दिग्व्रतमनर्थदण्ड, व्रतं च भोगोपभोग-परिमाणं।
अनुवृंहणाद् गुणाना-माख्यान्ति गुणव्रतान्यार्या:।।६७।।
जो मूलगुणों की वृद्धि करते हैं और दृढ़ करते हैं श्री गणधरदेव उन्हें गुणव्रत कहते हैं। उसके दिग्व्रत, अनर्थदण्डविरतिव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत भेद हैं। इन तीनों का जो पालन करते हैं वे जगत में अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं।
विशेष-पं. श्री दौलत राम कृत छहढाला में दिग्व्रत, देशव्रत एवं अनर्थदण्डविरतिव्रत रूप तीन गुणव्रत माने गये हैं। उन्होंने भोगोपभोगपरिमाणव्रत को शिक्षाव्रत में लिया है।
यहाँ आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी रचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार वर्णन दिया जा रहा है-
दिग्वलयं परिगणितं, कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि।
इति सज्र्ल्पो दिग्व्रत-मामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै।।६८।।
दशों दिशाओं की सीमा करके जीवन भर उसके बाहर नहीं जाना। मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नहीं जाऊँगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत है। वह दिग्व्रती मर्यादा के बाहर में सूक्ष्म पाप से भी बच जाता है। अत: घर में रहते हुए भी शान्ति लाभ करता है।
मर्यादा की विधि
मकराकरसरिदटवी-गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:।
प्राहुर्दिशां दशानां, प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि।।६९।।
समुद्र नदी वन पर्वत शहर या ग्राम आदि स्थानों द्वारा, भोजन या कोश प्रमाण से मर्यादा कर लेना। चार दिशा, चार विदिशा, ऊपर और नीचे सुरंग आदि में कुछ सीमा निर्धारित कर लेना यह दिग्व्रत है।
अवधे-र्बहिरणुपाप-प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयतां।
पञ्च महाव्रतपरिणति-मणुव्रतानि प्रपद्यन्ते।।७०।।
दिग्व्रती श्रावक के इस मर्यादा के बाहर अणुमात्र भी पाप नहीं होता है। इसलिये उसके पांचों अणुव्रत सीमा के बाहर में पांच महाव्रतरूप से परिणत हो जाते हैं।
दिग्व्रती के मर्यादा के बाहर उपचार से महाव्रत होने का कारण
प्रत्याख्यानतनुत्वात्, मन्दतराश्चरणमोहपरिणामा:।
सत्त्वेन दुरवधारा, महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते।।७१।।
प्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद हो जाने से चारित्रमोह के परिणाम भी मंदमंद हो जाते हैं। यद्यपि उस दिग्व्रती की ये कषायें विद्यमान हैं इनका अस्तित्व मौजूद है फिर भी मर्यादा के बाहर पाप का लेश न होने से वह अणुव्रत महाव्रत सदृश हो जाते हैं। यह कथन उपचार से माना गया है।
महाव्रत का लक्षण
पञ्चानां पापानां, हिंसादीनां मनोवच: कायै:।
कृतकारितानुमोदै-स्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्।।७२।।
हिंसा झूठ चोरी मैथुन और परिग्रह इन पांचों पापों का मन वचन काय और कृतकारित अनुमोदना रूप नवकोटि से सम्पूर्णतया त्याग कर देना महाव्रत है इन्हें महापुरुष ही धारण करते हैं।
दिग्व्रत के अतिचार
ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्-व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्।
विस्मरणं दिग्विरते-रत्याशा: पञ्च मन्यन्ते।।७३।।
ऊर्ध्वभाग की मर्यादा का उलंघन कर देना, अधोभाग की मर्यादा उलंघन करना, तिर्यकभाग की मर्यादा का उलंघन करना, क्षेत्रों की सीमा बढ़ा लेना, और की हुई मर्यादा को भूल जाना, ये पांच अतिचार दिग्व्रत के माने गये हैं।
अभ्यन्तरं दिग्वधे-रपार्थिकेभ्य: सपापयोगेभ्य:।
विरमणमनर्थदण्डव्रतं, विदु-र्व्रतधराग्रण्य:।।७४।।
दशों दिशाओं में जो मर्यादा की है उसके भीतर—भीतर में बिना प्रयोजन ही मन वचन काय से जो पाप होते रहते हैं उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं। उनका जो रुचि से त्याग करते हैं गणधरदेव उसे अनर्थदण्डविरतिव्रत कहते हैं।
