जिस काम को बार-बार करने की आदत पड़ जाती है, उसे व्यसन कहते हैं। यहाँ बुरी आदत को व्यसन कहा है अथवा दु:खों को व्यसन कहते हैं। यहाँ उपचार से दु:खों के कारणों को भी व्यसन कह दिया है। ये व्यसन सात हैं—
जुआ खेलन, मांस, मद, वेश्यागमन, शिकार।
चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार ।।
जिसमें हार-जीत का व्यवहार हो, उसे जुआ कहते हैं। यह रुपये-पैसे लगाकर खेला जाता है। यह सभी व्यसनों का मूल है और सब पापों की खान है। इस लोक में अग्नि, विष, सर्प, चोरादि तो अल्प दु:ख देते हैं किन्तु जुआ व्यसन मनुष्यों को हजारों भवों तक दु:ख देता रहता है।
उदाहरण—हस्तिनापुर के राजा धृतराज के धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर ये तीन पुत्र थे। धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए और पांडु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पांच पुत्र हुए। दुर्योधन आदि कौरव तथा युधिष्ठिर आदि पांडव कहलाते थे ये सब शामिल ही राज्य करते थे।
कुछ दिन बाद कौरवों की पांडवों के प्रति ईर्ष्या देखकर भीष्म पितामह आदि बुजुर्गों ने कौरवों और पांडवों में आधा-आधा राज्य बांट दिया किन्तु इस पर दुर्योधन आदि कौरव अशांति किया करते थे।
किसी समय कौरव और पांडव जुआ खेलने लगे, उस समय दैववश दुर्योधन से युधिष्ठिर हार गये, यहाँ तक कि अपना राज्य भी जुए में हार गये। तब दुर्योधन ने दुष्टतावश बारह वर्ष तक उन्हें वन में घूमने का आदेश दे दिया और दु:शासन ने द्रौपदी की चोटी पकड़कर घसीट कर भारी अपमान किया किन्तु शील शिरोमणि द्रौपदी का वह कुछ भी बिगाड़ न सका। पांचों पांडव द्रोपदी को साथ लेकर बारह वर्ष तक इधर-उधर घूमे और बहुत ही दु:ख उठाये। इसलिये जुआ खेलना महापाप है।
बालकों! तुम्हें भी जुआ कभी नहीं खेलना चाहिये। इससे लोभ बढ़ता चला जाता है पुन: आगे जाकर धर्म और धन दोनों का सर्वनाश हो जाता है।
कच्चे, पके हुए या पकते हुए किसी भी अवस्था में माँस के टुकड़े या अण्डे में अनंतानंत त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। यह प्रत्यक्ष में ही महािंनद्य है, अपवित्र है। इसके छूने मात्र से ही अनंत जीवों की िंहसा हो जाती है। माँस खाने वाले महापापी कहलाते हैं और अंत में दुर्गति में चले जाते हैं।
उदाहरण—किसी समय पाँचों पांडव माता कुन्ती सहित श्रुतपुर नगर में एक वणिक के यहाँ ठहर गये। रात्रि में उसकी स्त्री का करुण क्रंदन सुनकर माता कुन्ती ने कारण पूछा, उसने कहा—माता! इस नगर का बक नामक राजा मनुष्य का माँस खाने लगा था। तब नगर के लोगों ने उसे राज्य से हटा दिया। तब भी वह वन में रहकर मनुष्यों को मार-मारकर खाने लगा। तब लोगों ने यह निर्णय किया कि प्रतिदिन बारी-बारी से एक-एक घर में से एक- एक मनुष्य देना चाहिये, दुर्भाग्य से आज मेरे बेटे की बारी है।
इतना सुनकर कुन्ती ने भीम से सारी घटना बताई। प्रात: काल भीम ने उसके लड़के की बारी में स्वयं पहुँचकर बक राजा के साथ भयंकर युद्ध करके उसे समाप्त कर दिया। वह मरकर सातवें नरक में चला गया, जो कि वहाँ पर आज तक दु:ख उठा रहा है।
देखो बालकों! माँस अंडे तो क्या, शक्कर की बनी हुई मछली आदि आकार की बनी मिठाई भी नहीं खानी चाहिये, उसमें भी पाप लगता है।
