क्षेत्र नाम स्थान का है । किस गुणस्थान तथा मार्गणा स्थान आदि वाले जीव इस लोक में कहाँ तथा कितने भाग में पाए जाते हैं वह क्षेत्र के अन्तर्गत होता है। जिसमें पुद्गलादि द्रव्य निवास करते है उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं ।
मध्यलोकस्थ एक –एक द्वीप में भरत आदि अनेक क्षेत्र हैं जो वर्षधर पर्वतों के कारण एक दूसरे से विभक्त हैं।
जीव के पंच परिवर्तन के प्रकरण में पंच परिवर्तन में एक क्षेत्र परिवर्तन है जिसकी परिभाषा है- लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके है। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद है-स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन । छोटी अवगाहन से लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओं को धारण करने में जितना काल लगता है उसे स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ और श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोगकर मरण को प्राप्त हुआ । पीछे एक-२ प्रदेश बढ़ाते-२ सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म क्षेत्र बना ले यह परक्षेत्र परिवर्तन है।