यह सुविदित तथ्य है कि जैन परम्परा के अनुसार ईसा पूर्व ५२७ में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण के बाद सुखमा-दु:खमा संज्ञक चतुर्थकाल के ३ वर्ष ८ माह १५ दिन अवशिष्ट बचे थे। इसके बाद दुःखमा नामक यह पंचमकाल प्रारम्भ हुआ। सन्धिकाल प्राय: संघर्षों से परिपूर्ण होता है। भगवान् महावीर का काल भी इसका अपवाद नहीं है। आधिभौतिक विचारधारायें जहाँ इस पंचमकाल को सुसभ्यता का चरम विकसित रूप स्वीकार करती हैं, वहाँ जैन, बौद्ध एवं वैदिक सभी आध्यात्मिक भारतीय विचारधारायें इसे मानव-मूल्यों का ह्रासकाल मानती हैं।
तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् १६२ वर्षों तक श्रुतपरम्परा का एक व्यवस्थित क्रम चलता रहा। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार जिस दिन भगवान महावीर को निर्वाण हुआ, उसी दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। महावीर स्वामी के निर्वाण के १२ वर्ष बाद गौतम गणधर को निर्वाण हुआ। गौतम गणधर के १२ वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी को निर्वाण तथा उनके ३८ वर्ष बाद जम्बूस्वामी को निर्वाण हुआ। इस प्रकार वीर निर्वाण के ६२ वर्ष तक केवलज्ञानियों का सान्निध्य बना रहा। फलत: श्रुत पूर्णतया विद्यमान रहा है। सामान्यतया जीव में पंचम काल में निर्वाण-प्राप्ति की सामर्थ्य नहीं मानी गयी है अत: उक्त तीनों केवलियों के पश्चात् किसी का निर्वाण नहीं हुआ। ये तीनों तो चतुर्थकाल के उत्पन्न जीव थे अत: पंचमकाल आ जाने पर भी उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था।
उक्त तीनों अनुबद्ध केवलियों के बाद विष्णुनन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु नामक पाँच श्रुतकेवली हुए। इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में इनका काल क्रमश: १४ वर्ष, १६ वर्ष, २२ वर्ष, ११ वर्ष और २१ वर्ष· कुल १०० वर्ष माना है। इस प्रकार ६२+१००=१६२ वर्षों तक अनुबद्ध केवलियों और श्रुतकेवलियों के रहने से श्रुतपरम्परा अविच्छिन्न एवं व्यवस्थित बनी रही। दिगम्बर आम्नाय के अनुसार इसके बाद श्रुतकेवलियों का लोप माना गया है। अन्तिम श्रुतकेवली का समय ईसा पूर्व ३६५ है। श्रुतकेवलियों के बाद श्रुत का ह्रासकाल आया।
तदनन्तर ११ दश पूर्वधर आचार्य हुए, जिनका समय १८४ वर्ष है-
१. विशाखाचार्य | १० वर्ष | २. प्रोष्ठिल | १९ वर्ष |
३. क्षत्रिय | १७ वर्ष | ४. जयसेन | २२ वर्ष |
५. नागसेन | १८ वर्ष | ६. सिद्धार्थ | १७ वर्ष |
७. धृतिषेण | १८ वर्ष | ८. विजय | १३ वर्ष |
९. बुद्धिल | २० वर्ष | १०. गंगदेव | १४ वर्ष |
११. धर्मसेन | १६ वर्ष |
दश पूर्वधरों में सर्वप्रथम विशाखाचार्य नाम से प्रसिद्ध प्रथम चन्द्रगुप्त मुनि हैं। यही बाद में सर्वसंघ के अधिपति बने। इन दस पूर्वधारी आचार्यों के अनन्तर नक्षत्र, जसपाल (जयपाल), पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस नामक पाँच आचार्यों का निर्देश मिलता है। इनका काल २२० वर्ष माना गया है। ये पाँचों आचार्य दस पूर्वों के धारक तो नहीं थे किन्तु एकादश अंगों के ज्ञाता थे। बारहवें अंग का ज्ञान इनके समय त्रुटित हो चुका था अत: श्रुत की एकदेश सुरक्षा में इनका