अनर्थदण्ड के भेद
पापोपदेशहिंसा – दानापध्यान – दु:श्रुती: पञ्च:।
प्राहु: प्रमादचर्या – मनर्थदण्डानदण्डधरा:।।७५।।
पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या ये पांच अनर्थ दण्ड हैं। इनसे सदा पाप का ही आस्रव होता रहता है। तीनों योगों को वश में करने वाले श्री गणधर आदि साधुओं ने ऐसा कहा है।
पापोपदेश का लक्षण
तिर्यक्क्लेशवणिज्या – हिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्।
प्रसव: कथाप्रसङ्ग: स्मर्तव्य:, पाप उपदेश:।।७६।।
तिर्यक््âवणिज्या—तिर्यचों के व्यापार का उपदेश देना, क्लेशवणिज्या—दास—दासी आदि के क्लेशकारी व्यापार का उपदेश देना, हिंसोपदेश—हिंसा के कारणों का उपदेश देना, आरंभोपदेश—बाग लगाने अग्नि जलाने आदि आरम्भ कार्यों का उपदेश देना, प्रलभोपदेश—ठग विद्या, इन्द्रजाल आदि कार्यों का उपदेश देना। ये सब पापोपदेश अनर्थदण्ड हैं।
हिंसादान अनर्थदण्ड
परशुकृपाणखनिन्न-ज्वलनायुधशृङ्गशृङ्खलादीनाम्।
बधहेतूनां दानं, हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधा:।।७७।।
हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, अनेक प्रकार के शस्त्र, सींगी, विष, सांकल आदि वस्तुओं का देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड कहलाता है।
अपध्यान अनर्थदण्ड
वधबन्धच्छेदादे – र्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादे:।
आध्यानमपध्यानं, शासति जिनशासने विशदा:।।७८।।
पर के स्त्री, पुत्र, मित्र आदि का अनिष्ट हो जावे, वे मर जावें, इनको कोई बांध दे, मार दे, काट दे, इनकी हार हो जावे, इत्यादि प्रकार से राग या द्वेष की भावनावश अन्य के प्रति ऐसा चिंतन करना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है, ऐसा जिन शासन में कुशल जनों ने कहा है।
दु:श्रुति अनर्थदण्ड
आरम्भसङ्गसाहस – मिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनै:।
चेत: कलुषयतां श्रुति-रवधीनां दु:श्रुतिर्भवति।।७९।।
आरंभ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मद और कामभोग लोभ आदि से मन को मलिन करने वाले ऐसे शास्त्रों का—पुस्तकों का सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दु:श्रुत्िा नाम का अनर्थदण्ड है।
प्रमादचर्या अनर्थदण्ड
क्षितिसलिलदहनपवना-रम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्।
सरणं सारणमपि च, प्रमादचर्य्यां प्रभाषन्ते।।८०।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का बिना कारण ही आरम्भ करना अर्थात् बिना प्रयोजन ही भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि को छेदन भेदन करना, व्यर्थ ही इधर उधर घूमना या अन्य का घुमाना ये सब प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है।
अनर्थदण्डविरतिव्रत के अतिचार
कन्दर्पं-कौत्तकुच्यं, मौखर्य-मतिप्रसाधनं पञ्च।
असमीक्ष्याधिकरणं, व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरते:।।८१।।
हास्य मिश्रित अश्लील वचन बोलना, काय की कुचेष्टा करते हुये अश्लील वचन बोलना, धृष्टता सहित बकवास करना—व्यर्थ ही बहुत बोलना, आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग वस्तुओं का संग्रह करना और बिना विचारे कार्य करना ये कंदर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, अतिप्रसाधन और असमीक्ष्याधिकरण नाम के पाँच अतिचार अनर्थदण्डविरतिव्रत के माने गये हैं।
अक्षार्थानां परिसंख्यानं, भोगोपभोगपरिमाणम्।
अर्थवतामप्यवधौ, रागरतीनां तनूकृतये।।८२।।
परिग्रह परिमाण व्रत में जीवन भर के लिए जो नियम किया था, राग आसक्ति को घटाने के लिए उसी के भीतर भी पंचेन्द्रियों के विषयभूत वस्तुओं का नियम करते रहना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इस व्रत के प्रयोजन से अतिरिक्त वस्तुओं का त्याग हो जाता है।
