१.१ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से निवृत्त होने हेतु जो संकल्प (नियम) लिया जाता है, वह व्रत है। यह दो प्रकार का होता है (१) श्रावकों के लिए अणुव्रत (या एकदेश व्रत) और साधुओं के लिए महाव्रत (या सर्वदेश व्रत)। जो व्रतों से युक्त है, वह व्रती कहलाता है।
ये व्रती दो प्रकार के होते हैं-
१. अगारी-‘अगार’ मकान/घर को कहते हैं। जो श्रावक घर-गृहस्थ के ममत्व सहित है, वह अगारी कहलाता है। इन्हें सागार भी कहते हैं।
२. अनगार-महाव्रतधारी, घर-गृहस्थी के ममत्व से रहित निस्पृही साधु अनगार कहलाता है।
गृहस्थों का चारित्र १२ भेद रूप कहा गया है। ये १२ भेद हैं-५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत।
इन बारह व्रतों का पृथक्-पृथक् लक्षण एवं उनके अतिचारों का वर्णन रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रंथ के अनुसार दिया जा रहा है-
अणुव्रत का लक्षण
प्राणातिपातवितथ – व्याहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्य:।
स्थूलेभ्य: पापेभ्यो, व्युपरमणमणुव्रतं भवति।।५२।।
हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों पापों का स्थूल रूप से त्याग करना अणुव्रत है। जो अणुव्रतों को धारण करते हैं वे नियम से देवगति में ही जन्म लेते हैं। नरक तिर्यंच और मनुष्य गति में जन्म नहीं ले सकते हैं।
अहिंसा अणुव्रत
सज्र्ल्पात्कृतकारित-मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान्।
न हिनस्ति यत्तदाहु:, स्थूलबधाद्विरमणं निपुणा:।।५३।।
मन वचन काय को कृत कारित अनुमोदना से गुणा करने पर नव भेद होते हैं। जो इन नव कोटि से संकल्प पूर्वक त्रसजीवों की हिंसा नहीं करते हैं। वे स्थूल रूप से त्रसहिंसा से विरत होने से अहिंसा अणुव्रती कहलाते हैं। गणधर देव इसे ही श्रावक का पहला व्रत कहते हैं।
अहिंसा अणुव्रत के अतिचार
छेदनबन्धनपीडन – मतिभारारोपणं व्यतीचारा:।
आहारवारणापि च, स्थूलवधाद् व्युपरते: पञ्च।।५४।।
पशु आदि के नाक कान आदि अंगों का छेदन करना, मजबूत साँकल आदि से बांधना, बेंत आदि से पीटना, उन पर शक्ति से अधिक भार लादना और उन्हें समय पर भोजन पानी न देना। अहिंसा अणुव्रत के ये पांच अतिचार कहे जाते हैं।
सत्याणुव्रत
स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सम्यमपि विपदे।
यत्तद्वदन्ति सन्त:, स्थूलमृषावाद-वैरमणम्।।५५।।
स्थूल झूठ न स्वयं बोलना, न दूसरों से बुलवाना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जो दूसरों को विपत्ति देने वाला हो जावे, उसे गणधर देव सत्य अणुव्रत कहते हैं। जो मनुष्य सत्यव्रती होते हैं वे सभी के विश्वास पात्र रहते हैं।
सत्याणुव्रत के अतिचार
परिवाद-रहोभ्याख्या-पैशून्यं कूटलेखकरणं च।
न्यासापहारितापि च, व्यतिक्रमा: पञ्च सत्यस्य।।५६।।
झूठा उपदेश देना, अन्यों की एकांत की गुप्त क्रियाओं को प्रगट करना, पर की चुगली निन्दा करना, झूठे लेख दस्तावेज आदि लिखना और यदि कोई धरोहर की संख्या को भूल जावे तो उसे उतनी ही कहकर बाकी हड़प लेना, सत्याणुव्रत के ये पांच अतिचार होते हैं। सत्यव्रती इन्हें छोड़ देते हैं।
अचौर्याणुव्रत
निहितं वा पतितं वा, सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम्।
न हरति यन्न च दत्ते, तदकृशचौय्यादुपरिमणम्।।५७।।
पर की वस्तु रखी हुई, गिरी हुई या भूली हुई हो ऐसी पर वस्तु को बिना दिए न स्वयं लेना न दूसरों को देना अचौर्य अणुव्रत कहलाता है। इस व्रत के धारी सर्वजन के विश्वासी होते हैं। और पर धन त्याग व्रत के प्रभाव से वे नवनिधियों के भी स्वामी हो जाते हैं।
अचौर्याणुव्रत के अतिचार
चौरप्रयोगचौरार्था – दानविलोपसदृशसन्मिश्रा:।
हीनाधिकविनिमानं, पञ्चास्तेये व्यतीपाता:।।५८।।
चोरी करने का उपाय बतलाना, चोरी का धन ग्रहण करना, राजा की आज्ञा का उल्लघंन करना, किसी वस्तु में उसकी सदृश अन्य वस्तु की मिलावट कर देना और तोलने के बांट हीन—अधिक रखना ये अचौर्य अणुव्रत के पांच अतिचार हैं, जो कि इस व्रत को मलिन करने वाले हैं।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत
न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीते-र्यत्।
सा परदार-निवृत्ति:, स्वदारसन्तोषनामापि।।५९।।
जो पाप के डर से हर स्त्री के साथ काम भोग न स्वयं करते हैं न ऐसा दुष्चरित्र अन्य से ही करवाते हैं। अपनी स्त्री में ही संतोष रखते हैं वे कुशील त्यागी मनुष्य शील धुरधंर व्रती ब्रह्मचर्य अणुव्रत के धारी होते हैं। ऐसे ही महिलायें भी पर पुरुष के त्याग रूप व्रत का पालन करके अपने दोनों कुलों का यश पैâलाने वाली होती है।
ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार
अन्यविवाहाकरणा – नङ्गक्रीडाविटत्वविपुलतृष:।
इत्वरिकागमनं, चास्मरस्य पञ्च व्यतीचारा:।।६०।।
पर का विवाह करवाना, अनंग क्रीड़ा, काम सेवन से अतिरिक्त अंगों से कुचेष्टा करना, अश्लील वचन बोलना, मैथुन सेवन की अति इच्छा रखना और व्यभिचारिणी स्त्रियों के यहां आना जाना, ये पांच ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार हैं। इनको त्याग करके इस पवित्र व्रत की रक्षा करनी चाहिए।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत
धनधान्यादिग्रन्थं, परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता।
परिमितपरिग्रह: स्या-दिच्छापरिमाणनामापि।।६१।।
खेत, मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य, कपास वगैरह और भांड बर्तन आदि इन दस प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करके फिर उससे अधिक नहीं चाहना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। इस व्रत के धारी घर में रहकर ही संतोषी होते हैं अत: वे ही सुखी हैं।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत के अतिचार
अतिवाहना-तिसङ् ग्रह-विस्मयलोभातिभारवहनानि।
परिमितपरिग्रहस्य च, विक्षेपा: पञ्च लक्ष्यन्त्ो।।६२।।
वाहन आदि परिग्रह अधिक रखना, वस्तुओं का अति संग्रह करना, पर के वैभव को देखकर आश्चर्य करना, धन का लोभ अधिक रखना और पशुओं पर शक्ति से अधिक भार लादना, परिग्रह परिमाण अणुव्रत के ये पांच अतिचार हैं इनको त्यागने से ही निर्दोष व्रती होते हैं।
पञ्चाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणा: फलन्ति सुरलोकम्।
यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते।।६३।।
निधिस्वरूप ये पांच अणुव्रत यदि निरतिचार पाले जाते हैं तो ये नरक पशु और मनुष्य गति से रहित देवपद को प्राप्त कराते हैं। फिर वहां वे देव दिव्य वैक्रियिक शरीर अणिमा महिमा आदि आठ ऋद्धियां और अवधिज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तथा कई सागर तक दिव्यसुखों का उपभोग करते हैं।
पंचाणुव्रत में प्रसिद्ध नाम
मातङ्गो धनदेवश्च, वारिषेणस्तत: पर:।
नीली जयश्च सम्प्राप्ता: पूजातिशयमुत्तमम्।।६४।।
अहिंसा अणुव्रत पालन कर यमपाल चांडाल देवों द्वारा मान्यता को प्राप्त हुआ है। सत्य अणुव्रत में धनदेव ने, अचौर्य अणुव्रत में वारिषेण ने नाम पाया है। नीलीसती ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत पालन कर देवों द्वारा अतिशय प्राप्त किया है और जयकुमार ने परिग्रह का परिमाण करके जगत में अपना नाम धन्य किया है।
धनश्रीसत्यघोषौ च, तापसारक्षकावपि।
उपाख्येयास्तथा श्मश्रु-नवनीतो यथाक्रमम्।।६५।।
हिंसा पाप में धनश्री, झूठ में सत्यघोष पुरोहित बदनाम हुये हैं। चोरी पाप में अपसर नामा तापसी ने अपने तप को कलंकित किया है, यमदण्ड नामक कोतवाल ने पर स्त्री सेवन के पाप से अपयश पाया है और श्मश्रुनवनीत इस उपनाम को धारण करने वाला लुब्धदत्त सेठ परिग्रह के पाप से दुर्गति में गया है।
श्रावक के आठ मूलगुण
मद्यमांसमधुत्यागै:, सहाणुव्रतपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहु-र्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।।६६।।
मदिरा मांस और शहद का त्याग करके पांच अणुव्रतों का पालन करना ये आठ मूलगुण हैं जो कि गृहस्थों के लिए कहे गए हैं। जिस प्रकार मूल जड़ के बिना वृक्ष नहीं हो सकता उसी प्रकार इन मूलगुणों के बिना कोई भी मनुष्य श्रावक नहीं हो सकता है, ऐसा समझना।