अप्रतिम योगदान रहा है। इन पाँच एकादशाङ्गधारी आचार्यों के बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य नामक चार आचाराङ्गधारी आचार्य हुए। इनका काल ११८ वर्ष अङ्गीकृत किया गया है। इस प्रकार (३ अनुबद्धकेवली) ६२ वर्ष + (५ श्रुतकेवली) १०० वर्ष + (१२ दशश्रुतपूर्वधारी आचार्य) १८४ वर्ष + (५ एकादशाङ्गधारी आचार्य) २२० वर्ष + (४ आचारांगधारी आचार्य) ११८ वर्ष · कुल ६८४ वर्षों तक श्रुत की एकदेश हानि हो जाने पर भी अधिकांश श्रुत सुरक्षित बना रहा।
आगे चलकर श्रुतपरम्परा का ह्रास होता गया। तब धर्म की प्रभावना के लिए सर्वतोमुखी गतिविधियाँ की जाने लगी। दान, तपस्या, जिनपूजा, विद्यातिशय, राजसम्मान, शास्त्रार्थविजय एवं ऋद्धि-सिद्धि का धर्मप्रभावना में अप्रतिम महत्त्व बन गया। यद्यपि ऋद्धि-सिद्धि, राजसम्मान आदि वीतरागभाव की साधना करने वाली जैन परम्परा का लक्ष्य नहीं रहा है किन्तु जैनाचार्यों की परस्परोपग्रही प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर राजाओं ने जैनाचार्यों को बहुश: सम्मानित किया और इससे जिनशासन की महाप्रभावना हुई है। श्रेणिक, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, सम्प्रति एवं सातवाहन आदि राजाओं के कथानक जैनाचार्यों के सम्मान द्वारा जिनशासन की प्रभावना से भरे पड़े हैं। इसी प्रकार जब जैनेतर सम्प्रदाय संस्कृत को आधार बनाकर अपने लाभ के लिए शास्त्रार्थ के लिए ललकारने लगे तब जैनाचार्यों ने भी समाज में अपने अस्तित्व एवं धर्मसुरक्षा के निमित्त वाद-विवाद एवँ शास्त्रार्थों में भाग लिया। समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानंद, वादिराज आदि आचार्यों की घटनाएं इन तथ्यों को उजागर करती हैं। जैनधर्म में ऋद्धि-सिद्धियों की अभीष्टता स्वीकार्य न होने पर भी जैनाचार्यों ने जैनसंघ एवं धर्म की प्रभावना के लिए उनका उपयोग किया है। भले ही सिद्धान्त की दृष्टि से यह समीचीन न माना जाए परन्तु ऋद्धि-सिद्धि की घटनाओं का उल्लेख बहुत अर्वाचीन नहीं है। ऐसे आचार्यों में वङ्का, पादलिप्त सदृश अनालोचित आचार्यों तथा कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, मानतुंग एवं वादिराज सदृश बहुविख्यात आचार्यों की गणना है। सम्यग्दर्शन के प्रभावना अंग के उदाहरण में समन्तभद्राचार्य ने वङ्काकुमार का नामोल्लेख किया है। कल्पसूत्र, हेमचन्द्राचार्यकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रभावकचरित तथा प्रभाचन्द्रकृत कथाकोष एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार की टीका में इनका विस्तार से वर्णन आया है। जैनधर्म के प्रभावक के रूप में इनकी महती प्रसिद्धि रही है। लुप्त आचारांग का अन्वेषण करते समय इन्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध होने का उल्लेख मिलता है। इनके बाद एक रक्षित नामक आचार्य हुए। ये दशपुर (वर्तमान मन्दसौर, म. प्र.) के राजपुरोहित के पुत्र थे। पिता को मुनिचर्या में स्थिर कराने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किये थे।