भोग—उपभोग के लक्षण
भुक्त्वा परिहातव्यो, भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य:।
उपभोगोऽशनवसन-प्रभृति: पाञ्चेन्द्रियो विषय:।।८३।।
जो एक बार भोगकर छोड़ दी जाती हैं वह भोग कहलाती हैं और जो भोगकर पुन: भोगने में आती है वह उपभोग है। जैसे, भोजन, गंध आदि भोग हैं और वस्त्र, आभूषण आदि उपभोग हैं।
सर्वथा त्याज्य पदार्थ
त्रसहतिपरिहरणार्थं, क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये।
मद्यं च वर्जनीयं, जिनचरणौ शरणमुपयातै:।।८४।।
त्रस जीवों की हिंसा के परिहार हेतु मधु और मांस का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए। तथा त्रसहिंसा और प्रमाद के दूर करने के लिए मदिरा को छोड़ देना चाहिए। जिसने जिनेन्द्रदेव के चरणों की शरण ली है उस श्रावक को जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार इन तीनों मकारों का त्याग जीवन भर के लिए कर देना चाहिये।
अन्य त्याज्य पदार्थ
अल्पफलबहुविघाता-न्मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि।
नवनीतनिम्बकुसुमं, वैâतकमित्येवमवहेयम्।।८५।।
जिसके खाने में फल थोड़ा है और स्थावर हिंसा बहुत होती है ऐसी मूली आलू आदिक कंदमूल, गीली अदरक, मक्खन, नीम के पुष्प, केवड़ा के पुष्प आदि को छोड़ देना चाहिए। क्योंकि इनके भक्षण में पाप अधिक होने से व्रतिक जन इनको नहीं लेते हैं।
यदनिष्टं तद् व्रतये-द्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्।
अभिसन्धिकृताविरति-र्विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति।।८६।।
जो वस्तुयें अनिष्ट हैं—हितकर और पथ्य नहीं हैं, जो अनुपसेव्य—सज्जन पुरुषों के सेवन योग्य नहीं हैं, इन दोनों को भी छोड़ देना चाहिए। क्योंकि योग्य विषयों में भी प्रतिज्ञापूर्वक किया गया त्याग व्रत कहलाता है।
यम और नियम
नियमो यमश्च विहितौ, द्वेधा भोगोपभोगसंहारे।
नियम: परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते।।८७।।
भोगोपभोग के विषयों के त्याग में नियम और यम ऐसे दो भेद होते हैं। किसी भी वस्तु का कुछ काल के लिए त्याग करना नियम है और जीवन भर के लिए त्याग कर देना यम कहलाता है।
भोजन-वाहन-शयन-स्नान-पवित्राङ्गरागकुसुमेषु।
ताम्बूलवसनभूषण – मन्मथसङ्गीत – गीतेषु।।८८।।
अद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथर्तुरयनं वा।
इति कालपरिच्छित्या, प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।।८९।।
भोजन, वाहन, शय्या, स्नान, पवित्र अंग में सुगन्धित गंध माला आदि तथा तांबूल—पान, वस्त्र, आभूषण, कामभोग, संगीतश्रवण, गीत नाटक आदि ये सभी भोगोपभोग सामग्री हैं। इनमें से सभी का, किसी एक दो आदि विषयों का, कुछ दिन की मर्यादा से नियम करना। जैसे कि आज एक दिन या रात्रि, पन्द्रह दिन, महिना, दो महिना, छ: महिना आदि की अवधि से इनका त्याग करना नियम है। जैसे भी हो सके वैसे इन विषयों में लालसा को घटाना ही इस व्रत का हेतु है।
भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार
विषयविषतोऽनुपेक्षा-नुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवो।
भोगोपभोगपरिमा-व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।।९०।।
इन विषयरूपी विष का सेवन कर इनकी उपेक्षा नहीं करना सो विषयविषानुपेक्षा नामक अतिचार है। भोगे हुए विषयों का पुन: स्मरण करना, भोगों के भोगने पर पुन: भोगने की इच्छा रखना, भविष्य में भी भोगों की अति इच्छा रखना और तात्कालिक भोग वस्तुओं का सेवन करते हुए अति आसक्ति रखना, ये पांच इस भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं। गुणव्रती श्रावक इनको छोड़ देते हैं।