ऋण का अर्थ है कर्ज लेना। किसी व्यक्ति विशेष को धनाभाव, गरीबी होने से, आजीविका का पूर्णत: पालन न होने से सेठ साहूकार या किसी परिचित से कर्ज लिया जाता है जो कि ऋण कहलाता है।
नीतिकारों का कहना है कि ऋण लेकर व्यक्ति कुछ समय तो अपनी आजीविका का सहारा पा जाता है परन्तु कभी-२ ऋण को न चुका पाने के कारण वह कर्ज के बोझ से दबकर सभी के लिए हेय दृष्टि का पात्र हो जाता है। साथ ही ऋण की चिन्ता से उसका दिन का चैन और रात की नींद उड़ जाती है अत: कभी भी उतने लम्बे पैर नहीं फैलाना चाहिए जितनी बड़ी चादर न हो अर्थात् अपनी सामर्थ्य के अनुसार चलते हुए ही अपनी आजीविका चलाना चाहिए । उस क्षणिक किन्तु आगामी दुखदायी सुख से सूखी रोटी नमक खाकर रहना भला है क्योंकि ‘चिन्ता चिता समान होती है।