इसके बाद धरसेन, पुष्पदंत और भूतबलि नामक आचार्य आते हैं। धरसेन आचार्य ने पुष्पदन्त और भूतबलि की बुद्धिमत्ता की परीक्षा करके उन्हें महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का ज्ञान कराया था। गुरु से प्राप्त ज्ञान को पुष्पदन्त और भूतबलि ने लिपिबद्ध किया। यहीं से आगम लेखन का क्रमबद्ध इतिहास प्रारम्भ होता है। आचार्य पुष्पदंत ने सत्प्ररूपणा नामक प्रकरण की रचना की तथा भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की। षट्खण्डागम में छ: खण्डों में क्रमश: जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन छ: विषयों का विवेचन किया गया है। बाद में चलकर षट्खण्डागम पर अनेक टीकायें-व्याख्यायें लिखी जाने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं किन्तु इनमें से वीरसेनाचार्य कृत धवला टीका को छोड़कर अन्य सभी टीकायें कालकवलित हो गई हैं। वे आज हमारे समक्ष उपलब्ध नहीं हैं। धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि ये तीनों जिनशासन की प्रभावना के भूमिका रूप हैं।
जिनशासन के प्रभावक आचार्यों की ई. पू. प्रथम शताब्दी से लेकर ई. की बीसवीं शताब्दी तक एक सुदीर्घ परम्परा है। साहित्य के माध्यम से भी जैनाचार्यों ने जैनधर्म की पर्याप्त सेवा की है। इस विषय में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान् डॉ. एम. विन्टरनित्ज का कथन दृष्टव्य है-
“It was not able to do justice to the literary achievements of the Jainas. But i hope to have shown that the Jainas have contributed their full share to the religious, ethical and scientific literature of ancient India.”
विद्वान् समालोचक की इस उक्ति से स्पष्ट है कि जैनों ने साहित्य के माध्यम से भारत की अपूर्व सेवा की है। एक लघु निबन्ध में सभी जैनाचार्यों का उल्लेख किया जाना सर्वथा असंभव है अत: क्षेत्र की सीमा बनाकर हम केवल विशिष्ट प्रभावक (१) आचार्य गुणधर (२) आचार्य कुन्दकुन्द, (३) आ. उमास्वाति, (४) आ. समन्तभद्र, (५) आ. पूज्यपाद, (६) आ. अकलंक, (७) आचार्य जिनसेन, (८) आचार्य विद्यानन्द और (९) वादिराजसूरि-दशवीं शती तक के इन नौ आचार्यों का ही यहाँ संक्षिप्त विवेचन कर रहे हैं।
आचार्य गुणधर-
षट्खण्डागम दि. जैन वाङ्मय की नींव के समान है। उसी के समान महत्त्वपूर्ण एक अन्य ग्रन्थ कषायपाहुड है। कषायपाहुड के रचयिता आचार्य गुणधर हैं। इस ग्रंथ में बन्ध, संक्रमण, उदय और उदीरणा के भी पृथक् अधिकार दिये गये हैं। यह १५ अधिकारों में विभक्त है। अन्तिम चारित्रमोह क्षपणाधिकार बहुत विस्तृत है। इसमें चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय का विस्तृत विवेचन हुआ है। आचार्य गुणधर का समय वि. सं. १६ (ई. पू. ४१ वर्ष) मान्य है।
आचार्य कुन्दकुन्द-
मंगलं भगवदो वीरो मंगलं गोदमो गणी।
मंगलं कोण्डकुन्दाइ जेण्ह धम्मोत्थु मंगलं।।