गुड़, महुआ आदि को सड़ाकर शराब बनाई जाती है। इसमें प्रतिक्षण अनंतानंत सम्मूर्छन त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसमें मादकता होने से पीते ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है और न करने योग्य कार्य कर डालता है। इस मदिरापान से लोग माँस खाना, वेश्या सेवन करना आदि पापों से नहीं बच पाते हैं और सभी व्यसनों के शिकार बन जाते हैं।
उदाहरण—किसी समय भगवान नेमिनाथ की दिव्यध्वनि से श्रीकृष्ण को मालूम हुआ कि बारह वर्ष बाद शराब के निमित्त से द्वीपायन मुनि द्वारा द्वारिका नगरी भस्म हो जावेगी। तब श्रीकृष्ण ने आकर सारी मद्य सामग्री और मदिरा को गाँव के बाहर कन्दराओं में फिकवा दिया। अनंतर बारह वर्ष बीत चुके हैं, ऐसी भ्रान्तिवश कुछ दिन पहले ही द्वीपायन मुनि द्वारिका के बाहर आकर ध्यान में लीन हो गये।
इधर शंबु आदि यादव कुमारों ने वनक्रीड़ा में प्यास से व्याकुल होकर कन्दराओं में संचित मदिरा को जल समझकर पी लिया। फिर क्या था, वे सब उन्मत्त हुए आ रहे थे, मार्ग में द्वीपायन मुनि को देखकर उपसर्ग करना व बकना प्रारम्भ कर दिया।
मुनिराज ने बहुत कुछ सहन किया, अंत में उनके क्रोध की तीव्रता से तैजस पुतला निकला और धू-धू करते हुए सारी द्वारिका को भस्मसात् कर दिया।
उस समय वहाँ का दृश्य कितना करुणाप्रद्र होगा, उसका वर्णन कौन कर सकता है। मात्र श्री कृष्ण और बलभद्र ही वहां से बचकर निकल सके थे।
पाठकों! इस शराब व्यसन की हानि को पढ़कर इसका त्याग कर देना ही उचित है।
वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ रमण करना, वेश्या सेवन कहलाता है। जो कोई मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ निवास करता है वह भील, चाण्डाल आदि का झूठा खाता है, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि वेश्या इन सभी नीच लोगों के साथ समागम करती है। वेश्यागामी लोग व्यभिचारी, लुच्चे, नीच कहलाते हैं। इस भव में कीर्ति और धन का नाश करके परभव में दुर्गति में चले जाते हैं।
उदाहरण—चम्पापुरी के भानुदत्त सेठ और भार्या देविला के चारुदत्त नाम का पुत्र था। वह सदैव धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने में अपना समय व्यतीत करता रहता था। वहीं के सेठ सिद्धार्थ ने अपनी पुत्री मित्रवती का विवाह चारुदत्त के साथ कर दिया किन्तु चारुदत्त अपने पढ़ने-लिखने में इतना मस्त था कि अपनी पत्नी के पास बहुत दिन तक गया ही नहीं।
तब चारुदत्त का चाचा रुद्रदत्त अपनी भावज की प्रेरणा से उसे गृहस्थाश्रम में फंसाने हेतु एक बार वेश्या के यहां ले गया और उसे चौपड़ खेलने के बहाने वहीं छोड़कर आ गया।
उधर चारुदत्त ने वसंतसेना वेश्या में बुरी तरह फंसकर कई करोड़ की सम्पत्ति समाप्त करके घर भी गिरवी रख दिया। अंत में वसंतसेना की माता ने चारुदत्त को धन रहित जानकर रात्रि में सोते में उसको बांधकर विष्टागृह (पाखाने) में डाल दिया। सुबह नौकरों ने देखा कि सूकर उसका मुख चाट रहे हैं। तब विष्टागृह से निकालकर उसकी घटना सुनकर सब उसे धिक्कारने लगे।
देखो! वेश्यासेवन का दुष्परिणाम कितना बुरा होता है। इसलिये इस व्यसन से बहुत ही दूर रहना चाहिए।
रसना इन्द्रिय की लोलुपता से या अपना शौक पूरा करने के लिये अथवा कौतुक के निमित्त बेचारे निरपराधी, भयभीत, वनवासी पशु-पक्षियों को मारना शिकार कहलाता है। भय के कारण हमेशा भागते हुए और घास खाने वाले ऐसे मृगों को निर्दयी लोग वैâसे मारते हैं ? यह एक बड़े ही आश्चर्य की बात है! इस पाप के करने वाले मनुष्य भी अनंतकाल तक संसार में दु:ख उठाते हैं।
