रकार सरस्वती की मुद्रिका याद दिलाती है कि ज्ञान से सदा प्रेम करो।
कांची-
कांची मध्य में स्थित रहते हुए अधोवस्त्र और ऊपरी वस्त्रों को धारण करने में सहायिका होती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति वस्तु के प्रतिदान, उपादान की बुद्धि से ऊपर उठकर या उसे छोड़कर मध्यस्थ हो निर्विकल्प की भूमि में पहँुचता है, वह वैâवल्य की लब्धि करता है अत: कांची माध्यस्थ भाव की द्योतक है।
हंसवाहन-
सरस्वती का वाहन हंस माना जाता है। हंस नीर-क्षीर विवेक के लिए प्रसिद्ध है। जिस प्रकार हंस नीर-क्षीर विवेक रखता है उसी प्रकार जिनवाणी रूपी सरस्वती को धारण करने वाला व्यक्ति भेदविज्ञानी हो जाता है। भेद विज्ञान की महिमा के विषय में कहा गया है-
भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा: ये किल केचन।
तस्यैवाभावतो बद्धा: बद्धा: ये किल केचन।।
जो भी सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं। जो भी बद्ध हैं, वे भेदविज्ञान के अभाव से ही बद्ध हैं।
कविवर बनारसीदास जी कहते हैं-
भेदविज्ञान भयौ जिनके घट शीतलचित्त भयौ जिमि चन्दन।
केलि करें शिवमारग में जग माँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन।।
सत्यस्वरूप सदा प्रकट्यौ प्रकट्यौं अवदात मिथ्यात्व निकंदन।
शान्तदशा तिनकी पहिचानि करै कर जोड़ि बनारसि वंदन।।
-(नाटक समयसार)
शोभायमान मंजरी से रंजित चरण कमल-
जिस प्रकार मंजरी निकट समय में ही फलप्राप्ति की सूचक होती है, उसी प्रकार सरस्वती के चरण जहाँ विराजमान होते हैं उस जीव को कैवल्य या मोक्षरूपी फल की प्राप्ति निकट समय में सुलभ होती है।
काले घंघुराले बाल-
जिस प्रकार काले बादल डराने वाले होते हैं उसी प्रकार सरस्वती के काले, घँुघराले बाल संसार से डराने वाले होते हैं। सरस्वती के काले, घुंघराले बाल देखकर संवेग की भावना विकसित होती है।
हस्ति समानयान-
जिस प्रकार हाथी मदमस्त चाल से चलता है, उसी प्रकार ज्ञान के पथ पर चलने वाले मदमस्त चाल से चलते हैं अत: सरस्वती को गजगामिनी या हस्ति समानयान कहा है।
वागीश्वरी-
सरस्वती को वागीश्वरी कहा है। वाणी के साथ अर्थ मिला हुआ होता है। कालिदास ने रघुवंश के प्रारम्भ में कहा है-
वागार्थाविव संपृक्तौ।
वाणी की महत्ता के विषय में जैनाचार्य ने कहा है—
वाणी कर्मकृपाणी वेणी संसार जलधि संतरणे।
वेणी जितघनमाला जिनवदनाम्भोजभीसुरा जीयात्।।
मुकुट-
जिस प्रकार मुकुट समस्त आभूषणों में प्रधान होता है, उसी प्रकार सरस्वती को धारण करना सभी के लिए मुकुट को धारण करने के समान प्रधान है और सर्वांग को विभूषित करने वाला है।
मंजीरे, कंकण और किंकणियाँ-
ये तीनों मनोहर ध्वनि करते हैं, इसी प्रकार सरस्वती का जहाँ वास है, उसकी वाणी मनोहर ध्वनि वाली होती है। उसे सभी जन अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं।
समस्त कलाधिनाथ-
किसी भी कार्य को कुशलता से करना कला है। जिसके हृदय में सरस्वती है वह व्यक्ति समस्त कलाओं का पारगामी हो जाता है।
पूर्णेन्द्र बिम्बरुचिशोभित दिव्यगात्र-
सरस्वती का शरीर पूर्णचन्द्र की कान्ति के समान शोभित है। जिसके शरीर में ज्ञानरूपी लक्ष्मी का वास होता है, उसका शरीर दिव्य हो जाता है, इसी कारण तीर्थंकरों का शरीर परमौदारिक होता है। कहा भी है-
परमौदारिक दिव्यदेह पावन सही। क्षुधा तृषा चिन्ता भय गद दूषण नहीं।।
जन्म, जरा, मृत्यु, अरति शोक विस्मय नशैं। राग दोष निद्रा मद मोह सबै खसैं।।
मृगशावक ललाट नेत्र-
जिस प्रकार मृग के शावक के नेत्र भोले-भाले और सजग होते हैं उसी प्रकार जिनवाणी के धारक का मस्तक ऊँचा और नेत्र भोले-भाले और सजग होते हैं।
कामरूपिणी-
जो ज्ञान का विकास कर लेता है उसमें अनेक ऋद्धियाँ स्वत: विकसित होती हैं। ऋद्धियों के प्रकट होने पर वह इच्छानुसार रूप बनाने में भी सक्षम होता है अथवा सरस्वती के प्रसाद से समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
समस्तवृन्द पूजित-
पूजा सत्कार को कहते हैं। वागीश्वरी की सभी पूजा करते हैं क्योंकि वह जगन्माता है।
मयूरवाहन-
सरस्वती का वाहन मयूर भी कहा जाता है। जिस प्रकार मयूर के आने पर समस्त सर्प अपने आप शिथिल हो जाते हैं उसी प्रकार सरस्वती की समीपता में दुष्टकर्म अपने आप शिथिल हो जाते हैं। कहा भी है-
हृद्व्रर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति, जन्तो: क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धा:।
सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग-मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य।।
-(आचार्य कुमुदचन्द्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र, ८)
इस प्रकार सरस्वती के रूप में जिनवाणी की कल्पना कर हमारे आचार्यों ने प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात समझायी है। इन प्रतीकों में अर्थगाम्भीर्य है। हमारे यहाँ प्रतीक पूजा का पुराना रिवाज है। आयागपट्ट प्रतीक पूजा के उदाहरण हैं।
-शेर छन्द-
कमलासिनी श्रुतधारिणी माता सरस्वती। जिनशासनी अनुगामिनी माता सरस्वती।।
है द्वादशांग रूप से निर्मित तेरी काया। सम्यक्त्व तिलक माथे पे चारित्र की छाया।।
विद्वानों से भी पूज्य तुम माता सरस्वती। जिनशासनी अनुगामिनी माता सरस्वती।।१।।
जिनवर की मूर्ति तेरे मस्तक पे राजती। वन्दन करें जो उनकी ज्ञान शक्ति जागती।।
हे श्वेत वस्त्रधारिणी माता सरस्वती। जिनशासनी अनुगामिनी माता सरस्वती।।२।।
हे शारदा तू ज्ञान की गंगा बहाती है। वागीश्वरी तू ब्रह्मचारिणी कहाती है।।
कर में है वीणा पुस्तक माला सरस्वती। जिनशासनी अनुगामिनी माता सरस्वती।।३।।
जो भी तेरी आराधना में लीन होता है। मिथ्यात्वतिमिर हटा ज्ञान लीन होता है।।
है ‘‘चन्दना’’ तुम पद में नत माता सरस्वती। जिनशासनी अनुगामिनी माता सरस्वती।।४।।
इस सरस्वती स्तुति को प्रतिदिन पढ़ने से विद्यार्थी जीवन में ज्ञान का खूब विकास होता है।