मंगलाचरण के रूप में दिगम्बर जैन आम्नाय में पठनीय इस गाथा से स्पष्ट है कि द्वादशाङ्ग आगम के धारक गौतम गणधर के बाद कुन्दकुन्द को प्रधानता दी गई है। कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक प्राकृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभू, तर्कप्रधान आध्यात्मिक शैली के युगप्रधान आचार्य हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘बारस अणुपेक्खा’ में अपने नाम कुन्दकुन्द के उल्लेख के अतिरिक्त अन्य किञ्चित् भी परिचय नहीं दिया है। बोधपाहुड में उन्होंने अपने लिए भद्रबाहु का गमक शिष्य कहकर उनकी जयकार की है। आचार्य कुन्दकुन्द के टीकाकार जयसेनाचार्य एवं अमृतचन्द्राचार्य ने भी उनका लेशमात्र भी परिचय नहीं दिया है। हाँ, जयसेनाचार्य ने टीका के अन्य पद्य में समयसारकार का पद्मनन्दि नाम से उल्लेख किया है। इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में लिखा है कि पद्मनन्दि मुनि ने कुन्दकुन्दपुर में बारह हजार श्लोकप्रमाण षट्खण्डागम टीका लिखी थी। ऐसा लगता है कि उनका मूल नाम पद्मनन्दि था किन्तु ग्राम के नाम के कारण उनकी कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्धि हो गई। डा. हार्नले ने उनके पाँच नामों में पद्मनन्दि भी एक नाम माना है। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर कुन्दकुन्द का समय ईसा की द्वितीय शताब्दी माना जा सकता है।
कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रणीत ग्रन्थ इस प्रकार हैं-पवयणसार, समयसार, पंचत्थिकाय, बारस अणुपेक्खा, दंसणपाहुड, चरित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिङ्गपाहुड, सिद्धभत्ति, सुदभत्ति, चारित्तभत्ति, जोइभत्ति, आयरियभत्ति, णिव्वाणभत्ति, पंचगुरुभत्ति और तित्थयरभत्ति।
कुन्दकुन्द के विषय में विदेहगमन और गिरनार विवाद की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। विदेहगमन का देवसेन (९ – १०वीं शताब्दी) ने तथा गिरनार विवाद का शुभचन्द्र (१५१६ – १५५६ ई.) ने सर्वप्रथम उल्लेख किया है परन्तु दोनों की ही विश्वसनीयता संदिग्ध है।
आचार्य उमास्वामी-
तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वामी नाम से प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर परम्परा में उनका उल्लेख उमास्वाति नाम से हुआ है। पं. फूलचन्द्र शास्त्री तत्त्वार्थसूत्रकार का नाम गृद्धपिच्छ, श्री जुगलकिशोर मुख्तार उमास्वाति और गृद्धपिच्छ दोनों मानते हैं। १२वीं शताब्दी के पश्चाद्वर्ती अनेक शिलालेखों में उनका उल्लेख उमास्व्ााति अपरनाम गृद्धपिच्छ कहा गया है तथा उन्हें बलाकपिच्छ नामक आचार्य का गुरु कहा गया है। वादिराजसूरि ने इनका उल्लेख गृद्धपिच्छ नाम से ही किया है। एक अन्य शिलालेख में उमास्वाति के शिष्य बलाकपिच्छ का अपरनाम गृद्धपिच्छ कहा गया है। अन्यत्र वहीं गृद्धपिच्छ नामकरण का कारण बताते हुए कहा गया है कि प्राणी की रक्षा के लिए जब इन्होंने गृद्ध के पिच्छ को धारण कर लिया तबसे इनका नाम गृद्धपिच्छाचार्य प्रसिद्ध हुआ।
आचार्य उमास्वामी कुन्दकुन्द की परम्परा के थे। तत्त्वार्थसूत्र पर पंचत्थिकाय का प्रभाव देखा जा सकता है। अधिकांश पाश्चात्य विद्वान् इनका समय ईसा की द्वितीय शताब्दी मानते हैं। उमास्वामी की एकमात्र कृति तत्त्वार्थसूत्र उपलब्ध है। सूत्रशैली में लिखा गया विविध विषयों का विवेचन करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। दिगम्बर परम्परा एवं श्वेताम्बर परम्परा दोनों में ही यह समान रूप से आदृत है किन्तु सूत्रसंख्या एवं सूत्ररचना के विषय में यत्किञ्चित् मतवैभिन्य दृष्टिगोचर होता है। दिगम्बर आम्नाय में इसके पाठ का एक उपवास के बराबर फल वर्णित किया गया है-
दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति।
फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवै:।।
आचार्य समन्तभद्र-
समन्तभद्र श्रेष्ठ कवि और दर्शनशास्त्र के विलक्षण-प्रतिभासम्पन्न आचार्य हैं। जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में, अजितसेन ने अलंकार-चिन्तामणि में, वादीभसिंह सूरि ने गद्यचिन्तामणि में, वादिराजसूरि ने पार्श्वनाथचरित में इनका पुण्यस्मरण किया है।
खेद है कि समन्तभद्राचार्य का विस्तृत परिचय उपलब्ध नहीं होता है। हस्तिमल्ल ने अपने नाटक विक्रान्तकौरव की प्रशस्ति में इनका संक्षिप्त परिचय निर्दिष्ट किया है। उसके आधार पर ज्ञात होता है कि ये मूलसंघ के आचार्य थे। हस्तिमल्ल ने तो उन्हें आगामी तीर्थंकर के रूप में उल्लिखित किया है। इस उल्लेख के अनुसार समन्तभद्र को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त थी। शिवकोटि और शिवायन नामक उनके दो शास्त्रज्ञ शिष्य थे।
श्री जुगलकिशोर मुख्तार एवं डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने समन्तभद्र का समय ई. की द्वितीय शताब्दी माना है। पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य इनका समय ईसा की द्वितीय-तृतीय शताब्दी स्वीकार करते हैं। डा. के. बी. पाठक ने इनका समय ईसा की आठवीं शताब्दी स्वीकार किया है, जो सर्वथा अप्रामाणिक है। श्री मुख्तारजी ने इसका सयुक्तिक खण्डन किया है। पूज्यपाद (५वीं शताब्दी) कृत जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र का उल्लेख ही डॉ. पाठक के मत का निरसन करने के लिए पर्याप्त है।
समन्तभद्र द्वारा रचित स्वयंभूस्तोत्र, जिनशतक, देवागम, युक्त्यनुशासन एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृतटीका एवं गन्धहस्तिमहाभाष्य का उल्लेख मिलता है।
आचार्य पूज्यपाद-
श्रवणबेलगोला के एक शिलालेख में देवनन्दि के जिनेन्द्रबुद्धि और पूज्यपाद ये दो नाम और बतलाये गये हैं। कहा गया है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था। बुद्धि की महत्ता के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और उनके चरणों की पूजा देवों ने की अतएव वे पूज्यपाद नाम से प्रसिद्ध हुए। पूज्यपाद और देवनन्दि ये दो नाम तो सर्वत्र मिलते हैं किन्तु जिनेन्द्रबुद्धि भी इनका नाम रहा है, यह इस शिलालेख से जाना जाता है। जिनेन्द्रबुद्धि नामक एक प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण भी हो चुके हैं किन्तु वे इनसे सर्वथा भिन्न हैं। उन्होंने काशिका पर न्यास की रचना की थी।
पूज्यपाद ने ईसवी की दूसरी-तीसरी शताब्दी में विद्यमान आचार्य समन्तभद्र का उल्लेख किया है। दर्शनसार में कहा गया है कि आचार्य पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने ५२६ वि. सं. (४६९ ई.) में द्रविडसंघ की स्थापना की। इन आधारों पर इनका काल पाँचवीं शताब्दी के पूर्व तो है ही।
पूज्यपाद द्वारा विरचित अद्यावधि पाँच ग्रन्थ उपलब्ध हैं-
१. जैनेन्द्रव्याकरण (सर्वप्रथम जैन व्याकरण)
२. सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थसूत्र पर प्रथम दिगम्बर टीका)