उदाहरण—उज्जयिनी के राजा ब्रह्मदत्त शिकार खेलने के बड़े शौकीन थे। एक दिन वन में ध्यानारूढ़ दयामूर्ति मुनिराज के निमित्त से उन्हें शिकार का लाभ नहीं हुआ। दूसरे दिन भी ऐसे ही शिकार न मिलने से राजा क्रोधित हो गया और मुनिराज आहारचर्या के लिए गये, तब उसने बैठने की पत्थर की शिला को अग्नि से तपाकर खूब गरम कर दिया।
मुनिराज आहार करके आये और उसी पर बैठ गये। उसी समय अग्निसदृश गरम शिला से उपसर्ग समझकर उन्होंने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया। उस गरम शिला से मुनिराज को असह्य वेदना हुई फिर भी वे आत्मा को शरीर से भिन्न समझते हुए ध्यान अग्नि के द्वारा कर्मों का नाश करके अन्तकृत्केवली हो गये अर्थात् ४८ मिनट के अंदर ही केवली होकर मोक्ष चले गये।
इधर सात दिन के अंदर ही राजा को भयंकर कुष्ट हो जाने से वह अग्नि में जलकर मरकर सातवें नरक में चला गया, वहाँ से निकलकर तिर्यंचगति में दु:खों को भोगकर पुन: नरक में चला गया।
देखो बालकों! शिकार खेलने का फल भव-भव में दु:ख देने वाला होता है, इसलिए इससे दूर ही रहना उचित है।
बिना दिये हुए किसी की कोई भी वस्तु ले लेना चोरी है। पराये धन को अपहरण करने वाले मनुष्य इस लोक और परलोक मेंअनेकों कष्टों को सहन करते हैं। चोरी करने वाले का अन्य मनुष्य तो क्या, खास माता-पिता भी विश्वास नहीं करते। चोर को राजाओं द्वारा भी अनेकों दण्ड मिलते हैं।
उदाहरण—बनारस में शिवभूति ब्राह्मण था, उसने अपनी जनेऊ में वैंâची बाँध ली और कहता कि यदि मेरी जिह्वा झूठ बोल दे तो मैं उसी क्षण उसे काट डालूँ इसीलिए उसका नाम सत्यघोष प्रसिद्ध हो गया था।
एक बार सेठ धनपाल पाँच-पाँच करोड़ के चार रत्न उसके पास धरोहर में रखकर धन कमाने चला गया। जहाज डूब जाने से बेचारा निर्धन हुआ सत्यघोष के पास अपने रत्न माँगने आया। सत्यघोष ने उसे पागल कहकर वहाँ से निकलवा दिया। छह महीने तक उस सेठ को रोते-चिल्लाते देखकर रानी ने युक्तिपूर्वक उसके रत्न सत्यघोष से मंगवा लिए। राजा ने सत्यघोष के लिए तीन दंड कहे—गोबर खाना या मल्लों के मुक्के खाना या सब धन देना। क्रम से वह लोभी तीनों दंड भोगकर मरकर राजा के भंडार में सर्प हो गया तथा कालांतर में अनेकों दु:ख उठाये हैं।
देखो! चोरी करना बहुत ही बुरा है। बचपन में २-४ रुपये आदि की या किसी की पुस्तक आदि की ऐसी छोटी-छोटी चोरी भी नहीं करनी चाहिये।
धर्मानुकूल अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना पर-स्त्री सेवन कहलाता है। परस्त्री की अभिलाषामात्र से ही पाप लगता है, तो फिर उसके सेवन करने से महापाप लगता ही है।
उदाहरण—एक समय श्री रामचंद्र जी, सीता और लक्ष्मण के साथ दण्डक वन में ठहरे हुए थे। वहाँ पर खरदूषण के युद्ध में रावण गया था तब उसने सीता को देखा, उसके ऊपर मुग्ध होकर युक्ति से उसका हरण कर लिया, सभी के समझाने पर भी जब नहीं माना, तब रामचंद्र ने लक्ष्मण को साथ लेकर अनेकों विद्याधरों की सहायता से रावण से युद्ध ठान दिया। बहुत ही भयंकर युद्ध हुआ।
अंत में रावण ने अपने चक्ररत्न को लक्ष्मण पर चला दिया। वह चक्ररत्न लक्ष्मण की प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ गया। लक्ष्मण ने उस समय भी रावण से कहा कि तुम सीताजी को वापस कर दो। रावण नहीं माना, तब लक्ष्मण ने चक्ररत्न से रावण का मस्तक काट डाला, वह मरकर नरक में चला गया और वहाँ पर आज तक असंख्य दु:खों को भोग रहा है।
देखो! जब पर-स्त्री की अभिलाषामात्र से रावण नरक में चला गया, तब जो पर-स्त्री सेवन करते हैं वे तो महान दु:ख भोगते ही हैं, ऐसा समझकर इन पापों से सदैव बचना चाहिये।
अभक्ष्य-जो पदार्थ भक्षण करने अर्थात् खाने योग्य नहीं होते हैं उन्हें अभक्ष्य कहते हैं। इनवेâ पाँच भेद हैं-त्रस िंहसाकारक, बहुस्थावर िंहसाकारक, प्रमादकारक, अनिष्ट और अनुपसेव्य।
(१) जिस पदार्थ के खाने से त्रस जीवों का घात होता है, उसे त्रस िंहसाकारक अभक्ष्य कहते हैं। जैसे-पंच उदुम्बर फल, घुना अन्न, अमर्यादित वस्तु जिनमें बरसात में फफून्दी लग जाती है ऐसी कोई भी खाने की चीजें, चौबीस घंटे के बाद का मुरब्बा, अचार, बड़ी, पापड़ और द्विदल आदि के खाने से त्रस जीवों का घात होता है। कच्चे दूध में या कच्चे दूध से बने हुए दही में दो दाल वाले मूंग, उड़द, चना आदि अन्न की बनी चीज मिलाने से द्विदल बनता है।
(२) जिस पदार्थ के खाने से अनन्त स्थावर जीवों का घात होता है, उसे स्थावर िंहसाकारक अभक्ष्य कहते हैं। जैसे-प्याज, लहसुन, आलू, मूली आदि कन्दमूल तथा तुच्छ फल खाने से अनंतों स्थावर जीवों का घात हो जाता है।
एक निगोदिया जीव के शरीर में अनंतानंत सिद्धों से भी अनंतगुणे जीव रहते हैं और एक आलू आदि में अनंत निगोदिया जीव हैं। इसलिये इन कन्दमूल आदि का त्याग कर देना चाहिए।
(३) जिसके खाने से प्रमाद या कामविकार बढ़ता है, वे प्रमादकारक अभक्ष्य हैं। जैसे शराब, भंग, तम्बाकू, गांजा और अफीम आदि नशीली चीजें। ये स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं।
(४) जो पदार्थ भक्ष्य होने पर भी अपने लिए हितकर न हों, वे अनिष्ट हैं। जैसे बुखार वाले को हलुवा एवं जुखाम वाले को ठण्डी चीजें हितकर नहीं हैं।
(५) जो पदार्थ सेवन करने योग्य न हों, वे अनुपसेव्य हैं। जैसे-लार, मूत्र आदि पदार्थ।
अभक्ष्य बाईस भी माने गये हैं-
ओला घोर बड़ा निशि भोजन, बहुबीजा बैंगन संधान।
बड़ पीपर ऊमर कठऊमर, पाकर फल या होय अजान।।
कंदमूल माटी विष आमिष, मधु माखन अरु मदिरापान।
फल अतितुच्छ तुषार चलित रस, ये बाईस अभक्ष्य बखान।।
ओला, दही बड़ा (कच्चे दूध से जमाये दही का बड़ा), रात्रि भोजन, बहुबीजा, बैंगन, अचार (चौबीस घण्टे बाद का) बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर, अंजानफल, (जिसको हम पहचानते नहीं, ऐसे कोई फल-फूल-पत्ते आदि), कंदमूल (मूली, गाजर, आदि जमीन के भीतर लगने वाले), मिट्टी, विष (शंखिया, धतूरा आदि), आमिष-मांस, शहद, मक्खन, मदिरा, अतितुच्छ फल (जिसमें बीज नहीं पड़े हों, ऐसे बिल्कुल कच्चे छोटे-छोटे फल) तुषार-बर्फ और चलित रस (जिनका स्वाद बिगड़ जाये, ऐसे फटे हुये दूध आदि) ये सब अभक्ष्य हैं।
मक्खन भी अभक्ष्य है, क्योंकि दही बिलौने के बाद मक्खन को निकालकर ४८ मिनट के अंदर ही गर्म कर लेना चाहिये, अन्यथा वह अभक्ष्य हो जाता है। अथवा कच्चे दूध से भी जो यन्त्र से मक्खन निकाला जाता है, उसमें भी कच्चे दूध की मर्यादा के अन्दर मक्खन निकालकर जल्दी से गर्म करके घी बना लेना चाहिये।
बाजार की बनी हुई चीजों में मर्यादा आदि का विवेक न रहने से, अनछने जल आदि से बनाई होने से वे सब अभक्ष्य हैं। अर्क, आसव, शर्बत आदि भी अभक्ष्य हैं। चमड़े में रखे घी, हींग, पानी आदि भी अभक्ष्य हैं। इसलिए इन अभक्ष्यों का त्याग कर देना चाहिये।