३. समाधितन्त्र (अध्यात्म का शतश्लोकात्मक गंभीर एवं तान्त्रिक ग्रन्थ)
४. इष्टोपदेश (५१ श्लोक, उपदेशात्मक ग्रन्थ)
५. दशभक्ति (गंभीर शैली में सिद्ध आदि की भक्ति)
उनके अन्य अनेक ग्रन्थों की सूचना मात्र मिलती है।
भट्ट अकलंक-
अकलंक का भट्ट अकलंक के नाम से जैन न्याय के व्यवस्थापक के रूप में उल्लेख किया जाता है। भट्ट इनकी उपाधि थी और ये लघुहव्व नामक राजा के पुत्र थे। एक उल्लेखानुसार अकलंक का वि. सं. ७०० (ई. सन् ६४३) में बौद्धों के साथ वाद-विवाद हुआ था। वादिराजसूरि कृत पार्श्वनाथचरित के उल्लेख से भी इस घटना का समर्थन होता है। इस आधार पर इनका समय सातवीं शताब्दी का प्रारंभ माना जा सकता है। पं. वैâलाशचंद्र शास्त्री एवं पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य भी उनका यही समय मानते हैं। अकलंकदेव बड़े ही प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। उत्तरकालीन समस्त जैन नैयायिकों ने इन्हीं का अनुसरण किया है। इनकी भाषा अर्थबहुल एवं सूत्रात्मक और शैली ग़ूढ एवं संक्षिप्त है।
हुम्मच के शक सं. ११७८ (१२५६ ईसा) के एक शिलालेख में अकलंक के सन्यासपूर्वक शरीरत्याग करने का उल्लेख पाया जाता है।
अकलंकदेव के निम्नांकित ग्रन्थ उपलब्ध हैं-
१. तत्त्वार्थवार्तिक-न्यायवार्तिक की तरह तत्त्वार्थसूत्र पर वार्तिक एवं व्याख्या।
२. अष्टशती-देवागम (आप्तमीमांसा) की संक्षिप्त वृत्ति।
३. लघीयस्त्रय-प्रमाणप्रवेश, न्यायप्रवेश एवं प्रवचनप्रवेश इन तीन प्रवâरणों पर कारिका एवं स्वोपज्ञ वृत्ति।
४. न्यायविनिश्चय-प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम प्रमाणों पर प्रामाणिक विवेचन।
आचार्य जिनसेन-
आदिपुराणकार जिनसेन आर्यनन्दि के प्रशिष्य और वीरसेनाचार्य के शिष्य थे। दशरथ गुरु इनके सधर्मा थे। आचार्य गुणभद्र ने दशरथगुरु और जिनसेन को सूर्य एवं चन्द्र की तरह सधर्मा बताया है। वादिराजसूरि ने इनका शलाकापुरुषवर्णक के रूप में उल्लेख किया है। राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष इनका भक्त था। अन्त में अमोघवर्ष ने संभवत: जैनदीक्षा भी धारण की थी। विभिन्न शिलालेखों में जिनसेन की कीर्ति का विवेचन हुआ है। जिनसेन पंचस्तूपान्वय के आचार्य थे किन्तु गुणभद्र ने अपने को सेनान्वयी लिखा है। संभवत: पंचस्तूपान्वय ही आगे चलकर सेनान्वय कहा जाने लगा था। हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेन (७८३ ईसा) ने इनका उल्लेख किया है अत: ये उनके पूर्वकालीन या समकालीन तो हैं हीं। फलत: इनका समय ८वीं शती ई. मानना समीचीन प्रतीत होता है।
आचार्य जिनसेन के तीन ग्रंथ उपलब्ध हैं-
१. पार्श्वाभ्युदय-कालिदास कृत मेघदूत की समस्यापूर्ति।
२. जयधवला-कषायप्राभृत की वीरसेन की टीका के आगे चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका।
३. आदिपुराण-४२ पर्वों तक आदिनाथ भगवान और भरत चक्रवर्ती तक का वर्णन। आगे के अवशिष्ट शलाकापुरुषों का वर्णन उनके शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण किया है।
आचार्य विद्यानन्द-
विद्यानन्द का उल्लेख वादिराज ने अलंकार (तत्त्वार्थवार्तिकालंकार) के रचयिता के रूप में किया है। विद्यानंद ने कहीं भी आत्मपरिचय नहीं दिया है। इनकी सिद्धिविनिश्चय टीका से ज्ञात होता है कि ये बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर आदि से सुपरिचित थे। डॉ. दरबारीलाल कोठिया इसी आधार पर इनका समय ७७५-८४० ईसा निर्धारित करते हैं। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री भी इनका समय ई. की ९वीं शताब्दी मानते हैं। वादिराजसूरि से पूर्व किसी ने विद्यानंद का स्मरण नहीं किया है तथा वादिराज ने भी इनका स्मरण अकलंक के सिद्धिविनिश्चय पर लिखी गई टीका के रचयिता अनन्तवीर्य के बाद किया है अत: इनका समय वादिराज (१०२५ ईसा) से पूर्व तथा अनन्तवीर्य (१०वीं शताब्दी का प्रथम चरण) के बाद दसवीं शताब्दी मानना ही उचित होगा।
विद्यानंद द्वारा प्रणीत उपलब्ध ग्रन्थ आठ हैं-
१. आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञवृत्तिसहित
२. प्रमाणपरीक्षा
३. पत्रपरीक्षा
४. सत्यशासनपरीक्षा
५. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र
६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (तत्त्वार्थसूत्र की पद्यात्मक टीका)
७. अष्टसहस्री
८. युक्त्यनुशासन
स्याद्वादरत्नाकर में देवसूरि ने इनके ग्रन्थ ‘विद्यानन्दमहोदय’ की एक पंक्ति उद्धृत की है परन्तु यह ग्रंथ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है।
वादिराजसूरि-
जैनधर्म के विशिष्ट प्रभावक आचार्यों में वादिराजसूरि का नाम अन्यतम है। उनके सरस एकीभावस्तोत्र से धार्मिक समाज, न्यायविनिश्चय-विवरण एवं प्रमाणनिर्णय से तार्किक समाज तथा पार्श्वनाथचरित एवं यशोधरचरित से साहित्यसमाज सर्वथा सुपरिचित है। वे द्राविडसंघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ के अरुंगल नामक अन्वय के आचार्य थे। एक नन्दिसंघ यापनीय सम्प्रदाय में भी था परन्तु उससे इनका सम्बन्ध नहीं था। वादिराज सूरि ने पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित और न्यायविनिश्चयविवरण में प्रशस्ति दी है जिससे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने ग्रन्थों की रचना दशवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में की है। उनके गुरु का नाम मतिसागर था। एक शिलालेख के उल्लेखानुसार वादिराज शाकटायनव्याकरण पर रूपसिद्धि के प्रणेता दयापालमुनि के सतीर्थ थे।
अनेक शिलालेखों में वादिराज की अतीव प्रशंसा की गई है। ११२८ ईसा में लिखित मल्लिषेणप्रशस्ति में तो यहाँ तक कहा गया है कि वे जिनेन्द्र भगवान के समान हैं-
त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह।
जिनराजत: एकस्मादेकस्माद् वादिराजत:।।
सदसि यदकलंक: कीर्तने धर्मकीर्ति:, वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपाद:।
इति समयगुरूणामेकत: संगतानां, प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराज:।।
वादिराज के विषय में कुष्ठरोगाक्रान्त होने एवं एकीभावस्तोत्र के प्रणयन से दूर हो जाने की किंवदन्ती प्रचलित है। इस किंवदन्ती का सर्वप्रथम उल्लेख चन्द्रकीर्ति भट्टारक (१६२४ ई.) ने एकीभावस्तोत्र के चतुर्थ पद्य ‘‘तत् किं चित्रं जिनवपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि” की टीका करते हुए किया है। अन्यत्र मल्लिषेण-प्रशस्ति आदि में कहीं भी इसका उल्लेख नही है।